आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथ ‘चरक सहिंता’ के रचयिता श्री चरकाचार्य जी ने मासानुमासिक गर्भिणी परिचर्या के अंतर्गत गर्भ के विकास व रक्षा के निमित्त प्रतिमास किए जानेवाली चिकित्सा के मौलिक सिद्धांतों का वर्णन किया है, जो भारत के ऋषि-मुनियों की गहन विचारशैली व दूरदर्शिता का द्योतक है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के निष्कर्ष अनुसंधानों के पश्चात् बदलते रहते हैं, परन्तु आयुर्वेद के सिद्धांत अकाट्य हैं ।
आयुर्वेदिक Products
दिव्य शिशु गर्भपुष्टि कल्प
गर्भपुष्टि कल्प में शिशु के प्रतिमाह विकसित होनेवाले विविध अंग-प्रत्यंगों जैसे – मेरुरज्जु, हृदय, मस्तिष्क, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों आदि के अनुसार, तद-तद माह में उन-उन अंगों को सुविकसित करनेवाली औषधियों का समावेश किया गया है । आयुर्वेद में जीवनीय तथा मधुर गण के अंतर्गत वर्णित यह औषधियाँ शरीर की सभी कार्यप्रणालियों का नियमन करती हैं, जीवनशक्ति प्रदान करती हैं एवं कोशिकाओं का नवनिर्माण करती है । इसमें जीवन्ती, शतावरी, मधुक आदि प्राणशक्ति वर्धक औषधियों का समावेश है, जो शरीर की सभी प्रणालियों को ऑक्सीजन सम्पन्न रक्त प्रदान कर एवं विषाक्त पदार्थों को निष्कासित कर, अधिक संतुलित हार्मोनल प्रणाली को सुस्थापित करती है । यह विटामिन्स तथा खनिज जैसे – लोहा, कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम, सेलेनियम, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, कोबाल्ट आदि के सबसे समृद्ध प्राकृतिक स्रोत हैं । यह गर्भ के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक फोलिक एसिड का उत्तम स्रोत भी हैं तथा इनमें विटामिन ‘ए’ व ‘सी’ भी विपुल मात्रा में पाये जाते हैं । यह औषधियाँ गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु को आजन्म सात्म्य होने के कारण उनके लिए निरापद एवं बल, ओज, तेज, कान्ति, बुद्धि व आयु को बढ़ानेवाली तथा मन को प्रसन्न करनेवाली हैं । इन दिव्य औषधियों के कारण यह ‘गर्भपुष्टिकल्प’ गर्भ तथा गर्भिणी के लिए एक असाधारण जीवनरक्षक सिद्ध हुआ है ।
लाभ – गर्भपुष्टिकल्प के सेवन से माता स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट व बुद्धिमान बालक को जन्म देती है । इसके सेवन से गर्भपात तथा अकाल प्रसव से रक्षा होती है एवं प्रसव के समय विशेष कष्ट का अनुभव नहीं होता ।
सेवन विधि – दूसरे महीने से नौवें महीने तक 10 ग्राम (2 चम्मच) कल्प सुबह गरम दूध में मिलाकर लें । इसके सेवन के बाद 2 घंटे तक फल तथा अन्न आदि का सेवन नहीं करें । जब खुलकर भूख लगे तब प्रकृति व ऋतु के अनुसार हितकर भोजन करें । शाम को अथवा रात को सोने से कम से कम एक घंटा पहले पुनः सेवन करें ।
दिव्य शिशु गर्भपुष्टि कल्प
गर्भपुष्टि कल्प में शिशु के प्रतिमाह विकसित होनेवाले विविध अंग-प्रत्यंगों जैसे – मेरुरज्जु, हृदय, मस्तिष्क, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों आदि के अनुसार, तद-तद माह में उन-उन अंगों को सुविकसित करनेवाली औषधियों का समावेश किया गया है । आयुर्वेद में जीवनीय तथा मधुर गण के अंतर्गत वर्णित यह औषधियाँ शरीर की सभी कार्यप्रणालियों का नियमन करती हैं, जीवनशक्ति प्रदान करती हैं एवं कोशिकाओं का नवनिर्माण करती है । इसमें जीवन्ती, शतावरी, मधुक आदि प्राणशक्ति वर्धक औषधियों का समावेश