सगर्भावस्था में आहार
आहार के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए ‘छांदोग्य उपनिषद्‘ कहती है : आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः…
अर्थात् आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है । शरीर और भोजन का परस्पर संबंध है । प्रत्येक व्यक्ति को सात्तिक भोजन करना चाहिए क्योंकि सात्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुँचता है । सुगमता से पच सके उतना (भूख से थोड़ा कम) आहार लेना स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है ।
आहार द्रव्यों के प्रयोग का व्यापक सिद्धान्त है-
तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते।
अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत्।।
‘ऐसे आहार-द्रव्यों का नित्य सेवन करना चाहिए, जिनसे स्वास्थ्य का अनुरक्षण (Maintenance) होता रहे अर्थात् स्वास्थ्य उत्तम बना रहे और जो रोग उत्पन्न नहीं हुए हैं उनकी उत्पत्ति भी न हो सके।’
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 5.13)
जो पदार्थ शरीर के रस, रक्त आदि सप्तधातुओं के समान गुणधर्मवाले हैं, उनके सेवन से स्वास्थ्य की रक्षा होती है ।
आचार्य चरक कहते हैं कि गर्भिणी के आहार का आयोजन तीन बातों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए –
गर्भवती के शरीर का पोषण, स्तन्यनिर्मिती की तैयारी व गर्भ की वृद्धि।
माता यदि सात्त्विक, संतुलित, पथ्यकर एवं सुपाच्य आहार का विचारपूर्वक सेवन करती है तो बालक सहज ही हृष्ट-पुष्ट होता है। प्रसव भी ठीक समय पर सुखपूर्वक होता है।
अतः गर्भिणी रूचिकर, सुपाच्य, मधुर रसयुक्त, चिकनाईयुक्त एवं जठराग्नि प्रदीपक आहार ले।
आयुर्वेद में विभिन्न स्थानों पर सगर्भावस्था में विशेष लाभदायी पदार्थों का वर्णन किया गया है ।
(1) दूध : दूध ताजा व शुद्ध होना चाहिए। फ्रिज का ठण्डा दूध योग्य नहीं है। यदि दूध पचता न हो या वायु होती हो तो 200 मि.ली. दूध में 100 मि.ली. पानी के साथ 10 नग वायविडंग व 1 सें.मी. लम्बा सोंठ का टुकड़ा कूटकर डालें व उबालें। भूख लगने पर एक दिन में 1-2 बार ले सकते हैं।
सावधानी : नमक, खटाई, फलों और दूध के बीच 2 घंटे का अंतर रखें।
(2) मट्ठा/ छाछ : सगर्भावस्था के अंतिम तीन-चार मासों में मस्से या पाँव पर सूजन आने की सम्भावना होने से मक्खन निकाली हुई एक कटोरी ताजी छाछ दोपहर के भोजन में नियमित लिया करो।
(3) गाय का घी : आयुर्वेद ने घी को अमृत सदृश बताया है। अतः प्रतिदिन 1-2 चम्मच घी पाचनशक्ति के अनुसार सुबह-शाम ले।
(4) पानक (Nut-milk) : सगर्भावस्था में प्राय: ६०० माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की प्रतिदिन आवश्यकता होती है । इसके अभाव में गर्भिणी में विशेष प्रकार का पांडूरोग (Megaloblastic Anemia), थकान, सिरदर्द, अप्रसन्नता, विस्मृति आदि समस्याएँ उत्पन्न होती है तथा शिशु को भी अनेक गंभीर रोग होने की संभावनाएँ रहती है । इन समस्याओं से बचने के लिए वर्तमान में माताओं को कृत्रिम फोलिक एसिड के पूरक (Supplements) खिलाये जाते है लेकिन इनसे कहीं अधिक पोष्टिकता घर में ही बने पानक से प्राप्त की जा सकती है ।
सूखे मेवों में फोलिक एसिड, आयरन, कैल्शियम व अन्य जीवनीय तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते है । इनसे बना पानक शारीरिक व मानसिक थकावट को दूर कर शीघ्र शक्ति व स्फूर्ति प्रदान करता है ।
(5) लाजा : लाजा अर्थात् खील (लाई) सुपाच्य, शीतल, बल-स्फूर्ति व शीघ्र शक्ति प्रदायक है । इसके द्वारा एक विशेष पेय बनया जाता है जिसे ‘लाजामंड’ कहते हैं ।
श्री वाग्भट्टाचार्य जी के अनुसार लाजमंड स्रोतों को मुलायम बनानेवाला, जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाला, वायु का अनुलोमक व कल्याणकारक होता है । उल्टी, दस्त, बुखार, भूख न लगना, दाह, जलन, प्यास, आदि में यह पथ्यकर है ।
आयुर्वेद में आहार की विरुद्धता के 18 प्रकार बताये गये हैं। जैसे घी खाने के बाद ठंडा पानी पीना परिहार विरुद्ध है। खाते समय भोजन पर ध्यान नहीं देना (टी.वी. देखना, मोबाइल का प्रयोग करना आदि) विधि-विरुद्ध है। काँसे के पात्र में दस दिन रखा हुआ घी संस्कार विरुद्ध है, रात में सत्तू का सेवन काल-विरुद्ध है। शीतल जल के साथ मूँगफली, घी, तेल, अमरूद, जामुन, खीरा, ककड़ी, गर्म दूध या गर्म पदार्थ, खरबूजे के साथ लहसुन, मूली के पत्ते, दूध, दही, तरबूज के साथ पुदीना, शीतल जल, चावल के साथ सिरका आदि विरुद्ध आहार हैं।
