विहार

जागरण 

  • प्रातः 4- 4. 30 के बीच उठें ।
  • प्रातः जागरण – सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में शय्या का त्याग करने से अंतःकरण में सत्वगुण की पुष्टि होती है ।
  • गर्भस्थ शिशु ओजस्वी-तेजस्वी, बल-बुद्धि एवं शरीर से स्वस्थ होता है ।
  • थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना ।
  • शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है । ब्रह्ममुहूर्त में उठनेवाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते हैं और सोते रहनेवालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

शांत बैठना

  • सुबह उठकर शांत बैठें – भगवान मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो । ऊँ शांति… ऊँ आनंद …
  • आपका मन कल्पवृक्ष है । जैसा दृढ़ चिंतन करते हैं, वैसा ही होने लगता है ।
  • धैर्यपूर्वक चिंतन करें, मेरे गर्भ में जो जीवात्मा है वह अवश्य तेजस्वी होगी ।
  • आज का पूरा दिन मैं प्रसन्न रहूँगी । जो भी परिस्थिति आए, हमें दुःखी या चिंतित नहीं होंगे । मेरे प्रभु मेरे साथ हैं ।

उदर स्पर्श 

  • भगवान को प्रार्थना करके दोनों हाथों की हथेलियाँ आपस में रगड़ें और उदर पर स्पर्श करते हुए भावना करें; ऊँ ऊँ ऊँ मेरी आरोग्यशक्ति जग रही है ……
  • ऊँ ऊँ ऊँ मेरा गर्भस्थ शिशु प्रफुल्लित व आनंदित हो रहा है……उसका समुचित विकास हो रहा है , मेरे गर्भ में ईश्वर की दैवी शक्तियाँ प्रवेश कर रही हैं।
  • लगता तो साधारण – सा प्रयोग है लेकिन बहुत सारे फायदे होते हैं और दिव्य शक्तियों का संचार होता है ।

भूमिवंदन 

  • धरती माता के प्रति कृतज्ञता रखना मानवमात्र का कर्तव्य है।
  • पृथ्वी पर ही मनुष्य , पशु-पक्षी सभी निवास करते हैं।
  • पृथ्वी से ही अन्न , जल , औषधियाँ आदि प्राप्त होते हैं।
  • अत; हममें अपने को कुछ देनेवाले के प्रति कृतज्ञता का भाव सुविकसित हो इसलिए क्षमा-प्रार्थना का नियम शास्त्रों में बताया गया है।
  • धरती माता को पैरों से स्पर्श करने से पूर्व हाथों से स्पर्श करें और प्रणाम करते हुए यह मंत्र बोलें;
    समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
    विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव  

 स्वर अनुरुप दिन प्रारंभ

  • शांतचित्त से अपने इष्टदेव का सुमिरन कर मंत्रजप करते हुए जिस नथुने से श्वास चल रहा हो ,उसी तरफ का हाथ चेहरे के उस ओर घुमायें और वही पैर धरती पर पहले रखें तो मनोरथ सफल होते हैं ।
  • दायाँ नथुना चलता हो तो दायाँ पैर और बायाँ नथुना चलता हो तो बायाँ पैर धरती पर पहले रखें ।

प्रातः भ्रमण 

  • प्रात; ब्राह्ममूहुर्त में वातावरण में निसर्ग की शुद्ध एवं शक्तियुक्त ओजोन वायु का बाहुल्य होता है जो स्वास्थय के लिए हितकारी है ।
  • प्रात;काल की वायु को , सेवत करत सुजान । तातें मुख छबि बढ़त है, बुद्धि होत बलवान ।।
  • प्रात;काल की शुद्ध वायु शरीर को स्वस्थ , मन को प्रसन्न रखने में सहायक है ।
  • इससे रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है ।
  • यह शुद्ध हवा गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास में भी मददरुप है ।
  • प्रात;काल हवामान में रजस-तमस का प्रभाव न्यूनतम मात्रा में होता है ।
  • इस समय ऋषि-मुनि ध्यानावस्था में होते हैं जिससे वातावरण में भी उनकी सूक्ष्म आध्यात्मिक तरगें प्रसारित होती रहती हैं ।

मंत्र सहित स्नान का महत्व

  • प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान कर लेना चाहिए । सुबह सात बजे के बाद दो मल त्याग करते हैं उन्हें अनेक बीमारियाँ होती हैं ।
  • स्नान सदाचरण का , सनातन सुख का एक मुख्य अंग है ।
  • स्नान से सात्विकता बढ़ती है जो हमें उचित-अनुचित के निर्णय या दैनिक जीवन की समस्याओं के निराकरण में भी मददरुप है ।
  • स्नान करते समय ऊँ ह्रीं गंगायै ऊँ ह्रीं स्वाहा मंत्र बोलते हुए सिर पर पानी डालें तो गंगा-स्नान का पुण्य होता है ।
  • अगर प्रार्थना करते हुए स्नान करते हैं तो वह आपका परमात्म-स्नान हो जाएगा , अंतर्यामी ईश्वर को मैं स्नान करवा रहा हूँ । शरीर को स्नान कराता हूँ लेकिन अंतरतम चैतन्य प्रभु , मैं तुझे स्नान करवा रहा हूँ ।
  • स्नान करते समय पैरों में विद्युत कुचालक (रबड़ आदि की) चप्पल होनी चाहिए ।
  • शरीर की मजबूती और आरोग्यता के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान करना चाहिए ।
  • साबुन व शैम्पू स्वास्थ्य व ज्ञानतंतुओं को नुकसान करते हैं क्योंकि इनमें रसायन होते हैं ।
  • मुलतानी मिट्टी अथवा सप्तधान्य उबटन से स्नान स्वास्थ्यवर्धक , पापनाशक और पुण्य व स्फूर्तिवर्धक होता है । साथ ही सात्विकता , आरोग्यता व प्रसन्नता भी बढ़ायेगा ।
  • ऊँ भूधराय नमः । इस मंत्र से स्नान स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता का लाभ देता है । 

शौच के नियम 

  • शौच जाने से पूर्व सिर को ढकना चाहिए ।
  • सिर तथा कान ढककर जाने से रक्त तथा वायु की गति अधोमुखी हो जाती है, जिससे मल-त्याग में सहायता मिलती है ।
  • अपवित्र मल के परमाणुओं से शरीर के सिर आदि उत्तम तथा पवित्र अंगों की रक्षा होती है ।
  • इस समय दाँत भींचकर रखने से दाँत मजबूत बनते हैं ।
  • शौच के समय सर्वप्रथम शरीर का वजन बाएँ पैर पर अधिक रखें, फिर दाएँ पैर पर वजन बढाते हुए दोनों पैरों पर समान कर दें ।
  • आँतें अच्छी तरह साफ होने से वायु दोष नियंत्रित रहेगा और गर्भस्थ शिशु पर अनावश्यक दवाब नहीं पड़ेगा जिससे उससे विकास में बाधा भी नहीं पड़ेगी । (पेज नं- 26 , जीवन जीने की कला )

लघुशंका के नियम  – 

  • बायाँ स्वर चलते समय मूत्र त्याग करने से स्वास्थ्य सुदृढ़ रहता है ।
  • लघुशंका जाने के बाद इन्द्रिय को पानी से धो लेना चाहिए । हाथ-पैर धोकर आँख-कान को पानी का स्पर्श करना चाहिए ।
  • तीन कुल्ला करके तीन आचमन लेना चाहिए ,इससे सत्वगुण की रक्षा होती है । 

संध्या 

  • प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय के 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक , दोपहर के 12 बजे से 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक एवं शाम को सूर्यास्त के 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक का समय संधिकाल कहलाता है ।
  • इड़ा और पिंगला नाड़ी के बीच जो सुषुम्ना नाड़ी है , जिसे अध्यात्म की नाड़ी भी कहते हैं। उसका मुख संधिकाल में ऊर्ध्वगामी होने से इस समय प्रणायाम , जप , ध्यान करने से सहज में ज्यादा लाभ होता है ।
  • संध्या करने से मन निर्मल होता है ।
  • शरीर की स्वस्थ्ता , मन की पवित्रता और अंतःकरण की शुद्धि भी संध्या से प्राप्त होती है ।
  • आध्यात्मिक उन्नति के लिए त्रिकाल संध्या का नियम बहुत उपयोगी है ।
  • त्रिकाल संध्या करनेवाले को कभी रोजी-रोटी की चिंता नहीं करनी पड़ती ।
  • त्रिकाल संध्या करने से असाध्य रोग भी मिट जाते हैं ।
  • ओज, तेज, बुद्धि एवं जीवनशक्ति का विकास होता है ।
  • हमारे ऋषि-मुनि एवं श्रीराम तथा श्रीकृष्ण आदि भी त्रिकाल संध्या करते थे । इसलिए हमें भी त्रिकाल संध्या करने का नियम लेना चाहिए ।