है, जो शरीर की सभी प्रणालियों को ऑक्सीजन सम्पन्न रक्त प्रदान कर एवं विषाक्त पदार्थों को निष्कासित कर, अधिक संतुलित हार्मोनल प्रणाली को सुस्थापित करती है । यह विटामिन्स तथा खनिज जैसे – लोहा, कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम, सेलेनियम, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, कोबाल्ट आदि के सबसे समृद्ध प्राकृतिक स्रोत हैं । यह गर्भ के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक फोलिक एसिड का उत्तम स्रोत भी हैं तथा इनमें विटामिन ‘ए’ व ‘सी’ भी विपुल मात्रा में पाये जाते हैं । यह औषधियाँ गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु को आजन्म सात्म्य होने के कारण उनके लिए निरापद एवं बल, ओज, तेज, कान्ति, बुद्धि व आयु को बढ़ानेवाली तथा मन को प्रसन्न करनेवाली हैं । इन दिव्य औषधियों के कारण यह ‘गर्भपुष्टिकल्प’ गर्भ तथा गर्भिणी के लिए एक असाधारण जीवनरक्षक सिद्ध हुआ है ।
लाभ – गर्भपुष्टिकल्प के सेवन से माता स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट व बुद्धिमान बालक को जन्म देती है । इसके सेवन से गर्भपात तथा अकाल प्रसव से रक्षा होती है एवं प्रसव के समय विशेष कष्ट का अनुभव नहीं होता ।
सेवन विधि – दूसरे महीने से नौवें महीने तक 10 ग्राम (2 चम्मच) कल्प सुबह गरम दूध में मिलाकर लें । इसके सेवन के बाद 2 घंटे तक फल तथा अन्न आदि का सेवन नहीं करें । जब खुलकर भूख लगे तब प्रकृति व ऋतु के अनुसार हितकर भोजन करें । शाम को अथवा रात को सोने से कम से कम एक घंटा पहले पुनः सेवन करें ।
सगर्भावस्था में लौह तत्व (Iron) की आवश्यकता अधिक होती है । आधुनिक लौह तत्व पूरक (Iron supplements) में प्रयुक्त लौह तत्व (Iron) सम्यक रूप से अवशोषित नहीं होता व जठरांत्रिय समस्याओं (Gastrointestinal disorders) को भी उत्पन्न करता है । दिव्य शिशु रक्तवर्धिनी वटी में निहित मंडूर व स्वर्णमाक्षिक से प्राप्त लौह तत्व (Iron) सौम्य, शीतल तथा सहज अवशोष्य होने से गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु के लिए श्रेयस्कर है ।
लाभ – यह वटी रक्तप्रसादन (blood purification) कर रक्त की वृद्धि व उत्तम धातुओं का निर्माण करती है जिससे शारीरिक शक्ति, उत्साह व प्रसन्नता बढ़ती है । इसके अतिरिक्त आँवला, शतावरी, गिलोय आदि रसायन औषधियों से युक्त होने से यह रक्तवर्धन के साथ-साथ रसायन का कार्य भी करती है । यह गर्भस्थ शिशु के लीवर, अस्थि आदि अंग-प्रत्यंगों को पुष्ट करती है ।
सेवन विधि – चौथे से नौवें महीने तक 2-2 गोलियाँ सुबह खाली पेट व शाम को पुनः भोजन से दो घंटे पूर्व शहद/आँवला मुरब्बा/पंचामृत के साथ लें अथवा चिकित्सक से मार्गदर्शन अनुसार लें ।
सगर्भावस्था में लौह तत्व (Iron) की आवश्यकता अधिक होती है । आधुनिक लौह तत्व पूरक (Iron supplements) में प्रयुक्त लौह तत्व (Iron) सम्यक रूप से अवशोषित नहीं होता व जठरांत्रिय समस्याओं (Gastrointestinal disorders) को भी उत्पन्न करता है । दिव्य शिशु रक्तवर्धिनी वटी में निहित मंडूर व स्वर्णमाक्षिक से प्राप्त लौह तत्व (Iron) सौम्य, शीतल तथा सहज अवशोष्य होने से गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु के लिए श्रेयस्कर है ।