आम तौर पर मरीजों को खाने के लिए मूँग, नारियल पानी, दूध लेने की सूचना दी जाती है । ये तीनों उपयोगी पदार्थ परस्पर विरुद्ध हैं । इनका एक साथ उपयोग नहीं करना चाहिए ।
दूध और केला साथ में लेने से बहुत अधिक मात्रा में कफ का प्रकोप होता है ।
दूध के साथ मूँग और नमक विरुद्ध हैं । इसलिए मूँग-चावल की खिचड़ी और दूध को साथ में नहीं लेना चाहिए। दूध के स्थान पर तरल सब्जी आदि का उपयोग कर सकते हैं ।
दूध के साथ गुड़ विरुद्ध आहार है, मिश्री ले सकते हैं ।
दूध और फलों के संयोग से बना मिल्कशेक शरीर के लिए हानिकारक है।
दूध डालकर बनाया गया फलों का सलाद विरुद्धाहार है । विरुद्ध न हो इस प्रकार फलों का सलाद बनाने के लिए नारियल को पीसकर उसका दूध बना लें, उसमें सभी फलों को डाल सकते हैं ।
गर्म भोजन के साथ खूब ठंडा आम का रस विरुद्ध है । रस का तापमान कमरे के तापमान जितना होना चाहिए ।
चीनी सफेद जहर है, अतः हमेशा मिश्री का उपयोग करना चाहिए। वह भी सीमित मात्रा में ।
आहार पकाकर फ्रीज में लम्बे समय तक संग्रह करने से, जरूरत पड़ने पर माइक्रोवेव ओवन में गर्म करके उपयोग करने से, सुबह का भोजन शाम को और शाम का भोजन दूसरे दिन सुबह लेने से उसके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, रोगकारकता बढ़ती है।
मैदा और प्राणिज वसा के संयोग से बनने वाले बेकरी के पदार्थ – ब्रेड, बिस्कुट, पाव, नानखताई, पिज्जा-बर्गर आदि तथा सेकरीन से बनाये गये खाद्य पदार्थ, आइस्क्रीम, शरबत व मिठाइयाँ एवं बेकिंग पाउडर डालकर बनाये जाने वाले खाद्य पदार्थ जैसे नूडल्स आदि अत्यंत हानिकारक हैं।
प्लास्टिक की पैकिंग वाले खाद्य पदार्थों में गर्मी के कारण प्लास्टिक के रासायनिक कण (केमिकल पार्टिकल्स) मिल जाते हैं, जिनसे कैंसर हो सकता है।
खाद्य पदार्थ लम्बे समय तक खराब न हों इसके लिए उनमें मिलाए जाने वाले सभी पदार्थ (preservatives) विविध कृत्रिम रसायनों से बनाये जाते हैं। वे सब हानिकारक तत्त्व हैं। जब हम डिब्बाबंद भोजन (पैक्ड फूड) खाते हैं, तब तक उसके उपयोगी तत्त्व नष्ट हो गये होते हैं।
मिठाइयों को चमकाने के लिए लगायी जाने वाली चाँदी की परत बनाने में पशुओं की आँतों का प्रयोग किया जाता है। यह बहुत हानिकारक है।
वर्तमान समय में प्रचलित ऊपर बताये गये आहार विरुद्ध आहार से भी अधिक नुकसानकारक और धीमे जहर के समान होने के कारण उन्हें ‘विषमय आहार’ कहना चाहिए।
गर्भ रहने पर गर्भिणी किसी भी प्रकार के आसव-अरिष्ट (कुमारी आसव, दशमूलारिष्ट आदि), उष्ण-तीक्ष्ण औषधियों, दर्द-निवारक (पेन किल्लर) व नींद की गोलियों, मरे हुए जानवरों के रक्त से बनी रक्तवर्धक दवाइयों एवं टॉनिक्स तथा हानिकारक अंग्रेजी दवाइयों आदि का सेवन न करें। इडली, डोसा, ढोकला जैसे खमीरयुक्त, पित्तवर्धक तथा चीज़, पनीर जैसे पचने में भारी पदार्थ न खायें। ब्रेड, बिस्कुट, केक, नूडल्स (चाऊमीन), भेलपुरी, दहीबड़ा जैसे मैदे की वस्तुएँ न खाकर शुद्ध घी व आटे से बने तथा स्वास्थ्यप्रद पदार्थों का सेवन करें।
जो आहार-द्रव्य शरीर की सम-धातुओं को स्वाभाविक रूप में सम ही रखें और विषम धातुओं को सम कर दें उसे हितकर आहार कहते हैं । इसके विपरीत जो आहार-द्रव्य सम धातुओं को विषम बना दें और विषम धातुओं को और अधिक विकृत कर दे उसे अहितकर आहार कहा जाता है । शरीर की सभी धातुओं को सम रखने के लिए आहार का सर्वरसयुक्त होना आवश्यक है ।
श्री वाग्भट्टाचार्य जी कहते हैं –
नित्यं सर्वरसाभ्यासः ।
‘स्वस्थ वयक्ति को सभी रसों का नित्य सेवन करना चाहिए ।’
इस प्रसंग में श्री चरकाचार्य कहते हैं –
सर्वरसाभ्यासो बलकराणाम्,
एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणाम् ।
‘सदा सब रसों का सेवन सर्वोत्तम बलकारी व एक रस का सेवन सर्वाधिक दौर्बल्यजनक है ।’
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : 25.40)
रस छः प्रकार के होते हैं – मधुर या मीठा, खट्टा, खारा, तीखा, कड़वा व कसैला । शरीर में वात, पित्त व कफ इन त्रिदोषों की स्थिति इन षड् रसों पर ही निर्भर करती है ।
