विकास – गर्भाधान के बाद शुक्र व रज जिस रूप में संगठित होता है उसी रूप में बना रहता है । एक सप्ताह तक गर्भ श्लेष्म जैसा रहता है और फिर प्रथम मास में कललरूप हो जाता है । परंतु उसमें स्त्री या पुरुष का कोई लक्षण व्यक्त नही रहता ।
आहार – गर्भधारण का संदेह होते ही गर्भिणी सादा मिश्रीवाला सहज में ठंडा हुआ दूध पाचनशक्ति के उनुसार उचित मात्रा में तीन घंटे के अंतर से ले अथवा सुबह-शाम लें ।
विशेष – पूज्य बापूजी द्वारा बताया गये ब्रह्मचर्य रक्षा मंत्र – “ऊँ अर्यमाय नमः” मंत्र का जप करें ।
विकास – दूसरे मास में शुक्र एवं रज में विद्यामान(और माता से प्राप्त होनेवाले) पंचमहाभूतों का समुदाय वात, पित्त, कफ
आहार – आयुर्वेद के अनुसार इस महीने में मधुर तथा ‘जीवनीय गण’ की औषधियों से सिद्ध दूध समय-समय पर पीना चाहिए । २०० मि.ली. दूध में समभाग पानी व २ ग्राम यह मिश्रित चूर्ण मिलाकर धीमी आँच पर उबालें । पानी जल जाने पर मिश्री मिलाकर सुबह-शाम पियें अथवा मधुर व जीवनीय गण की औषधियों से निर्मित, आश्रम के उपचार केन्द्र में उपलब्ध ‘गर्भपुष्टि कल्प’ ८-१० ग्राम दूध में मिलाकर सुबह-शाम लें ।
(गर्भपुष्टि कल्प की प्राप्ति के लिए यहाँ क्लिक करें ।)
विशेष – पूज्य बापूजी द्वारा बताया गये “ऊँ अर्यमाय नमः” मंत्र का जप ।
विकास – गर्भ के सभी बाह्य अंग पिंड के रूप में व्यक्त हो जाते है । आभ्यंतर अंग-प्रत्यंग तथा इन्द्रियों का विकास व कार्य शुरू हो जाता है । स्नायु व अस्थियाँ बढ़ने लगती है ।
तीसरे महीने में अपरा (placenta) निर्माण का कार्य शुरू होने के कारण गर्भपात की सम्भावनाएँ अधिक होती है ।
विशेष आहार – माताएँ आहार-विहार के नियमों का पालन विशेष सावधानी से करें । उष्ण पदार्थ व औषधियों का सेवन, वाहन चलाना या यात्रा आदि कदापि न करें । इस माह में दूध को ठंडा कर उसमें १-२ चम्मच घी व १ चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम लें । ‘गर्भपुष्टि कल्प’ में गर्भ की स्थापना करनेवाली श्रेष्ठ औषधियाँ निहित है , दूध के साथ इसे सुबह-शाम ले सकते है ।
विशेष – पूज्य बापूजी द्वारा बताया गये “ऊँ अर्यमाय नमः” मंत्र का जप ।
विकास – शिशु का हृदय पूर्णत: विकसित व सक्रिय हो जाता है । वह माता के हृदय के साथ नाभि-नाल (Umbilical Cord) व अपरा (placenta) के द्वारा जुड़ जाता है । शिशु की इच्छानुसार माता के मन में आहार-विहार सम्बंधी विविध इच्छायें अर्थात् दोहद (दौहृद) उत्पन्न होते है ।
विशेष आहार – मक्खन-मिश्री या भोजन के साथ मक्खन खाना भी हितकर है । जिन परिवारों में हृदय रोग अथवा मानसिक रोगों का प्रादुर्भाव है, उन माताओं को इस महीने से हृदय व मस्तिष्क पोषक औषधियों का सेवन करना चाहिए जिससे बालक की उन रोगों से रक्षा हो सके । ‘गर्भपुष्टि कल्प’ में यह औषधियाँ समाविष्ट है ।
