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संस्कार साधना 2. प्रार्थना

प्रार्थना

घर आँगन में किलकारियों की गूंज किसे अच्छी नहीं लगती ? इस गूंज की चाह में बच्चे के जन्म के पहले से ही माता-पिता की हर धड़कन प्रार्थना के स्वरों के साथ चलती है और गर्भावस्था के दौरान यही प्रार्थना गर्भस्थ शिशु में भगवद्भक्ति, शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक स्वास्थ्य और उच्च नैतिक मूल्यों के संवर्धन का कार्य करती है । सच्चे हृदय की गयी प्रार्थना भगवान तक तुरंत पहुँचती है । हरि ओम गुंजन के बाद संस्कार साधना के अगले क्रम में हम बढ़ते हैं प्रार्थना की ओर । कैसी है प्रार्थना की महिमा ! एक पपीहा पेड़ पर बैठा था । वहाँ उसे बैठा देखकर एक शिकारी ने धनुष पर बाण चढ़ाया । आकाश से भी एक बाज उस पपीहे को ताक रहा था । इधर शिकारी ताक में था और उधर बाज । पपीहा क्या करता ? कोई ओर चारा न देखकर पपीहे ने प्रभु से प्रार्थना कीः “हे प्रभु ! तू सर्वसमर्थ है । इधर शिकारी है, उधर बाज है । अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! तू ही रक्षा कर….” पपीहा प्रार्थना में तल्लीन हो गया ।वृक्ष के पास बिल में से एक साँप निकला । उसने शिकारी को दंश मारा । शिकारी का निशाना हिल गया । हाथ में से बाण छूटा और आकाश में जो बाज मँडरा रहा था उसे जाकर लगा । शिकारी के बाण से बाज मर गया और साँप के काटने से शिकारी मर गया । पपीहा बच गया । वाह ! परमात्मा कैसा समर्थ है ! वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः…. है । असम्भव भी उसके लिए सम्भव है । सृष्टि में चाहे कितनी भी उथल-पुथल मच जाये लेकिन जब वह अदृश्य सत्ता किसी की रक्षा करना चाहती है तो वातावरण में कैसी भी व्यवस्था करके उसकी रक्षा कर देती है । कितना बल है प्रार्थना में ! कितना बल है उस अदृश्य सत्ता में !

गर्भ संस्कार में प्रार्थना का अद्भुत महत्व है । माता-पिता दोनों को संध्या-वंदन करते समय हरि ओम का गुंजन करने के बाद अपने सद्गुरुदेव और इष्टदेव की हृदयपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । गर्भाधान से पूर्व माता इस प्रकार प्रार्थना करे – “हे प्रभु ! हे परमात्मा ! आप सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक हैं । सम्पूर्ण जगत आपकी ही कृति है । हे सृजनकर्ता ! जिस प्रकार धरती पर अनेक माताओं के गर्भ से दिव्य संतानें अवतरित हुई, उसी प्रकार हे प्रभु ! मेरे गर्भ से आपका ही दिव्य अंश प्रकट हो और उस अलौकिक संतान की माता-पिता कहलाने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो, हमारी यह प्रार्थना आप स्वीकार करें।“

बिना प्रार्थना के किया गया गर्भाधान निम्न स्वभाववाली संतान को आमंत्रित करता है । एक शोध के अनुसार, प्रार्थना करनेवाली महिलाओं में गर्भधारण करने की संभावना, प्रार्थना न करनेवाली महिलाओं की अपेक्षा दुगुनी हो पाई गई थी ! इसी प्रार्थना का आश्रय जब गर्भवती माता लेती है तो गर्भस्थ शिशु की रक्षा का दायित्व भगवान स्वयं पर ले लेते हैं । जैसे – उत्तरा की प्रार्थना और समता से प्रभावित होकर अपनी समता का परीक्षा स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे मृत परीक्षित को जीवित कर दिया था । जिन माताओं को बार-बार गर्भ गिर जाता हो उन्हें उत्तरा की तरह भगवान से प्रार्थना करना चाहिए ।

महाराष्ट्र स्थित मनशक्ति रिसर्च सेंटर में की गई स्टडी के अनुसार गर्भावस्था में माँ द्वारा की गई प्रार्थना उसके साथ गर्भ में मौजूद शिशु की pulse rate को नॉर्मल रखती है । इससे माँ और गर्भ में पल रहे शिशु दोनों का ही स्वास्थ्य बेहतर रहता है । 

सगर्भा की प्रार्थना के फलस्वरूप संतान में असाधारण दैवी सद्गुणों का विकास होता है । आनेवाली संतान वीर, सद्गुणी, विद्वान, यशस्वी, श्रेष्ठ और दीर्घजीवी होती है ।प्रार्थना के फलस्वरूप जन्म लेनेवाली दिव्यात्मा परमात्मा द्वारा भेजा गया सुंदर उपहार है ।

संत विनोबा भावे माँ रुक्मिणी रात को जब दही जमाती तो भगवान की प्रार्थना करके जमातीं थीं । बालक विनोबा ने एक दिन पूछाः “माँ ! दही जमाने में परमेश्वर को बीच में घसीटने की क्या जरूरत है ? उनकी प्रार्थना न करें, उनका नाम न लें तो क्या दही नहीं जमेगा ? माँ ने कहाः “विन्या ! हम अपनी तरफ से भले ही पूरी तैयारी कर लें, पर दही तो ठीक से तभी जमेगा, जब भगवान की कृपा होगी।“ विनोबा जी कहते है- “जेल में मैं सब बातों का ध्यान रखकर दही जमाता था, फिर भी कभी-कभी खट्टा हो जाता था, तब मुझे माँ की यह बात याद आती थी ।“

