वैवाहिक जीवन होगा सुखमय तो घर में आयेगी दिव्य संतान
हिन्दू धर्म में जो सोलह संस्कार हैं, उनमें से तेरहवाँ संस्कार है – विवाह संस्कार जिसे ‘पाणिग्रहण संस्कार’ भी कहते हैं । विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि+वाह जिसका शाब्दिक अर्थ है- “विशेष (उत्तरदायित्व) का वहन करना”।
हिन्दू धर्म में पत्नी के साथ धर्म को जोड़कर उसे धर्मपत्नी कहा है । उसे पति की वामांगी कहा गया है, यानी कि शरीर का बांया हिस्सा । साथ ही पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पति के शरीर का आधा अंग । दोनों शब्दों का सार एक ही है, जिसके अनुसार पत्नी के बिना एक पति अधूरा है । दोनों मिलकर ही पूर्ण है । पति-पत्नी एक दूसरे के सहधर्मी और जीवन सहचर है । अत: उनमें संघर्ष के लिए न तो स्थान है और न ही अवसर ।
गृहस्थ जीवन भी बन सकता है ऋषि जीवन
गृहस्थ धर्म के सुंदर नियमों का पालन करके आप भी अपने जीवन को शिव और पार्वती, लक्ष्मी- नारायण, श्रीराम और सीता वशिष्ठजी और माता अरुंधती, अत्रि ऋषि और सती अनुसूया, गौतम ऋषि और अहिल्या, याज्ञवल्क्यजी और मैत्रेयी तथा सावित्री और सत्यवान की भांति ऋषि जीवन बना सकते हैं ।
पत्नी धर्म –
जब एक शादीशुदा स्त्री अपने पति से जुड़ी हर जिम्मेवारी और कर्तव्य को निष्ठा और प्रेमपूर्वक से निभाती हैं उसे ही पत्नी धर्म कहा जाता है । पत्नी का कर्तव्य है कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे, वह ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो ।
Ø गरुड़ पुराण में आता है –
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा । सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।
अर्थात् जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो मधुरभाषिणी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है ।
Ø गृहकार्य में दक्ष से तात्पर्य है
· घर के कामकाज संभालनेवाली जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना आदि
· घर के सदस्यों का आदर-सम्मान करनेवाली, बड़े से लेकर छोटों का ख्याल रखनेवाली, घर के सदस्यों की निंदा ना करनेवाली, घर आए अतिथियों का मान-सम्मान करनेवाली
· कम संसाधनों में भी गृहस्थी को अच्छे से चलानेवाली, घर की परिस्थिति से विरुद्ध जिसकी कोई मांग ना हो
Ø मृदुभाषिणी से तात्पर्य है
· मधुर बोलनेवाली, संयमित भाषा में बात करनेवाली, धीरे-धीरे बोलनेवाली हो
Ø पतिपरायणा से तात्पर्य है
· अपने पति को ही सब कुछ मानती हो, कभी भी अपने पति के बारे में बुरा ना सोचती हो
एक सद्गृहस्थ स्त्री को अधिक उपवास नहीं करने चाहिए, बाल नहीं कटवाने चाहिए, आधुनिक अपवित्र पदार्थों से बने सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग नहीं करना चाहिए और मासिक धर्म के नियमों का पालन करना चाहिए ।
आदर्श पति
पति को भी सदैव याद रखना चाहिए कि पत्नी मित्र है, अर्धांगिनी है; दासी नहीं । उसके द्वारा स्वेच्छा से वरण किया गया स्वामी का दासत्व तो उसके सतीत्व की शोभा है, उसका श्रृंगार है, पति का अधिकार नहीं । उसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि जिससे पत्नी का अपमान हो, उसे दु:ख या आघात पहुँचे ।
पत्नी के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए ।
पत्नी के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए । उसे कम नहीं आंकना चाहिए । घर संबंधी कार्यों में उसकी सलाह लेनी चाहिए ।
पति को धैर्यवान और परिपक्व होना चाहिए ताकि विपरीत परिस्थितियों में सही निर्णय ले सके ।
आवश्यकता पड़ने पर पत्नी की सेवा करने में संकोच नहीं करना चाहिए ।
पत्नी से कोई गलती हो जाए तो डांटे नहीं, वरन समझाए । उसे नीचा ना दिखाए, हाथ तो कदापि ना उठाना चाहिए ।
पत्नी को आश्रम, संत दर्शन या तीर्थयात्रा में साथ लेकर जाना चाहिए ।
पत्नी को मायके से चीज, वस्तु या धन आदि लाने के लिये विवश नहीं करना चाहिए ।
दोनों को सदैव ध्यान रखना चाहिए कि