अपनी प्रकृति, देश, काल, ऋतु, उम्र व सात्म्य-असात्म्य (हितकर-अहितकर) का विचार करके तदनुसार आहार का सेवन करने से त्रिदोष सम अवस्था में रहते हैं ।
आहार में षड् रसों का अनुक्रम –
आहार में सामान्यतः सर्वप्रथम मीठे व स्निग्ध, मध्य में प्रथम खट्टे व खारे तथा बाद में तीखे व कड़वे एवं अंत में कसैले व द्रव्यरूप पदार्थों का सेवन करना चाहिए । इसलिए भोजन में बाद छाछ पीने का विधान है ।
आयुर्वेदानुसार सगर्भावस्था में किसी भी प्रकार का आहार अधिक मात्रा में न लें। षड् रसयुकत् आहार लेना चाहिए परंतु केवल किसी एकाध प्रिय रस का अति सेवन दुष्परिणाम ला सकता है।
इस संदर्भ में चरकाचार्य जी ने बताया है :
मधुरः सतत् सेवन करने से बच्चे को मधुमेह (डायबिटीज), गूँगापन, स्थूलता हो सकती है।
अम्लः इमली, टमाटर, खट्टा दही, डोसा, खमीरवाले पदार्थ अति प्रमाण में खाने से बच्चे को जन्म से ही नाक से खून बहना, त्वचा व आँखों के रोग हो सकते हैं।
लवण (नमक)– ज्यादा नमक लेने से रक्त में खराबी आती है, त्वचा के रोग होते हैं। बच्चे के बाल असमय में सफेद हो जाते हैं, गिरते हैं, गंजापन आता है, त्वचा पर असमय झुर्रियाँ पड़ती हैं तथा नेत्रज्योति कम होती है।
तीखाः बच्चा कमजोर प्रकृति का, क्षीण शुक्रधातुवाला व भविष्य में संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो सकता है।
कड़वाः बच्चा शुष्क, कम वजन का व कमजोर हो सकता है।
कषायः अति खाने पर श्यावता (नीलरोग) आती है, उर्ध्ववायु की तकलीफ रहती है।
सारांश यही है कि स्वादलोलुप न होकर आवश्यक संतुलित आहार लें ।
(1) जल : सूर्योदय से पहले आठ घूँट जल पीनेवाला मनुष्य रोग और बुढ़ापे से रक्षित होकर दीर्घायु प्राप्त करता है । ताँबे के पात्र में रखा हुआ जल पीने के लिए अधिक अच्छा है । भोजन के बीच-बीच में व दो घंटे बाद जल पीना हितकारी है परंतु भूख लगने पर जल पीना बहुत हानिकारक है । व्यक्ति को एक दिन में कम-से-कम ढाई से तीन लीटर जल पीना चाहिए, इससे रक्त–संचार सुचारु रूप से होता है । देश, ऋतु, प्रकृति, आयु आदि के अनुसार इस मात्रा में परिवर्तन हो सकता है । सगर्भा स्त्री प्रतिदिन आवश्यकता के अनुसार पानी पिये परंतु मात्रा इतनी अधिक न हो कि जठराग्नि मंद हो जाय। पानी को 15-20 मिनट उबालकर ही लेना चाहिए। सम्भव हो तो पानी उबालते समय उसमें उशीर (सुगंधीबाला), चंदन, नागरमोथ आदि डालें तथा शुद्ध चाँदी या सोने (24 कैरेट) का सिक्का या गहना साफ करके डाला जा सकता है।
(2) पाक : पदार्थ को तलने से पोषक तत्त्व नष्ट होते हैं । बहुत कम मात्रा में छोटे पात्र में तेल ले के इस प्रकार पदार्थ को तलें जिससे तेल बचे नहीं । तलने के बाद बचे हुए तेल का उपयोग दुबारा तलने के लिए नहीं करना चाहिए । अधकच्चा, अधिक पका हुआ, जला हुआ, बार-बार गर्म किया गया, उच्च तापमान पर पकाया गया (जैसे फास्टफूड) अति शीत तापमान में रखा गया (जैसे- फ्रिज में रखे पदार्थ) भोजन पाकविरूद्ध है।
(3) भोजन-सामग्री : आयुर्वेद के अनुसार सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ है । लाखों वर्ष पुराना समुद्री नमक जो प्रथ्वी की गहराई में दबकर पत्थर बन जाता है, वही सेंधा नमक है । यह रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद व आँखों के लिए हितकर है । यह अस्थियों को मजबूत करता है । पानी के साथ यह रक्तचाप के नियमन के लिए आवश्यक है । गर्भवती बहनें सेंधा नमका का ही सेवन करें ताकि उनका रक्तचाप संतुलन रहे व सामान्य प्रसूति में मदद मिले ।
(४) भोजन-पात्र : नॉन-स्टीकी बर्तन के ऊपर की परत में कृत्रिम प्लास्टिक जैसे तत्त्व का प्रयोग होता है । उसको काम में लेने से यह तत्त्व आहार में मिलकर शरीर में जा के कैंसर जैसे गम्भीर लोग उत्पन्न करता है । लोहे अथवा स्टील के बर्तनों का उपयोग कर सकते हैं ।
भोजन के समय खाने व पीने के पात्र अलग-अलग होने चाहिए ।
सोना, चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा, काँच, पत्थर अथवा मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने की पद्धति प्रचलित है। इसमें सुवर्णपात्र सर्वोत्तम तथा मिट्टी के पात्र हीनतम माने गये हैं। सोने के बाद चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा और काँच के बर्तन क्रमशः हीन गुणवाले होते हैं।
एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें। इससे कैंसर आदि रोग होने का खतरा होता है।
रविवार के दिन काँसे के पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। – (ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्ण खंडः 75)
चतुर्मास के दिनों में ताँबे व काँसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करना चाहिए। – (स्कन्द पुराण)
चतुर्मास में पलाश के पत्तों की पत्तल पर भोजन करना पापनाशक है।
(५) भोजन करने विषयक ज्ञान : मौन होकर लिया गया सुपाच्य एवं सात्तिक आहार शरीरपोषक, बलप्रद, तृप्तिकारक, आयु, तेज, साहस तथा मानसिक शक्ति व पाचनशक्ति को बढ़ानेवाला होता है ।
भगवान धन्वन्तरि सुश्रुत जी से कहते हैं- “मनुष्य को सदा ‘हिताशी’ (हितकारी पदार्थों को ही खाने वाला), ‘मिताशी’ (परिमित भोजन करने वाला) तथा ‘जीर्णाशी’ होना चाहिए अर्थात् पहले खाये हुए अन्न का परिपाक हो जाने पर ही पुनः भोजन करना चाहिए।
भोजन से पूर्व हाथ पैर धोकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके सीधे बैठकर गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ करे और भावना करे कि’हृदयस्थ प्रभु का भोजन करा रही हूँ।’ पाँच प्राणों को नीचे दिये मंत्रसहित मानसिक आहुतियाँ देकर भोजन करना चाहिए।
ॐप्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा। ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा।
खाने पीने के बारे में एक सीधी-सादी समझ यह भी है कि जो चीज आप भगवान को भोग लगा सकते हो, सदगुरु को अर्पण कर सकते हो वह चीज खाने योग्य है और जो चीज भगवान, सदगुरु को अर्पण करने में संकोच महसूस करते हो वह चीज खानापीना नहीं चाहिए ।
एक बार भोजन करने के बाद तीन घण्टे से पहले फल को छोड़ कर और कोई अन्नादि खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
सुबह 7-7.30 बजे नाश्ते में रात के भिगोए हुए 1-2 बादाम, 1-2 अंजीर व 7-8 मुनक्के अच्छे से चबाकर खायें । साथ में पंचामृत पाचनशक्ति के अनुसार लें । वैद्यकीय सलाह के अनुसार आश्रमनिर्मित शक्तिवर्धक योग – सुवर्णप्राश, रजतमालती, च्यवनप्राश आदि ले सकती हैं ।
सुबह 9 से 11 के बीच तथा शाम को 5 से 7 के बीच प्रकृति-अनुरूप ताजा, गर्म, सात्त्विक, पोषक एवं सुपाच्य भोजन करें ।
आप जो पदार्थ भोजन में लेते हो वे पूरे शुद्ध होने चाहिए। पाँच कारणों से भोजन अशुद्ध होता हैः
1. अर्थदोषः जिस धन से, जिस कमाई से अन्न खरीदा गया हो वह धन, वह कमाई ईमानदारी की हो । असत्य आचरण द्वारा की गई कमाई से, किसी निरपराध को कष्ट देकर, पीड़ा देकर की गई कमाई से तथा राजा, वेश्या, कसाई, चोर के धन से प्राप्त अन्न दूषित है । इससे मन शुद्ध नहीं रहता ।
2. निमित्त दोषः आपके लिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति कैसा है? भोजन बनाने वाले व्यक्ति के संस्कार और स्वभाव भोजन में भी उतर आते हैं । इसलिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति पवित्र, सदाचारी, सुहृद, सेवाभावी, सत्यनिष्ठ हो यह जरूरी है ।
पवित्र व्यक्ति के हाथों से बना हुआ भोजन भी कुत्ता, कौवा, चींटी आदि के द्वारा छुआ हुआ हो तो वह भोजन अपवित्र है।
3. स्थान दोषः भोजन जहाँ बनाया जाय वह स्थान भी शांत, स्वच्छ और पवित्र परमाणुओं से युक्त होना चाहिए । जहाँ बार-बार कलह होता हो वह स्थान अपवित्र है । स्मशान, मल-मूत्रत्याग का स्थान, कोई कचहरी, अस्पताल आदि स्थानों के बिल्कुल निकट बनाया हुआ भोजन अपवित्र है। वहाँ बैठकर भोजन करना भी ग्लानिप्रद है ।
4. जाति दोषः भोजन उन्ही पदार्थों से बनना चाहिए जो सात्त्विक हों । दूध, घी, चावल, आटा, मूँग, लौकी, परवल, करेला, भाजी आदि सात्त्विक पदार्थ हैं । इनसे निर्मित भोजन सात्त्विक बनेगा । इससे विपरीत, तीखे, खट्टे, चटपटे, अधिक नमकीन, मिठाईयाँ आदि पदार्थों से निर्मित भोजन रजोगुण बढ़ाता है । लहसुन, प्याज, मांस-मछली, अंडे आदि जाति से ही अपवित्र हैं । उनसे परहेज करना चाहिए नहीं तो अशांति, रोग और चिन्ताएँ बढ़ेंगी ।
5. संस्कार दोषः भोजन बनाने के लिए अच्छे, शुद्ध, पवित्र पदार्थों को लिया जाये किन्तु यदि उनके ऊपर विपरीत संस्कार किया जाये – जैसे पदार्थों को तला जाये, आथा दिया जाये, भोजन तैयार करके तीन घंटे से ज्यादा समय रखकर खाया जाये तो ऐसा भोजन रजो-तमोगुण पैदा करनेवाला हो जाता है।
