विजयादशमी - एक संकल्प दिवस

नवरात्रि के नौ दिन साधना, उपासना और शक्ति के जागरण के दिन माने जाते हैं । इन नौ दिनों में माँ शक्ति की आराधना करके मनुष्य अपने जीवन से तमस, आलस्य और बुराई को हटाता है । फिर दसवें दिन आता है विजयादशमी—यह केवल बाहरी युद्ध में विजय की बात नहीं है, बल्कि अंदर के युद्ध में भी विजय की प्रेरणा देता है । गर्भवती माता के लिए यह दिन बहुत गहरा संदेश देता है ।

गर्भकाल स्वयं एक तपश्चर्या है, जिसमें माता रोज़ अपने भीतर की भावनाओं, विचारों और संस्कारों से शिशु का निर्माण करती है । जैसे भगवान श्रीरामजी ने रावण रूपी अहंकार और वासनाओं पर विजय पाई, वैसे ही गर्भवती माता भी जब क्रोध, भय और नकारात्मक चिंताओं पर संयम पाकर प्रेम, धैर्य और शुभ संकल्पों का चयन करती है, तो यह उसकी आध्यात्मिक विजय होती है । और यही विजय आगे चलकर शिशु के स्वभाव में संस्कार बनकर प्रकट होती है ।

कहा गया है कि “सत्संग जीवन के संग्राम में विजय दिलाता है ।” गर्भवती माता जब सत्संग सुनती है, जप करती है, तो उसका मन शांत होता है और शिशु को भी वही शांति और दिव्यता मिलती है । दैवी सम्पदा की उपासना करना—यानी प्रेम, नम्रता, दया और संयम को जीवन में उतारना— यह श्रीराम का मार्ग है । और वासना, क्रोध, ईर्ष्या और अहंकार को पोषित करना रावण का मार्ग है । माता के छोटे-छोटे निर्णय भी गर्भस्थ शिशु की चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं ।

विजयादशमी हमें यह भरोसा दिलाती है कि भले संसार में भौतिकता और दिखावा कितना भी बढ़ जाए, अंतर्मुख होकर ईश्वर को स्मरण करने वाला और संयम से जीने वाला कभी हारता नहीं ।

विशेष संकल्प

गर्भवती माता को चाहिए कि वह इस दिन विशेष संकल्प ले— “मैं अपने गर्भस्थ शिशु को श्रेष्ठ संस्कार दूँगी । मैं अपने भीतर केवल पवित्र विचारों को स्थान दूँगी ।”

दशहरे की संध्या का समय अत्यंत पवित्र माना गया है । सूर्यास्त से लेकर तारे निकलने तक यदि गर्भवती माता शांति से बैठकर शमी पत्र का पूजन करे, अपने पति अथवा परिवारजनों के साथ मिलकर “ॐ अपराजितायै नमः” मंत्र का जप करे और भगवान से प्रार्थना करे— “हे प्रभु ! मेरे शिशु के जीवन में वही गुण खिलें जो सर्वोत्तम हों । मेरे मन में वही भाव जागें जो श्रेष्ठ हों ।” तो इस संकल्प का असर गहराई से गर्भस्थ शिशु की चेतना तक पहुँचता है । शमी वृक्ष के पूजन का भी एक सुंदर प्रतीक है । शमी पत्र एक-दूसरे को देकर यह याद दिलाया जाता है कि सुख बाँटने की चीज़ है और दुख पैरों तले कुचलने की । गर्भवती माता जब यह भाव धारण करती है कि “मेरा बच्चा भी सबके सुख में सुखी हो, सबकी भलाई चाहे,” तो यह भाव शिशु के स्वभाव का हिस्सा बन जाता है ।

विजयादशमी का यह दिन गर्भवती माता के लिए केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक संकल्प-दिवस है। इस दिन वह अपने भीतर की दैवी शक्तियों को जगाकर शिशु के भविष्य की नींव रखती है। यही सच्चा संस्कार-उत्सव है और यही सच्ची विजय है।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।