तिलक का महत्व 

  • स्त्रियों का मन और प्राण स्वाधिष्ठान और मणिपुर केन्द्र (नाभि केन्द्र) में ज्यादा रहते हैं ।
  • स्वाधिष्ठान और मणिपुर केन्द्रों में भय, भावना आदि की अधिकता होती है , इसलिए स्त्रियों को हररोज तिलक करने की आज्ञा शास्त्रों ने दी है ।
  • मस्तक पर तिलक लगाने से चित्त की एकाग्रता विकसित होती है तथा मस्तिष्क में पैदा होनेवाले , असमंजस की स्थिति से मुक्त होते हैं ।
  • ललाट पर तिलक करने से आज्ञाचक्र और उसके नजदीक की शीर्ष (पीनियल) और पीयूष (पिट्युटरी) ग्रंथियों को पोषण मिलता है ।
  • यह बुद्धिबल व सत्वबल वर्धक है तथा विचारशक्ति को भी विकसित करता है ।
  • अतः तिलक लगाना आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक – दोनों दृष्टिकोणों से बहुत लाभदायक है ।
  • इससे आप किसी भी बात को शीघ्रता से और आसानी से ग्रहण कर सकेंगे ।
  • ललाट पर तिलक लगाने से शिवनेत्र विकसित होता है ।
  • भावना के साथ विचार भी विकसित होते हैं ।
  • ललाट पर नियमित रुप से तिलक करते रहने से मस्तिष्क के रसायनों – सेरोटोनिन व बीटा एंडोर्फिन का स्राव संतुलित रहता है , जिससे मनोभावों में सुधार आकर उदासी दूर होती है , सिरदर्द नहीं होता तथा मेधाशक्ति तीव्र होती है ।
  • महिलाओं द्वारा भ्रूमध्य तथा मांग में केमिकल रहित शुद्ध सिंदूर या कुमकुम लगाने से मस्तिष्क संबंधी क्रियाएँ नियंत्रित , संतुलित तथा नियमित रहती है एवं मस्तिष्कीय विकार नष्ट होते हैं ।
  • केमिकलयुक्त प्लास्टिक की बिंदिया , सिंदूर व कुमकुम लाभ के बजाय हानि करते हैं । ये चिड़चिड़ापन लायेंगे , गलत निर्णय लायेंगे ।
  • ज्योतिष के अनुसार तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है ।
  • देशी गाय की चरणरज (गोधूलि) का तिलक करने से भाग्य की रेखाएँ बदल जाती हैं ।
  • प्लास्टिक की बिंदियों में जानवरों के अंगों से बना सरेस द्रव्य डाला जाता है जो हानि करता है ।
  • प्राकृतिक पदार्थों से बनाया गया सिंदूर या कुमकुम ही लाभ करता है ।

ऊँकार गुंजन 

  • ऊँकार का गुंजन करते हुए अपना सारा ध्यान उस ध्वनि पर एकाग्र करें ।
  • 7 बार हरि ऊँ का गुंजन करने से मूलाधार केन्द्र रुपांतरित होता है तो काम राम में , भय निर्भयता में और ईर्ष्या प्रेम में परिणत हो जाता है ।
  • सात बार हरि ऊँ के गुंजन से मूलाधार केन्द्र में स्पंदन होता है एवं कई कीटाणु भाग खड़े होते हैं । (मंत्रजाप अनुष्ठान – पेज नं-38 )
  • गर्भवती में निर्भयता व प्रेममय स्वभाव का निर्माण होना जरुरी है ।
  • हरि ऊँ गुंजन से आपको मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी ।
  • आप स्वयं को सहज अनुभव करेंगे ।
  • ज्ञानमुद्रा सहित ऊँ की ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बंद होने लगेगी ।
  • ज्ञानमुद्रा से मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलती है ।
  • चित्त जल्दी शांत हो जाता है ।
  • आत्मशांति , आत्मबल व चित्तशुद्धि के लिए यह ज्ञानमुद्रा बड़ी सहायरुप होगी ।(अलख की ओर – पेज नं-9 )
  • माँ का हृदय एकाग्र होना , हृदय निर्मल व शांत होना अति आवश्यक है क्योंकि माँ का हृदय बच्चे के हृदय से जुड़ा है । जैसा माँ का हृदय (आचार , विचार ,व्यवहार ) होगा वैसा ही बच्चे का हृदय निर्मित होगा ।

स्वांसोच्छ्वास की गिनती 

  • श्वासोच्छवास का अर्थ है प्राणों को निहारना अर्थात् जो श्वास चल रहे हैं उसमें भगवन्नाम मिला कर उनको देखना ।
  • श्वास अंदर जाय तो ऊँ , हरि, गुरु या जो भी भगवन्नाम प्यारा लगे और बाहर आए तो 1 , अंदर जाय तो शिव , बाहर आए तो 2 । अपना प्रयत्न नहीं रखना है , बल्कि जो श्वास स्वाभाविक चल रहा हो , उसीमें करना है ।
  • इससे शरीर में विद्युत तत्व बढ़ता है जिससे शरीर निरोग रहता है ।
  • प्राणों को तालबद्ध करने से मन एकाग्र बनता है ।
  • बुद्धि का विकास होगा ।
  • तालबद्धता में एक प्रकार का सुख और सामर्थ्य छुपा है ।
  • हमारे प्राण अगर तालबद्ध चलने लग जायें तो सूक्ष्म बनेंगे ।
  • श्वास तालबद्ध होगा तो दोष अपने आप दूर हो जायेंगे ।
  • श्वास तालबद्ध नहीं है इसीलिए क्रोध , शोक , मोह , रोग आदि सब दोषों का प्रभाव पड़ता है । (दैवी संपदा – पेज नं-96 )
  • चित्त में कुछ बोझ है तो शुद्ध हवा में मुँह के द्वारा लम्बे –लम्बे श्वास लो । नथुनों से बाहर निकालो , फिर मुँह से लम्बे श्वास लो और नथुनों से बाहर निकालो ।

 जप 

  • जप क्या है जप कोई क्रिया नहीं, वरन् भगवान की पुकार है ।
  • मंत्रजप से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है ।
  • आत्मिक बल बढ़ता है ।
  • मंत्रजप से चित् पावन होने लगता है ।
  • रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं ।
  • वैज्ञानिक भी बताते हैं जप का प्रभाव हमारे रक्त के कणों पर भी पड़ता है । हमारे स्वभाव पर भी पड़ता है ।
  • जैसे ध्वनि-तरंगें दूर-दूर तक जाती हैं, ऐसे ही नाम-जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं । इससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होने लगता है ।
  • नामजप से हृदय में निर्मलता आती है ।
  • जप करते समय, कीर्तन करते समय, ध्यान करते समय अपने दिल और दिमाग को दिव्य भावना से भर दो… कि हमारा हमारा रोम-रोम….. हमारी रग-रग पावन हो रही है परमात्म प्रेम से ।
  • जप करते समय क प्रकार का आभामण्डल बनता है, सूक्ष्म तेज बनता है । उससे शरीर में स्फूर्ति आती है ।
  • जप करते समय अगर आसन पर नहीं बैठोगे तो शरीर की विद्युत शक्ति को अर्थिंग मिल जाएगी । अतः आसन पर बैठकर ही प्राणायाम, जप-तप, ध्यान भजन करना चाहिए ।
  • शास्त्रों में कहा है – कलियुग के हरिगुण गाहा …. । नामजप वो ऐसा साधन है जो कभी भी, कहीं भी, किसी भी अवस्था में किया जा सकता है । चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते इत्यादि ।
  • अधिकस्य जपं अधिकं फलं…
  • जितना अधिक जप होगा, उतना ही अधिक फल होगा ।
  • इससे स्पष्ट होता है कि हमारे जप का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ेगा ही । गर्भ में ही उसे भगवन्नाम जप के लाभ एवं संस्कार मिलेंगे ।

