हनुमान जी के दिव्य गुण

हनुमानजी के दिव्य गुण

हनुमान जी का सेवाभाव – एक दिन भगवान श्री रामचन्द्रजी और भगवती सीताजी झूले पर विराजमान थे। हनुमानजी आये और झूला झुलाने लगे। सीताजी ने कहा : “हनुमान ! पानी….” रामजी ने कहा :  “झूला झुलाओ।” हनुमानजी झूले की रस्सी हाथ में लिये हुए पानी लेने गये; झूला भी झूल रहा है और पानी भी ले आये।

इस तरह हनुमानजी पूरी कुशलता से कर्म करते। कार्य की सफलता का सामर्थ्य कहाँ है, यह जानते हैं हनुमानजी। वे विश्रांति पाना जानते हैं। हनुमानजी को न परिणाम का भय है, न कर्मफल के भोग की कामना है, न लापरवाही है और न पलायनवादिता है।

एकनिष्ठ भक्ति – हनुमानजी की भक्ति है ‘निर्भरा भक्ति’ – एकनिष्ठ भक्ति। अपने राम स्वभाव में ही निर्भर, कर्मफल पर निर्भर नहीं। स्वर्ग और मुक्ति आत्मविश्रांतिवालों के आगे कोई मायना नहीं रखती। हनुमानजी कहते हैं- “प्रभु ! आपकी भक्ति से जो प्रेमरस मिल रहा है वह अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय है। मुझे मुक्ति क्या चाहिए, स्वर्ग क्या चाहिए, प्रभु ! आप सेवा दे रहे हैं, बस पर्याप्त है।”

हनुमानजी का व्यवहार भगवान रामजी को, माँ सीताजी को और तो और लक्ष्मण भैया को भी आह्लादित करता था। लक्ष्मण कहते हैं : ‘मैं वर्षों तक माँ सीताजी के चरणों में रहा किन्तु मैं सेवा करने में उतना सफल नहीं हुआ, उतना विश्वास-संपादन नहीं कर सका, जितना हनुमानजी आप…. मेरी कुछ लापरवाही के कारण सीताजी का अपहरण हो गया पर हनुमानजी ! आपके प्रयास से सीताजी खोजी गयीं। श्रीरामजी तक सीताजी को पहुँचाने का, उनका मिलन कराने का भगीरथ कार्य आपने किया। आप लंका गये और पहली बार माँ सीता के साथ आपका जो वार्तालाप हुआ, उससे माँ सीता प्रसन्न हो गयीं व आप पर विश्वास के साथ-साथ वरदानों की वृष्टि की। हम इतने वरदान नहीं पा सके, इतने विश्वासपात्र नहीं हो सके।’

सरलता – हनुमानजी अशोक वाटिका में सीताजी के पास जाते हैं । सीताजी पहली बार मिले हुए हनुमानजी पर, वह भी जो वानर रूप में हैं, कैसे विश्वास करें? फिर भी हनुमानजी का ऐसा मधुर व्यवहार, ऐसी विश्वास-संपादन करने की कुशलता कि –

उन्होंने हनुमानजी के प्रेमयुक्त वचन सुने और उन्हें विश्वास हुआ कि ‘हाँ, ये रामजी के ही दूत हैं।’

‘ये मन से, कर्म से, वचन से कृपासिंधु भगवान राम के ही दास हैं।’ ऐसा उनको जाना।

और सीताजी के मन में संतोष हुआ। आपकी वाणी से किसी का आत्मसंतोष नहीं बढ़ा तो आपका बोलना किस काम का ? आपकी वाणी से किसीकी योग्यता नहीं निखरी, किसी का दुःख दूर न हुआ, किसीका अज्ञान-अंश नहीं घटा और ज्ञान नहीं बढ़ा तो आपका बोलना व्यर्थ हो गया। हनुमानजी कहते हैं : ‘हम बंदर हैं, फिर भी सबसे ज्यादा बड़भागी हैं।’

यहाँ हनुमानजी की सरलता और प्रभु-तत्त्व को पहचानने की बुद्धिमत्ता का दर्शन होता है

“हनुमान ! तुमने तो मेरे को अच्छी बात सुनायी। जैसे जयंत के पीछे प्रभु श्रीराम ने बाण छोड़ा था और उसके छक्के छुड़ा दिये थे कि ‘जयंत ! कौए के रूप में सीता के पैर को चोंच मारने का क्या फल होता है, देख।’ किंतु रावण मुझे उठाकर ले आया और प्रभु ने मेरे को भुला दिया, इस बात से मैं व्यथित थी। परंतु हनुमान ! तुमने मुझे यह बताकर कि ‘माताजी ! आपकी सेवा में प्रभु ने हनुमानरूपी तीर को छोड़ा है।’ मेरा भ्रम मिटा दिया, संदेह मिटा दिया।” – ऐसा कहकर सीताजी  हनुमानजी की प्रशंसा करती हैं तो हनुमानजी दूर से चरणों में लेटते हुए बोले : “पाहिमाम् ! रक्षमाम् ! मातेश्वरी ! जो प्रभु चाहते हैं वह तो पहले से ही होना था। माँ ! आप सब कुछ जानती हैं और मेरी सराहना कर रही हैं? पाहिमाम् ! रक्षमाम् !”