विरुद्ध पदार्थों को एक साथ लेना भी हानिकारक है जैसे कि दूध पीकर ऊपर से चटपटे आदि पदार्थ खाना । दूध के आगे पीछे प्याज, दही आदि लेना अशुद्ध भी माना जाता है और उससे चमड़ी के रोग, कोढ़ आदि भी होते हैं । ऐसा विरुद्ध आहार स्वास्थय के लिए हानिकारक है ।
खान-पान का अच्छा ध्यान रखने से आपमें स्वाभाविक ही सत्त्वगुण का उदय हो जायेगा। जैसा अन्न वैसा मन । इस लोकोक्ति के अनुसार सात्त्विक पदार्थ भोजन में लोगे तो सात्त्विकता स्वतः बढ़ेगी। दुर्गुण एवं दुराचारों से मुक्त होकर सरलता और शीघ्रता से दैवी सम्पदा कि वृद्धि कर पाओगे।
आहार के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए ‘छांदोग्य उपनिषद्‘ कहती है : आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः…
अर्थात् आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है । शरीर और भोजन का परस्पर संबंध है । प्रत्येक व्यक्ति को सात्तिक भोजन करना चाहिए क्योंकि सात्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुँचता है । सुगमता से पच सके उतना (भूख से थोड़ा कम) आहार लेना स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है ।
आहार द्रव्यों के प्रयोग का व्यापक सिद्धान्त है-
तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते।
अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत्।।
‘ऐसे आहार-द्रव्यों का नित्य सेवन करना चाहिए, जिनसे स्वास्थ्य का अनुरक्षण (Maintenance) होता रहे अर्थात् स्वास्थ्य उत्तम बना रहे और जो रोग उत्पन्न नहीं हुए हैं उनकी उत्पत्ति भी न हो सके।’
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 5.13)
जो पदार्थ शरीर के रस, रक्त आदि सप्तधातुओं के समान गुणधर्मवाले हैं, उनके सेवन से स्वास्थ्य की रक्षा होती है ।
आचार्य चरक कहते हैं कि गर्भिणी के आहार का आयोजन तीन बातों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए –
गर्भवती के शरीर का पोषण, स्तन्यनिर्मिती की तैयारी व गर्भ की वृद्धि।
माता यदि सात्त्विक, संतुलित, पथ्यकर एवं सुपाच्य आहार का विचारपूर्वक सेवन करती है तो बालक सहज ही हृष्ट-पुष्ट होता है। प्रसव भी ठीक समय पर सुखपूर्वक होता है।
अतः गर्भिणी रूचिकर, सुपाच्य, मधुर रसयुक्त, चिकनाईयुक्त एवं जठराग्नि प्रदीपक आहार ले।
आयुर्वेद में विभिन्न स्थानों पर सगर्भावस्था में विशेष लाभदायी पदार्थों का वर्णन किया गया है ।
(1) दूध :
दूध ताजा व शुद्ध होना चाहिए। फ्रिज का ठण्डा दूध योग्य नहीं है। यदि दूध पचता न हो या वायु होती हो तो 200 मि.ली. दूध में 100 मि.ली. पानी के साथ 10 नग वायविडंग व 1 सें.मी. लम्बा सोंठ का टुकड़ा कूटकर डालें व उबालें। भूख लगने पर एक दिन में 1-2 बार ले सकते हैं।
सावधानी : नमक, खटाई, फलों और दूध के बीच 2 घंटे का अंतर रखें।
(2) मट्ठा/ छाछ :
सगर्भावस्था के अंतिम तीन-चार मासों में मस्से या पाँव पर सूजन आने की सम्भावना होने से मक्खन निकाली हुई एक कटोरी ताजी छाछ दोपहर के भोजन में नियमित लिया करो।
(3) गाय का घी :
आयुर्वेद ने घी को अमृत सदृश बताया है। अतः प्रतिदिन 1-2 चम्मच घी पाचनशक्ति के अनुसार सुबह-शाम ले।
(4) पानक (Nut-milk) :
सगर्भावस्था में प्राय: ६०० माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की प्रतिदिन आवश्यकता होती है । इसके अभाव में गर्भिणी में विशेष प्रकार का पांडूरोग (Megaloblastic Anemia), थकान, सिरदर्द, अप्रसन्नता, विस्मृति आदि समस्याएँ उत्पन्न होती है तथा शिशु को भी अनेक गंभीर रोग होने की संभावनाएँ रहती है । इन समस्याओं से बचने के लिए वर्तमान में माताओं को कृत्रिम फोलिक एसिड के पूरक (Supplements) खिलाये जाते है लेकिन इनसे कहीं अधिक पोष्टिकता घर में ही बने पानक से प्राप्त की जा सकती है ।
सूखे मेवों में फोलिक एसिड, आयरन, कैल्शियम व अन्य जीवनीय तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते है । इनसे बना पानक शारीरिक व मानसिक थकावट को दूर कर शीघ्र शक्ति व स्फूर्ति प्रदान करता है ।
(5) लाजा :
लाजा अर्थात् खील (लाई) सुपाच्य, शीतल, बल-स्फूर्ति व शीघ्र शक्ति प्रदायक है । इसके द्वारा एक विशेष पेय बनया जाता है जिसे ‘लाजामंड’ कहते हैं ।