स्वस्थ हृदय, इन्द्रियाँ व मन के निर्माण हेतु पंचामृत का नियमित सेवन करना उत्तम है ।
विशेष – अनुलोम-विलोम आदि हल्के प्राणायाम, आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘दैवी संपदा’ पुस्तक का अध्ययन, श्रीमद् भगवद्गीता के बारहवें अध्याय का पाठ, गौ-सेवा व घर में बड़े-बुजुर्गों की सेवा, दरिद्रनारायणों विशेषकर बच्चों के बीच भण्डारा ।
स्वरूप –शिशु के मस्तिष्क की वृद्धि होती है । धी, धृति, स्मृति यह बुद्धि के भाव प्रगट होते है । मन अधिक प्रबुद्ध होता है । मेरुदंड (vertebral column), पाचन तंत्र (digestive system), स्नायु आदि अंग सुविकसित होने लगते है । रक्त व मांस की विशेष वृद्धि होती है ।
विशेष आहार – इस महीने में शिशु तथा माता के बलवर्धन के लिए देशी गाय के दूध से बना मक्खन खायें, यदि मक्खन न उपलब्ध हो पाये तो घी का सेवन अवश्य करें । आँवला व बेलफल का भी सेवन करें ।
बालकों के बौद्धिक व मानसिक विकास तथा ज्ञानेन्द्रियों के बलवर्धन के लिए, शुद्ध सुवर्ण के साथ ब्राह्मी, ज्योतिष्मति, वचा आदि मेध्य-रसायन (Intelligence Enhancer) औषधियों से युक्त सुवर्णप्राश* सुबह-शाम दूध अथवा शहद के साथ लेना हितकर है ।
*(सुवर्णप्राश संत श्री आशारामजी आश्रम के उपचार केन्द्रों एवं सत्साहित्य स्टॉल पर उपलब्ध है ।)
विकास – शिशु में बल, वर्ण तथा ओज की विशेष वृद्धि होती है । केश, रोम, नख, अस्थि और स्नायु अधिक स्पष्ट होने लगते है ।
आहार – इस महीने में दूसरे महीने की परिचर्या में बतायी मधुर व जीवनीय गण की औषधियों को दूध में उबालकर लें अथवा उसके स्थान पर ‘गर्भपुष्टि कल्प’ लें । दूध में १-२ चम्मच घी मिलाकर अच्छे से फेंटकर लें । फेंटने से दूध का पाचन सुगमता से होता है । पंचामृत (हो सके तो केसर मिलाकर) लेना हितकर है । इससे शिशु तथा गर्भिणी के ओज की अभिवृद्धि होती है तथा वर्ण में निखार आता है ।
विशेष – सुलभ प्रसव हेतु आश्रम के आरोग्यकेन्द्रों पर उपलब्ध ‘गर्भरक्षा माला’ इस महीने कमर में धारण करें । इससे प्रसूति के समय प्रसव वेदनायें कम होती है और प्रसूति भी सरलता से होती है |
संस्कार –
विकास – इस महीने में मस्तिष्क का विचार व चिंतन करनेवाला हिस्सा अधिक विकसित होता है । महीने के अंत तक शिशु की सुनने की क्षमता पूर्णत: विकसित हो जाती है । सुनी हुई आवाज को वह प्रतिक्रिया देता है । सातवें महीने के अंत तक गर्भ के प्राय: सभी अंग-प्रत्यंग विकसित तो हो जाते है , अपितु वे पूर्णत: पुष्ट नहीं होते ।
आहार – ‘गर्भिणी आहार-विहार’ अनुसार ।
विशेष – इन आखिरी तीन महीनों में चन्दनबला लाक्षादि तेल या ‘प्रसवमित्रा तेल’ को गुनगुना कर पेट पर लगायें ।
संस्कार – बुद्धि को सतत उन्नत विचारों व मन को भगवद्स्मरण, मानसिक जप, संतों-महापुरुषों की सुंदर कथा-वार्तायें सुनने में लगाना चाहिए । इस महीने से शिशु सुनी हुई आवाज की प्रतिक्रिया देने लगता है, अत: उसके साथ प्रेमपूर्वक संवाद स्थापित करना चाहिए ।
