मातृदेवो भव-पितृदेवो भव

“माता, पिता और गुरुजनों का आदर करने वाला चिरआदरणीय हो जाता है।” – पूज्य बापू जी।

प्रातःकाल उठि के रघुनाथा ।

मातु पिता गुरु नावहिं माथा।। (श्रीरामचरितमानस)

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि ʹकौन बड़ा ?ʹ

कार्तिक ने कहाः “गणपति ! मैं तुमसे बड़ा हूँ ।”

गणपतिः “आप भले उम्र में बड़े हैं लेकिन गुणों से भी बड़प्पन होता है ।” निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास ।
शिव पार्वती ने कहाः “जो सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जायेगा ।”
कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने । गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये । थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा । फिर आये शिव-पार्वती के पास । माता-पिता का हाथ पकड़कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की एवं प्रदक्षिणा करने लगे । एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया… दूसरा चक्कर लगाकर फिर प्रणाम किया… इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं ।

शिव-पार्वती ने पूछाः “वत्स ! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की ?”
गणपतिः “सर्वतीर्थमयी माता…सर्वदेवमयः पिता… सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्र वचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है क्योंकि पितादेवस्वरूप हैं। अतः आपक परिक्रमा करके मैंने सम्पूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर ली हैं ।” तब से गणपति प्रथम पूज्य हो गये ।

ʹशिव पुराणʹ में आता हैः
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिंच करोति यः। तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम् ।।
ʹजो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल अवश्य सुलभ हो जाता है ।ʹ

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं । उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं ।।

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