शास्त्रीय संगीत

  • विभिन्न वैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध होता है कि गर्भस्थ शिशु केवल मांस का पिण्ड नहीं होता । गर्भावस्था में तीसरे महिने से उसमें धीरे-धीरे संवेदन शक्ति आने लगती है । इस समय शिशु अनुभव कर सकता है, अचानक चौंकने की प्रतिक्रिया दे सकता है । इन प्रतिक्रियाओं को स्वयं गर्भिणी महसूस करती है ।

  • गर्भ के छठे-सातवें महीने तक पहले स्नायुमंडल फिर मस्तिष्क भी बनकर क्रियाशील हो जाता है । इस समय बालक कुछ बोध की क्रियाएँ, बाहरी चोट आदि महसूूस करता है । ऐसा कहा जाता है कि गर्भ में शिशु का रोम-रोम श्रवणेंन्द्रिय का कार्य करता है अर्थात् वह रोम-रोम से बाह्य जगत में माँ के इर्द-गिर्द की प्रत्येक ध्वनि से प्रभावित होता है । तरंगों के रूप में ध्वनियों का सूक्ष्म भाव शिशु तक पहुंचकर उसकी मानसिकता को प्रभावित करता है ।

  • लंदन के एक अस्पताल में एक प्रयोग के दौरान गर्भस्थ शिशुओं को रॉक म्यूजिक सुनाया गया, जिससे वे बेचैन हो गये । वहीं इसके विपरीत शांति-प्रदायक संगीत सुनाया गया तो उनका मन शांत हो गया । गर्भस्थ शिशु को लयबद्ध सुरीले संगीत में रुचि होती है यही कारण है कि भारतीय माताएँ प्राचीनकाल से ही परम्परागत तरीके से अपने बच्चों को लोरियाँ सुनाकर उनमें संस्कारों का सिंचन करती हैं ।

  • माता मदालसा ने इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान की लोरियाँ सुनाकर अपनी संतानों को जीवन में सफल होने की कुंजियाँ दे डालीं, जिससे उनकी संतानें ओजस्वी, तेजस्वी व जीवनमुक्त हो गईं ।

  • पूज्य बापूजी कहते हैं कि मैं डॉ. डायमंड को शाबाशी दूँगा कि उसने सच्चाई लिखने की हिम्मत की है । उसमें 13 वर्ष रिसर्च की और यह सिद्ध किया कि रॉक और पॉप म्यूजिक से जीवनशक्ति का ह्रास होता है तथा कामदेव उत्तेजित होते हैं । भारतीय पद्धति से कीर्तन करने से जीवनीशक्ति का विकास होता है ।

  • अतः प्रत्येक गर्भवती स्त्री को रॉक-पॉप म्यूजिक से दूर रहकर भगवन्नाम कीर्तन, भजन, स्तोत्र, ब्रह्मरामायण, आत्मगुंजन आदि नियमित रूप से, एकाग्रता से, ध्यान से उसके अर्थ को समझते हुए सुनना चाहिए ।

शास्त्रीय संगीत

  • विभिन्न वैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध होता है कि गर्भस्थ शिशु केवल मांस का पिण्ड नहीं होता । गर्भावस्था में तीसरे महीने से उसमें धीरे-धीरे संवेदन शक्ति आने लगती है । इस समय शिशु अनुभव कर सकता है, अचानक चौंकने की प्रतिक्रिया दे सकता है । इन प्रतिक्रियाओं को स्वयं गर्भिणी महसूस करती है ।

  • गर्भ के छठे-सातवें महीने तक पहले स्नायुमंडल फिर मस्तिष्क भी बनकर क्रियाशील हो जाता है । इस समय बालक कुछ बोध की क्रियाएँ, बाहरी चोट आदि महसूूस करता है । ऐसा कहा जाता है कि गर्भ में शिशु का रोम-रोम श्रवणेंन्द्रिय का कार्य करता है अर्थात् वह रोम-रोम से बाह्य जगत में माँ के इर्द-गिर्द की प्रत्येक ध्वनि से प्रभावित होता है । तरंगों के रूप में ध्वनियों का सूक्ष्म भाव शिशु तक पहुंचकर उसकी मानसिकता को प्रभावित करता है ।

  • लंदन के एक अस्पताल में एक प्रयोग के दौरान गर्भस्थ शिशुओं को रॉक म्यूजिक सुनाया गया, जिससे वे बेचैन हो गये । वहीं इसके विपरीत शांति-प्रदायक संगीत सुनाया गया तो उनका मन शांत हो गया । गर्भस्थ शिशु को लयबद्ध सुरीले संगीत में रुचि होती है यही कारण है कि भारतीय माताएँ प्राचीनकाल से ही परम्परागत तरीके से अपने बच्चों को लोरियाँ सुनाकर उनमें संस्कारों का सिंचन करती हैं ।

  • माता मदालसा ने इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान की लोरियाँ सुनाकर अपनी संतानों को जीवन में सफल होने की कुंजियाँ दे डालीं, जिससे उनकी संतानें ओजस्वी, तेजस्वी व जीवनमुक्त हो गईं ।

  • पूज्य बापूजी कहते हैं कि “मैं डॉ. डायमंड को शाबाशी दूँगा कि उसने सच्चाई लिखने की हिम्मत की है । उसमें 13 वर्ष रिसर्च की और यह सिद्ध किया कि रॉक और पॉप म्यूजिक से जीवनशक्ति का ह्रास होता है तथा कामदेव उत्तेजित होते हैं । भारतीय पद्धति से कीर्तन करने से जीवनीशक्ति का विकास होता है ।”

  • अतः प्रत्येक गर्भवती स्त्री को रॉक-पॉप म्यूजिक से दूर रहकर भगवन्नाम कीर्तन, भजन, स्तोत्र, ब्रह्मरामायण, आत्मगुंजन आदि नियमित रूप से, एकाग्रता से, ध्यान से उसके अर्थ को समझते हुए सुनना चाहिए ।

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गर्भ संस्कार केन्द्र में सम्पर्क करें -
गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।