अखंड सौभाग्य देने वाला वटसावित्री व्रत
(26 मई)
वटसावित्री पर्व नारी-सशक्तिकरण का पर्व है, जो कि अपने सामर्थ्य की याद दिलाता है। यह आत्मविश्वास व दृढ़ता को बनाये रखने की प्रेरणा देता है, साथ ही ऊँचा दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि हमें अपने मूल आत्म-तत्त्व की ओर, आत्म-सामर्थ्य की ओर लौटना चाहिए ।
वटवृक्ष की महत्ता
भारत के महान वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने क्रेस्कोग्राफ संयंत्र की खोज कर यह सिद्ध कर दिखाया कि वृक्षों में भी हमारी तरह चैतन्य सत्ता का वास होता है । इस खोज से भारतीय संस्कृति की वृक्षोपासना के आगे सारा विश्व नतमस्तक हो गया ।
वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है । हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं । यह मन में स्थिरता लाने में मदद करता है एवं संकल्प को अडिग बना देता है । इस व्रत की नींव रखने के पीछे ऋषियों का यह उद्देश्य प्रतीत होता है कि अचल सौभाग्य एवं पति की दीर्घायु चाहने वाली महिलाओं को वटवृक्ष की पूजा उपासना के द्वारा उसकी इसी विशेषता का लाभ मिले और पर्यावरण सुरक्षा भी हो जाय । हमारे शास्त्रों के अनुसार वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं । ‘भावप्रकाश निघंटु’ ग्रंथ में वटवृक्ष को शीतलता-प्रदायक, सभी रोगों को दूर करने वाला तथा विष-दोष निवारक बताया गया है ।
महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति सत्यवान को जीवनदान दिया था । इसीलिए इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की 108 परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेट कर संकल्प करती हैं । साथ में अपने पुत्रों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प कर महिलायें व्रत रखती हैं ।
वटवृक्ष की व्याख्या इस प्रकार की गयी है।
वटानि वेष्टयति मूलेन वृक्षांतरमिति वटे ।
‘जो वृक्ष स्वयं को अपनी ही जड़ों से घेर ले, उसे वट कहते हैं ।’
वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लौटना चाहिए और अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए । इसी से हम मौलिक रह सकते हैं । मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं । हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए । यही सुखी जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है ।
सोमवती अमावस्या का महत्व (26 मई)
सोमवती अमावस्या का पर्व विशेषकर महिलाएँ मनाती है । इस पर्व में स्नान-दान का बड़ा महत्त्व है। इस दिन मौन रहकर स्नान करने से हजार गौदान का फल होता है ।इस दिन पीपल और भगवान विष्णु का पूजन तथा उनकी 108 प्रदक्षिणा करने का विधान है । 108 में से 8 प्रदक्षिणा पीपल के वृक्ष को कच्चा सूत लपेटते हुए की जाती हैं । प्रदक्षिणा करते समय 108 फल पृथक रखे जाते है । बाद में वे भगवान का भजन करने वाले ब्राह्मणों या ब्राह्मणियों में वितरित कर दिये जाते है । ऐसा करने से संतान चिरंजीवी होती है । इस दिन तुलसी की 108 परिक्रमा करने से दरिद्रता मिटती है । सोमवती अमावस्या, रविवारी सप्तमी, मंगलवारी चतुर्थी, बुधवारी अष्टमी – ये चार तिथियाँ सूर्य ग्रहण के बराबर कही गयी हैं । इनमें किया गया स्नान, दान, जप व श्राद्ध अक्षय होता है । तुलसी के पौधे की 108 परिक्रमा करे और उस दिन मौन रहे, मन्त्र जप करे तो ग्रहण के समय, जन्माष्टमी के समय, होली और दिवाली की रात को जो फायदा होता है जप-ध्यान का, तप का, वह फायदा………पक्का कर लेना । सौ काम छोड़कर भोजन कर लें , हज़ार काम छोड़ कर स्नान कर लें, लाख काम छोड़ कर सत्कर्म कर लें । सोमवती अमावस्या के दिन तुलसी जी 108 परिक्रमा करने से दरिद्रता निवारण होता है ।
वटसावित्री पर्व पर सावित्री की तरह आप भी दृढ़प्रतिज्ञ बनें, यही शुभकामना...
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