कितनी ऊँची शिक्षा दी है भारत की इस माता ने अपने बालक को ! बचपन से ही वेदांत के संस्कारों का सिंचन किया कि दही भले जमता हुआ दिखता है परंतु वह जिसकी सत्ता से जमता है, उसका स्मरण कर हमें उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । हे भारत की माताओं ! आप भी गर्भाधान से लेकर गर्भावस्था के दौरान और शैशवकाल से ही अपने बच्चों में प्रार्थना द्वारा ऐसे दिव्य संस्कारों का सिंचन करोगी तो आगे चलकर उनके कर्मों में भक्तिरस आयेगा जो उन्हें निर्वासनिक नारायण के सुख में प्रतिष्ठित कर देगा ।

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चाय-कॉफ़ी : धीमे जहर

चाय-कॉफ़ी : धीमे जहर

वर्तमान समय में विदेशों के साथ-साथ भारत में भी चाय का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है । थकान अथवा नींद आने पर व्यक्ति यह सोचकर चाय पीता है कि मुझे नयी स्फूर्ति प्राप्त होगी’ परन्तु वास्तव में यह एक भ्रम मात्र है । चाय पीने से शरीर का रक्तचाप काफी बढ़ जाता है । इससे शरीर की माँसपेशियाँ अधिक उत्तेजित हो जाती हैं तथा व्यक्ति स्फूर्ति का अनुभव करता है । चाय के विनाशकारी व्यसन में फँसे हुए लोग स्फूर्ति का बहाना बनाकर हारे हुए जुआरी की तरह उसमें अधिकाधिक डूबते चले जाते हैं । अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा पसीने की कमाई को व्यर्थ में गँवा देते हैं और भयंकर व्याधियों के शिकार बन जाते हैं ।
प्राय: जो महानुभाव चाय पीने के अभ्यासी होते हैं, उन्हें यह जान लेना आवश्यक है कि चाय एक मादक अहितकर पेय है । चाय पीने और प्रत्यक्ष विष पीने में कोई अंतर नहीं है । फिर भी प्रतिदिन चाय पीकर आप अपने स्वास्थ्य और अमूल्य जीवन को नष्ट कर रहे हैं । हानि के विचार से देखा जाये तो चाय और शराब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं । इसका नशा शराब की तरह ही होता है । चाय पीनेवाले अपने शारीरिक एवं मानसिक रोगों की दवा चाय को ही समझते हैं ।

आईए देखते हैं कि आपकी इस मनपसंद दवा में कितने प्रकार के धीमे जहर पाए जाते हैं -

1. कैफिन (2.75%): इससे ऊर्जा व कार्यक्षमता में कमी आती है । Ca, Na, Mg, K आदि खनिजों व विटामिन ‘बी’ का नुकसान होता है । कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है जिससे हृदयाघात की सम्भावना बढ़ जाती है । पाचनतंत्र को हानि होती है । कब्जियत और बवासीर होती है । । नींद कम आती है । सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव पैदा होता है । यकृत और गुर्दे खराब होते हैं । रक्तचाप और मधुमेह (डायबिटीज) बढ़ता है ।
2. टेनिन (18%): इससे अजीर्ण, पेट में छाले, कब्ज तथा यकृत को हानि होती है । आलस्य, प्रमाद बढ़ता है, चमड़ी रुक्ष बनती है ।
3. थीन (3%): इससे खुश्की चढ़ती है, सिर में भारीपन महसूस होता है ।
4. सायनोजन: अनिद्रा तथा लकवा जैसी भयंकर बीमारियाँ पैदा करती है ।
5. एरोमिक ऑयल: आँतों पर हानिकारक प्रभाव करता है ।
6. वॉलाटाइल: आँतें कमजोर हो जाती है ।
7. कार्बोनिक अम्ल: एसिडिटी होती है ।
8. पैमिन: पाचनशक्ति कमजोर होती है ।
9. ऑक्सेलिक अम्ल: शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है ।
10. स्टिनॉयल: रक्तविहार तथा नपुंसकता पैदा करता है ।

इनका सेवन करनेवालों को मिलते हैं निम्न उपहार -

चाय-कॉफी के सेवन से संधिवात, जोड़ों का दर्द, गठिया आदि होते हैं । अधिक चाय-कॉफी पीनेवालों को चक्कर आना, गले के रोग, रक्त की अशुद्धि, दाँतों के रोग और मसूड़ों की कमजोरी की तकलीफ होती है । शुक्राणुओं को हानि होती है । वीर्य पतला होता है और प्रजनन शक्ति कम होती है । गर्भस्थ शिशु के आराम में विक्षेप पैदा होता है, जो जन्म के बाद उसके विकृत व्यवहार का कारण होता है । चाय-कॉफी अधिक पीनेवाली महिलाओं की गर्भधारण की क्षमता कम हो जाती है । गर्भवती स्त्री चाय पीती है तो नवजात शिशु जन्म के बाद सोता नहीं है, उत्तेजित और अशांत रहता है, हाथों और घुटनों की चमड़ी खुजलाता रहता है । कभी-कभी ऐसे शिशु जन्म के बाद ठीक तरह से श्वास नहीं ले पाते और मर जाते हैं । इसलिए चाय अथवा कॉफी कभी नहीं पीनी चाहिए और अगर पीनी ही पड़े तो आयुर्वैदिक चाय (ओजस्वी चाय) पीनी चाहिए ।

सावधानी: गर्भवती बहनें केवल शीतऋतु में ही ओजस्वी चाय का प्रयोग कर सकती हैं और वह भी केवल सातवें महीने के बाद । प्रारंभ के महीनों में ओजस्वी चाय का प्रयोग न करें ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।