पुंसवन संस्कार

पुंसवन संस्कार किसलिए ?

गर्भाधान संस्कार के बाद दूसरा संस्कार होता है पुंसवन संस्कार । पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : “माता के गर्भ में ३ महीने का शिशु है तो उसका पुंसवन संस्कार होता है । उस समय विधिवत् वैदिक मंत्र उच्चारे जाते हैं । अभी तो यह आचार-विचार में से लुप्त हो गया है ।”

आचार्य शौनक ऋषि का कहना है कि “यदि गर्भधारण के तीसरे मास में गर्भ के चिह्न प्रकट हो जायें तो तीसरे महीने में और यदि तीसरे मास में गर्भ व्यक्त न हो तो चौथे मास में पुंसवन संस्कार करना चाहिए ।”

गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है । हमारे मनीषियों ने संतानोत्कर्ष (संतान की उन्नति, श्रेष्ठता) के उद्देश्य से इस संस्कार को अनिवार्य माना है । प्रायः तीसरे महीने से गर्भ में शिशु के भौतिक शरीर का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है, जिससे शिशु के अंग व संस्कार दोनों अपना स्वरूप बनाने लगते हैं । गर्भस्थ शिशु पर माता-पिता के मन व स्वभाव का गहरा प्रभाव पड़ता है । अत: माता को मानसिक रूप से गर्भस्थ शिशु की भले प्रकार देखभाल करने योग्य बनाने के लिए इस संस्कार का विशेष महत्त्व है । गर्भाधान के तीसरे चौथे मास में गर्भपात की आशंका अधिक रहती है । इसलिए इन मासों में विशेषरूप से गर्भरक्षण के लिए पुंसवन तथा सीमंतोन्नयन संस्कार का विधान है ।

धर्मग्रंथों में पुंसवन संस्कार करने के २ प्रमुख उद्देश्य बताये गये हैं :
(१) पुत्र की प्राप्ति (२) स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान की प्राप्ति ।

पुत्रप्राप्ति के संबंध में ‘वीरमित्रोदय संस्कार-प्रकाश‘ ग्रंथ में आचार्य शौनक ऋषि कहते हैं :
पुमान् प्रसूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् ।
‘जिस कर्म से पुत्रोत्पत्ति होती है उसे पुंसवन संस्कार कहते हैं ।’

‘स्मृतिसंग्रह’ ग्रंथ में भी आता है : गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनम् ।
‘गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो इसलिए पुंसवन संस्कार का विधान है ।’

पुंसवन संस्कार कब ?

व्यवहार एवं आयुर्वेद में इच्छित लिंग संतान प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता है, ऐसा वर्णन है । जन्म लेनेवाला शिशु लड़का चाहिए या लड़की, इसलिए भी यह संस्कार करते हैं, किंतु वेदों में यह संस्कार सभी के लिए करना चाहिए और तेजस्वी, गुणवान संतान की प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए, ऐसा वर्णित है । इसलिए गर्भधारण होने के बाद दूसरे/चौथे/छठे या आठवें मास में यह संस्कार कर सकते हैं, ऐसा कहते हैं ।
आयुर्वेद के अनुसार, गर्भधारण होने के दो माह बाद गर्भ का लिंग सुनिश्चित होता है अर्थात् माहवारी बंद होने के बाद एक या डेढ़ माह में पता चल जाता है कि शिशु लड़का है या लड़की यानी उससे पहले शिशु का लिंग परिवर्तन हो सकता है । लेकिन लिंग परिवर्तन के लिए ही पुंसवन करना चाहिए, यदि ऐसा होता तो पुंसवन चौथे/छठे/आठवें माह में करने का आग्रह न करते ।
अव्यक्तः प्रथमे मासि सप्ताहात् कलली भवेत् ।
गर्भ: पुंसवानान्यय पूर्व व्यक्ते प्रयोजयेत् ॥
अर्थ – प्रथम मास का गर्भ अव्यक्त लिंग होता है । दूसरे माह के हफ्ते में धीरे-धीरे लिंग व्यक्त होने लगता है। गर्भ पर किये गये पुंसवन संस्कार गर्भ का लिंग व्यक्त होने से पहले करना चाहिए ।
आचार्य शौनक ऋषि का कहना है कि “यदि गर्भधारण के तीसरे मास में गर्भ के चिह्न प्रकट हो जायें तो तीसरे महीने में और यदि तीसरे मास में गर्भ व्यक्त न हो तो चौथे मास में पुंसवन संस्कार करना चाहिए ।”
गर्भ का लिंग बदल सकता है, यह प्राचीन युगों का विज्ञान सभी को मालूम होने के लिए व्यक्त किया गया है ।