लाभ – यह वटी रक्तप्रसादन (blood purification) कर रक्त की वृद्धि व उत्तम धातुओं का निर्माण करती है जिससे शारीरिक शक्ति, उत्साह व प्रसन्नता बढ़ती है । इसके अतिरिक्त आँवला, शतावरी, गिलोय आदि रसायन औषधियों से युक्त होने से यह रक्तवर्धन के साथ-साथ रसायन का कार्य भी करती है । यह गर्भस्थ शिशु के लीवर, अस्थि आदि अंग-प्रत्यंगों को पुष्ट करती है ।
सेवन विधि – चौथे से नौवें महीने तक 2-2 गोलियाँ सुबह खाली पेट व शाम को पुनः भोजन से दो घंटे पूर्व शहद/आँवला मुरब्बा/पंचामृत के साथ लें अथवा चिकित्सक से मार्गदर्शन अनुसार लें ।
सगर्भावस्था में होनेवाली जीवन की कई प्रक्रियाओं के लिए तथा कैल्शियम की न्यूनता की पूर्ति एवं अस्थियों को मजबूत बनाने के लिए अतिरिक्त कैल्शियम की आवश्यकता होती है । पूरक (supplements) से प्राप्त कैल्शियम शरीर में पूर्णतः अवशोषित नहीं होता जिससे आवश्यक कैल्शियम की आपूर्ति नहीं हो पाती । ‘दिव्य शिशु मौक्तिकादि वटी’ मोती, प्रवाल, लाक्षा, अश्वगंधा आदि प्राकृतिक कैल्शियम स्त्रोतों से बनी हुई है, जो बिना किसी दुष्प्रभाव के गर्भिणी व गर्भ के लिए आवश्यक कैल्शियम की आपूर्ति कर देती है ।
लाभ – यह गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु की अस्थियाँ, मांसपेशियाँ, हृदय, केश, नख आदि को मजबूत करती है, रक्त की वृद्धि करती है । इसमे निहित शुद्ध मोती पिष्टी गर्भ के मस्त्तिष्क के विकास में भी सहायक है । इसके सेवन से बालक सुदृढ़ व हृष्ट-पुष्ट होता है । यह सगर्भावस्था जन्य उच्च-रक्तचाप (High Blood pressure) को भी नियंत्रित करने में सहायता करती है जिससे गर्भिणी की उच्च-रक्तचाप से तथा तत्संबंधी हानिकारक एलोपैथिक औषधियों से रक्षा होती है ।
सेवन विधि – पाँचवे से नौवें महीने तक 1-2 गोलियाँ दिन में दो बार दूध/शहद/गुलकंद/च्यवनप्राश/आँवला मुरब्बा/पंचामृत के साथ लें । अथवा चिकित्सकीय मार्गदर्शन अनुसार लें ।
सगर्भावस्था में होनेवाली जीवन की कई प्रक्रियाओं के लिए तथा कैल्शियम की न्यूनता की पूर्ति एवं अस्थियों को मजबूत बनाने के लिए अतिरिक्त कैल्शियम की आवश्यकता होती है । पूरक (supplements) से प्राप्त कैल्शियम शरीर में पूर्णतः अवशोषित नहीं होता जिससे आवश्यक कैल्शियम की आपूर्ति नहीं हो पाती । ‘दिव्य शिशु मौक्तिकादि वटी’ मोती, प्रवाल, लाक्षा, अश्वगंधा आदि प्राकृतिक कैल्शियम स्त्रोतों से बनी हुई है, जो बिना किसी दुष्प्रभाव के गर्भिणी व गर्भ के लिए आवश्यक कैल्शियम की आपूर्ति कर देती है ।
लाभ – यह गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु की अस्थियाँ, मांसपेशियाँ, हृदय, केश, नख आदि को मजबूत करती है, रक्त की वृद्धि करती है । इसमे निहित शुद्ध मोती पिष्टी गर्भ के मस्त्तिष्क के विकास में भी सहायक है । इसके सेवन से बालक सुदृढ़ व हृष्ट-पुष्ट होता है । यह सगर्भावस्था जन्य उच्च-रक्तचाप (High Blood pressure) को भी नियंत्रित करने में सहायता करती है जिससे गर्भिणी की उच्च-रक्तचाप से तथा तत्संबंधी हानिकारक एलोपैथिक औषधियों से रक्षा होती है ।
सेवन विधि – पाँचवे से नौवें महीने तक 1-2 गोलियाँ दिन में दो बार दूध/शहद/गुलकंद/च्यवनप्राश/आँवला मुरब्बा/पंचामृत के साथ लें । अथवा चिकित्सकीय मार्गदर्शन अनुसार लें ।
अमृता, शतावरी, सारिवा, यष्टिमधु आदि बहुमूल्य औषधियों से निर्मित यह वटी माता के दूध की शुद्धि तथा वृद्धि करती है जिससे शिशु को शुद्ध, सुपाच्य व उत्तमगुणयुक्त दूध भरपूर मात्रा में दीर्घकाल तक उपलब्ध होता है । इसमें निहित औषधियाँ मातृदुग्ध को पोषक तत्वों (विटामिन्स, मिनरल्स, प्रोटीन्स आदि) से युक्त बनाती हैं । शिशु के विकास के लिए अत्यावश्यक फॉलिक एसिड का भी यह उत्तम स्त्रोत है । शुद्ध, सुपाच्य मातृ दुग्ध बालक की रोगप्रतिकारक क्षमता बढ़ाकर उसकी पीलिया, दस्त, उल्टी, बुखार जैसे कई रोगों से रक्षा करता है ।
