शिशु की संभाल 

  • आयुर्वेद के श्रेष्ठ ग्रन्थ ‘अष्टांगहृदय’ तथा ‘कश्यप संहिता’ में सोलह संस्कारों के अंतर्गत बालकों के लिए लाभकारी सुवर्णप्राश का उल्लेख आता है । नवजात शिशु को जन्म से एक माह तक रोज नियमित रूप से सुवर्णप्राश देने से वह अतिशय बुद्धिमान बनता है और सभी प्रकार के रोगों से उसकी रक्षा होती है । सुवर्णप्राश मेधा, बुद्धि, बल, जठराग्नि तथा आयुष्य बढ़ानेवाला, कल्याणकारक व पुण्यदायी है । यह ग्रहबाधा व ग्रह पीड़ा को भी दूर करता है ।
  • शांत, स्वच्छ, पवित्र कमरे में बालक को रखें | वहाँ पूर्व दिशा की ओर दीपक जलाएँ एवं बालक की रक्षा के लिए गूगल, अगरु, वचा, पीली सरसों, घी तथा नीम के पत्तों को मिलाकर धूप करें ।
  • नवजात शिशु को लाइट के प्रकाश में तथा पंखे एवं एयर कंडीशन वातावरण में नहीं रखना चाहिए ।
  • बच्चे के जन्मने के बाद उसके मस्तिष्क में सृष्टि की संवेदनाओं को ग्रहण करने के लिए 24 घंटे के अंदर निश्चित प्रकार की प्रक्रियाएँ हो जाती हैं । इन 24 घंटों में बालक सहजता से जो संस्कार ग्रहण करता है, वे पूरे जीवन में फिर कभी ग्रहण नहीं कर सकता । इसलिए ऐसे प्रारंभिक काल की मस्तिष्क की क्रियाशीलता संवेदनशीलता का पूरा लाभ लेकर उसे सुसंकार से भर देना चाहिए |
  • बच्चे को संबोधित करते हुए कहना चाहिए कि ‘तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू चैतन्य है, तू अजर-अमर अविनाशी आत्मा है ! तू आनंदस्वरूप है, तू प्रेम स्वरूप है ! तेरा जन्म अपने स्वरूप को जानकर संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए ही हुआ है | इसलिए तू बहादुर बन, हिम्मतवान हो ! अपने में छुपी अपार शक्तियों को जाग्रत कर, तू सब कुछ करने में समर्थ है ।’ इस प्रकार के आत्मज्ञान, नीतिबल व शौर्यबल के संस्कार इस समय बालक को दिये जायें तो वे संस्कार हमेशा के लिए उसके जीवन में दृढ़ हो जाते हैं ।
  • बालक के जन्म के 30 या 31 वें दिन से उसे सूर्य की कोमल किरणों का स्नान और रात को चन्द्र-दर्शन कराना चाहिए तथा चाँदनी में कुछ समय रखना चाहिए ।
  • विदुषी मदालसा की तरह आत्मज्ञान की लोरियाँ गाकर सुसंस्कारों का सिंचन करें । लोरियाँ सुनने से बालक के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलती है ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।