दिव्य नैतिक मूल्यों का विकास

  • आप कृपा करके अपना सात्विक सामर्थ्य जगाइये, अपने हृदय में सौम्यता उभारिये और दुष्ट आदतों से अपना पिण्ड छुड़ाने का प्रयत्न कीजिये । खुशी और चित्त की प्रसन्नता अर्थात् सौम्यता में फर्क है । खुशी तो वासनावाले व्यक्ति को भी मिल जाती है परंतु सौम्यता तो हृदय की निर्मलता से प्राप्त होती है ।
  • विकारी खुशियाँ तो अंत में दुःखों, पीड़ाओं और मुसीबतों को जन्म देती है परंतु यह सौम्यता परमात्म-प्रसाद की जननी है । सौम्यता उन्हीं के पास होती है जिनता हृदय शुद्ध है ।
  • शुद्ध मन में सौम्यता का जो सुख प्रकट होता है वह सुख परमात्मा का प्रसाद कहलाता है और उस प्रसाद से सारे दुःखों का नाश हो जाता है ।
    अपने पड़ोसी को भी कटु वचन नहीं बोलने चाहिए, इससे अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है और आदमी मन की सौम्यता में प्रवेश नहीं पाता ।
  • अगर आपने वचन दे दिया है तो उस पर अडिग रहना चाहिए, इससे सौम्य भाव बढ़ाने में मदद मिलती है ।
  • ये सौम्य भाव आपकी तो उन्नति करेगा ही साथ ही आपके गर्भस्थ शिशु को भी सौम्यता के दिव्य गुण से ओतप्रोत कर देगा । 
  • महापुरुषों की सीख है कि “आप सबसे आत्मवत् व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए विशुद्ध निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है । संसार इसी की भूख से मर रहा है, अतः प्रेम का वितरण करो । अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो । उदारता के साथ उसे बाँटो, जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जायेगा ।”
  • प्रेम वह डोर है जिसके द्वारा ईश्वर ने इस सृष्टि में सभी को एक दूसरे से बाँध कर रखा है । यह प्रेम सृष्टि के कण-कण से झलकता है । सम्पूर्ण जगत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पवित्र प्रेम की ही अभिव्यक्ति है । जिसके बर्ताव में प्रेमयुक्त सहानुभूति नहीं है वह मनुष्य जगत में भाररूप है और जिसके हृदय में द्वेष है वह तो जगत के लिए अभिशापरूप है | अतः अपने हृदय में विशुद्ध प्रेम को जगाओ और आपके शिशु में भी उसको प्रवाहित होने दो | आपको अलौकिक सुख-शान्ति मिलेगी और आपके निमित्त से जगत में भी सुख-शान्ति का प्रवाह बहने लगेगा | आपकी संतान इस ईश्वरीय गुण से युक्त होकर अपना व आपका मंगल करनेवाली होगी ।   
  • कृतज्ञता अर्थात् ईश्वरीय वरदानों के प्रति आभार का भाव रखना ।
  • ईश्वर ने हमें कितना कुछ दिया है । यदि विचार करके देखें तो..सभी अंगों से परिपूर्ण यह मानव शरीर, जो ईश्वर कि सबसे उत्तम कृति है । अन्य जीवों में बुद्धि का विकास नहीं होता, परंतु मनुष्य चाहे तो बुद्धि का सदुपयोग करके भौतिक विकास के साथ-साथ अपने लक्ष्य को पा सकता है ।
  • मन, बुद्धि, भक्ति, विवेक सब कुछ परमात्मा ने ही तो दिया है । जरा विचार करें जब बच्चा जन्म लेता है तो माँ के शरीर में तैयार हुआ दूध, न गर्म न ठंडा, न मीठा, न फीका मिलता है ।……कैसी है उस परमेश्वर कि करुणा कृपा..!
  • हमें प्रतिदिन ईश्वर को उनकी कृपाओं के लिये, उनके उपकारों के लिये धन्यवाद देते रहना चाहिए । जिससे हमारे जीवन में अहंकार न रहकर विनम्रता का सद्गुण विकसित होगा ।
  • वही सद्गुण हमारे गर्भस्थ शिशु में भी सुविकसित होगा ।
  • क्षमा वीरों का भूषण है, साधकों की उच्चतम साधना है । अपनी भूल के लिए क्षमा माँग लेना और भूल करने वाले को क्षमा कर देना मानव का सुंदरतम आभूषण है । क्षमा अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन को सरसतम बनाने की अनुपम विद्या है ।