आयुर्वेद के अनुसार पुंसवन कर्म

आयुर्वेद में इच्छानुसार पुत्र गर्भ या पुत्री गर्भ की प्राप्ति हेतु किये जानेवाले कर्म को ‘पुंसवन कर्म’ कहते हैं ।
(१) नस्य प्रयोग : पुत्र गर्भ की प्राप्ति हेतु
ऋतुकाल के सम दिन अर्थात् ८, १०, १२, १४, १६वें दिन स्त्री के दायें नथुने में एवं पुत्री गर्भ की प्राप्ति हेतु विषम दिन अर्थात् ५, ७, ९, १५वें दिन स्त्री के बायें नथुने में निम्न दो औषधियाँ (या इनमें से जो भी उपलब्ध हो) गौदुग्ध के साथ पीसकर पुत्र गर्भ के लिए २ से ४ बूँद व पुत्री गर्भ के लिए ३ से ५ बूँद प्रातःकाल डालें । औषध गले में आने पर थूकें नहीं, निगल जायें । (ऋतुकाल अर्थात् स्त्रियों में रजोदर्शन के प्रथम दिन से १६ दिन का समय, जिसमें वे गर्भधारण के योग्य मानी गयी हैं ।)
औषधियाँ :
१. पुष्य नक्षत्र में उखाड़ी हुई लक्ष्मणा मूल
२. बड़ की जटा का कोमल अग्रभाग या दो वटपत्रों के बीच के नवीन अंकुर (वटशृंग)
इस प्रकार किया गया पुंसवन कर्म स्त्री-शरीर विशेषकर स्त्री-बीज में इस प्रकार का परिवर्तन करता है कि वह वांछित शुक्राणुओं को ही आकर्षित कर अपने में प्रविष्ट होने देता है ऐसा वैद्यों का कहना है ।

इसके साथ ही दूसरे महीने में गर्भाधान निश्चित होने पर उपर्युक्त दवाएँ दो मास पूर्ण होने तक प्रयोग में लायें । यहाँ भी सम दिन जैसे कि ३२, ३४, ३६… वें दिन पुत्र गर्भ के लिए व विषम दिन जैसे ३१, ३३, ३५, ३७… वें दिन पुत्री गर्भ हेतु नस्य-प्रयोग करें ।

साथ ही निम्नलिखित प्राशन-प्रयोग गर्भोत्पत्ति एवं गर्भस्थापन हेतु प्रथम मास से तीन मासपर्यंत किया जाता है ।
(२) प्राशन-प्रयोग :
१. रोज पलाश का एक कोमल पत्ता दूध के साथ पीसकर लें ।
२. ब्राह्मी व गिलोय चूर्ण समभाग मिलाकर दो ग्राम सुबह-शाम दूध से लें ।
३. शिवलिंगी के बीज रोज सुबह (पुत्र गर्भ हेतु ४ या ६ बीज व पुत्री गर्भ हेतु ५ या ७ बीज) चबाकर खायें ।

आयुर्वेद के ज्ञाताओं का कहना है कि जैसे बलवान पुंसवन कर्म दैव को परिवर्तित कर देता है, उसी प्रकार बलवान दैव पुंसवन कर्म को निष्फल कर देता है । अतः ठीक ढंग से पुंसवन कर्म होने पर भी यदि दैवबल बलवान हो तो पुत्र या पुत्री गर्भ होना दैव के अधीन ही होगा । यदि पुंसवन कर्म बलवान होगा तो पुत्र गर्भ या पुत्री गर्भ शास्त्रोक्त नियमानुसार होगा ।

 

 

विशेष ध्यान देने योग्य

उपरोक्त जानकारी आप तक पहुँचाने का उद्देश्य मात्र इतना है कि आपकी गर्भस्थ संतान, चाहे वह पुत्र है अथवा पुत्री, इस अति आवश्यक संस्कार से वंचित न रह जाए । इसलिए पुंसवन संस्कार कब और किसलिए, इससे जुड़े अलग-अलग मतों के भ्रम में न उलझें । गर्भधारणा निश्चित होते ही वैदिक संस्कार के लिए किसी नजदीकी निष्णात ब्राह्मण देव से परामर्श लें । औषधीय संस्कार के लिए अपने नजदीकी आयुर्वेदिक वैद्य अथवा संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा चलाये जा रहे धनवंतरी आरोग्य केन्द्रों के वैद्यों का सम्पर्क करें ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।