सेवन विधि – 2 -2 गोलियाँ दिन में 2-3 बार पानी/दूध के साथ अथवा वैद्यकीय सलाह अनुसार लें ।
अमृता, शतावरी, सारिवा, यष्टिमधु आदि बहुमूल्य औषधियों से निर्मित यह वटी माता के दूध की शुद्धि तथा वृद्धि करती है जिससे शिशु को शुद्ध, सुपाच्य व उत्तमगुणयुक्त दूध भरपूर मात्रा में दीर्घकाल तक उपलब्ध होता है । इसमें निहित औषधियाँ मातृदुग्ध को पोषक तत्वों (विटामिन्स, मिनरल्स, प्रोटीन्स आदि) से युक्त बनाती हैं । शिशु के विकास के लिए अत्यावश्यक फॉलिक एसिड का भी यह उत्तम स्त्रोत है । शुद्ध, सुपाच्य मातृ दुग्ध बालक की रोगप्रतिकारक क्षमता बढ़ाकर उसकी पीलिया, दस्त, उल्टी, बुखार जैसे कई रोगों से रक्षा करता है ।
सेवन विधि – 2 -2 गोलियाँ दिन में 2-3 बार पानी/दूध के साथ अथवा वैद्यकीय सलाह अनुसार लें ।
सगर्भावस्था में लाल रक्तकणों (RBC) की वृद्धि व परिपक्वता के लिए फोलिक एसिड की अतिरिक्त आवश्यकता प्रतिदिन होती है । इसके अभाव में गर्भिणी में पांडूरोग (Megaloblastic anaemia), क्लांति, शिरःशूल, अप्रसन्नता, विस्मृति आदि समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा शिशु को भी अनेक गंभीर दुष्परिणाम होने की संभावनाएँ रहती हैं । आधुनिक सप्लीमेंट्स में फोलिक एसिड सिंथैटिक फॉर्म में होता है, जिसका सेवन लाभ के साथ कई दुष्प्रभाव भी उत्पन्न करता है । ङ्कदिव्य शिशु रसायन वटीङ्ख प्राकृतिक फोलिक एसिड से युक्त होने से निरापद है ।
लाभ – यह वटी शिशु के शरीर में डी.एन.ए. तथा आर. एन. ए. (Genetic material), लालरक्तकणों, मेरुरज्जु (Spinal cord) व मस्तिष्क (Brain) का समुचित विकास करने में सहायक है । यह गर्भस्थ शिशु की क्षति (Birth defects), भारक्षय (Weight loss) व अकाल प्रसव (Premature birth) से रक्षा करती है । प्रसूति के पश्चात् माता के दूध से शिशु को आवश्यक फॉलिक एसिड प्राप्त होता है, अतः स्तनपान करानेवाली माताओं को भी इसका सेवन करना चाहिए ।
सेवन विधि – सातवें से नौवें महीने तक गर्भिणी तथा स्तनपान करानेवाली माताएं 2-2 गोलियाँ सुबह शाम पानी के साथ लें अथवा चिकित्सक के मार्गदर्शन अनुसार लें ।
सगर्भावस्था में लाल रक्तकणों (RBC) की वृद्धि व परिपक्वता के लिए फोलिक एसिड की अतिरिक्त आवश्यकता प्रतिदिन होती है । इसके अभाव में गर्भिणी में पांडूरोग (Megaloblastic anaemia), क्लांति, शिरःशूल, अप्रसन्नता, विस्मृति आदि समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा शिशु को भी अनेक गंभीर दुष्परिणाम होने की संभावनाएँ रहती हैं । आधुनिक सप्लीमेंट्स में फोलिक एसिड सिंथैटिक फॉर्म में होता है, जिसका सेवन लाभ के साथ कई दुष्प्रभाव भी उत्पन्न करता है । ङ्कदिव्य शिशु रसायन वटीङ्ख प्राकृतिक फोलिक एसिड से युक्त होने से निरापद है ।
लाभ – यह वटी शिशु के शरीर में डी.एन.ए. तथा आर. एन. ए. (Genetic material), लालरक्तकणों, मेरुरज्जु (Spinal cord) व मस्तिष्क (Brain) का समुचित विकास करने में सहायक है । यह गर्भस्थ शिशु की क्षति (Birth defects), भारक्षय (Weight loss) व अकाल प्रसव (Premature birth) से रक्षा करती है । प्रसूति के पश्चात् माता के दूध से शिशु को आवश्यक फॉलिक एसिड प्राप्त होता है, अतः स्तनपान करानेवाली माताओं को भी इसका सेवन करना चाहिए ।
