जगन्नाथ रथयात्रा

27 जून जगन्नाथ रथयात्रा

           

     भारत के उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं 

गर्भवती माताओं के लिए यह जानना अत्यंत मंगलकारी है कि यह रथयात्रा राधा-कृष्ण स्वरूप भगवान की दिव्य लीला को जीवंत रूप में दर्शाती है। जब आप श्रद्धा से इन प्रसंगों को पढ़ती हैं, तो वह ऊर्जा आपके गर्भस्थ शिशु तक भी पहुँचती है ।

इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है।

  • यदि गर्भवती माता यह रथयात्रा लाइव या वीडियो दर्शन में देखे तो गर्भस्थ शिशु के भावों में श्रद्धा, सेवा, विनम्रता और उत्सव की चेतना स्वतः विकसित होती है।

इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।
कहते हैं कि राजा इन्द्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं।

  • गर्भवती जब यह सुने कि अधूरी दिखने वाली मूर्तियाँ भी परमात्मा की पूर्ण इच्छा का रूप होती हैं, तब वह अपने शिशु को सिखाए  — “पूर्णता बाहरी नहीं होती, भीतर की अनुभूति से तय होती है।”

रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।

  • यह प्रसंग यह सिखाता है कि जब भाई बहन के सम्मान और प्रेम के लिए रथयात्रा जैसी परंपरा बने, तो गर्भ में पल रहे शिशु के मन में भी पारिवारिक प्रेम, सेवा और सौहार्द्र का भाव अंकुरित होता है।

       रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं।

  • गर्भवती स्त्री जब यह दृश्य स्मरण करती है, तो उसके गर्भस्थ शिशु में श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता के संस्कार गहरे उतरते हैं।

अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।
कैसी महान है हमारी भारतीय संस्कृति और इसका गौरव । समय समय पर अलग अलग स्थानों पर भगवान की मधुर लीलाओं का प्रसाद भक्तों को मिला करता है। जो भारत देश के प्राण हैं।

हमारी भारतीय संस्कृति लीलाओं, प्रसादों और यात्राओं के माध्यम से जो चेतना देती है, वह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आत्मिक उन्नति का द्वार है। जगन्नाथ रथयात्रा केवल एक उत्सव नहीं, वह स्मृति है — प्रेम की, भक्ति की और उस दिव्य इच्छा की, जो हर जीव में गूंजती है।

 

यह रथयात्रा केवल ऐतिहासिक नहीं, यह एक जीवंत आस्था यात्रा है। यह हमें सिखाती है —

  • प्रेम क्या होता है?

  • परिवार में सामंजस्य कैसे होता है?

  • भक्त और भगवान का संबंध कितना निकट होता है?

गर्भवती माता यदि नौ दिन तक प्रतिदिन इस यात्रा की कथा को सुनें, कल्पना करें, और श्रीकृष्ण का नाम जाप करें — तो शिशु के चित्त पर यह यात्रा गहरे अंकित हो जाती है। वो शिशु भारत की आध्यात्मिक परंपरा से परिचित होता चला जाता है — और जब वह जन्म लेता है, तो केवल शरीर से नहीं, संस्कार से भी भारतीय होता है।

 

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