श्री वाग्भट्टाचार्य जी के अनुसार लाजमंड स्रोतों को मुलायम बनानेवाला, जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाला, वायु का अनुलोमक व कल्याणकारक होता है । उल्टी, दस्त, बुखार, भूख न लगना, दाह, जलन, प्यास, आदि में यह पथ्यकर है ।
आयुर्वेद में आहार की विरुद्धता के 18 प्रकार बताये गये हैं। जैसे घी खाने के बाद ठंडा पानी पीना परिहार विरुद्ध है। खाते समय भोजन पर ध्यान नहीं देना (टी.वी. देखना, मोबाइल का प्रयोग करना आदि) विधि-विरुद्ध है। काँसे के पात्र में दस दिन रखा हुआ घी संस्कार विरुद्ध है, रात में सत्तू का सेवन काल-विरुद्ध है। शीतल जल के साथ मूँगफली, घी, तेल, अमरूद, जामुन, खीरा, ककड़ी, गर्म दूध या गर्म पदार्थ, खरबूजे के साथ लहसुन, मूली के पत्ते, दूध, दही, तरबूज के साथ पुदीना, शीतल जल, चावल के साथ सिरका आदि विरुद्ध आहार हैं।
आम तौर पर मरीजों को खाने के लिए मूँग, नारियल पानी, दूध लेने की सूचना दी जाती है । ये तीनों उपयोगी पदार्थ परस्पर विरुद्ध हैं । इनका एक साथ उपयोग नहीं करना चाहिए ।
दूध और केला साथ में लेने से बहुत अधिक मात्रा में कफ का प्रकोप होता है ।
दूध के साथ मूँग और नमक विरुद्ध हैं । इसलिए मूँग-चावल की खिचड़ी और दूध को साथ में नहीं लेना चाहिए। दूध के स्थान पर तरल सब्जी आदि का उपयोग कर सकते हैं ।
दूध के साथ गुड़ विरुद्ध आहार है, मिश्री ले सकते हैं ।
दूध और फलों के संयोग से बना मिल्कशेक शरीर के लिए हानिकारक है।
दूध डालकर बनाया गया फलों का सलाद विरुद्धाहार है । विरुद्ध न हो इस प्रकार फलों का सलाद बनाने के लिए नारियल को पीसकर उसका दूध बना लें, उसमें सभी फलों को डाल सकते हैं ।
गर्म भोजन के साथ खूब ठंडा आम का रस विरुद्ध है । रस का तापमान कमरे के तापमान जितना होना चाहिए ।
चीनी सफेद जहर है, अतः हमेशा मिश्री का उपयोग करना चाहिए। वह भी सीमित मात्रा में ।
आहार पकाकर फ्रीज में लम्बे समय तक संग्रह करने से, जरूरत पड़ने पर माइक्रोवेव ओवन में गर्म करके उपयोग करने से, सुबह का भोजन शाम को और शाम का भोजन दूसरे दिन सुबह लेने से उसके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, रोगकारकता बढ़ती है।
मैदा और प्राणिज वसा के संयोग से बनने वाले बेकरी के पदार्थ – ब्रेड, बिस्कुट, पाव, नानखताई, पिज्जा-बर्गर आदि तथा सेकरीन से बनाये गये खाद्य पदार्थ, आइस्क्रीम, शरबत व मिठाइयाँ एवं बेकिंग पाउडर डालकर बनाये जाने वाले खाद्य पदार्थ जैसे नूडल्स आदि अत्यंत हानिकारक हैं।
प्लास्टिक की पैकिंग वाले खाद्य पदार्थों में गर्मी के कारण प्लास्टिक के रासायनिक कण (केमिकल पार्टिकल्स) मिल जाते हैं, जिनसे कैंसर हो सकता है।
खाद्य पदार्थ लम्बे समय तक खराब न हों इसके लिए उनमें मिलाए जाने वाले सभी पदार्थ (preservatives) विविध कृत्रिम रसायनों से बनाये जाते हैं। वे सब हानिकारक तत्त्व हैं। जब हम डिब्बाबंद भोजन (पैक्ड फूड) खाते हैं, तब तक उसके उपयोगी तत्त्व नष्ट हो गये होते हैं।
मिठाइयों को चमकाने के लिए लगायी जाने वाली चाँदी की परत बनाने में पशुओं की आँतों का प्रयोग किया जाता है। यह बहुत हानिकारक है।
वर्तमान समय में प्रचलित ऊपर बताये गये आहार विरुद्ध आहार से भी अधिक नुकसानकारक और धीमे जहर के समान होने के कारण उन्हें ‘विषमय आहार’ कहना चाहिए।
गर्भ रहने पर गर्भिणी किसी भी प्रकार के आसव-अरिष्ट (कुमारी आसव, दशमूलारिष्ट आदि), उष्ण-तीक्ष्ण औषधियों, दर्द-निवारक (पेन किल्लर) व नींद की गोलियों, मरे हुए जानवरों के रक्त से बनी रक्तवर्धक दवाइयों एवं टॉनिक्स तथा हानिकारक अंग्रेजी दवाइयों आदि का सेवन न करें। इडली, डोसा, ढोकला जैसे खमीरयुक्त, पित्तवर्धक तथा चीज़, पनीर जैसे पचने में भारी पदार्थ न खायें। ब्रेड, बिस्कुट, केक, नूडल्स (चाऊमीन), भेलपुरी, दहीबड़ा जैसे मैदे की वस्तुएँ न खाकर शुद्ध घी व आटे से बने तथा स्वास्थ्यप्रद पदार्थों का सेवन करें।
जो आहार-द्रव्य शरीर की सम-धातुओं को स्वाभाविक रूप में सम ही रखें और विषम धातुओं को सम कर दें उसे हितकर आहार कहते हैं । इसके विपरीत जो आहार-द्रव्य सम धातुओं को विषम बना दें और विषम धातुओं को और अधिक विकृत कर दे उसे अहितकर कहा जाता है ।
शरीर की सभी धातुओं को सम रखने के लिए आहार का सर्वरसयुक्त होना आवश्यक है ।
श्री वाग्भट्टाचार्य जी कहते हैं – नित्यं सर्वरसाभ्यासः ।
