इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार !

जिज्ञासु साधकों को अपने परम लक्ष्य ‘आत्मसाक्षात्कार’ सुस्पष्ट तात्पर्य-अर्थ जानने की बड़ी जिज्ञासा रहती है, जिसकी पूर्ति कर रहे हैं करुणासिंधु ब्रह्मवेत्ता पूज्य बापू जीः

अपने-आपका बोध हो जाय, अपने-आपका पता चल जाय इसे बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह साक्षात्कार किसी अन्य का नहीं वरन् अपना ही साक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का तात्पर्य क्या है ? भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि नाम, रूप और रंग जहाँ नहीं पहुँचते ऐसे परब्रह्म में जिन्होंने विश्रान्ति पायी है, वे जीते जी मुक्त हैं ।

जिसकी सत्ता से ये जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को ‘मैं’ रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना-इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार ।
अपना-आपा ऐसी ही चीज है जो बिना मेहनत के जानने में आता है और एक बार समझ में आ जाता है तो फिर कभी अज्ञान नहीं होता । अपने स्वरूप का, अपने आत्मा का ऐसा ज्ञान हो जाना, पता चल जाना इसको बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह बड़े में बड़ी उपलब्धि है ।
देखने के विषय अनेक लेकिन देखने वाला एक, सुनने के विषय अनेक – सुनने वाला एक, चखने के विषय अनेक – चखने वाला एक, मन के संकल्प-विकल्प अनेक किंतु मन का द्रष्टा एक, बुद्धि के निर्णय अनेक लेकिन उसका अधिष्ठान एक ! उस एक को जब ‘मैं’ रूप में जान लिया, अनंत ब्रह्मांडों में व्यापक रूप में जिस समय जान लिया वे घड़ियाँ सुहावनी होती हैं, मंगलकारी होती हैं । वे ही आत्मसाक्षात्कार की घड़ियाँ हैं ।

गर्भकाल में माता का मन जैसा होगा, शिशु पर वैसा ही संस्कार अंकित होता है। जब माता अपने अस्तित्व की गहराई में जाकर आत्मा के बोध की साधना करती है, तब उसके भीतर पल रहा शिशु भी उसी शांति, स्थिरता और दिव्यता को आत्मसात करता है। आत्मसाक्षात्कार का अर्थ है—अपने असली स्वरूप को जान लेना, और यही भाव गर्भवती माता के लिए सबसे उपयोगी साधना बन सकता है।

जब माता बार-बार स्मरण करती है कि “मैं केवल शरीर नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ—अविनाशी, अमर और आनंदमयी”, तब यह भाव शिशु तक पहुँचता है। उस शिशु के हृदय में भी यह बीज पड़ता है कि सुख-दुख, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ सब बाहरी हैं; पर उसका असली स्वरूप अचल और शुद्ध आत्मा है।

गर्भवती माता अगर ध्यान में बैठते हुए इस विचार पर चिंतन करे कि “देखने वाले विषय बदलते रहते हैं, पर देखने वाला एक है; सुनने वाले विषय बदलते हैं, पर सुनने वाला एक है; मन के संकल्प-विकल्प बदलते रहते हैं, पर मन का द्रष्टा एक है—वही मैं हूँ”, तो यह स्थिरता और साक्षीभाव गर्भस्थ शिशु को भी गहरी आध्यात्मिक नींव देगा।

ऐसे गर्भ-संवाद में माँ अपने शिशु से मधुर स्वर में कह सकती है—
“बेटा/बिटिया, तू केवल यह नन्हा-सा शरीर नहीं है। तू उस अनंत आत्मा का अंश है, जो अमर और शुद्ध है। जैसे मैं आत्मा हूँ, वैसे ही तू भी आत्मा है। तू परम शांति और आनंद से जुड़ा हुआ है।”

आत्मसाक्षात्कार की साधना गर्भवती माँ को भीतर से स्थिर और शांत बनाती है और शिशु के हृदय में आत्मज्ञान का बीज रोपित कर देती है । यही बीज आगे चलकर उसे परिस्थितियों से डगमगाने वाला नहीं, बल्कि आत्मविश्वासी, स्थिरचित्त और दिव्य गुणों से युक्त बनाता है । कहा जा सकता है कि गर्भावस्था में आत्मसाक्षात्कार की साधना करना माँ और बच्चे दोनों के लिए सर्वोत्तम उपहार है ।

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