विकास – इस महीने में शिशु पुष्ट होने लगता है । उसकी त्वचा के नीचे मेद (fat) का संचय विशेष होने लगता है । आयुर्वेद के अनुसार छठवें महीने में व्यक्त हुआ सारभूत ‘ओज’ आठवें महीने में अस्थिर हो जाता है । इस दौरान माता व शिशु के बीच ओज का आदान-प्रदान होता रहता है ।
आहार – श्री वाग्भटाचार्यजी के अनुसार गर्भवती को आठवें महीने में चावल की पतली खीर में घी डालकर प्रतिदिन सेवन करना चाहिए ।
विहार – विश्राम करना गर्भवती व गर्भ दोनों के लिए श्रेयस्कर है ।
विशेष प्रयोग – सुलभ प्रसूति हेतु आठवें महीने के आखिरी हफ्ते से प्रसूति तक आश्रम के उपचार केन्द्रों पर उपलब्ध ‘प्रसवमित्रा तेल’ का प्रयोग करना चाहिए । (इस विशेष प्रयोग कि विधि के लिए दिव्य शिशु गर्भ संस्कार केन्द्र में सम्पर्क करें ।)
संस्कार – गर्भ की स्थिरता एवं मानसिक विकास के निमित्त तथा गर्भवती की प्रसन्नता व मनोबल बढाने हेतु, धर्मशास्त्रों में वर्णित षोडश संस्कारों में से ‘सीमन्तोन्नयन’ संस्कार इस महीने में करना चाहिए । भक्ति व ज्ञान के संस्कारों से बालक को संपन्न करने हेतु पूज्य बापूजी की अमृतवाणी ‘मधुर कीर्तन’, ‘ॐ कार कीर्तन’ तथा ‘प्रभु प्रेम के दिव्य क्षण’, ‘बंशी नाद ध्यान’ आदि का मधुमय पान कराना चाहिए |
विकास – शिशु की ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ पूर्णत: विकसित हो जाती है । उसके वजन में प्रतिदिन लगभग ३० ग्राम की वृद्धि होती है । मस्तिष्क पेशियाँ (neurons) वृद्धिंगत होते है ।
शरीर की अपेक्षा सिर भारी होने के कारण सामान्यतः नौवें महीने में शिशु का सिर नीचे की तरफ स्थिती (Head low position) में आ जाता है ।
विहार – तेल को गुनगुना कर पीठ, कमर, जाँघों व पैरों की ऊपर बताये अनुसार प्रतिदिन २० मिनट मालिश करनी चाहिए, पेट पर हल्के हाथों से तेल लगायें । इस हेतु ‘प्रसवमित्रा तेल’ अथवा चंदनबला लाक्षादि तेल का उपयोग कर सकते है ।
विशेष – आजकल डॉक्टरों के द्वारा शिशु का सिर नीचे स्थिर नहीं हुआ है यह कहकर शस्त्रकर्म से प्रसव (caesarian) करने की सलाह दी जाती है व कई बार जल्दबाजी भी की जाती है । ऐसे समय में वैद्यकीय सलाह अवश्य लें ।
- पूज्य बापूजी का सत्संग श्रवण
- हरि ऊँ का दीर्घ उच्चारण,
- गुरुमंत्र अथवा ईष्टमंत्र का जप
- दीर्घश्वसन
- श्वांसोच्छवास की गिनती
- गर्भसंवाद
- ध्यान
- कीर्तन
- प्रभु आनंददाता प्रार्थना
- शुक्लपक्ष की द्वितीया से लेकर पूर्णिमा तक चंद्रमा को अर्घ्य ।
- प्रार्थना
- हास्य प्रयोग
- श्री आशारामायणजी का पाठ
- स्तोत्र पाठ
- शास्त्र अध्ययन
- आत्मगुंजन व ब्रह्मरामायण का पाठ
- तुलसी को जल
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