सेवन विधि – सातवें से नौवें महीने तक गर्भिणी तथा स्तनपान करानेवाली माताएं 2-2 गोलियाँ सुबह शाम पानी के साथ लें अथवा चिकित्सक के मार्गदर्शन अनुसार लें ।
रक्त चंदन, श्वेतचंदन, लाक्षा, बला, शिलारस, आदि मौलिक औषधियों तथा गाय के दूध के उपयोग से यह दिव्य शिशु प्रसवमित्रा तैल सिद्ध किया गया है । इस तेल की मालिश करने से गर्भिणी की कमर, पेट व पैरों की मांसपशियाँ तथा पीठ व कमर के स्नायु व संधि (Vertebral and pelvic joints) सशक्त व लचीले हो जाते हैं जिससे सामान्य प्रसव (Normal delivery) होने में सहायता मिलती है । यह तेल पेट पर लगाने से खिंचाव के निशान (Stretch marks) व खुजली बहुत कम होते हैं, शिथिल त्वचा पूर्ववत् होने में सहायता मिलती है व खिंचाव के निशान हल्के हो जाते हैं । नौंवें महीने में इस तेल में भिगोया हुआ रूई का फाहा (Gauze piece) योनि के भीतर रखने से सामान्य प्रसव होने में सहायता मिलती है, गर्भस्थ शिशु बिना विशेष कष्ट के जन्म लेता है तथा प्रसूति के बाद योनि व गर्भाशय शीघ्र सामान्य स्थिति में आ जाते हैं ।
उपयोग विधि – आठवें माह के आखिरी हफ्ते से प्रसूति तक तेल को गुनगुना कर जाँघों व पैरों की नीचे से ऊपर की दिशा में हल्के हाथों से प्रतिदिन 20 मिनट मालिश करें । पेट पर हल्के हाथों से घड़ी की दिशा (Clockwise direction) में गोलाकार मालिश करें । प्रसूति के पश्चात् भी इसी प्रकार पेट व कमर की मालिश करें ।
नौवें महीने में इस तेल में रूई का फाहा (किट में दिये सैम्पल के अनुसार बनाया) भिगोकर प्रतिदिन रात के समय योनि के भीतर रखें, धागा बाहर रखें, सुबह निकाल दें । इस महीने में चिकित्सक के मार्गदर्शन अनुसार इसी तेल से अनुवासन बस्ति लेने से प्रसव निरापद होता है ।
रक्त चंदन, श्वेतचंदन, लाक्षा, बला, शिलारस, आदि मौलिक औषधियों तथा गाय के दूध के उपयोग से यह दिव्य शिशु प्रसवमित्रा तैल सिद्ध किया गया है । इस तेल की मालिश करने से गर्भिणी की कमर, पेट व पैरों की मांसपशियाँ तथा पीठ व कमर के स्नायु व संधि (Vertebral and pelvic joints) सशक्त व लचीले हो जाते हैं जिससे सामान्य प्रसव (Normal delivery) होने में सहायता मिलती है । यह तेल पेट पर लगाने से खिंचाव के निशान (Stretch marks) व खुजली बहुत कम होते हैं, शिथिल त्वचा पूर्ववत् होने में सहायता मिलती है व खिंचाव के निशान हल्के हो जाते हैं । नौंवें महीने में इस तेल में भिगोया हुआ रूई का फाहा (Gauze piece) योनि के भीतर रखने से सामान्य प्रसव होने में सहायता मिलती है, गर्भस्थ शिशु बिना विशेष कष्ट के जन्म लेता है तथा प्रसूति के बाद योनि व गर्भाशय शीघ्र सामान्य स्थिति में आ जाते हैं ।
उपयोग विधि – आठवें माह के आखिरी हफ्ते से प्रसूति तक तेल को गुनगुना कर जाँघों व पैरों की नीचे से ऊपर की दिशा में हल्के हाथों से प्रतिदिन 20 मिनट मालिश करें । पेट पर हल्के हाथों से घड़ी की दिशा (Clockwise direction) में गोलाकार मालिश करें । प्रसूति के पश्चात् भी इसी प्रकार पेट व कमर की मालिश करें ।
नौवें महीने में इस तेल में रूई का फाहा (किट में दिये सैम्पल के अनुसार बनाया) भिगोकर प्रतिदिन रात के समय योनि के भीतर रखें, धागा बाहर रखें, सुबह निकाल दें । इस महीने में चिकित्सक के मार्गदर्शन अनुसार इसी तेल से अनुवासन बस्ति लेने से प्रसव निरापद होता है ।
