शुभ मुहूर्त

     शास्त्रों में गर्भाधान संस्कार की जो विधि बताई है उसका प्रायः लोप हो जाने के कारण ही आज कुलकलंक तथा देश-विदेश में आतंक पैदा करनेवाली संतानों की उत्त्पति हो रही है । अतः गर्भाधान संस्कार के महत्व को समझते हुए उसके अनुरूप ही अपनी वंशवृद्धि करनी चाहिए । स्त्री-पुरुष के शरीर और मन की स्वस्थता, पवित्रता, आनंद तथा शास्त्रानुकूल तिथि, वार, समय आदि के संयोग से ही श्रेष्ठ संतान की उत्त्पति हो सकती है । फोटो लेने के समय जैसा चित्र होता है वैसा ही फ़ोटो में आता है । उसी प्रकार गर्भाधान के समय दंपति का जैसा तन-मन होता है वैसे ही तन और मनवाली संतान होती है ।

     मनुष्य का प्रधान लक्ष्य है भगवत्प्राप्ति । अतः उसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर जीवन के सारे कार्य करने चाहिये । गर्भाधान का उद्देश्य, गर्भ ग्रहण की योग्यता, तदुपयोगी मन और स्वास्थ्य, तदुपयोगी काल, इन सब बातों को सोच-समझकर विवाहित पति-पत्नी का समागम होने से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है ।

    ‘गर्भाधान संस्कार के बिना ही पशु-पक्षी सन्तानोपत्ति कर रहे हैं फिर इन संस्कार की क्या आवश्यकता है ? ऐसा प्रश्न हो सकता है । इसका उत्तर यह है कि प्रायः पशु, पक्षी आदि सभी प्राणियों में गर्भाधान का कार्य प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में होता है । पशु कभी भी अयोग्य काल में गर्भाधान नहीं करते । वह गर्भवती के साथ समागम नहीं करता । किंतु मनुष्य अयोग्य काल में तथा गर्भवती के साथ भी समागम करता है ।

    शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण आते हैं जो अनुचित काल में हुए गर्भाधान के दुष्परिणाम को सिद्ध करते हैं । कश्यप ऋषि और दिति धर्मात्मा थे उसके बावजूद भी अनुचित काल (संध्या के समय) में हुए समागम के फलस्वरूप दिति ने राक्षसी स्वभाव के दो पुत्रों को जन्म दिया जो आगे चलकर हिरण्याक्ष व हिरण्याकश्यप के नाम से कुख्यात हुए, उनकी कथाएँ हम सभी न सुनी ही हैं । जिससे ये बात सिद्ध होती है कि माता-पिता भले ही सात्विक हों, पवित्र विचार वाले हों फिर भी गलत समय में किया गया गर्भाधान गलत परिणाम लाता है । अतः शुभ काल, तिथि आदि का ध्यान देते हुए ही गर्भाधान संस्कार सम्पन्न करें । 

विवाहित दम्पति के लिए संयम का महत्व बताते हुए वाग्भट्टचार्य जी कहते हैं –
स्मृतिमेधायुरारोग्यपुष्टीन्द्रिययशोबलैः अधिका मन्दजरसो भवन्ति स्त्रीषु संयताः. (अ.ह.सू.७.75)

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जो पुरुष-स्त्री सहवास में अपने मन को वश में रखते हैं, उनकी स्मरणशक्ति, मेधा, आयु, आरोग्य, पुष्टि, इन्द्रिय – शारीरिक – मानसिक बल व यश अधिक होते हैं – वे देर से वृद्ध होते हैं । सहवास की संख्या जितनी कम होगी, उतनी ही वीर्य की स्वस्थता और सशक्तता बढ़ेगी और संतान भी स्वस्थ, पुष्ट, मेधावी तथा उत्तम चरित्रवाली होगी ।

मनुस्मृति के अनुसार, अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा व चतुर्दशी इन तिथियों में ऋतुकाल में भी अपनी पत्नी के पास नहीं जाना चाहिए । व्यतिपात योग, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उत्तरायण, होली, शिवरात्रि, नवरात्रि आदि पर्वों की या त्यौहार की रात्रियाँ, एकादशी, श्राद्ध पक्ष एवं चतुर्मास में समागम नहीं करना चाहिए । माता-पिता की मृत्युतिथि, स्वयं की जन्मतिथि, नक्षत्रों की संधि (दो नक्षत्रों के बीच का समय) तथा अश्विनी, रेवती, भरणी, मघा व मूल इन नक्षत्रों में तथा परिवार में वाद-विवाद या अचानक मृत्यु की घटना घटी हो तो समागम वर्जित है ।

त्याज्य प्रहर 

प्रदोषकाल में (सूर्यास्त के बाद 96 मिनटों तक का समय अर्थात् – सायंकाल) समागम सर्वथा निषिद्ध है ।

अनुचित प्रहर 

रात्रि के 4 प्रहरों (1 प्रहर 3 घंटे का होता है) में से भी प्रथम प्रहर (सूर्यास्त के बाद 3 घंटे तक) तथा चौथा प्रहर (सूर्योदय से 3 घंटे पूर्व तक ब्रह्ममुहूर्त) एवं मध्यरात्रि (रात के 11:45 से 12:15 तक का संध्याकाल) सहवास के लिए अनुचित है ।

योग्य प्रहर 
रात्रि का दूसरा प्रहर (लगभग 9 से 11:15 तक) सहवास के लिए उचित है । तीसरा प्रहर ( रात के 12 से 3 ) भी त्यागना हितकर है ।

मनुस्मृति में आता है :
तासां आद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या ।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः ॥

