अन्नप्राशन संस्कार

16 संस्कारों में 7वाँ संस्कार आता है – अन्नप्राशन । शिशु को उसके जीवन में पहली बार सात्त्विक, पवित्र मधुरान्न का प्राशन कराना, खिलाना ‘अन्नप्राशन संस्कार’ कहलाता है ।
शुद्ध, सात्त्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का वास होता है । आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार) शुद्ध होता है एवं सात्त्विकता का पोषण होता है । इसलिए इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है ।

संस्कार का समय व उद्देश्य
पारस्कर गृह्यसूत्र, सुश्रुत संहिता तथा व्यास, मनु, याज्ञवल्क्य आदि प्राचीन स्मृतियों के अनुसार शिशु के जन्म के छठे मास में -अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए । दुर्बल शरीर होने पर अवधि बढायी जा सकती है ।
गर्भ के समय माता के द्वारा पवित्र-अपवित्र, शीत-उष्ण, मंदाग्नि करनेवाला जैसा भी आहार लिया जाता है उसीसे शिशु का पोषण होता है और उस समय माता द्वारा जाने अनजाने में लिये गये निषिद्ध आहार का दोष शिशु पर भी आ जाता है । उस दोष की निवृत्ति के लिए हवनपूर्वक पवित्र हविष्यान्न तथा शहद व घी युक्त खीर शिशु को दी जाती है, जिसको खाने से उसका शरीर एवं अंतःकरण दोषरहित होकर पवित्र हो जाते हैं ।
जन्म लेने के बाद से अभी तक अर्थात् छठे मास तक शिशु भोजन के लिए माता के दूध पर ही आश्रित था परंतु अब उसका शरीर विकसित होने से केवल माता के दूध से उसका भरण पोषण पूरा नहीं हो पाता अतः उसे अन्न आदि ठोस आहार की आवश्यकता होती है । ऐसी अवस्था यदि अन्न न खिलाया जायेगा तो शिशु के रक्त व मांस को ही जठराग्नि जलाने लग जायेगी, जिससे वह दुबला होता जायेगा ।

इसी समय शिशु के दाँत भी इसीलिए निकलने लगते हैं ताकि वह ग्रहण किये जानेवाले अन्न को धीरे-धीरे चबाने में समर्थ हो जाय । यह ईश्वर की अद्भुत व्यवस्था है ।
अन्नप्राशन से शिशु के मुख से स्तन्यपानजन्य गंध भी धीरे-धीरे दूर हो जाती है ।
इस प्रकार इस संस्कार का बड़ा ही वैज्ञानिक महत्त्व है ।

विशेष लाभ हेतु
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः ॥
‘(हे बालक !) तेरे लिए चावल और जौ मंगल करनेवाले, बल को न गिरानेवाले और भोजन में हर्ष करनेवाले हों । ये दोनों यक्ष्मा (टी.बी.) को विशेषरूप से हटाते हैं और कष्ट से छुड़ाते हैं ।’
(अथर्ववेद: कांड ८, सूक्त २, मंत्र १८)
इस मंत्र को बोलकर घर के दादा-दादी, माता-पिता आदि सोने-चाँदी के चम्मच या सलाई से देशी गाय के दूध से बनी खीर आदि अन्न चटाते हैं । सोना-चाँदी रसायन (tonic) होने से जीवनीशक्ति बढ़ाते हैं । मंत्र-उच्चारण में कठिनाई होती हो तो केवल अर्थ बोलकर भी संस्कार किया जा सकता है ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।