सत्संगश्रवण 

  • दिनभर में थोड़ा समय सत्संग-श्रवण के लिए अवश्य निकालना चाहिए ।
  • यदि आपकी दिनचर्या बहुत व्यस्त भी हो तो भी प्रतिदिन केवल 10 मि. से 15 मि. भी अवश्य सत्संग – श्रवण करें ।आपको बहुत लाभ होगा । प्रत्यक्षं किं प्रमाणम् ..
  • प्रह्लाद ने अपनी माता कयाधु के गर्भ में ही सत्संग – श्रवण किया था । तो उनमें भगवद् – भक्ति के कैसे प्रगाढ़ संस्कार पड़े , यह हम सभी जानते हैं ।
  • यदि आप भी नियमित रुप से सत्संग – श्रवण करेंगे तो आपके गर्भस्थ शिशु में भी संयम , सदाचार , भगवद्प्रेम आदि दैवी सद्गुणों का समावेश होगा ।
  • आप भी स्वयं को तरोताजा एवं तनाव रहित महसूस करेंगे ।
  • हर परिस्थिति में आप स्वयं को प्रसन्न रख सकेंगे ।

तुलसी जी को जल व परिक्रमा 

  • “तुलसी आयु, आरोग्य, पुष्टि देती है। दर्शनमात्र से पाप समुदाय का नाश करती है। स्पर्श करने मात्र से यह शरीर को पवित्र बनाती है और जल देकर प्रणाम करने से रोग निवृत्त करती है तथा नरकों से रक्षा करती है। इसके सेवन से स्मृति व रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।
  • तुलसीजी को जल चढ़ाना हिन्दू धर्म में पुण्यकर्म कहा गया है ।
  • तुलसीजी ‘विष्णुप्रिया’ भी कहलाती हैं ।
  • तुलसीजी को यह मंत्र बोलते हुए जल चढ़ायें – महाप्रसादजननी सर्वसौभाग्यवर्धिनी । आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलसि त्वां नमोडस्तु ते ।।
    फिर तुलस्यै नमः मंत्र बोलते हुए तिलक करें , अक्षत व पुष्प अर्पित करें ।
  • तुलसीजी का पूजन , दर्शन , सेवन व रोपण आधिदैविक , आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का नाश कर सुख-समृद्धि देनेवाला है ।
  • भगवान शिव कहते हैं : ” तुलसी सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है “। (पद्म पुराण )
  • तकनीकी विशेषज्ञ श्री के. एम. जैन ने एक विशेष यंत्र के माध्यम से परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला कि ‘ यदि कोई व्यक्ति तुलसी के पौधे या देशी गाय की नौ बार परिक्रमा करे तो उसके आभामंडल के प्रभाव क्षेत्र में तीन मीटर की आश्चर्यकारक बढ़ोतरी होती है ‘।
  • आभामंडल का दायरा जितना अधिक होगा व्यक्ति उतना ही अधिक कार्यक्षम , मानसिक रुप से क्षमतावान व स्वस्थ होगा ।
  • तुलसी पूजन से बुद्धिबल, मनोबल, चारित्र्यबल व आरोग्यबल बढ़ता है ।
  • पद्म पुराण में आता है – 

या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी।

रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी।।

प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता।

न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः।।

  • जो दर्शन करने पर सारे पाप-समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों में चढ़ाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है। (पद्म पुराणः उ.खं. 56.22)
  • जो तुलसी –पत्ते से टकराता हुआ जल अपने सिर पर धारण करता है , उसे गंगास्नान और 10 गोदान का फल मिलता है ।
    ‘श्रीं हीं क्लीं ऐं वृंदावन्यै स्वाहा ‘। इस दशाक्षर मंत्र के द्वारा विधिसहित तुलसी का पूजन करने से मनुष्य को समस्त सिद्धि प्राप्त होती है । (ब्रह्मवैवर्त पुराण , प्र. खं. -22-10-11)
  • तुलसी के पौधे के चारों ओर की 200-200 मीटर तक की हवा स्वच्छ और शुद्ध रहती है ।
    तुलसी का पौधा उच्छ्वास में ओजोन गैस छोड़ता है , जो विशेष स्फूर्तिप्रद है ।

शिशु की सुरक्षा के लिए रक्षा-कवच 

  • माता यदि गर्भकाल में रक्षा-कवच (आध्यात्मिक तरंगों का आभामंडल) बनाती है तो उस पर बाह्य हलके वातावरण व भूत-प्रेत, बुरी आत्माओं का प्रभाव नहीं पड़ता। साथ ही गर्भस्थ शिशु के आसपास भी सकारात्मक ऊर्जा से सम्पन्न आभामंडल विकसित होता है।

रक्षा-कवच धारण करने की विधि – प्रातः और सायं के संध्या-पूजन से पहले या बाद में उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुँह करके कम्बल आदि गर्म आसन पर सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठे। मेरुदंड सीधा हो। आँखें आधी खुली, आधी बन्द रखे। गहरा श्वास लेकर भीतर रोक के रखे। ‘ॐ’ या अपने इष्टमंत्र अथवा अपने गुरुमंत्र का जप करते हुए दृढ़भावना करे कि ‘मेरे इष्ट की कृपा का शक्तिशाली प्रवाह मेरे अंदर प्रवेश कर रहा है और मेरे चारों ओर सुदर्शन चक्र सा एक इन्द्रधनुषी प्रकाश घना होता जा रहा है, दुर्भावनारूपी अंधकार विलीन हो गया है। सात्त्विक प्रकाश-ही-प्रकाश छाया है। सूक्ष्म आसुरी शक्तियों से मेरी रक्षा करने के लिए वह रश्मिल चक्र सक्रिय है। मैं पूर्णतः निश्चिंत हूँ।’ ऐसा एक मानसिक चित्र बना ले।
श्वास जितनी देर भीतर रोक सके, रोके। मन-ही-मन उक्त भावना को दोहराये। अब धीरे-धीरे ‘ॐ….’ का दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकाले और भावना करे कि ‘मेरे सारे दोष, विकार भी बाहर निकल रहे हैं। मन-बुद्धि शुद्ध हो रहे हैं।’ श्वास खाली होने के बाद तुरंत श्वास न ले। यथाशक्ति बिना श्वास रहे और भीतर-ही-भीतर ‘हरि ॐ…. हरि ॐ….’ या इष्टमंत्र का मानसिक जप करे। ऐसे 10 प्राणायाम के साथ उच्च स्वर से ‘ॐ….’ का गुंजन करते हुए इन्हीं दिव्य विचारों-भावनाओं से अपने चहुँओर इन्द्रधनुषी आभायुक्त प्राणमय सुरक्षा-कवच को प्रतिष्ठित करे, फिर शांत हो जाय, सब प्रयास छोड़ दे। कुछ सप्ताह ऐसा करने से आपके रोमकूपों से जो आभा निकलेगी उसका एक रक्षा-कवच बन जायेगा। जो आपके गर्भ को सुरक्षित रखेगा।

गर्भसंवाद 

गर्भसंवाद अर्थात् गर्भवती का गर्भस्थ शिशु से वार्तालाप । गर्भवती को नियमित रूप से अपने शिशु में सद्गुणों के सिंचन हेतु उससे संवाद करना चाहिए । 

चंद्ग व सूर्य ग्रहण के दौरान 

गर्भिणी के लिए ग्रहण के कुछ नियम विशेष पालनीय होते हैं । इन्हें कपोलकल्पित बातें अथवा अंधविश्वास नहीं मानना चाहिए, इनके पीछे शास्त्रोक्त कारण हैं । ग्रहण के प्रभाव से प्रकृति के साथ-साथ शरीर व मन के क्रिया-कलापों में भी परिवर्तन होते हैं । ग्रहणकाल में कुछ कार्य करने से आशातीत लाभ होते हैं और कुछ से अत्यधिक हानि । सभी उन्हें न भी समझ सकें परंतु उनका पालन करना जरुरी है इसलिए हमारे हितैषी ऋषि-मुनियों के द्वारा इन कार्यों का नियम के रूप में समाज में प्रचलन किया गया है । ध्यान रहे, इन नियमों से गर्भवती को अवगत करायें परंतु भयभीत नहीं करें।