आयुर्वेद के भैषज्यरत्नावली ग्रंथ के अनुसार बला, लाक्षा, शंखपुष्पी, अर्जुन, महानिम्ब, वासा आदि बल्य व मस्तिष्क पोषक औषधियाँ मिलाकर दिव्य शिशु संवर्धन तैल सिद्ध किया गया है । श्री शंकर भगवान ने मानवमात्र के कल्याण के लिए इस तेल को कहा है, यह शिशुओं के लिये अत्यंत हितकर व पूर्णतः निरापद है ।
लाभ – इस तेल से शिशु की प्रतिदिन मालिश करने से बालक सुगठित, हृष्ट-पुष्ट, बुद्धिमान, कांतिमान तथा दीर्घायु होता है ।
बाजार में उपलब्ध अधिकतर देशी-विदेशी कम्पनियों के बेबी मसाज तेलों में मिनरल ऑयल, हानिकारक केमिकल्स आर्टीफीशियल सुगंध व प्रिसर्वेटिव का उपयोग किया जाता है जो शिशु की मुलायम त्वचा के द्वारा अवशोषित होने के बाद कैंसर जैसे भयंकर रोगों को उपत्पन्न कर सकते हैं । नवजात शिशुओं की ऐसे हानिकारक तेलों से रक्षा करने हेतु इस दिव्य शिशु संवर्धन तैल का निर्माण किया गया है । इसमें निहित स्निग्ध व बलदायी बला त्वचा को मुलायम तथा स्नायु व अस्थियों को मजबूत बनाती है । वर्ण सुधारक हल्दी व चंदन कांति में निखार लाते हैं । रक्तप्रसादक महानिम्ब रक्त की शुद्धि व कृमिनाशक देवदार त्वचा की जंतुओं के संक्रमण से रक्षा करता है । श्रेष्ठ मेध्य रसायन शंखपुष्पी से युक्त यह तेल लगाने से मस्तिष्क व ज्ञानेंन्द्रियों को पोषण मिलता है, बुद्धि की वृद्धि होती है व बालक तेजस्वी होता है ।
उपयोग विधि – सुबह स्नान से पूर्व इस तेल से शिशु की धीरे-धीरे हल्के हाथों से 15-20 मिनट मालिश करें । सर्वप्रथम सिर के तालू में तेल डालें व उंगलियों से मलें फिर पूरे सिर की मालिश करें, छोटी उँगली से कान में तेल लगायें फिर नाभी में तेल डालें फिर क्रमशः पैरों के तलवों, पैर, हाथ के तलवे, उँगलियाँ, हाथ, पेट, छाती, गर्दन, मुख व ललाट की मालिश करें । इसके बाद शिशु को पेट के बल लिटाकर नितम्ब, पीठ व गर्दन की मालिश करें । पेट की मालिश करते समय नाभी में डाले तेल को छोटी उंगली से अच्छी तरह मलें जिससे तेल पूर्णतः अवशोषित हो जाए । जन्म से लेकर एक वर्ष की आयु तक इस प्रकार नियमित मालिश करना आवश्यक है । मालिश के बाद 15 – 20 मिनट हल्की धूप में सूर्य स्नान करायें उसके बाद उबटन लगाकर गुनगुने पानी से स्नान करायें ।
सावधानी – शिशु अगर अस्वस्थ हो जाये तो मालिश नहीं करें ।
आयुर्वेद के भैषज्यरत्नावली ग्रंथ के अनुसार बला, लाक्षा, शंखपुष्पी, अर्जुन, महानिम्ब, वासा आदि बल्य व मस्तिष्क पोषक औषधियाँ मिलाकर दिव्य शिशु संवर्धन तैल सिद्ध किया गया है । श्री शंकर भगवान ने मानवमात्र के कल्याण के लिए इस तेल को कहा है, यह शिशुओं के लिये अत्यंत हितकर व पूर्णतः निरापद है ।
लाभ – इस तेल से शिशु की प्रतिदिन मालिश करने से बालक सुगठित, हृष्ट-पुष्ट, बुद्धिमान, कांतिमान तथा दीर्घायु होता है ।
बाजार में उपलब्ध अधिकतर देशी-विदेशी कम्पनियों के बेबी मसाज तेलों में मिनरल ऑयल, हानिकारक केमिकल्स आर्टीफीशियल सुगंध व प्रिसर्वेटिव का उपयोग किया जाता है जो शिशु की मुलायम त्वचा के द्वारा अवशोषित होने के बाद कैंसर जैसे भयंकर रोगों को उपत्पन्न कर सकते हैं । नवजात शिशुओं की ऐसे हानिकारक तेलों से रक्षा करने हेतु इस दिव्य शिशु संवर्धन तैल का निर्माण किया गया है । इसमें निहित स्निग्ध व बलदायी बला त्वचा को मुलायम तथा स्नायु व अस्थियों को मजबूत बनाती है । वर्ण सुधारक हल्दी व चंदन कांति में निखार लाते हैं । रक्तप्रसादक महानिम्ब रक्त की शुद्धि व कृमिनाशक देवदार त्वचा की जंतुओं के संक्रमण से रक्षा करता है । श्रेष्ठ मेध्य रसायन शंखपुष्पी से युक्त यह तेल लगाने से मस्तिष्क व ज्ञानेंन्द्रियों को पोषण मिलता है, बुद्धि की वृद्धि होती है व बालक तेजस्वी होता है ।
