जातकर्म संस्कार

सोलह संस्कारों में चौथा संस्कार है जातकर्म संस्कार । शिशु के जन्म लेने के बाद यह सबसे पहला संस्कार होता है । जन्म के बाद शिशु को शरीर, मन व बुद्धि से स्वस्थ रखने के लिए जो भी आवश्यक कर्म किये जाते हैं उन्हें जातकर्म संस्कार कहते हैं ।
पूर्व समय में शास्त्रों के विधान के अनुसार शिशु के जन्म के पश्चात 12 घड़ी (4.8 घंटे) से 16 घड़ी नाभि-छेद (लगभग साढ़े छः घंटे) के बाद ही नाल काटी जाती थी । इस बीच के समय में शिशु का जातकर्म संस्कार पूरा किया जाता था क्योंकि नालछेदन के बाद सूतक (जननाशौच) लग जाता है । इस संस्कार में मेधाजनन (शिशु को मेधावी बनाने हेतु घी-शहद के विमिश्रण को सोने की सलाई से चटाना), आयुष्यकरण (शिशु के दीर्घायुष्य हेतु उसके कान में पिता द्वारा मंत्रोच्चारण), जन्मभूमि की प्रार्थना, कुम्भ-स्थापना, अग्नि-स्थापना आदि करने के बाद ही नाल काटने का विधान था । परंतु समय बदलते ये सब विधान धीरे-धीरे विलुप्त होते गये और अब अस्पतालों में प्रसूति होने लगी । ऐसी स्थिति में युग-अनुरूप पथ-प्रदर्शन करते हुए इस संस्कार का लाभ पूज्य बापूजी हमें दिलाते हैं  ।
 
शिशु जन्मे तो क्या करें ?
पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है : “शिशु जन्मे तो नर्स, डॉक्टर या दाई को कह दो कि तुरंत उसका नाभि-छेदन न करें । रक्त-प्रवाह घूमता है तब तक नाभि-छेदन करेंगे है तो शिशु के गहरे मन में डर घुस जायेगा । फिर कर्नल, जनरल होने पर भी एक चुहिया पैरों में आये तो डर जायेंगे । First impression is the last impression. जन्म के समय जो भय घुस जाता है वह जीवनभर रहता है । शिशु जन्मे तो 4-5 मिनट तक उसका नाभि छेदन न हो । बाद में भगवद् वह मरा हुआ हिस्सा होने से पीड़ा नहीं होती, ऐसे ही प्रसूति के बाद करें तो रक्त-प्रवाह बंद हो जाता पर शिशु को पीड़ा नहीं होती ।” पूज्य बापूजी द्वारा सत्संग में बतायी जानेवाली नाल काटने संबंधी बातों को अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी कई शोध करने के बाद स्वीकार करने लगा है । डॉक्टर साराह बकली के अनुसार अगर 3 मिनट के बाद नाभि-छेदन करते हैं तो नवजात शिशु को लगभग 100 मि.ली. जितना अधिक खून मिलता है जो उसके कुल खून का 33 से 50 प्रतिशत जितना होता है । इसमें लौह तत्त्व, लाल रक्तकण, स्टेम सेल और अन्य पोषक तत्त्व होते हैं जो जीवन के प्रथम वर्ष में उसके लिए लाभदायी सिद्ध होते हैं । यदि जन्म के तुरंत बाद नाल को काटते हैं तो शिशु एकाएक तीव्र पीड़ा से व्यथित हो जाता है । यह पीड़ा शारीरिक या भावनात्मक हो सकती है । नाल-छेदन के बाद स्नान आदि करायें (स्नान आदि की विधि की जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ‘दिव्य शिशु संस्कार’ )  ।
 
शिशु को स्नान कराने के बाद क्या करना चाहिए इसके बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : “फिर बच्चे का पिता एक ग्राम शुद्ध शहद और आधा ग्राम देशी गाय के घी का मिश्रण करके उससे सोने की सलाई द्वारा बच्चे की जीभ पर ‘ॐ’ लिखे (घी व शहद का समान मात्रा में मिश्रण विष समान माना गया है) । सोने की सलाई नहीं बनवा सकते तो चाँदी की सलाई बनवाकर उस पर सोने का पानी चढ़वा दो । बहुत कम दाम में बन जायेगी । [ तत्पश्चात् ‘सुवर्णप्राश’ (सुवर्णप्राश टेबलेट) को घी व शहद के विषम प्रमाण के मिश्रण के साथ अनामिका उँगली (सबसे छोटी उँगली के पासवाली उँगली) से चटायें ।
 