क्या न करें

    • ग्रहण के दौरान गर्भिणी को लोहे से बनी वस्तुओं से दूर रहना चाहिए । वह अगर चश्मा लगाती हो और चश्मा लोहे का हो तो उसे ग्रहणकाल तक निकाल देना चाहिए । बालों पर लगी पिन या शरीर पर धारण किये हुए नकली गहने भी उतार दें ।
    • चाकू, कैंची, पेन, पेंसिल, सूई जैसी नुकीली चीजों का प्रयोग कदापि न करें ।
    • किसी भी लोहे की वस्तु, बर्तन, दरवाजे की कुंडी, ताला आदि को स्पर्श न करें ।
    • ग्रहण काल में भोजन बनाना, साफ-सफाई आदि घरेलू काम, पढ़ाई-लिखाई, कम्प्यूटर वर्क, नौकरी या बिजनेस आदि से सम्बन्धित कोई भी काम नहीं करने चाहिए क्योंकि इस समय शारीरिक और बौद्धिक क्षमता क्षीण होती है ।
    • ग्रहणकाल में घर से बाहर निकलना, यात्रा करना, चन्द्र अथवा सूर्य के दर्शन करना निषिध्द है ।
    • इस दौरान पानी पीना, भोजन करना, लघुशंका तथा शौच जाना, सोना तथा स्नान करना, वज्रासन में बैठना भी निषिद्ध है ।
    • ग्रहणकाल से ४ घंटे पूर्व इस प्रकार अन्न-पान करें कि ग्रहण के दौरान शौचादि के लिए जाना न पड़े ।
    • ग्रहण के दौरान सेल्युलर फोन (मोबाइल) से निकले रेडिएशन्स से शिशु में स्थायी विकृति या मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है अत: इस समय मातायें फोन से दूर रहें ।

क्या करें 

    • गर्भवती ग्रहणकाल में गले में तुलसी की माला व चोटी में कुश धारण कर लें । ग्रहण से पूर्व देशी गाय के गोबर में तुलसी के पत्तों का रस मिलाकर पेट पर गोलाई से लेप करें । देशी गाय का गोबर उपलब्ध न हो तो गेरु मिट्टी अथवा शुद्ध मिट्टी का ही लेप कर लें, इससे ग्रहण के दुष्प्रभाव से गर्भ की रक्षा होती है ।
    • गर्भिणी सम्पूर्ण ग्रहण काल में कमरे में बैठकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ भगवन्नाम जप रूपी यज्ञ करें ।
    • ॐकार का दीर्घ उच्चारण करें ।अगर लम्बे समय तक नहीं बैठ पाये तो लेटकर भी जप कर सकती है |
    • जप करते समय गंगाजल पास में रखें । ग्रहण छूटने पर माला को गंगाजल से पवित्र करें व स्वयं वस्त्रों के साथ सिर से स्नान कर लें ।
    • कश्यप ऋषि कहते हैं – 

सोमार्कौ सग्रहौ श्रुत्वा गर्भिणी गर्भवेश्मनी |

शान्तिहोमपराSSसीत मुक्तयोगं तु याचयेत ||

(-काश्यप संहिता, जातिसूत्रीयशारीराध्याय:)

अर्थात् – चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण का ज्ञान होने पर गर्भिणी को गर्भवेश्म अर्थात घर के भीतरी भाग में जाकर शान्ति होम आदि कार्यों में लगकर चन्द्र तथा सूर्य की ग्रह द्वारा मुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिए |

नैसर्गिक वेग 
गर्भिणी अधोवायु, मल, मूत्र, डकार, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, खाँसी, थकान का श्वास, जम्हाई, अश्रु व उलटी इन १३ वेगों को न रोके तथा बलपूर्वक इन वेगों को उत्पन्न भी नहीं करे ।
उठना-बैठना आदि 

सख्त व टेढ़े स्थान पर बैठना, पैर फैलाकर और झुककर ज्यादा समय बैठना वर्जित है।
शयन 
सीधे न सोकर करवट बदल-बदलकर सोये। घुटने मोड़कर न सोये।
यात्रा 

वस्त्र 

चुस्त व गहरे रंग के कपड़े न पहने।
 
सहवास निषेध – सगर्भावस्था के दौरान समागम सर्वथा वर्जित है । 
  • दिन में नींद व देर रात तक जागरण न करे। दोपहर में विश्रांति ले, गहरी नींद वर्जित है।
  • सीधे व घुटने मोड़कर न सोये अपितु करवट बदल-बदल कर सोये।
  • सख्त व टेढ़े स्थान पर बैठना, पैर फैलाकर और झुककर ज्यादा समय बैठना वर्जित है।
  • गर्भिणी अपानवायु, मल, मूत्र, डकार, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, खाँसी, आयासजन्य श्वास, जम्हाई, अश्रु इन स्वाभाविक वेगों को न रोके तथा यत्नपूर्वक वेगों को उत्पन्न न करे।
  • इस काल में समागम सर्वथा वर्जित है।
  • सुबह की हवा में टहलना लाभप्रद है।
  • आयुर्वेदानुसार 9 मास तक प्रवास वर्जित है।
  • चुस्त व गहरे रंग के कपड़े न पहने।
  • अप्रिय बात न सुने व वाद-विवाद में न पड़े। जोर से न बोले और गुस्सा न करे। मन में उद्वेग उत्पन्न करने वाले वीभत्स दृश्य, टीवी सीरीयल न देखे व ऐसे साहित्य, नॉवेल आदि भी पढ़े-सुने नहीं। तीव्र ध्वनि एवं रेडियो भी न सुने।
  • दुर्गन्धयुक्त स्थान पर न रहे तथा इमली के वृक्ष के नजदीक न जाय।
  • मैले, अपवित्र, विकृत व्यक्ति को स्पर्श न करें।
  • शरीर के समस्त अंगों को सौम्य कसरत मिले इस प्रकार के घर के कामकाज करते रहना गर्भिणी के लिए अति उत्तम होता है।
  • सगर्भावस्था में प्राणवायु की आवश्यकता अधिक होती है अतः दीर्घ श्वसन (दीर्घ श्वास) वह हलके प्राणायाम का अभ्यास करे। पवित्र, कल्याणकारी, आरोग्यदायक भगवन्नाम जप करे।
  • मन को शांत व शरीर को तनावरहित रखने के लिए प्रतिदिन थोड़ा समय शवासन (शव की नाईं पड़े रहना) का अभ्यास करे।
  • शांति होम एवं मंगल कर्म करे। देवता, ब्राह्मण, वृद्ध एवं गुरुजनों को प्रणाम करे।
  • भय, शोक, चिंता, क्रोध को त्यागकर नित्य आनंदित व प्रसन्न रहे। ऊपर दी गयी सावधानियों का गर्भ व मन से गहरा संबंध होता है। अतः गर्भिणी दिये गये निर्देशों के अनुसार अपनी दिनचर्या निर्धारित करे।

 

गीता में भगवान कहते हैं –

प्रभास्मि शशिसूर्ययो ।

हे अर्जुन मैं चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ । चंद्रमा की किरणें गर्भ को पुष्ट करती हैं । किसी महिला को यदि डॉक्टर बोलें कि गर्भ विकसित नहीं हुआ है, गर्भपात कार दो । तो डॉक्टरों की गर्भपात कराने की बात मन मानो । चंद्रमा की किरणों में इस प्रकार बैठो जिससे नाभि पर चंद्रमा की किरणें पड़ें और भावना करो कि ‘ऊँ ऊँ पुष्टो भव । बलवानो भव । बुद्धमानो भव । ऊँ ऊँ ऊँ … श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे… भगवान मृतक गर्भ की भी रक्षा कर देते हैं तो मेरा तो जिंदा गर्भ है, उसको कृष्ण अपने रंग से रँग दें… ।’ अमृतमय हो जायेंगी चंद्रमा की किरणें ।

विहार

जागरण 

  • प्रातः 4- 4:30 के बीच उठें ।
  • प्रातः जागरण – सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में शय्या का त्याग करने से अंतःकरण में सत्वगुण की पुष्टि होती है ।
  • गर्भस्थ शिशु ओजस्वी-तेजस्वी, बल-बुद्धि एवं शरीर से स्वस्थ होता है ।
  • थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना ।
  • शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है । ब्रह्ममुहूर्त में उठनेवाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते हैं और सोते रहनेवालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