यह हनुमानजी का कितना बड़ा सदगुण है, कितनी सरलता है, कितनी बुद्धिमत्ता है ! आप हनुमानजी की इस बुद्धिमत्ता को, सरलता को, सहजता को जीवन में उतारने की कृपा करें तो आपके शुभ संकल्प का बल बढ़ जायेगा।

अमानी भाव – हनुमानजी ने सुग्रीव पर, विभीषण पर उपकार किया, उन्हें रामजी से मिला दिया, राज्य पद दिला दिया। वे राज करनेवालों में से नहीं थे, राज्य दिलानेवालों में से थे। यश लेनेवालों में से नहीं थे, हनुमानजी यश दिलानेवालों में से थे। वे सेवा करानेवालों में से नहीं थे, सेवा करनेवालों में से थे; सुख लेनेवालों में से नहीं थे, सुख देनेवालों में से थे; मान लेनेवालों में से नहीं थे, मान देनेवालों में से थे।

हनुमानजी लंका जाते हैं। वहाँ विभीषण उनको कहते हैं :

“हे पवनसुत हनुमान ! हमारी रहनी कैसी है ? जैसे दाँतों के बीच जीभ रहती है, ऐसे रावण और उसके साथियों के बीच मैं अकेला रहता हूँ। मुझ अनाथ को कैसे वे सूर्यवंशी भगवान राम जानेंगे और कैसे सनाथ करेंगे? मेरी भक्ति कैसे फलेगी ? क्योंकि हम कैसे हैं? अब सुनो :

दैत्य लोग (राक्षस योनि) हैं, तामस तन है। भगवान के चरणों में प्रीति नहीं है। जो प्रीतिपूर्वक भजते हैं उन्हें बुद्धियोग मिलता है। हम तामसी लोग प्रीति भी तो नहीं कर सकते लेकिन अब मुझे भरोसा हो रहा है क्योंकि हनुमान ! तुम्हारा दर्शन हुआ है।

भगवान की मुझ पर कृपा है तभी तुम्हारे जैसे संत मिले हैं।”

हनुमानजी ने एक ही मुलाकात में विभीषण को भी ढाढ़स बँधाया, स्नेहभरी सांत्वना दी और प्रभु की महानता के प्रति अहोभाव से भर दिया। श्री हनुमानजी कहते हैं :

“विभीषणजी सुनो ! तुम बोलते हो हमारा तामस शरीर है। हम दाँतों के बीच रहनेवाली जिह्वा जैसे हैं। हमारा कैसा जीवन है? हम प्रभु को कैसे पा सकते हैं ? तो निराश होने की, घबराने की जरूरत नहीं है, भैया ! भगवान सेवक पर प्रीति करते हैं। फिर सेवक पढ़ा है कि अनपढ़ है, धनी है कि निर्धन है, माई है कि भाई है – यह नहीं देखते। जो कह दे कि ‘भगवान ! मैं तेरी शरण हूँ।’ बस, प्रभु उसे अपना सेवक मान लेते हैं।

मैं कौन-सा कुलीन हूँ ? मुझमें ऐसा कौन-सा गुण है परंतु भगवान के सेवक होने मात्र के भाव से भगवान ने मुझे इतना ऊँचा कार्य दे दिया, ऊँचा पद दे दिया।”

भगवान के गुणों का सुमिरन करते-करते हनुमानजी की आँखें भर आती हैं। कैसे उत्तम सेवक हैं हनुमानजी कि जो उनके सम्पर्क में आता है, उसको अपने प्रभु की भक्ति देते-देते स्वयं भी भक्तिभाव से आँखें छलका देते हैं, अपना हृदय उभार लेते हैं।

अगर हम भी ये गुण स्वयं में व अपनी संतान में लाना चाहें। इसमें क्या कठिनाई है? माताएं अगर हनुमानजी के गुणों का चिंतन करेगी तो अवश्य आनेवाली संतान दिव्य होगी। हनुमान जी से प्रार्थना करें कि ‘महाराज ! ये सदगुण हममें व हमारी संतान में आएं ।

‘हनुमान जयंती’ के महापर्व पर हनुमानजी के सदगुण भारत की दिव्य संतान में फलें-फूलें इस शुभकामना के साथ ।

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