पर्वों का पुंजः दीपावली

परम लाभ दिलानेवाले पंच पर्वों का पुंज : दीपावली
(दीपावली पर्व : 18 अक्टूबर से 23 अक्टूबर)

आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, बौद्धिक लाभ और परम लाभ पहुँचाने की व्यवस्था के उत्सवों का नाम है दीपावली उत्सव, पर्वों का झुमका । धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दिवाली, नूतन वर्ष, भाईदूज – इन पाँच पर्वों का पुंज है दीपावली पर्व ।

धनतेरस

‘स्कंद पुराण’ में आता है कि धनतेरस को दीपदान करनेवाला अकाल मृत्यु से पार हो जाता है । धनतेरस को बाहर की लक्ष्मी का पूजन धन, सुख-शांति व आंतरिक प्रीति देता है । 

धनतेरस का संदेश है कि आप अपने प्रकाश में जियो, अपनी सूझबूझ में जियो, अपना हौसला बुलंद करो । धनतेरस को आत्मधन का चिंतन करें । आत्मसुख के लिए अंतरंग साधना है । परमात्मसुख में तृप्ति पाना, सुख-दुःख में सम रहना, ज्ञान का दीया जलाना – यह वास्तविक धनतेरस, आध्यात्मिक धनतेरस है । 

  • इस दिन गर्भवती माता को केवल बाहरी धन नहीं, बल्कि आत्मधन का चिंतन करना चाहिए — “मैं शांत हूँ, सुरक्षित हूँ, परमात्मा मेरे भीतर है।” यह भाव शिशु में आत्मविश्वास और संतुलन की नींव रखता है।

नरक चतुर्दशी

काली चौदस की रात साधकों के लिए तपस्या और मंत्रसिद्धि का अवसर प्रदान करनेवाली है । इस रात्रि का जागरण और जप चित्शक्ति को परमात्मा में ले जाने में बड़ी मदद करते हैं ।

16 हजार कन्याओं को नरकासुर ने अपने नियंत्रण में रखा था । राजाओं की प्रार्थना से श्रीकृष्ण ने इस दिन कन्याओं को मुक्त किया और नरकासुर को परलोक भेज दिया । ऐसे ही नरकासुर जैसा अहं परलोक पहुँचे और 16 हजार कन्या-सदृश वृत्तियाँ कृष्णस्वरूप आत्मा-परमात्मा में विराम करें तो परम मंगल हो गया ।

  • इस दिन गर्भवती माता यदि मन में यह संकल्प ले — “मेरे भीतर जो भी असुर भावना है – क्रोध, चिड़चिड़ापन, ईर्ष्या – अब मैं उसे छोड़ती हूँ,” तो गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र भी अधिक संतुलित और प्रसन्न रहता है।

  • यह दिन विचार-शुद्धि का है, जिससे गर्भ में दिव्यता का संस्कार दृढ़ होता है।

दीपावली

दीपावली का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है । मनुष्य-जीवन की माँग है कि उसे खुशी, प्रकाश, पुष्टि, सहानुभूति और स्नेह चाहिए । दीपावली स्नेह का, पुष्टि का निमित्त उत्पन्न करती है ।

दीपावली में 4 काम करने होते हैं ।

पहला, घर का कचरा निकाल देना होता है; तो आप दुःख, चिंता, भय, शोक, घृणा पैदा करें ऐसे हीनता-दीनता के, हलके विचारों को निकाल दें ।
दूसरा, नयी चीज लानी होती है तो आप शांति, स्नेह, औदार्य और माधुर्य पैदा करें ऐसे नये विचार अपने चित्त में अधिक भरें ।
तीसरी बात, दीया जलाया जाता है अर्थात् जो कुछ भी करें, आत्मज्ञान के प्रकाश में करें । जैसे गुरुदेव ने अपने गुरुदेव से आत्मज्योति का प्रकाश पा लिया है, ऐसे हम भी इस दीपावली के बाह्य दीपक तो जलायें लेकिन अंदर का प्रकाशमय दीया जगाने का भी आज से पौरुष करेंगे । कोई भी परिस्थिति आ जाय तो ‘यह आयी है, हम इसको देखनेवाले हैं ।’ – ऐसा विचार करें ।
चौथा काम, मिठाई खाते और खिलाते हैं अर्थात् हम प्रसन्न रहें और प्रसन्नता बाँटें ।

जब गर्भवती माता दीपावली की रात प्रसन्न, शांत और प्रेममय होती है — तो वही तरंगें गर्भ में पहुँचकर शिशु के व्यक्तित्व में प्रकाश, माधुर्य और आत्मबल के संस्कार बनाती हैं।