ऋतुकाल में से प्रथम चार रात्रियाँ तथा 11वीं व 13वीं रात्रि निषिद्ध है । शेष दस रात्रियाँ संतानप्राप्ति हेतु सहवास करने के लिए प्रशस्त हैं । आयुर्वेद ने ऋतुकाल की चौथी रात्रि को निषिद्ध नहीं माना है अपितु यह स्पष्ट किया है कि ऋतुकाल की उत्तरोत्तर (12, 14, 15 व 16 वीं) रात्रियों में गर्भाधान होने पर बालक की विद्या, आयुष्य, आरोग्य, पौरुष, प्रजा (संतान), सौभाग्य, ऐश्वर्य एवं बल अधिकाधिक होता है ।

यथा एकूत्तरोत्तरम विद्यादायुरारोग्यमेव च । प्रजासौभाग्यमैश्वर्यम बलं च दिवसेषु वै । (सु.शा.2.31)

गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु कहते हैं : “ युग्म (सम) तिथिवाली रात्रियों में सहवास करने से पुत्र तथा अयुग्म ( विषम ) रात्रियों में सहवास करने से कन्या की प्राप्ति होती है । ऋतुकाल के प्रथम सप्ताह को छोड़कर द्वितीय सप्ताह से सहवास में प्रवृत्त होना चाहिए । यदि 14वीं रात्रि में गर्भाधान की क्रिया होती है तो उस गर्भ से गुणवान, भाग्यवान, धनवान तथा धर्मनिष्ठ पुत्र का जन्म होता है । ” आधुनिक विज्ञान के अनुसार स्त्री बीज की निर्मिति प्रायः ऋतुकाल के 14 वें दिन होती है । स्त्री-बीज 12 से 24 घंटे जीवित रहता है । शुक्राणु गर्भाशय में प्रविष्ट होने के बाद सामान्यतः 5 दिन तक जीवित रहते हैं परंतु उत्तरोत्तर उनकी गुणवत्ता न्यून होती जाती है । सम्भवतः इसी कारण वेद एवं पुराण में उत्तम संतान प्राप्ति हेतु ऋतुकाल की उत्तरोत्तर रात्रियों का चयन करने का विधान है ताकि गर्भाशय में प्रवेश के उपरान्त शुक्राणु का स्त्री-बीज से यथाशीघ्र संयोग हो सके । ऋतुकाल समाप्त होने के बाद अगले ऋतुकाल की 11वीं रात्रि तक संयम से रहना चाहिए ।

woods, snowy, treesमाता-पिता के द्वारा किस ऋतु में गर्भाधान हुआ था इस पर संतान की प्रकृति तथा शारीरिक बल निर्भर करता है । गर्भधारण के समय किस दोष की प्रबलता होगी यह माता-पिता की प्रकृति के साथ-साथ ऋतु पर भी निर्भर करता है । योग्य ऋतु में गर्भधारण होने से बालक की प्रकृति उत्तम गुणों से युक्त होती है । जो ऋतुएँ स्वभावतः सौम्य, शीतल हैं, जिनमें शारीरिक बल उत्तम रहता है व दोष कुपित नहीं होते, वे गर्भाधान के लिए उत्तम हैं । हेमंत व शिशिर यह शीत ऋतुएँ सौम्य हैं । इन ऋतुओं में चंद्रमा का बल अव्याहत (पूर्ण) रहता है । इससे शुक्र धातु पुष्ट होता है । शारीरिक बल उत्तम होता है । वात-पित्त-कफ में से किसी भी दोष का स्वाभाविक प्रकोप नहीं होता । अतः गर्भाधान के लिए ये ऋतुएँ उत्तम हैं ।

संसार व्यवहार कब न करें

  • विवाहित दंपत्ति भी संयम-नियम से रहें, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रहें ।

  • सभी पक्षों की अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी-इन सभी तिथियों में स्त्री समागम करने से नीच योनि एवं नरकों की प्राप्ति होती है ।

(महाभारत, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्वः 104.29.30)

  • दिन में और दोनों संध्याओं के समय जो सोता है या स्त्री-सहवास करता है, वह सात जन्मों तक रोगी और दरिद्र होता है ।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खंडः 75.80)

  • निषिद्ध रात्रियाँ- पूर्णिमा, अमावस्या, प्रतिपदा, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, सूर्यग्रहण, चंद्रगहण, उत्तरायण, जन्माष्टमी, रामनवमी, होली, शिवरात्रि, नवरात्रि आदि पर्वों की रात्रि, श्राद्ध के दिन, चतुर्मास, प्रदोषकाल, क्षयतिथि (दो तिथियों का समन्वय काल) एवं मासिक धर्म के चार दिन समागम नहीं करना चाहिए। शास्त्रवर्णित मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए ।

  • माता-पिता की मृत्युतिथि, स्वयं की जन्मतिथि, नक्षत्रों की संधि (दो नक्षत्रों के बीच का समय) तथा अश्विनी, रेवती, भरणी, मघा मूल इन नक्षत्रों में समागम वर्जित है ।

  • जो लोग दिन में स्त्री-सहवास करते हैं वे सचमुच अपने प्राणों को ही क्षीण करते हैं ।

(प्रश्नोपनिषद् 1.13)

  • परस्त्री सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है । इसलिए किसी भी वर्ण के पुरुष को परायी स्त्री से संसर्ग नहीं करना चाहिए । इसके समान आयु को नष्ट करने वाला संसार में दूसरा कोई कार्य नहीं है । स्त्रियों के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है ।

  • यदि पत्नी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय तथा उसे भी अपने निकट न बुलायें । शास्त्र की अवज्ञा करने से गृहस्थी अधिक समय तक सुखी जीवन नहीं जी सकते ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।