फिर पिता का कर्तव्य है कि बच्चे को अपनी गोद में लेकर मीठे वचनों में बच्चे के दाहिने कान में कहे : ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अश्मा भव । तू चट्टान की नाई अडिग रहना ! जैसे चट्टान समुद्र, नदी के कई थपेड़ों में भी अपनी जगह पर होती है ऐसे ही संसार में सुख दुःख, लाभ-हानि में… कैसी भी परिस्थिति आये । तू अपने आत्मा में रहना । परिस्थितियाँ आने-जानेवाली हैं और तू सदा रहनेवाला है । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ परशुर्भव । दुःख, चिंता, विघ्न-बाधा, विकारों और प्रतिकूलताओं को ज्ञान के कुल्हाड़े से, विवेक के कुल्हाड़े से काटनेवाला बन ! ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हिरण्यमस्रुतं भव  । तू सुवर्ण की नाईं चमकना ! मेरे लाल ! तू एक कोने में जंगली फूल की तरह खिलकर मुरझाना मत वरन् ‘तू गुलाब होकर महक, तुझे जमाना जाने । सुवर्ण को जंग नहीं लगता । और चीजें परिवर्तित हो जाती हैं लोहे को रखे-रखे जंग लग जाय, ताँबे का रखे-रखे रंग बदल जाय पर सोना ज्यों-का-त्यों रहता है । तू ज्यों-क -का त्यों रह क्योंकि तू अमर आत्मा है । ऐसा किया तो तुमने बच्चों के लिए बहुत कर लिया । कुल खानदान में ऐसा बच्चा नहीं हुआ होगा जैसा यह होगा  । 
 
बापू के बच्चे, नहीं रहते कच्चे ! 
ऐसे बच्चों को भारत में लाना है, जिससे हम भारत को विश्वगुरु बनाने में जल्दी सफल हो जायें । चाहे बच्चा हो या बच्ची हो, चाहे कंगले का हो या अमीर का हो लेकिन भारतवासी यह कर्तव्य अवश्य करेंगे क्योंकि विश्व की आत्माओं का कल्याण होना है तो भारत से ही होना है, दूसरों की ताकत नहीं है । फिर जन्मे हुए बच्चे को माँ स्तनपान कराये  ।” 
 
सुवर्णप्राश क्यों ?
आयुर्वेद के श्रेष्ठ ग्रंथ ‘अष्टांगहृदय’ तथा ‘कश्यप संहिता’ में बालकों के लिए लाभकारी सुवर्णप्राश का उल्लेख आता है । नवजात शिशु को जन्म से लेकर एक माह तक प्रतिदिन सुवर्णप्राश देने से वह अतिशय बुद्धिमान बनता है और सभी प्रकार के रोगों से उसकी रक्षा होती है । यह प्रयोग 6 माह तक चालू रखने पर बालक श्रुतिधर होता है अर्थात् सुनी हुई बातों को धारण कर लेता है । सुवर्णप्राश बालकों के बौद्धिक, मानसिक तथा शारीरिक विकास के लिए अत्यंत उपयुक्त है । यह आयु, शक्ति, मेधा, बुद्धि, कांति व जठराग्निवर्धक तथा उत्तम गर्भपोषक है । गर्भवती महिला इसका सेवन करके निरोगी, तेजस्वी, मेधावी संतान को जन्म दे सकती है । विद्यार्थी भी धारणाशक्ति, स्मरणशक्ति तथा शारीरिक शक्ति बढ़ाने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं  ।
 
तेजस्वी व प्रभावशाली बालक हेतु 
पूज्य बापूजी कहते हैं: “बच्चे 2-3 महीने के हो जायें तो उनको दूध पिलाने के पहले व बाद में 1-2 घंटे का अंतर रखकर 2-3 तुलसी-पत्ते और एक बूँद शहद रगड़ के चटा दिया करो । एक साल के बच्चों को 4-5 तुलसी-पत्ते दे सकते हैं । इससे बच्चे तेजस्वी और पहलेवाले बच्चों से (अर्थात् जिन बच्चों को यह प्रयोग नहीं कराया उनसे) अधिक प्रभावशाली होंगे । दिव्य आत्माओं को जगत में लाना यह भी गृहस्थों के लिए एक साधना है और जगत में जो आये हैं उन्हें दिव्य बनाना यह भी साधना है ।”

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।