गर्भाधान संस्कार

 मनुष्य सर्वधिक बुद्धिमान प्राणी है । वह प्राकृत पदार्थो तथा नियमों में अपनी बुद्धि से एयर कुछ संशोधन करके अधिक लाभ उठा सकता है । इसलिये गर्भाधान आदि संस्कारों की आवश्कता सिद्ध होती है ।

           स्मृति में कहा है कि गर्भाधान संस्कार से बीज (वीर्य) और गर्भाशय संबंधी दोष का मार्जन होता है और क्षेत्र का संस्कार होता है । यही गर्भाधान संस्कार का फल है । गर्भाधान करते समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं उसका प्रभाव रज-वीर्य में पड़ता है । उस रज-वीर्य से जानी संतान में वे भाव प्रकट होते हैं । ऐसी दशा से केवल कामवासना से प्रेरित होकर मैथुन करने पर उत्पन्न संतान भी कामुक ही होती है । अतः इस कामवासना को नियंत्रण में रखकर शास्त्रमर्यादानुसार केवल सन्तानोउत्पत्ति के लिये ही मैथुन कार्य में प्रवृत्त होते हैं वह मैथुन भगवान की विभूति है । गीता में कहा है :

       धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोsस्मि । (गीता : ७.११)

             ‘अमुक शुभ मूहर्त में अमुक शुभ मंत्र से प्राथना करके गर्भाधान करें’ इस विधान से कामुकता का दमन तथा शुभ भावना से भावित मन का सम्पादन हो जाता है । क्योंकि शुभ महूर्त तक प्रतीक्षा करना कामुकता का दमन किये बिना हो ही नहीं सकता । देवों से प्राथना करते समय मन अवश्य शुद्ध भावनामय होगा । शारीरिक स्वस्थता व मानसिक खिन्नता के कारण यदि स्त्री सहमत नहीं हो रही हो, ऐसी दशा में यदि गर्भाधान किया जायेगा तो जननी की अस्वस्थता तथा खिन्नता का प्रभाव जन्य बालक के शरीर और मन पर अवश्य पड़ेगा ।

             गर्भाधान के पहले पवित्र होकर द्रिजाती को इस मंत्र से प्राथना करनी चाहिये :

    गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि सरस्वती ।

    गर्भं तेsश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ।।

            “हे अमावस्या देवी ! हे सरस्वती देवी ! आप श्री को गर्भ धारण करने का सामर्थ्य देवें और उसे पुष्ट करें । कमलों की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तेरे गर्भ को पुष्ट करें ।”

दिव्य आत्मा का आह्वान

  • रात्रि के समय कम-से-कम तीन दिन पूर्व निश्चित कर लेना चाहिए। निश्चित रात्रि में संध्या होने से पूर्व पति-पत्नी को स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहन कर सदगुरू व इष्टदेवता की पूजा करनी चाहिए।
  • गर्भाधान एक प्रकार का यज्ञ है। इसलिए इस समय सतत यज्ञ की भावना रखनी चाहिए। विलास की दृष्टि नहीं रखनी चाहिए।
  • दम्पत्ति अपनी चित्तवृत्तियों को परमात्मा में स्थिर करके उत्तम आत्माओं का आवाहन करते हुए प्रार्थना करेः ‘हे ब्रह्माण्ड में विचरण कर रही सूक्ष्म रूपधारी पवित्र आत्माओ ! हम दोनों आपको प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारे घर, जीवन व देश को पवित्र तथा उन्नत करने के लिए आप हमारे यहाँ जन्म धारण करके हमें कृतार्थ करें। हम दोनों अपने शरीर, मन, प्राण व बुद्धि को आपके योग्य बनायेंगे।’
  • पुरुष दायें पैर से स्त्री से पहले शय्या पर आरोहण करे और स्त्री बायें पैर से पति के दक्षिण पार्श्व में शय्या पर चढ़े। तत्पश्चात शय्या पर निम्निलिखित मंत्र पढ़ना चाहिएः

अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि धाता
त्वां दधातु विधाता त्वां दधातु ब्रह्मवर्चसा भवेति।
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोम सूर्यस्तथाऽश्विनौ।
भगोऽथ मित्रावरूणौ वीरं ददतु मे सुतम्।।

हे गर्भ ! तुम सूर्य के समान हो। तुम मेरी आयु हो, तुम सब प्रकार से मेरी प्रतिष्ठा हो। धाता (सबके पोषक ईश्वर) तुम्हारी रक्षा करें, विधाता (विश्व के निर्माता ब्रह्मा) तुम्हारी रक्षा करें। तुम ब्रह्मतेज से युक्त होओ।
ब्रह्मा, बृहस्पति, विष्णु, सोम, सूर्य, अश्विनीकुमार और मित्रावरूण जो दिव्य शक्तिरूप हैं, वे मुझे वीर पुत्र प्रदान करें।

(चरक संहिता, शारीरस्थानः 8.8)

  • दम्पत्ति गर्भ के विषय मे मन लगाकर रहें। इससे तीनों दोष अपने-अपने स्थानों में रहने से स्त्री बीज को ग्रहण करती है। विधिपूर्वक गर्भाधारण करने से इच्छानुकूल फल प्राप्त होता है।

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