लक्ष्मीप्राप्ति हेतु साधना

ॐ नमो भाग्यलक्ष्म्यै च विद्महे । अष्टलक्ष्म्यै च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ।

तेल का दीपक व धूपबत्ती लक्ष्मीजी की बायीं ओर, घी का दीपक दायीं ओर एवं नैवेद्य आगे रखा जाता है । लक्ष्मीजी को तुलसी, मदार (आक) या धतूरे का फूल नहीं चढ़ाना चाहिए, नहीं तो हानि होती है ।

नूतन वर्ष

वर्ष प्रतिपदा के दिन सत्संग के विचारों को बार-बार विचारना । भगवन्नाम का आश्रय लेना ।

दीपावली की रात्रि को सोते समय यह निश्चय करेंगे कि ‘कल का प्रभात हमें मधुर करना है ।’ वर्ष का प्रथम दिन जिनका हर्ष-उल्लास और आध्यात्मिकता से जाता है, उनका पूरा वर्ष लगभग ऐसा ही बीतता है । सुबह जब उठें तो ‘शांति, आनंद, माधुर्य… आधिभौतिक वस्तुओं का, आधिभौतिक शरीर का हम आध्यात्मिकीकरण करेंगे क्योंकि हमें सत्संग मिला है, सत्य का संग मिला है, सत्य एक परमात्मा है । सुख-दुःख आ जाय, मान-अपमान आ जाय, मित्र आ जाय, शत्रु आ जाय, सब बदलनेवाला है लेकिन मेरा चैतन्य आत्मा सदा रहनेवाला है ।’ – ऐसा चिंतन करें और श्वास अंदर गया ‘सोऽ…’, बाहर आया ‘हम्…’, यह हो गया आधिभौतिकता का आध्यात्मिकीकरण, अनित्य शरीर में अपने नित्य आत्मदेव की स्मृति, नश्वर में शाश्वत की यात्रा । सुबह उठ के बिस्तर पर ही बैठकर थोड़ी देर श्वासोच्छ्वास को गिनना, अपना चित्त प्रसन्न रखना चाहिए, आनंद उभारना चाहिए ।

  • वर्ष प्रतिपदा के दिन गर्भवती माता यदि यह निश्चय करे कि “मैं अपने शिशु को शांति और माधुर्य से सींचूँगी, मैं नकारात्मक भाव नहीं पालूँगी,” तो यह नवजीवन का संकल्प बन जाता है।

  • सुबह के समय जब वह बिस्तर पर बैठकर गहरी श्वास के साथ “सोऽ…हम्…” का ध्यान करती है, तो यह गर्भस्थ शिशु को आत्म-स्मृति का संस्कार देता है।

  • यह श्वसन क्रिया वैज्ञानिक दृष्टि से भी ऑक्सीजन आपूर्ति, नर्व शांति और हार्मोन संतुलन के लिए अत्यंत उपयोगी है।

भाईदूज

यह भाई-बहन के निर्दोष स्नेह का पर्व है । बहन को सुरक्षा और भाई को शुभ संकल्प मिलते हैं । यमराज ने अपनी बहन यमी से प्रश्न किया : ‘‘बहन ! तू क्या चाहती है ? मुझे अपनी प्रिय बहन की सेवा का मौका चाहिए ।’’

यमी ने कहा : ‘‘भैया ! आज वर्ष की द्वितीया है । इस दिन भाई बहन के यहाँ आये या बहन भाई के यहाँ पहुँचे और इस दिन जो भाई अपनी बहन के हाथ का बना हुआ भोजन करे वह यमपुरी के पाश से मुक्त हो जाय ।’’

यमराज प्रसन्न हुए कि ‘‘बहन ! ऐसा ही होगा ।’’

भैया को भोजन कराना है तो उसमें स्नेह के कण भी जाते हैं । 

  • यह दिन निर्दोष स्नेह का प्रतीक है।
    जैसे बहन अपने भाई के लिए मंगलकामना करती है, वैसे ही गर्भवती माता इस दिन अपने गर्भस्थ शिशु के लिए प्रार्थना कर सकती है — “हे प्रभु, मेरा शिशु स्नेह, विनम्रता और सुरक्षा का प्रतीक बने।”

दीपावली का यह पंचपर्व गर्भवती माता के लिए केवल पर्वों का समूह नहीं, बल्कि संस्कारों की श्रृंखला है — जो आपके गर्भस्थ शिशु के मनोविज्ञान, भावनात्मक विकास और दिव्यता की नींव रखती है। जब माता इन पाँचों दिनों में सात्त्विक भाव, संयमित दिनचर्या और प्रसन्नता के साथ रहती है, तब गर्भस्थ शिशु वास्तव में “दीपवत् तेजस्वी, प्रेमवत् मधुर और संयमवत् दृढ़” बनता है।

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