‘स्वस्थ वयक्ति को सभी रसों का नित्य सेवन करना चाहिए ।’
इस प्रसंग में श्री चरकाचार्य कहते हैं –
सर्वरसाभ्यासो बलकराणाम्,
एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणाम् ।
‘सदा सब रसों का सेवन सर्वोत्तम बलकारी व एक रस का सेवन सर्वाधिक दौर्बल्यजनक है ।’
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : 25.40)
रस छः प्रकार के होते हैं – मधुर या मीठा, खट्टा, खारा, तीखा, कड़वा व कसैला । शरीर में वात, पित्त व कफ इन त्रिदोषों की स्थिति इन षड् रसों पर ही निर्भर करती है ।
अपनी प्रकृति, देश, काल, ऋतु, उम्र व सात्म्य-असात्म्य (हितकर-अहितकर) का विचार करके तदनुसार आहार का सेवन करने से त्रिदोष सम अवस्था में रहते हैं ।
आहार में षड् रसों का अनुक्रम –
आहार में सामान्यतः सर्वप्रथम मीठे व स्निग्ध, मध्य में प्रथम खट्टे व खारे तथा बाद में तीखे व कड़वे एवं अंत में कसैले व द्रव्यरूप पदार्थों का सेवन करना चाहिए । इसलिए भोजन में बाद छाछ पीने का विधान है ।
आयुर्वेदानुसार सगर्भावस्था में किसी भी प्रकार का आहार अधिक मात्रा में न लें। षड् रसयुकत् आहार लेना चाहिए परंतु केवल किसी एकाध प्रिय रस का अति सेवन दुष्परिणाम ला सकता है।
इस संदर्भ में चरकाचार्य जी ने बताया हैः
मधुरः सतत् सेवन करने से बच्चे को मधुमेह (डायबिटीज), गूँगापन, स्थूलता हो सकती है।
अम्लः इमली, टमाटर, खट्टा दही, डोसा, खमीरवाले पदार्थ अति प्रमाण में खाने से बच्चे को जन्म से ही नाक से खून बहना, त्वचा व आँखों के रोग हो सकते हैं।
लवण (नमक)– ज्यादा नमक लेने से रक्त में खराबी आती है, त्वचा के रोग होते हैं। बच्चे के बाल असमय में सफेद हो जाते हैं, गिरते हैं, गंजापन आता है, त्वचा पर असमय झुर्रियाँ पड़ती हैं तथा नेत्रज्योति कम होती है।
तीखाः बच्चा कमजोर प्रकृति का, क्षीण शुक्रधातुवाला व भविष्य में संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो सकता है।
कड़वाः बच्चा शुष्क, कम वजन का व कमजोर हो सकता है।
कषायः अति खाने पर श्यावता (नीलरोग) आती है, उर्ध्ववायु की तकलीफ रहती है।
सारांश यही है कि स्वादलोलुप न होकर आवश्यक संतुलित आहार लें।
(1) जल : सूर्योदय से पहले आठ घूँट जल पीनेवाला मनुष्य रोग और बुढ़ापे से रक्षित होकर दीर्घायु प्राप्त करता है । ताँबे के पात्र में रखा हुआ जल पीने के लिए अधिक अच्छा है । भोजन के बीच-बीच में व दो घंटे बाद जल पीना हितकारी है परंतु भूख लगने पर जल पीना बहुत हानिकारक है । व्यक्ति को एक दिन में कम-से-कम ढाई से तीन लीटर जल पीना चाहिए, इससे रक्त–संचार सुचारु रूप से होता है । देश, ऋतु, प्रकृति, आयु आदि के अनुसार इस मात्रा में परिवर्तन हो सकता है । सगर्भा स्त्री प्रतिदिन आवश्यकता के अनुसार पानी पिये परंतु मात्रा इतनी अधिक न हो कि जठराग्नि मंद हो जाय। पानी को 15-20 मिनट उबालकर ही लेना चाहिए। सम्भव हो तो पानी उबालते समय उसमें उशीर (सुगंधीबाला), चंदन, नागरमोथ आदि डालें तथा शुद्ध चाँदी या सोने (24 कैरेट) का सिक्का या गहना साफ करके डाला जा सकता है।
(2) पाक : पदार्थ को तलने से पोषक तत्त्व नष्ट होते हैं । बहुत कम मात्रा में छोटे पात्र में तेल ले के इस प्रकार पदार्थ को तलें जिससे तेल बचे नहीं । तलने के बाद बचे हुए तेल का उपयोग दुबारा तलने के लिए नहीं करना चाहिए । अधकच्चा, अधिक पका हुआ, जला हुआ, बार-बार गर्म किया गया, उच्च तापमान पर पकाया गया (जैसे फास्टफूड) अति शीत तापमान में रखा गया (जैसे- फ्रिज में रखे पदार्थ) भोजन पाकविरूद्ध है।
(3) भोजन-सामग्री : आयुर्वेद के अनुसार सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ है । लाखों वर्ष पुराना समुद्री नमक जो प्रथ्वी की गहराई में दबकर पत्थर बन जाता है, वही सेंधा नमक है । यह रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद व आँखों के लिए हितकर है । यह अस्थियों को मजबूत करता है । पानी के साथ यह रक्तचाप के नियमन के लिए आवश्यक है । गर्भवती बहनें सेंधा नमका का ही सेवन करें ताकि उनका रक्तचाप संतुलन रहे व सामान्य प्रसूति में मदद मिले ।
(४) भोजन-पात्र : नॉन-स्टीकी बर्तन के ऊपर की परत में कृत्रिम प्लास्टिक जैसे तत्त्व का प्रयोग होता है । उसको काम में लेने से यह तत्त्व आहार में मिलकर शरीर में जा के कैंसर जैसे गम्भीर लोग उत्पन्न करता है । लोहे अथवा स्टील के बर्तनों का उपयोग कर सकते हैं ।