एक दूसरे के मन के प्रतिकूल कार्य न करें, साथ ही एक दूसरे के मन के अनुकूल पाप कर्म ना करें । एक दूसरे को संयम में सहयोग दें । संतान प्राप्ति के अलावा यथासंभव ब्रह्मचर्य का पालन करें । सदैव याद रखें कि भोगों से कभी सच्चा सुख नहीं मिल सकता ।
एक दूसरे के दोष ना देखकर, गुण की और ही देखें, दोष आगंतुक है उन्हें दूर किया जा सकता है ।
एक चुप, सौ सुख । एक के कारण से कलह नहीं हो सकता । और एक बात सदैव याद रखें कि कुंडली के 36 गुण तो आज तक भगवान शिव और माता पार्वती के अतिरिक्त कभी भी किसी के नहीं मिल सके हैं ।
एक-दूसरे के माता-पिता के प्रति सम्मान की भावना रखें ।
अपने संबंध के प्रति ईमानदार रहें ।
दोनों काधर्म में विश्वास होना चाहिये क्योंकि यदि दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के होंगे तभी अपनी सन्तान को भी धर्म की शिक्षा दे सकेंगे । एक-दूसरे की श्रद्धा-धर्म-साधना में बाधक ना बनें ।
एक दूसरे पर व्यर्थ संदेह ना करें, लेकिन परस्पर छल-कपट का व्यवहार भी ना करें ।
घर छोड़ने की बात ना सोचें, तलाक का विचार ना करें, डिवोर्स/तलाक हमारी संस्कृति नहीं है ।
सुखमय वैवाहिक जीवन के कुछ सरल उपाय
पूज्य बापूजी कहते हैं-
भगवन्नाम या गुरुमंत्र का जप, भगवद्-सुमिरन करते हुए अथवा भगवन्नाम-कीर्तन सुनते हुए भोजन बनाना चाहिए ।
भोजन करने के पहले, भोजन बनाने के पहले तथा भोजन परोसते समय भी प्रसन्न रहना चाहिए और कम-से-कम 4 बार नर-नारी के अंतरात्मा ‘नारायण’ का उच्चारण करना चाहिए ।
रात को सोते समय कभी भी थकान का भाव अथवा चिंता को साथ में लेकर नहीं सोना चाहिए, जप करते-करते सोने से आपके वे 6 घंटे योगनिद्रा हो जायेंगे ।
घर पर अतिथि आ जाय तो उसे आत्मीय दृष्टि से देखें, उठकर उसे आसन दें, मन से उसके प्रति उत्तम भाव रखें, मधुर वचन बोलें । उसकी यथायोग्य सहायता करें ।
पति-पत्नी में झगडे हो रहे हों तो दोनों पार्वतीजी को तिलक करके उनकी ओर एकटक देखें और प्रार्थना करें ।
घर में टूटी-फूटी या अग्नि से जली हुई प्रतिमा देव-मंदिर में नहीं रखनी चाहिए । इससे ग्रह स्वामी के मन में उद्वेग होता है ।
स्त्री को प्रतिदिन तुलसीजी में सुबह जल चढ़ाना चाहिए और संध्या के समय दीपक जलाना एक प्रदक्षिणा करनी चाहिए ।
पति-पत्नी घर के ईशान कोण में साथ बैठकर पूजा करनी चाहिए । इससे उनके संबंधों में मधुरता आएगी ।
नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम दिशा के मध्य) में स्थित कोने में बने कमरों का शयन कक्ष के रूप में इस्तेमाल करें । इससे दंपति के बीच प्रेम व सौहार्द्र बढ़ता है ।
प्रतिदिन प्रथम रोटी गाय के लिये बनानी चाहिए और गौमाता को सप्रेम खिलानी चाहिए ।
घर के आपसी झगड़े मिटाने हों तो एक लोटा पानी पलंग के नीचे या खाट के नीचे रख दो । सुबह उस जल को तुलसी या पीपल की जड़ में डाल दो ।
सप्ताह में एक बार पानी में खड़ा नमक डालकर उस पानी से घर में पोंछा करें । इससे घर में से नकारात्मक ऊर्जा चली जाती है और सकारात्मक ऊर्जा आती है ।
घर के लोग रसोईघर में बैठकर एक साथ भोजन करें, इससे घर के झगड़े मिट जायेंगे और सफलता मिलती है ।
कामकाज करने जाते हैं और सफलता नहीं मिलती तो दायाँ पैर पहले आगे रखकर फिर जायें ।
देशी गाय के खुर की धूलि से ललाट पर तिलक करने से सफलता मिलती है ।
परिवार सहित बैठकर हे प्रभु ! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए… पाठ करने से घर और आपका वैवाहिक जीवन आनंद से भर जायेगा और सुखमय हो जायेगा और आपकी आनेवाली संतान की दिव्यता में क्या संदेह ?
सभी पाठक दंपत्ति यह दिव्य संकल्प अवश्य दोहराएं : हम दोनों आज से यह संकल्प करते हैं कि हम अपने जीवन को, एक दूसरे के जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करेंगे, एक दूसरे के लिये उद्योगी, उपयोगी और सहयोगी होकर रहेंगे, संयमी जीवन जियेंगे, हमारी प्राचीन भारतीय सनातन संस्कृति के सुंदर सिद्धांतों को जीवन में अपनाएंगे ताकि हम अपनी आनेवाली संतान के लिये दिव्यता का आदर्श प्रस्तुत कर सकें ।
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