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food of five senses - Divya Shishu Sanskar By Mahila Utthan Mandal

हम कान से जो भोजन करते हैं उसका हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है ।  जब आपको कोई किसीकी निंदा सुनाता है तब आप भले ही उसे सच न मानें, लेकिन वह आपके मन में कम-से-कम संशय तो भरती ही है । यदि आप संशय को छोड़ भी दें तो निंदा करनेवाले ने आपके मन में किसीके प्रति घृणा या द्वेष तो उत्पन्न कर ही दिया । यदि किसीके प्रति घृणा हुई तो वह व्यक्ति तो चाहे जैसा भी हो परंतु आपके मन में तो घृणा उत्पन्न हो ही गयी, आपके मन में तो द्वेष आ ही गया । कोई अश्लील या कर्कश गाना सुना तो वैसे ही विकृत विचारों का संचार हो गया । गर्भावस्था में आपका हृदय आपके बच्चे से जुड़ा होता है और आपने कान से ऐसा आहार लिया जिसने आपके व आपके बच्चे के हृदय को भी संशय, घृणा व द्वेष व उत्तेजना से भर दिया । इसलिए सावधान ! जैसे आप भोजन करने में अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं, वैसे ही सुनने में भी अपने हृदय के स्वास्थ्य का ध्यान रखिये । आप अपने कानों से ईश्वर-चर्चा, कीर्तन, सत्संग सुनेंगे तो आपकी संतान का हृदय दैवीय गुणों से युक्त होगा ।

त्वचा द्वारा स्पर्श करते समय भी ध्यान रखिये क्योंकि स्पर्श भी त्वचा के द्वारा प्राप्त भोजन है । आप जानते हैं कि बिजली को छूयेंगे तो करन्ट लगेगा और प्राण जाने की सम्भावना है इसलिए आप उसे नहीं छूते । ऐसे ही उत्तेजक वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए । जो वस्तु आपके मन में कामविकार उत्पन्न करे उसे स्पर्श नहीं करना चाहिए । त्वचा – वायु, ताप ग्रहण करती है । जब आप सूर्य-प्रकाश में अपने शरीर को ले जाते हैं तब सूर्य की रश्मियाँ आपके शरीर में प्रवेश करके आपका आहार बनती हैं, भोजन बनती हैं । जब आप शुद्ध वायु में रहते हैं तब वायु आपके शरीर में लगकर आपका शुद्ध भोजन बनती है ।  गर्भावस्था के दौरान शिशु माँ द्वारा स्पर्श की गई वस्तुओं के स्पंदनों को महसूस करता है अर्थात् आपकी त्वचा से प्राप्त भोजन आपके शिशु को भी प्राप्त होता है । अतः कुछ भी स्पर्श करने से पहले विचार करिए कि इस वस्तु का स्पर्श आपके शिशु के लिए हानिकारक तो नहीं । इसलिए ऐसे वातावरण में रहिये, जहाँ आपकी त्वचा को भी बढ़िया भोजन मिलता हो । यही कारण है कि शास्त्रों नेें सगर्भावस्था के दौरान ब्रह्मचर्य के कड़क पालन का आदेश दिया है । प्रदूषण रहित सुबह की खुली हवा में प्राणायाम आदि करें, घर में तुलसी का गमला रखें, कभी-कभी गौझरण फिनायल से पोंछा कर दें । शुद्ध गूगल धूप कर दें । पूजा के स्थान पर गुरुदेव को ताजे सुगंधित पुष्प चढ़ायें इससे भी वातावरण में सात्त्विकता आयेगी ।

आप आँखों से क्या देखते हैं ? जो चीज आप देखते हैं उसे देखकर आपके मन में काम, क्रोध, लोभ आदि आते हैं कि भगवद्भाव आता है ? किसीका सुंदर मकान देखा, फर्नीचर देखा तो मन में विचार आया कि ऐसा हमारे पास भी हो । आँख से देखी चीज तो बाहर रह गयी और मन में उदय हो गया लोभ । फिर उस चीज को पाने के लिए आपने अपनी बुद्धि लगाई और प्रयत्न किया । आपने आँखों से ऐसी चीजें खायीं कि वे चीजें आपके पास न होने पर आपको हीनता का, अभाव का अनुभव होने लगा और उनके प्राप्त होने पर आपकी उन वस्तुओं में ममता हो गयी, आप उनसे बँध गये । लड़ाई-झगड़े के क्रूर दृश्य देखे तो क्रूरता का भाव जाग्रत हुआ, कोई विभत्स चलचित्र देखा तो भय व घृणा का भाव जागा जिससे आपका अंतःकरण मलीनता व  खिन्नता को प्राप्त होकर जीवन शक्ति का ह्रास होगा । इसके विपरीत यदि भगवत्प्राप्त महापुरुषों, भगवान के अवतारों, संतों के चित्रों को देखकर और हयात सत्पुरुषों के दर्शन करके आप अपने मन-मति को पावन करके अपने जीवन को ऊर्ध्वगामी दिशा भी दे सकते हैं अथवा टी.वी., सिनेमा देखकर समय, चरित्र और ऊर्जा के नाश से नारकीय जीवन को प्राप्त हो सकते हैं । अतः, सगर्भावस्था के दौरान आँखो द्वारा ऐसा ही आहार लीजिए जिससे प्राप्त संस्कार शिशु को आनंदित करें, महानता की ओर प्रेरित करें, व भगवद्भाव जाग्रत करें । सतत ध्यान रखिये कि आपकी आँखें जहाँ तहाँ न चली जायें ।