नरस्य भूषणं रूपं रूपस्य भूषणं गुणम्।

गुणस्य भूषणं ज्ञानं ज्ञानस्य भूषणं क्षमा।।

  • किसी के पास प्रकृतिप्रदत्त सुंदर रूप हो तो लौकिक दृष्टि से एक गुण माना जा सकता है । सुंदर रूप तो हो पर सदगुणविहीन हो तो ऐसा रूप भी किस काम का ! अतः रूप की शोभा गुणों से है। उत्तम गुणों से सम्पन्न होने पर भी यदि ज्ञान न हो तो व्यक्ति के सारे दुःख नहीं मिटेंगे ।
  • यहाँ ज्ञान का तात्पर्य लौकिक ज्ञान से नहीं बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान से है । यह भगवद्ज्ञान ही समस्त सदगुणों का धाम है और इसका आभूषण है ‘क्षमा’। जैसे वृक्ष फलयुक्त होकर झुक जाते हैं, वैसे ही ज्ञान से व्यक्ति क्षमाशील व नम्र हो जाता है । लौकिक ज्ञान तो स्कूल कालेजों में मिल जाता है पर भगवद्ज्ञान तो संतों के संग से ही मिलता है । वासुदेवः सर्वम्…. की सुंदर सीख तो संतों के पावन सान्निध्य से ही मिलती है । व्यक्ति के जीवन में यदि इस प्रकार के आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय न हो तो उसके सारे सदगुण उसके अहंकार को पुष्ट करके उसे पतन की खाई में धकेल देते हैं । यह अध्यात्म-ज्ञान जब जीवन में आता है तब क्षमाशीलता बुलानी नहीं पड़ती, स्वतः आ जाती है। क्षमा तो आभूषणों का भी आभूषण है !
  • गर्भिणी अपने व्यवहार में क्षमा का गुण विकसित करें । यदि किसी से कोई गलती हो भी गई तो गाँठ बाँध कर उससे बदला लेने की भावना, या उल्टा कुछ सुना देने की प्रवृत्ति को न अपनाकर क्षमा करने का अभ्यास करें । क्षमा आपको सच्ची शांति प्रदान करेगी व आपका शिशु भी क्षमाशील व शांत स्वभाव का होगा ।
  • सगर्भावस्था के दौरान अपने स्वभाव में विनम्रता का गुण विकसित करें ।
  • घर में सभी से नम्र व्यवहार करें । जब भी किसी से मिलें तो उसे यथा योग्य मान देने का भरसक प्रयास करें, ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष की बजाय उत्सव बन सके ।
  • जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है । विनम्रता विद्या बढ़ाती है ।
  • जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता ।
  • यदि आप चाहती हैं कि आपकी संतान विनम्र स्वभाव वाली हो तो केवल व्यवहार में दिखावे के लिए नहीं अपितु हृदय में विनम्रता जगाएँ । साथ-साथ महापुरुषों के जीवन प्रसंगों को पढ़कर या सुनकर उनके विनम्र व्यवहार से शिक्षा लें । यदि ऐसा करने में कठिनाई आती हो तो इस गुण के विकास के लिए ईश्वर से, गुरुदेव से प्रार्थना करें ।
  • विनम्रता से कई बार बड़ी-बड़ी समस्याएँ भी सरलता से हल हो जाती हैं । अतः विनम्र बनें ।
  • सारी शक्ति निर्भयता से प्राप्त होती है, इसलिए बिल्कुल निर्भय हो जाओ। फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा ।
  • निर्भयता की प्राप्ति के लिए आत्मा की शाश्वत सत्ता पर आस्था होना आवश्यक है । यह आस्था ही धर्म का स्वरूप है ।
  • मानव यदि निर्भय हो जाय तो जगत की तमाम-तमाम परिस्थितियों में सफल हो जाय ।
  • सद्विचारों और सत्कर्मो की एकरूपता ही चरित्र है । जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मो का रूप देते हैं उन्हीं को चरित्रवान कहा जा सकता है । संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है । चरित्र मानव जीवन की स्थाई निधि है । जीवन की स्थाई सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है ।
  • उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है । जिसने उत्तम चरित्र (किसी का भी अहित न चाहना और न करना, सच्चरित्रता, सदाचार, विनम्रता) और संतोष के गहने पहन लिये हैं, उसे सोने और हीरे-मोतियों की आवश्यकता नहीं रहती । 
  • आपके शिशु का अंतःकरण आपकी कल्पनाओं, विचारों, भावों,  स्वभाव व गुणों से निर्मित होता है अतः यदि आप भी चाहती हैं आपकी संतान जीवन के सच्चे धन को पहचाने व चरित्रवान हो तो गर्भावस्था से ही उसमें सच्चरित्रता के बीच का रोपण करें उसके लिए सर्वप्रथम अपने चरित्र को उज्जवल करें ।
