वेदारम्भ संस्कार

सोलह संस्कारों में वेदारम्भ 11वाँ संस्कार है । यह संस्कार ज्ञानार्जन से संबंधित है ।

वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अंदर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का । प्राचीनकाल में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद बालकों को वेदों के अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान दिलाने के लिए गुरुकुलों में भेजा जाता था । वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उनकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे । असंयमित जीवन जीनेवाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे ।

पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है कि ‘‘इस संस्कार के दिन गुरुकुल में विद्यार्थियों को प्रवेश कराया जाता था और वे पढ़ना आरम्भ करते थे । गुरु का दर्शन, सान्निध्य पाने और गुरु का अनुभव अपना अनुभव बनाने के लिए विद्यार्थी लोग लग जाते थे । व्याधि दूर करने के लिए कई दवाखाने हैं, कई अस्पताल हैं, कई ऑपरेशन थिएटर हैं, दवाइयों की दुकानें हैं… न जाने क्या-क्या हैं पत्तों और डालियों की मरम्मत करने के लिए परंतु मूल की सिंचाई करनेवाला तो कभी-कभी कोई द्वार होता है, उसे ‘गुरुद्वार’ कहते हैं । जिससे व्याधि निवृत्त होती है उसे अस्पताल कहते हैं लेकिन जिससे आधि और व्याधि दोनों का मूलोच्छेद हो जाता है उसे ‘गुरुकुल’ कहा जाता था, ‘आश्रम’ कहा जाता था ।

गुरुकुल शिक्षा-पद्धति से जो विद्यार्थी पढ़ते लिखते थे उनमें ओजस्विता तेजस्विता आती थी क्योंकि हमारे शरीर में 7 चक्र (केन्द्र) हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार इन केन्द्रों का विकास करने की पद्धति सद्गुरु लोग जानते थे । इसलिए पहले दीक्षा दी जाती थी । जीवन को सही दिशा देने के लिए दीक्षा बहुत आवश्यक है । दीक्षा का मतलब यह नहीं कि केवल कान फूँक दिया अथवा किसीको माला पकड़ा दी, नहीं ! ऊँची दिशा दी जाती थी कि ‘खाना-पीना और इन्द्रिय- लोलुपता का सुख तो पशु-पक्षी, घोड़े गधे, कुत्ते-बिल्ले भी पा लेते हैं, आपको ऊँचे-में ऊँचा आत्म-परमात्मसुख लेना है । ऊँचा जीवन जीने के लिए बाहर का आडम्बर नहीं, आंतरिक विकास करो । दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने बल का सदुपयोग करना ।’ जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है और अपने बल का सदुपयोग करता है वह निर्बलों की सहायता करेगा और अपने अधिकार व लोलुपता में आकर समाज की हानि नहीं करेगा, अपना भविष्य बरबाद नहीं करेगा । गुरुकुलों से इस प्रकार के उत्तम संस्कारों से युक्त होकर विद्यार्थी जब समाज में आता था तो अच्छी व्यवस्था होती थी । गुरुकुल में जो शिक्षण मिलता था अथवा ज्ञान मिलता था वह आत्मशक्ति का विकास करता था ।

अभी मैकाले शिक्षा-पद्धति में क्या चल रहा है कि ‘व्यक्तित्व का शृंगार करने के लिए हृदय अशुद्ध हो तो हो, वसूली के, घूस के, मिलावट के, हेराफेरी के पैसे आयें, दूसरा भूखा मरे, निर्धनों के बच्चे पढ़ें – न पढ़ें, गरीबों का शोषण होता हो तो हो लेकिन मेरे बेटे, मैं और मेरा परिवार सुविधा सम्पन्न रहें ।’ छोटे-से दायरे में व्यक्ति आ गया । तो गुरुकुल पद्धति में गुरु सुख अर्थात् ऊँचा सुख, शाश्वत सुख, ऊँचा ज्ञान, ऊँची समझ पाने की मौलिक शिक्षा मिलती थी और अंदर के चक्रों (केन्द्रों) का विकास होता था । आत्मा-परमात्मा का सुख लेने की पद्धति, इन्द्रियों को संयमित करने की और मन व इन्द्रियों को दिव्य ज्ञान में, दिव्य आत्मसुख में ले जाने की व्यवस्था गुरुकुलों में थी । इसमें ध्यान, जप और वैदिक ज्ञान बड़ी सहायता करता है । ऐसे गुरुकुलों की, ऐसे आश्रमों की समाज को अभी नितांत जरूरत है ।”

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