उपयोग विधि – सुबह स्नान से पूर्व इस तेल से शिशु की धीरे-धीरे हल्के हाथों से 15-20 मिनट मालिश करें । सर्वप्रथम सिर के तालू में तेल डालें व उंगलियों से मलें फिर पूरे सिर की मालिश करें, छोटी उँगली से कान में तेल लगायें फिर नाभी में तेल डालें फिर क्रमशः पैरों के तलवों, पैर, हाथ के तलवे, उँगलियाँ, हाथ, पेट, छाती, गर्दन, मुख व ललाट की मालिश करें । इसके बाद शिशु को पेट के बल लिटाकर नितम्ब, पीठ व गर्दन की मालिश करें । पेट की मालिश करते समय नाभी में डाले तेल को छोटी उंगली से अच्छी तरह मलें जिससे तेल पूर्णतः अवशोषित हो जाए । जन्म से लेकर एक वर्ष की आयु तक इस प्रकार नियमित मालिश करना आवश्यक है । मालिश के बाद 15 – 20 मिनट हल्की धूप में सूर्य स्नान करायें उसके बाद उबटन लगाकर गुनगुने पानी से स्नान करायें ।
सावधानी – शिशु अगर अस्वस्थ हो जाये तो मालिश नहीं करें ।
बल्य, श्रमहर व वायुशामक प्रश्नपर्णी, बृहती, श्योनाक, बिल्व एवं तत्सम अन्य औषधियों से सिद्ध इस तेल की मालिश प्रसूति के बाद करने से प्रसव के श्रम से उत्पन्न दुर्बलता व थकान दूर होती है । तंत्रिकाओं (Nerves) को बल मिलता है, शिथिल हुए पेट, कमर व पैरों के स्नायुओं व त्वचा को पूवस्थिति में आने में सहायता मिलती है, संचित मेद (Fats) संतुलित होकर शरीर सुडौल, सशक्त व सुगठित हो जाता है । प्रसूति के पश्चात् होनेवाले प्रकुपित वायुजन्य समस्याओं से भी राहत मिलती है ।
उपयोग विधि – सुबह स्नान से पूर्व इस तेल से प्रसूता की 25-30 मिनट मालिश करें । सर्वप्रथम सिर की मालिश करें, उँगली से कान में 4-5 बूँद तेल डालें, फिर नाभी में 4-5 बूँद तेल डालें व उंगली से मलें फिर पैरों के तलवों पर तेल लगायें व क्रमशः पैर, हाथ, पेट, छाती, गर्दन, मुख व ललाट की मालिश करें इसके बाद माता को पेट के बल लिटाकर पैर, नितंब, कमर, पीठ व गर्दन की मालिश करें ।
सावधानी – स्थूल माताओं में मालिश अनुलोम (ऊपर से नीचे) दिशा में व कृश माताओं में प्रतिलोम (नीचे से ऊपर) दिशा में करें । मालिश के 15-20 मिनट बाद गरम पानी से स्नान करें । माताएं प्रतिदिन सिर से स्नान नहीं करें तथा सिर हफ्ते में 2 बार सामान्य तापमान के पानी से धोयें, गरम से कदापि नहीं । माता अगर अस्वस्थ हो जाये तो मालिश नहीं करे ।
बल्य, श्रमहर व वायुशामक प्रश्नपर्णी, बृहती, श्योनाक, बिल्व एवं तत्सम अन्य औषधियों से सिद्ध इस तेल की मालिश प्रसूति के बाद करने से प्रसव के श्रम से उत्पन्न दुर्बलता व थकान दूर होती है । तंत्रिकाओं (Nerves) को बल मिलता है, शिथिल हुए पेट, कमर व पैरों के स्नायुओं व त्वचा को पूवस्थिति में आने में सहायता मिलती है, संचित मेद (Fats) संतुलित होकर शरीर सुडौल, सशक्त व सुगठित हो जाता है । प्रसूति के पश्चात् होनेवाले प्रकुपित वायुजन्य समस्याओं से भी राहत मिलती है ।
उपयोग विधि – सुबह स्नान से पूर्व इस तेल से प्रसूता की 25-30 मिनट मालिश करें । सर्वप्रथम सिर की मालिश करें, उँगली से कान में 4-5 बूँद तेल डालें, फिर नाभी में 4-5 बूँद तेल डालें व उंगली से मलें फिर पैरों के तलवों पर तेल लगायें व क्रमशः पैर, हाथ, पेट, छाती, गर्दन, मुख व ललाट की मालिश करें इसके बाद माता को पेट के बल लिटाकर पैर, नितंब, कमर, पीठ व गर्दन की मालिश करें ।