  • प्रतिध्वनि ध्वनि का अनुसरण करती है और ठीक उसीके अनुरूप होती है | इसी प्रकार दूसरों से हमें वही मिलता है और वैसा ही मिलता है जैसा हम उनको देते हैं | अवश्य ही वह बीज-फल न्याय के अनुसार कई गुना बढ़कर मिलता है | सुख चाहते हो, दूसरों को सुख दो | मान चाहते हो, औरोँ को मान प्रदान करो | हित चाहते हो तो हित करो और बुराई चाहते हो तो बुराई करो | जैसा बीज बोओगे वैसा ही फल पाओगे |
  • यह समझ लो कि मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनंद, शान्ति और प्रेम का दान करती है और स्वयं आनंद, शान्ति और प्रेम को खींचकर बुलाती है | मीठी और हितभरी वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन को पवित्र शक्ति प्राप्त होती है और बुद्धि निर्मल बनती है | वैसी वाणी में भगवान का आशीर्वाद उतरता है और उससे अपना, दूसरों का, सबका कल्याण होता है | उससे सत्य की रक्षा होती है और उसीमें सत्य की शोभा है |
  • मुँह से ऐसा शब्द कभी मत निकालो जो किसीका दिल दुखावे और अहित करे | कड़वी और अहितकारी वाणी सत्य को बचा नहीं सकती और उसमें रहनेवाले आंशिक सत्य का स्वरूप भी बड़ा कुत्सित और भयानक हो जाता है जो किसीको प्यारा और स्वीकार्य नहीं लग सकता |
    सही बात भी असामयिक होने से प्रिय नहीं लगती | भगवान श्रीरामचंद्रजी अपने व्यवहार में, बोल-चाल में इस बात कर बड़ा ध्यान रखते थे की अवसरोचरित भाषण ही हो | वे विरुद्धभाषी नहीं थे | इससे से उनके द्वारा किसीके दिल को दुःख पहुचाने का प्रसंग उपस्थित नहीं होता था | वे अवसरोचारित बात को भी युक्ति-प्रयुक्ति से प्रतिपादित करते थे तभी उनकी बात का कोई विरोध नहीं करता था और न तो उनकी बात से किसीका बुरा ही होता था |
  • बात करने में दूसरों को मान देना, आप अमानी रहना यह सफलता की कुंजी है | 
  • मधुर व्यवहार की कला सीखकर गर्भिणी  वर्तमान के साथ-साथ गर्भ में पल रहे शिशु के रूप में अपने भविष्य को संँवार सकती है । 
  • परम सत्य की प्राप्ति के लिए, उच्च कुल में जन्म या पढ़ाई नहीं अपितु सत्यनिष्ठा आवश्यक है । यह गुण गर्भ में पल रहे बालक में विकसित हो इसलिए गर्भवती स्त्री को सत्यनिष्ठ बनना चाहिए फिर भले अपना दोष उजागर हो जाय, या कोई भी परिणाम आये ।
  • सगर्भावस्था में विचारों और भावनाओं में भी सत्यनिष्ठा लाओ । जो विचार गलत है उसका त्वरित ही त्याग करो । जो भावनायें गलत है उनको तुरंत ही त्याग दो । दंभ तो जरा भी न रखो । विचार अलग, वाणी अलग और आचरण तो उससे भी अलग तो ऐसी प्रकृति हो वहाँ सत्यनिष्ठा का पौधा विकसित नहीं हो सकता ।
  • साथ-साथ यह भी विचार करें कि इस जीवन का सत्य क्या है ? यह जगत का सत्य क्या है ? जीवन और जगत के सर्जन के पीछे ईश्वर का उद्देश्य क्या है ?
  • ऐसा आध्यात्मिक चिंतन करते हुए, व व्यवहार में सत्य का अवलंबन लेकर यदि आपकी सगर्भावस्था व्यतीत होगी तो निश्चित ही सत्यनिष्ठ संतान आपके मातृत्व को सार्थक करेगी ।
  • दूसरों के दुर्गुणों का विचार हमें भी दुर्गुणी बना सकता है ।  दूसरों के दोष देखने से स्वयं में भी वो दोष आने लगते है ।
  • सगर्भावस्था में माताओं को विशेष ध्यान रखना चाहिए अनावश्यक किसी के दोष का, किसी की कमी का चिंतन न हो । क्योंकि बार–बार किसीके दोष का चिंतन करने से आपके उस चिंतन का प्रभाव आपके गर्भस्थ शिशु पर पडेगा और वह भी जन्म से ही उस दोष से युक्त हो जाएगा ।
  • सबमें ईश्वर दर्शन का अभ्यास रखें तो आपका चित्त भी प्रसन्न रहेगा और आपकी संतान में भी प्रह्लाद जैसी दिव्य दृष्टी अर्थात सर्वत्र ईश्वर देखने की दृष्टी सुविकसित होगी ।
  • आज हमारे देश को ऐसी दिव्य संतानों की जरुरत है जो एक-दूसरे को लड़ाने – भिड़ानेवाली नहीं अपितु एक – दूसरे के बीच प्रेम और सामंजस्य बढ़ानेवाली हो ।
  • हे भारत देश की नारियों, आपके थोड़े से अनुशासन व पूर्ण अभ्यास से आज फिर से भारत देश को ऐसी दिव्य संतानों की प्राप्ति हो सकती है जिससे सारा देश, सारा विश्व सुविकसित हो उठेगा ।

 जननी जने तो भक्तजन…….

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।