इसी प्रकार आप नाक से भी ऐसी  चीज तो नहीं  न सूँघेंते हैं कि जिससे आपका अंतःकरण अपवित्र-मलिन हो जाय ।  भिन्न-भिन्न प्रकार के केमिकल युक्त पर्फ्यूम, टेलकम पावडर, रूम फ्रेशनर, ऐयर फ्रेशनर आदि के स्थान पर शुद्ध इत्र या प्राकृतिक फूलों की सुगंध लें, शुद्ध अगरबत्ती आदि का उपयोग करें ताकि आपका शिशु प्रसन्नता प्राप्त करे ।

लोग अपने शरीर, घर, मकान को तो साफ-स्वच्छ रखते हैं परंतु अपने अंतःकरण की पवित्रता, निर्दोषता की ओर ध्यान नहीं देते । इसलिए बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी भीतर से दुःखी, चिन्तित और अशांत हो जाते हैं । बाहर की चीजें तो सम्भव है कि साथ रहें या न रहें लेकिन आपका मन तो आपके बिल्कुल निकट है, सदा साथ है । यदि आपका मन दुःखी रहेगा, अज्ञान में रहेगा, भय में रहेगा, शोक में रहेगा तो आपके पास बाहर चाहे कितनी भी चीजें हों, उनसे आप कभी सुखी नहीं रह सकेंगे । आप अपने मन के धरातल पर उन्हीं विचारों को महत्त्व दें जिनसे आपका जीवन उन्नत हो, सफल हो और ईश्वराभिमुख हो । आप अपने मन से ऐसा न सोचें जो क्रूर हो, दूसरों को दुःख देनेवाला हो । अतः, मन से जो विचार करें वह ऐसा निर्मल हो कि उससे निर्मल वातावरण बन जाये ।
हमारे मानसिक भावों का, विचारों का एक परिमंडल हमारे चारों ओर बनता है । किसीका मण्डल बड़ा बनता है तो किसीका मण्डल छोटा बनता है । जैसे कभी-कभी सूर्य-चन्द्र के चारों ओर परिमण्डल दिखाई पड़ता है, वैसे ही हमारे शरीर से जो तन्मात्राएँ निकलती हैं, विचारों के जो सूक्ष्म कण प्रवाहित होते हैं, वे हमें चारों ओर से घेरे रहते हैं । यदि वे रश्मियाँ, तन्मात्राएँ, किरणें, शांति-सौम्यता-सद्भाव से सम्पन्न हों तो हमारे पास आनेवाला, हमारे वातावरण में रहनेवाला भी पवित्र विचारों से सम्पन्न हो जाता है । फलस्वरूप कोई भी नकारात्मक शक्ति आपको स्पर्श भी नहीं कर सकेगी व आपका शिशु सुरक्षित रहेगा । इसलिए हमारे मन की जो पवित्रता है, उससे केवल अपना ही कल्याण नहीं है बल्कि वह सम्पूर्ण समाज के लिए, सम्पूर्ण विश्व के लिए मंगलमय है ।
इसलिए आप मन में जिन विचारों को महत्त्व देकर आश्रय देते हैं अर्थात् ग्रहण करते हैं या मन से जो भोजन करते हैं उससे घृणा न आये, द्वेष न आये, व्यर्थ की निद्रा-तन्द्रा न आये, विकार न आये इसका आप ध्यान रखिये ।
इसलिए केवल मुँह से किया जानेवाला भोजन ही आहार नहीं है अपितु हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जो ग्रहण करते हैं, वह भी हमारा आहार है, हमारा भोजन है । पवित्र भोजन से मन निर्मल होगा ।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल-छिद्र न भावा ।।

जो निर्मल है वही परमात्मा से प्यार कर सकता है ।

ज्ञानेन्द्रियों के आहार में सावधानी

हम जो भोजन लें वह ऐसा सात्त्विक और पवित्र होना चाहिए कि उसको लेने के बाद हमारा मन निर्मल हो जाये । ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए जिससे आलस्य आये या तुरंत नींद आ जाये । भोजन के बाद शरीर में उत्तेजना उत्पन्न हो जाय- ऐसा भोजन भी नहीं करना चाहिेए ।
भोजन केवल मुँह से ही नहीं किया जाता, कान से भी किया जाता है, आँख से भी किया जाता है, त्वचा से भी किया जाता है, नाक से भी किया जाता है और यहाँ तक कि मन से भी किया जाता है ।

शंकराचार्यजी का कहना है : आहार्यन्ते इति आहारः ।

हम जो बाहर से भीतर ग्रहण करते हैं उसका नाम आहार है । क्योंकि ज्ञानेंन्द्रियों द्वारा किये गए आहार का असर संस्काररूप में मन पर पड़ता है, संस्कार के अनुरूप विचार, विचारों के प्रगाढ़ होने पर तदानुसार व्यवहार बन जाता है । चूंकि बच्चे का मन माँ के मन से जुड़ा होता है इस कारण ठीक यही संस्कार बच्चे के अचेतन मन पर अंकित हो जाते हैं । यदि आप सावधान न रहे तो उससे बड़ा अनिष्ट हो सकता है । आपके अन्य लाख प्रयासों के बावजूद भी इस सूक्ष्म लापरवाही के फलस्वरूप आपकी संतान दुर्गुणों का शिकार होकर कुमार्ग पर जा सकती है । अतः अपनी ज्ञानेन्द्रियों से ऐसा ही भोजन करें जिससे आपका व आपकी संतान का अंतःकरण निर्मल बने ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।