सावधानी – स्थूल माताओं में मालिश अनुलोम (ऊपर से नीचे) दिशा में व कृश माताओं में प्रतिलोम (नीचे से ऊपर) दिशा में करें । मालिश के 15-20 मिनट बाद गरम पानी से स्नान करें । माताएं प्रतिदिन सिर से स्नान नहीं करें तथा सिर हफ्ते में 2 बार सामान्य तापमान के पानी से धोयें, गरम से कदापि नहीं । माता अगर अस्वस्थ हो जाये तो मालिश नहीं करे ।
नवजात शिशु की सुकोमल त्वचा की सुरक्षा के लिए यव की पिष्टी में निशा, दारुनिषा, मूर्वा आदि पारम्परिक रक्षोघ्न, विषघ्न व वर्ण्य बूटियों को मिलाकर इस मृदुल उबटन को सुसंपन्न किया गया है । बाजारू बेबी सोप्स में निहित केमिकल्स व मिनरल ऑयल शिशु की त्वचा की नमी को सोखकर उसे रुक्ष बना देते हैं व त्वचा की सुरक्षा परतों को हानि पहुँचाते हैं, परन्तु इस सौम्य, सुगन्धित उबटन में निहित श्रेष्ठ द्रव्य शिशु की त्वचा का पोषण कर उसे निरोगी, स्निग्ध, मुलायम, सुदृढ़ व कान्तियुक्त बनाते हैं ।
उपयोग विधि – उबटन को गाय के दूध की मलाई अथवा दूध में मिलाकर लेई ( Paste) बना लें । हल्के हाथ से शिशु के शरीर पर मलकर, गुनगुने जल से स्नान करायें ।
नवजात शिशु की सुकोमल त्वचा की सुरक्षा के लिए यव की पिष्टी में निशा, दारुनिषा, मूर्वा आदि पारम्परिक रक्षोघ्न, विषघ्न व वर्ण्य बूटियों को मिलाकर इस मृदुल उबटन को सुसंपन्न किया गया है । बाजारू बेबी सोप्स में निहित केमिकल्स व मिनरल ऑयल शिशु की त्वचा की नमी को सोखकर उसे रुक्ष बना देते हैं व त्वचा की सुरक्षा परतों को हानि पहुँचाते हैं, परन्तु इस सौम्य, सुगन्धित उबटन में निहित श्रेष्ठ द्रव्य शिशु की त्वचा का पोषण कर उसे निरोगी, स्निग्ध, मुलायम, सुदृढ़ व कान्तियुक्त बनाते हैं ।
उपयोग विधि – उबटन को गाय के दूध की मलाई अथवा दूध में मिलाकर लेई ( Paste) बना लें । हल्के हाथ से शिशु के शरीर पर मलकर, गुनगुने जल से स्नान करायें ।
आयुर्वेद के बालरोग एवं स्त्री-विज्ञान विषयक अति प्राचीन ग्रंथ कश्यप सहिंता में नवजात शिशु की सुरक्षा हेतु माहेश्वर धूप के उपयोग का वर्णन किया गया है । गाय का घी, गुग्गल, विल्व पत्र व हिमालय से प्राप्त देवदार, नमेरु, आदि का उपयोग कर यह धूप बनाया गया है ।
बालकों की रक्षा के लिए कश्यप ऋषि द्वारा लिखित मंत्र से इस धूप को अभिमंत्रित किया गया है । अपने गुरुमंत्र अथवा भगवन्नाम जप के साथ इसका धूप करने से शिशु तथा माता की प्रदूषित वातावरण, रोगकारक विषाणु व कीटाणुओं एवं संसर्गजन्य रोगों से रक्षा होती है । वातावरण शुद्ध, पवित्र व मंगलकारक होता है।
आयुर्वेद के बालरोग एवं स्त्री-विज्ञान विषयक अति प्राचीन ग्रंथ कश्यप सहिंता में नवजात शिशु की सुरक्षा हेतु माहेश्वर धूप के उपयोग का वर्णन किया गया है । गाय का घी, गुग्गल, विल्व पत्र व हिमालय से प्राप्त देवदार, नमेरु, आदि का उपयोग कर यह धूप बनाया गया है ।
बालकों की रक्षा के लिए कश्यप ऋषि द्वारा लिखित मंत्र से इस धूप को अभिमंत्रित किया गया है । अपने गुरुमंत्र अथवा भगवन्नाम जप के साथ इसका धूप करने से शिशु तथा माता की प्रदूषित वातावरण, रोगकारक विषाणु व कीटाणुओं एवं संसर्गजन्य रोगों से रक्षा होती है । वातावरण शुद्ध, पवित्र व मंगलकारक होता है।
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