शांत बैठना

  • सुबह उठकर शांत बैठें – ‘भगवान मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो’ । ॐ शांति… ॐ आनंद … 
  • आपका मन कल्पवृक्ष है । जैसा दृढ़ चिंतन करते हैं, वैसा ही होने लगता है ।
  • धैर्यपूर्वक चिंतन करें, मेरे गर्भ में जो जीवात्मा है वह अवश्य तेजस्वी होगी ।
  • आज का पूरा दिन मैं प्रसन्न रहूँगी । जो भी परिस्थिति आए, हमें दुःखी या चिंतित नहीं होंगे । मेरे प्रभु मेरे साथ हैं ।

                                                                               

उदर स्पर्श 

  • भगवान को प्रार्थना करके दोनों हाथों की हथेलियाँ आपस में रगड़ें और उदर पर स्पर्श करते हुए भावना करें; ‘ॐ… ॐ… ॐ… मेरी आरोग्यशक्ति जग रही है, ॐ… ॐ… ॐ…  मेरा गर्भस्थ शिशु प्रफुल्लित व आनंदित हो रहा है……उसका समुचित विकास हो रहा है, मेरे गर्भ में ईश्वर की दैवी शक्तियाँ प्रवेश कर रही हैं….।’ लगता तो साधारण-सा प्रयोग है लेकिन बहुत सारे फायदे होते हैं और दिव्य शक्तियों का संचार होता है ।

भूमिवंदन 

  • धरती माता के प्रति कृतज्ञता रखना मानवमात्र का कर्तव्य है।
  • पृथ्वी पर ही मनुष्य, पशु-पक्षी सभी निवास करते हैं।
  • पृथ्वी से ही अन्न, जल, औषधियाँ आदि प्राप्त होते हैं।
  • अत: हममें अपने को कुछ देनेवाले के प्रति कृतज्ञता का भाव सुविकसित हो इसलिए क्षमा-प्रार्थना का नियम शास्त्रों में बताया गया है ।
  • धरती माता को पैरों से स्पर्श करने से पूर्व हाथों से स्पर्श करें और प्रणाम करते हुए यह मंत्र बोलें:
    समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
    विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव ।। 

 स्वर अनुरूप दिन प्रारंभ

  • शांतचित्त से अपने इष्टदेव का सुमिरन कर मंत्रजप करते हुए जिस नथुने से श्वास चल रहा हो, उसी तरफ का हाथ चेहरे के उस ओर घुमायें और वही पैर धरती पर पहले रखें तो मनोरथ सफल होते हैं ।
  • दायाँ नथुना चलता हो तो दायाँ पैर और बायाँ नथुना चलता हो तो बायाँ पैर धरती पर पहले रखें ।

प्रातः भ्रमण 

  • प्रात: ब्राह्ममूहुर्त में वातावरण में निसर्ग की शुद्ध एवं शक्तियुक्त ओजोन वायु का बाहुल्य होता है जो स्वास्थय के लिए हितकारी है ।
  • प्रात:काल की वायु को, सेवत करत सुजान । तातें मुख छबि बढ़त है, बुद्धि होत बलवान ।।
  • प्रात:काल की शुद्ध वायु शरीर को स्वस्थ, मन को प्रसन्न रखने में सहायक है ।
  • इससे रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है ।
  • यह शुद्ध हवा गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास में भी मददरुप है ।
  • प्रात;काल हवामान में रजस-तमस का प्रभाव न्यूनतम मात्रा में होता है ।
  • इस समय ऋषि-मुनि ध्यानावस्था में होते हैं जिससे वातावरण में भी उनकी सूक्ष्म आध्यात्मिक तरगें प्रसारित होती रहती हैं ।

शौच के नियम 

  • शौच जाने से पूर्व सिर को ढकना चाहिए ।
  • सिर तथा कान ढककर जाने से रक्त तथा वायु की गति अधोमुखी हो जाती है, जिससे मल-त्याग में सहायता मिलती है ।
  • अपवित्र मल के परमाणुओं से शरीर के सिर आदि उत्तम तथा पवित्र अंगों की रक्षा होती है ।
  • इस समय दाँत भींचकर रखने से दाँत मजबूत बनते हैं ।
  • शौच के समय सर्वप्रथम शरीर का वजन बाएँ पैर पर अधिक रखें, फिर दाएँ पैर पर वजन बढाते हुए दोनों पैरों पर समान कर दें ।
  • आँतें अच्छी तरह साफ होने से वायु दोष नियंत्रित रहेगा और गर्भस्थ शिशु पर अनावश्यक दवाब नहीं पड़ेगा जिससे उससे विकास में बाधा भी नहीं पड़ेगी । (पेज नं- 26 , जीवन जीने की कला )

लघुशंका के नियम 

  • बायाँ स्वर चलते समय मूत्र त्याग करने से स्वास्थ्य सुदृढ़ रहता है ।
  • लघुशंका जाने के बाद इन्द्रिय को पानी से धो लेना चाहिए । हाथ-पैर धोकर आँख-कान को पानी का स्पर्श करना चाहिए ।
  • तीन कुल्ला करके तीन आचमन लेना चाहिए, इससे सत्वगुण की रक्षा होती है । (पेज नं- 26 , मंत्रजाप अनुष्ठान)

     

     

मंत्र सहित स्नान का महत्व

    • प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान कर लेना चाहिए । सुबह सात बजे के बाद दो मल त्याग करते हैं उन्हें अनेक बीमारियाँ होती हैं ।
    • स्नान सदाचरण का, सनातन सुख का एक मुख्य अंग है । स्नान से सात्विकता बढ़ती है जो हमें उचित-अनुचित के निर्णय या दैनिक जीवन की समस्याओं के निराकरण में भी मददरुप है ।
    • स्नान करते समय ॐ ह्रीं गंगायै ॐ ह्रीं स्वाहा मंत्र बोलते हुए सिर पर पानी डालें तो गंगा-स्नान का पुण्य होता है ।
    • अगर प्रार्थना करते हुए स्नान करते हैं तो वह आपका परमात्म-स्नान हो जाएगा, ‘अंतर्यामी ईश्वर को मैं स्नान करवा रहा हूँ । शरीर को स्नान कराता हूँ लेकिन अंतरतम चैतन्य प्रभु , मैं तुझे स्नान करवा रहा हूँ ।’
    • स्नान करते समय पैरों में विद्युत कुचालक (रबड़ आदि की) चप्पल होनी चाहिए ।
    • शरीर की मजबूती और आरोग्यता के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान करना चाहिए ।
    • साबुन व शैम्पू स्वास्थ्य व ज्ञानतंतुओं को नुकसान करते हैं क्योंकि इनमें रसायन होते हैं ।
    • मुलतानी मिट्टी अथवा सप्तधान्य उबटन से स्नान स्वास्थ्यवर्धक , पापनाशक और पुण्य व स्फूर्तिवर्धक होता है । साथ ही सात्विकता , आरोग्यता व प्रसन्नता भी बढ़ायेगा ।
    • ॐ भूधराय नमः । इस मंत्र से स्नान स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता का लाभ देता है । 

संध्या 

  • प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय के 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक , दोपहर के 12 बजे से 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक एवं शाम को सूर्यास्त के 10 मि. पहले से 10 मि. बाद तक का समय संधिकाल कहलाता है ।
  • इड़ा और पिंगला नाड़ी के बीच जो सुषुम्ना नाड़ी है, जिसे अध्यात्म की नाड़ी भी कहते हैं। उसका मुख संधिकाल में ऊर्ध्वगामी होने से इस समय प्रणायाम, जप, ध्यान करने से सहज में ज्यादा लाभ होता है ।
  • संध्या करने से मन निर्मल होता है ।
  • शरीर की स्वस्थ्ता, मन की पवित्रता और अंतःकरण की शुद्धि भी संध्या से प्राप्त होती है ।
  • आध्यात्मिक उन्नति के लिए त्रिकाल संध्या का नियम बहुत उपयोगी है ।
  • त्रिकाल संध्या करनेवाले को कभी रोजी-रोटी की चिंता नहीं करनी पड़ती ।
  • त्रिकाल संध्या करने से असाध्य रोग भी मिट जाते हैं ।
  • ओज, तेज, बुद्धि एवं जीवनशक्ति का विकास होता है ।
  • हमारे ऋषि-मुनि एवं श्रीराम तथा श्रीकृष्ण आदि भी त्रिकाल संध्या करते थे । इसलिए हमें भी त्रिकाल संध्या करने का नियम लेना चाहिए ।

