त्रिकाल संध्या क्यों ?

प्रात:काल सूर्योदय से पहले, दोपहर 12 बजे के आसपास और शाम को सूर्यास्त से 10 मिनट पहले और बाद का समय संधिकाल कहलाता है । इस समय किया गया भगवन्नाम जप, प्राणायाम, ध्यान, भजन, कीर्तन, स्मरण अत्यंत लाभकारी और पुण्यप्रदायक होता है क्योंकि इस समय हमारी सभी नाड़ियों की मूल आधारस्वरूप सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुला होता है । इस समय ईश्वर उपासना-पूजा करने से सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं, जीवनशक्ति और कुण्डलिनीशक्ति के जागरण में भी सहयोग मिलता है ।


त्रिकाल संध्या का अर्थ है हृदयरूपी घर की तीन बार साफ-सफाई । जो लोग त्रिकाल संध्या करते हैं उन्हें आजीविका की चिंता नहीं सताती, अकाल मृत्यु से रक्षा होती है और उनके कुल के दुष्ट आत्माएँ नहीं आतीं । व्यक्ति का मन शीघ्र ही निर्दोष एवं पवित्र हो जाता है । उनका शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है । उसके जन्म-जन्मांतर की मलिनता, पाप-ताप नष्ट हो जाते हैं । हृदय और फेफड़े स्वच्छ एवं शुद्ध होने लगते है । इसीलिए नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए नियमित त्रिकाल संध्या करने का शास्त्रों में विधान है ।


भगवान श्रीराम और वशिष्ठजी महाराज भी त्रिकाल संध्या करते थे । जहाँ भी रहो, तीनों समय थोड़े से जल का आचमन लेकर त्रिबंध प्राणायाम के साथ अपने इष्ट मंत्र का जप करना चाहिए ।


त्रिकाल संध्या के समय निद्रा, भोजन, टी.वी देखना आदि वर्जित बताया गया है । उस समय शरीर शुद्धि करके ईश्वर आराधना करनी चाहिए ।


स्वयं भी त्रिकाल संध्या करें, अपने बच्चों को भी त्रिकाल संध्या के लिए प्रेरित करें । अगर किसी कारण से त्रिकाल संध्या नहीं कर सकें तो दो समय की संध्या तो करनी ही चाहिए ।

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