तिलक का महत्व  

  • स्त्रियों का मन और प्राण स्वाधिष्ठान और मणिपुर केन्द्र (नाभि केन्द्र) में ज्यादा रहते हैं ।
  • स्वाधिष्ठान और मणिपुर केन्द्रों में भय, भावना आदि की अधिकता होती है, इसलिए स्त्रियों को हररोज तिलक करने की आज्ञा शास्त्रों ने दी है ।
  • मस्तक पर तिलक लगाने से चित्त की एकाग्रता विकसित होती है तथा मस्तिष्क में पैदा होनेवाले, असमंजस की स्थिति से मुक्त होते हैं ।
  • ललाट पर तिलक करने से आज्ञाचक्र और उसके नजदीक की शीर्ष (पीनियल) और पीयूष (पिट्युटरी) ग्रंथियों को पोषण मिलता है ।
  • यह बुद्धिबल व सत्वबल वर्धक है तथा विचारशक्ति को भी विकसित करता है ।
  • अतः तिलक लगाना आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक – दोनों दृष्टिकोणों से बहुत लाभदायक है ।
  • इससे आप किसी भी बात को शीघ्रता से और आसानी से ग्रहण कर सकेंगे ।
  • ललाट पर तिलक लगाने से शिवनेत्र विकसित होता है ।
  • भावना के साथ विचार भी विकसित होते हैं ।
  • ललाट पर नियमित रुप से तिलक करते रहने से मस्तिष्क के रसायनों – सेरोटोनिन व बीटा एंडोर्फिन का स्राव संतुलित रहता है जिससे मनोभावों में सुधार आकर उदासी दूर होती है सिरदर्द नहीं होता तथा मेधाशक्ति तीव्र होती है ।
  • महिलाओं द्वारा भ्रूमध्य तथा मांग में केमिकल रहित शुद्ध सिंदूर या कुमकुम लगाने से मस्तिष्क संबंधी क्रियाएँ नियंत्रित , संतुलित तथा नियमित रहती है एवं मस्तिष्कीय विकार नष्ट होते हैं ।
  • केमिकलयुक्त प्लास्टिक की बिंदिया, सिंदूर व कुमकुम लाभ के बजाय हानि करते हैं । ये चिड़चिड़ापन लायेंगे, गलत निर्णय लायेंगे ।
  • ज्योतिष के अनुसार तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है ।
  • देशी गाय की चरणरज (गोधूलि) का तिलक करने से भाग्य की रेखाएँ बदल जाती हैं ।
  • प्लास्टिक की बिंदियों में जानवरों के अंगों से बना सरेस द्रव्य डाला जाता है जो हानि करता है ।
  • प्राकृतिक पदार्थों से बनाया गया सिंदूर या कुमकुम ही लाभ करता है ।

ॐकार गुंजन 

  • ॐकार का गुंजन करते हुए अपना सारा ध्यान उस ध्वनि पर एकाग्र करें ।
  • 7 बार हरि ॐ का गुंजन करने से मूलाधार केन्द्र रुपांतरित होता है तो काम राम में, भय निर्भयता में और ईर्ष्या प्रेम में परिणत हो जाता है ।
  • सात बार हरि ॐ के गुंजन से मूलाधार केन्द्र में स्पंदन होता है एवं कई कीटाणु भाग खड़े होते हैं । (मंत्रजाप अनुष्ठान – पेज नं-38 )
  • गर्भवती में निर्भयता व प्रेममय स्वभाव का निर्माण होना जरुरी है ।
  • हरि ॐ गुंजन से आपको मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी ।
  • आप स्वयं को सहज अनुभव करेंगे ।
  • ज्ञानमुद्रा सहित ॐकी ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बंद होने लगेगी ।
  • ज्ञानमुद्रा से मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलती है ।
  • चित्त जल्दी शांत हो जाता है ।
  • आत्मशांति, आत्मबल व चित्तशुद्धि के लिए यह ज्ञानमुद्रा बड़ी सहायरुप होगी । (अलख की ओर – पेज नं-9 )
  • माँ का हृदय एकाग्र होना, हृदय निर्मल व शांत होना अति आवश्यक है क्योंकि माँ का हृदय बच्चे के हृदय से जुड़ा है । जैसा माँ का हृदय (आचार, विचार, व्यवहार) होगा वैसा ही बच्चे का हृदय निर्मित होगा ।

श्वासोश्वास की गिनती 

  • श्वासोच्छवास का अर्थ है प्राणों को निहारना अर्थात् जो श्वास चल रहे हैं उसमें भगवन्नाम मिला कर उनको देखना ।
  • श्वास अंदर जाय तो ॐ , हरि, गुरु या जो भी भगवन्नाम प्यारा लगे और बाहर आए तो 1 , अंदर जाय तो शिव, बाहर आए तो 2 । अपना प्रयत्न नहीं रखना है, बल्कि जो श्वास स्वाभाविक चल रहा हो, उसीमें करना है ।
  • इससे शरीर में विद्युत तत्व बढ़ता है जिससे शरीर निरोग रहता है ।
  • प्राणों को तालबद्ध करने से मन एकाग्र बनता है ।
  • बुद्धि का विकास होता है ।
  • तालबद्धता में एक प्रकार का सुख और सामर्थ्य छुपा है ।
  • हमारे प्राण अगर तालबद्ध चलने लग जायें तो सूक्ष्म बनेंगे ।
  • श्वास तालबद्ध होगा तो दोष अपने आप दूर हो जायेंगे ।
  • श्वास तालबद्ध नहीं है इसीलिए क्रोध, शोक, मोह, रोग आदि सब दोषों का प्रभाव पड़ता है । (दैवी संपदा – पेज नं-96 )
  • चित्त में कुछ बोझ है तो शुद्ध हवा में मुँह के द्वारा लम्बे-लम्बे श्वास लो । नथुनों से बाहर निकालो, फिर मुँह से लम्बे श्वास लो और नथुनों से बाहर निकालो ।

 जप 

  • जप क्या है जप कोई क्रिया नहीं, वरन् भगवान की पुकार है ।
  • मंत्रजप से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है ।
  • आत्मिक बल बढ़ता है । मंत्रजप से चित् पावन होने लगता है । रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं ।
  • वैज्ञानिक भी बताते हैं जप का प्रभाव हमारे रक्त के कणों पर भी पड़ता है । हमारे स्वभाव पर भी पड़ता है ।
  • जैसे ध्वनि-तरंगें दूर-दूर तक जाती हैं, ऐसे ही नाम-जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं । इससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होने लगता है । नामजप से हृदय में निर्मलता आती है ।
  • जप करते समय, कीर्तन करते समय, ध्यान करते समय अपने दिल और दिमाग को दिव्य भावना से भर दो… कि हमारा हमारा रोम-रोम….. हमारी रग-रग पावन हो रही है परमात्म प्रेम से ।
  • जप करते समय क प्रकार का आभामण्डल बनता है, सूक्ष्म तेज बनता है । उससे शरीर में स्फूर्ति आती है ।
  • जप करते समय अगर आसन पर नहीं बैठोगे तो शरीर की विद्युत शक्ति को अर्थिंग मिल जाएगी । अतः आसन पर बैठकर ही प्राणायाम, जप-तप, ध्यान भजन करना चाहिए ।
  • शास्त्रों में कहा है – कलियुग के हरिगुण गाहा …. । नामजप वो ऐसा साधन है जो कभी भी, कहीं भी, किसी भी अवस्था में किया जा सकता है । चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते इत्यादि ।
  • अधिकस्य जपं अधिकं फलं… जितना अधिक जप होगा, उतना ही अधिक फल होगा ।
  • इससे स्पष्ट होता है कि हमारे जप का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ेगा ही । गर्भ में ही उसे भगवन्नाम जप के लाभ एवं संस्कार मिलेंगे ।

सत्संगश्रवण 

  • दिनभर में थोड़ा समय सत्संग-श्रवण के लिए अवश्य निकालना चाहिए ।
  • यदि आपकी दिनचर्या बहुत व्यस्त भी हो तो भी प्रतिदिन केवल 10 मि. से 15 मि. भी अवश्य सत्संग – श्रवण करें ।आपको बहुत लाभ होगा । प्रत्यक्षं किं प्रमाणम् ..
  • प्रह्लाद ने अपनी माता कयाधु के गर्भ में ही सत्संग-श्रवण किया था । तो उनमें भगवद् भक्ति के कैसे प्रगाढ़ संस्कार पड़े, यह हम सभी जानते हैं ।
  • यदि आप भी नियमित रुप से सत्संग-श्रवण करेंगे तो आपके गर्भस्थ शिशु में भी संयम, सदाचार, भगवद्प्रेम आदि दैवी सद्गुणों का समावेश होगा ।
  • आप भी स्वयं को तरोताजा एवं तनाव रहित महसूस करेंगे ।
  • हर परिस्थिति में आप स्वयं को प्रसन्न रख सकेंगे ।

तुलसीजी को जल व परिक्रमा 

  • “तुलसी आयु, आरोग्य, पुष्टि देती है। दर्शनमात्र से पाप समुदाय का नाश करती है। स्पर्श करने मात्र से यह शरीर को पवित्र बनाती है और जल देकर प्रणाम करने से रोग निवृत्त करती है तथा नरकों से रक्षा करती है। इसके सेवन से स्मृति व रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।
  • तुलसीजी को जल चढ़ाना हिन्दू धर्म में पुण्यकर्म कहा गया है ।
  • तुलसीजी ‘विष्णुप्रिया’ भी कहलाती हैं ।
  • तुलसीजी को यह मंत्र बोलते हुए जल चढ़ायें – महाप्रसादजननी सर्वसौभाग्यवर्धिनी । आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलसि त्वां नमोडस्तु ते ।।
    फिर ॐ तुलस्यै नमः मंत्र बोलते हुए तिलक करें, अक्षत व पुष्प अर्पित करें ।
  • तुलसीजी का पूजन, दर्शन, सेवन व रोपण आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का नाश कर सुख-समृद्धि देनेवाला है ।
  • भगवान शिव कहते हैं : “तुलसी सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है”। (पद्म पुराण )
  • तकनीकी विशेषज्ञ श्री के.एम.जैन ने एक विशेष यंत्र के माध्यम से परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला कि ‘ यदि कोई व्यक्ति तुलसी के पौधे या देशी गाय की नौ बार परिक्रमा करे तो उसके आभामंडल के प्रभाव क्षेत्र में तीन मीटर की आश्चर्यकारक बढ़ोतरी होती है ‘।
  • आभामंडल का दायरा जितना अधिक होगा व्यक्ति उतना ही अधिक कार्यक्षम, मानसिक रूप से क्षमतावान व स्वस्थ होगा ।
  • तुलसी पूजन से बुद्धिबल, मनोबल, चारित्र्यबल व आरोग्यबल बढ़ता है ।
  • पद्म पुराण में आता है – 

या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी।

रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी।।

प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता।

न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः।।

  • जो दर्शन करने पर सारे पाप-समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों में चढ़ाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है। (पद्म पुराणः उ.खं. 56.22)
  • जो तुलसी –पत्ते से टकराता हुआ जल अपने सिर पर धारण करता है , उसे गंगास्नान और 10 गोदान का फल मिलता है ।
    ‘श्रीं हीं क्लीं ऐं वृंदावन्यै स्वाहा ‘। इस दशाक्षर मंत्र के द्वारा विधिसहित तुलसी का पूजन करने से मनुष्य को समस्त सिद्धि प्राप्त होती है । (ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्र.खं. -22-10-11)
  • तुलसी के पौधे के चारों ओर की 200-200 मीटर तक की हवा स्वच्छ और शुद्ध रहती है ।
  • तुलसी का पौधा उच्छ्वास में ओजोन गैस छोड़ता है , जो विशेष स्फूर्तिप्रद है ।

शिशु की सुरक्षा के लिए रक्षा-कवच 

माता यदि गर्भकाल में रक्षा-कवच (आध्यात्मिक तरंगों का आभामंडल) बनाती है तो उस पर बाह्य हलके वातावरण व भूत-प्रेत, बुरी आत्माओं का प्रभाव नहीं पड़ता। साथ ही गर्भस्थ शिशु के आसपास भी सकारात्मक ऊर्जा से सम्पन्न आभामंडल विकसित होता है।

रक्षा-कवच धारण करने की विधि – प्रातः और सायं के संध्या-पूजन से पहले या बाद में उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुँह करके कम्बल आदि गर्म आसन पर सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठे। मेरुदंड सीधा हो। आँखें आधी खुली, आधी बन्द रखे। गहरा श्वास लेकर भीतर रोक के रखे। ‘ॐ’ या अपने इष्टमंत्र अथवा अपने गुरुमंत्र का जप करते हुए दृढ़भावना करे कि ‘मेरे इष्ट की कृपा का शक्तिशाली प्रवाह मेरे अंदर प्रवेश कर रहा है और मेरे चारों ओर सुदर्शन चक्र सा एक इन्द्रधनुषी प्रकाश घना होता जा रहा है, दुर्भावनारूपी अंधकार विलीन हो गया है। सात्त्विक प्रकाश-ही-प्रकाश छाया है। सूक्ष्म आसुरी शक्तियों से मेरी रक्षा करने के लिए वह रश्मिल चक्र सक्रिय है। मैं पूर्णतः निश्चिंत हूँ।’ ऐसा एक मानसिक चित्र बना ले ।
श्वास जितनी देर भीतर रोक सके, रोके। मन-ही-मन उक्त भावना को दोहराये। अब धीरे-धीरे ‘ॐ….’ का दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकाले और भावना करे कि ‘मेरे सारे दोष, विकार भी बाहर निकल रहे हैं। मन-बुद्धि शुद्ध हो रहे हैं।’ श्वास खाली होने के बाद तुरंत श्वास न ले। यथाशक्ति बिना श्वास रहे और भीतर-ही-भीतर ‘हरि ॐ…. हरि ॐ….’ या इष्टमंत्र का मानसिक जप करे। ऐसे 10 प्राणायाम के साथ उच्च स्वर से ‘ॐ….’ का गुंजन करते हुए इन्हीं दिव्य विचारों-भावनाओं से अपने चहुँओर इन्द्रधनुषी आभायुक्त प्राणमय सुरक्षा-कवच को प्रतिष्ठित करे, फिर शांत हो जाय, सब प्रयास छोड़ दे। कुछ सप्ताह ऐसा करने से आपके रोमकूपों से जो आभा निकलेगी उसका एक रक्षा-कवच बन जायेगा। जो आपके गर्भ को सुरक्षित रखेगा ।

गर्भसंवाद 

गर्भसंवाद अर्थात् गर्भवती का गर्भस्थ शिशु से वार्तालाप । गर्भवती को नियमित रूप से अपने शिशु में सद्गुणों के सिंचन हेतु उससे संवाद करना चाहिए । 

गर्भ संस्कार के लिए दिन के निम्नलिखित तीन समय सबसे अच्छे माने गए हैं –
प्रातः काल: – इस समय हमारा मस्तिष्क, शरीर और मन पूरी तरह से शांत होता है । इस समय अगर ध्यान करते हुए माँ अपने शिशु के साथ गर्भसंवाद करती है तो वो बहुत ही ज़्यादा प्रभावशाली होता है ।
दोपहर: ये दिन का समय होता है। इस समय भी माँ आने शिशु के साथ गर्भ संवाद कर सकती है।
रात्रि में सोने से पूर्व किया गया गर्भ संवाद शिशु भी अत्यंत लाभदायक होता है ।

गर्भ संवाद के लाभ
• गर्भ संवाद शिशु के शारीरिक, मानसिक, सामजिक और आध्यात्मिक विकास में एक बहुत ही अहम भूमिका निभाता है ।
• गर्भ संवाद करने से माता-पिता और शिशु भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं ।
• गर्भ संवाद करते वक़्त माँ के अंदर सकारात्मकता और ख़ुशी के भाव पैदा होते हैं । शोध के मुताबिक़ देखा गया कि जब माँ खुश होती है तो उसमें पैदा होने वाले हैप्पी हार्मोन्स बच्चे को भी मिलते हैं। इन हार्मोन्स की वजह से बच्चे में पैदा होने वाली कई जेनेटिक बीमारियों की सम्भावना बहुत हद तक कम हो जाती है।
• जब माँ अपने शिशु से बातचीत करती है तो माँ को भी गर्भवस्था के दौरान होनेवाले तनावों से मुक्ति मिलती है।

चंद्ग व सूर्य ग्रहण के दौरान 

गर्भिणी के लिए ग्रहण के कुछ नियम विशेष पालनीय होते हैं । इन्हें कपोलकल्पित बातें अथवा अंधविश्वास नहीं मानना चाहिए, इनके पीछे शास्त्रोक्त कारण हैं । ग्रहण के प्रभाव से प्रकृति के साथ-साथ शरीर व मन के क्रिया-कलापों में भी परिवर्तन होते हैं । ग्रहणकाल में कुछ कार्य करने से आशातीत लाभ होते हैं और कुछ से अत्यधिक हानि । सभी उन्हें न भी समझ सकें परंतु उनका पालन करना जरुरी है इसलिए हमारे हितैषी ऋषि-मुनियों के द्वारा इन कार्यों का नियम के रूप में समाज में प्रचलन किया गया है । ध्यान रहे, इन नियमों से गर्भवती को अवगत करायें परंतु भयभीत नहीं करें।

क्या न करें

    • ग्रहण के दौरान गर्भिणी को लोहे से बनी वस्तुओं से दूर रहना चाहिए । वह अगर चश्मा लगाती हो और चश्मा लोहे का हो तो उसे ग्रहणकाल तक निकाल देना चाहिए । बालों पर लगी पिन या शरीर पर धारण किये हुए नकली गहने भी उतार दें ।
    • चाकू, कैंची, पेन, पेंसिल, सूई जैसी नुकीली चीजों का प्रयोग कदापि न करें ।
    • किसी भी लोहे की वस्तु, बर्तन, दरवाजे की कुंडी, ताला आदि को स्पर्श न करें ।
    • ग्रहण काल में भोजन बनाना, साफ-सफाई आदि घरेलू काम, पढ़ाई-लिखाई, कम्प्यूटर वर्क, नौकरी या बिजनेस आदि से सम्बन्धित कोई भी काम नहीं करने चाहिए क्योंकि इस समय शारीरिक और बौद्धिक क्षमता क्षीण होती है ।
    • ग्रहणकाल में घर से बाहर निकलना, यात्रा करना, चन्द्र अथवा सूर्य के दर्शन करना निषिध्द है ।
    • इस दौरान पानी पीना, भोजन करना, लघुशंका तथा शौच जाना, सोना तथा स्नान करना, वज्रासन में बैठना भी निषिद्ध है ।
    • ग्रहणकाल से ४ घंटे पूर्व इस प्रकार अन्न-पान करें कि ग्रहण के दौरान शौचादि के लिए जाना न पड़े ।
    • ग्रहण के दौरान सेल्युलर फोन (मोबाइल) से निकले रेडिएशन्स से शिशु में स्थायी विकृति या मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है अत: इस समय मातायें फोन से दूर रहें ।

क्या करें 

    • गर्भवती ग्रहणकाल में गले में तुलसी की माला व चोटी में कुश धारण कर लें । ग्रहण से पूर्व देशी गाय के गोबर में तुलसी के पत्तों का रस मिलाकर पेट पर गोलाई से लेप करें । देशी गाय का गोबर उपलब्ध न हो तो गेरु मिट्टी अथवा शुद्ध मिट्टी का ही लेप कर लें, इससे ग्रहण के दुष्प्रभाव से गर्भ की रक्षा होती है ।
    • गर्भिणी सम्पूर्ण ग्रहण काल में कमरे में बैठकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ भगवन्नाम जप रूपी यज्ञ करें ।
    • ॐकार का दीर्घ उच्चारण करें ।अगर लम्बे समय तक नहीं बैठ पाये तो लेटकर भी जप कर सकती है |
    • जप करते समय गंगाजल पास में रखें । ग्रहण छूटने पर माला को गंगाजल से पवित्र करें व स्वयं वस्त्रों के साथ सिर से स्नान कर लें ।
    • कश्यप ऋषि कहते हैं – 

सोमार्कौ सग्रहौ श्रुत्वा गर्भिणी गर्भवेश्मनी |

शान्तिहोमपराSSसीत मुक्तयोगं तु याचयेत ||

(-काश्यप संहिता, जातिसूत्रीयशारीराध्याय:)

अर्थात् – चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण का ज्ञान होने पर गर्भिणी को गर्भवेश्म अर्थात घर के भीतरी भाग में जाकर शान्ति होम आदि कार्यों में लगकर चन्द्र तथा सूर्य की ग्रह द्वारा मुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिए |

नैसर्गिक वेग 

गर्भिणी अधोवायु, मल, मूत्र, डकार, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, खाँसी, थकान का श्वास, जम्हाई, अश्रु व उलटी इन १३ वेगों को न रोके तथा बलपूर्वक इन वेगों को उत्पन्न भी नहीं करे ।

 
उठना-बैठना आदि 

सख्त व टेढ़े स्थान पर बैठना, पैर फैलाकर और झुककर ज्यादा समय बैठना वर्जित है।

 
शयन 

सीधे न सोकर करवट बदल-बदलकर सोये। घुटने मोड़कर न सोयें।

यात्रा 

वस्त्र 

चुस्त व गहरे रंग के कपड़े न पहनें ।

 
सहवास निषेध – सगर्भावस्था के दौरान समागम सर्वथा वर्जित है । 
  • दिन में नींद व देर रात तक जागरण न करे। दोपहर में विश्रांति ले, गहरी नींद वर्जित है।
  • सीधे व घुटने मोड़कर न सोये अपितु करवट बदल-बदल कर सोये।
  • सख्त व टेढ़े स्थान पर बैठना, पैर फैलाकर और झुककर ज्यादा समय बैठना वर्जित है।
  • गर्भिणी अपानवायु, मल, मूत्र, डकार, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, खाँसी, आयासजन्य श्वास, जम्हाई, अश्रु इन स्वाभाविक वेगों को न रोके तथा यत्नपूर्वक वेगों को उत्पन्न न करे।
  • इस काल में समागम सर्वथा वर्जित है।
  • सुबह की हवा में टहलना लाभप्रद है।
  • आयुर्वेदानुसार 9 मास तक प्रवास वर्जित है।
  • चुस्त व गहरे रंग के कपड़े न पहने।
  • अप्रिय बात न सुने व वाद-विवाद में न पड़े। जोर से न बोले और गुस्सा न करे। मन में उद्वेग उत्पन्न करने वाले वीभत्स दृश्य, टीवी सीरीयल न देखे व ऐसे साहित्य, नॉवेल आदि भी पढ़े-सुने नहीं। तीव्र ध्वनि एवं रेडियो भी न सुने।
  • दुर्गन्धयुक्त स्थान पर न रहे तथा इमली के वृक्ष के नजदीक न जाय।
  • मैले, अपवित्र, विकृत व्यक्ति को स्पर्श न करें।
  • शरीर के समस्त अंगों को सौम्य कसरत मिले इस प्रकार के घर के कामकाज करते रहना गर्भिणी के लिए अति उत्तम होता है।
  • सगर्भावस्था में प्राणवायु की आवश्यकता अधिक होती है अतः दीर्घ श्वसन (दीर्घ श्वास) वह हलके प्राणायाम का अभ्यास करे। पवित्र, कल्याणकारी, आरोग्यदायक भगवन्नाम जप करे।
  • मन को शांत व शरीर को तनावरहित रखने के लिए प्रतिदिन थोड़ा समय शवासन (शव की नाईं पड़े रहना) का अभ्यास करे।
  • शांति होम एवं मंगल कर्म करे। देवता, ब्राह्मण, वृद्ध एवं गुरुजनों को प्रणाम करे।
  • भय, शोक, चिंता, क्रोध को त्यागकर नित्य आनंदित व प्रसन्न रहे। ऊपर दी गयी सावधानियों का गर्भ व मन से गहरा संबंध होता है। अतः गर्भिणी दिये गये निर्देशों के अनुसार अपनी दिनचर्या निर्धारित करे।

 

गीता में भगवान कहते हैं – प्रभास्मि शशिसूर्ययो ।

हे अर्जुन ! मैं चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ ।

चंद्रमा की किरणें गर्भ को पुष्ट करती हैं । किसी महिला को यदि डॉक्टर बोलें कि गर्भ विकसित नहीं हुआ है, गर्भपात कार दो । तो डॉक्टरों की गर्भपात कराने की बात मत मानो । चंद्रमा की किरणों में इस प्रकार बैठो जिससे नाभि पर चंद्रमा की किरणें पड़ें और भावना करो कि ‘ॐ ॐ ॐ पुष्टो भव । बलवानो भव । बुद्धमानो भव । ॐ ॐ ॐ … श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे… भगवान मृतक गर्भ की भी रक्षा कर देते हैं तो मेरा तो जिंदा गर्भ है, उसको कृष्ण अपने रंग से रँग दें… ।’ अमृतमय हो जायेंगी चंद्रमा की किरणें ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।