भोजन के समय खाने व पीने के पात्र अलग-अलग होने चाहिए।
सोना, चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा, काँच, पत्थर अथवा मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने की पद्धति प्रचलित है। इसमें सुवर्णपात्र सर्वोत्तम तथा मिट्टी के पात्र हीनतम माने गये हैं। सोने के बाद चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा और काँच के बर्तन क्रमशः हीन गुणवाले होते हैं।
एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें। इससे कैंसर आदि रोग होने का खतरा होता है।
रविवार के दिन काँसे के पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्ण खंडः 75)
चतुर्मास के दिनों में ताँबे व काँसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करना चाहिए।
(स्कन्द पुराण)
चतुर्मास में पलाश के पत्तों की पत्तल पर भोजन करना पापनाशक है।
(५) भोजन करने विषयक ज्ञान : मौन होकर लिया गया सुपाच्य एवं सात्तिक आहार शरीरपोषक, बलप्रद, तृप्तिकारक, आयु, तेज, साहस तथा मानसिक शक्ति व पाचनशक्ति को बढ़ानेवाला होता है ।
भगवान धन्वन्तरि सुश्रुत जी से कहते हैं- “मनुष्य को सदा ‘हिताशी’ (हितकारी पदार्थों को ही खाने वाला), ‘मिताशी’ (परिमित भोजन करने वाला) तथा ‘जीर्णाशी’ होना चाहिए अर्थात् पहले खाये हुए अन्न का परिपाक हो जाने पर ही पुनः भोजन करना चाहिए।
भोजन से पूर्व हाथ पैर धोकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके सीधे बैठकर गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ करे और भावना करे कि’हृदयस्थ प्रभु का भोजन करा रही हूँ।’ पाँच प्राणों को नीचे दिये मंत्रसहित मानसिक आहुतियाँ देकर भोजन करना चाहिए।
ॐप्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा। ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा।
खाने पीने के बारे में एक सीधी-सादी समझ यह भी है कि जो चीज आप भगवान को भोग लगा सकते हो, सदगुरु को अर्पण कर सकते हो वह चीज खाने योग्य है और जो चीज भगवान, सदगुरु को अर्पण करने में संकोच महसूस करते हो वह चीज खानापीना नहीं चाहिए ।
एक बार भोजन करने के बाद तीन घण्टे से पहले फल को छोड़ कर और कोई अन्नादि खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
सुबह 7-7.30 बजे नाश्ते में रात के भिगोए हुए 1-2 बादाम, 1-2 अंजीर व 7-8 मुनक्के अच्छे से चबाकर खाये। साथ में पंचामृत पाचनशक्ति के अनुसार ले। वैद्यकीय सलाह के अनुसार आश्रमनिर्मित शक्तिवर्धक योग – सुवर्णप्राश, रजतमालती, च्यवनप्राश आदि ले सकती है।
सुबह 9 से 11 के बीच तथा शाम को 5 से 7 के बीच प्रकृति-अनुरूप ताजा, गर्म, सात्त्विक, पोषक एवं सुपाच्य भोजन करे।
आप जो पदार्थ भोजन में लेते हो वे पूरे शुद्ध होने चाहिए। पाँच कारणों से भोजन अशुद्ध होता हैः
1. अर्थदोषः जिस धन से, जिस कमाई से अन्न खरीदा गया हो वह धन, वह कमाई ईमानदारी की हो । असत्य आचरण द्वारा की गई कमाई से, किसी निरपराध को कष्ट देकर, पीड़ा देकर की गई कमाई से तथा राजा, वेश्या, कसाई, चोर के धन से प्राप्त अन्न दूषित है । इससे मन शुद्ध नहीं रहता ।
2. निमित्त दोषः आपके लिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति कैसा है? भोजन बनाने वाले व्यक्ति के संस्कार और स्वभाव भोजन में भी उतर आते हैं । इसलिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति पवित्र, सदाचारी, सुहृद, सेवाभावी, सत्यनिष्ठ हो यह जरूरी है ।
पवित्र व्यक्ति के हाथों से बना हुआ भोजन भी कुत्ता, कौवा, चींटी आदि के द्वारा छुआ हुआ हो तो वह भोजन अपवित्र है।
3. स्थान दोषः भोजन जहाँ बनाया जाय वह स्थान भी शांत, स्वच्छ और पवित्र परमाणुओं से युक्त होना चाहिए । जहाँ बार-बार कलह होता हो वह स्थान अपवित्र है । स्मशान, मल-मूत्रत्याग का स्थान, कोई कचहरी, अस्पताल आदि स्थानों के बिल्कुल निकट बनाया हुआ भोजन अपवित्र है। वहाँ बैठकर भोजन करना भी ग्लानिप्रद है ।
4. जाति दोषः भोजन उन्ही पदार्थों से बनना चाहिए जो सात्त्विक हों । दूध, घी, चावल, आटा, मूँग, लौकी, परवल, करेला, भाजी आदि सात्त्विक पदार्थ हैं । इनसे निर्मित भोजन सात्त्विक बनेगा । इससे विपरीत, तीखे, खट्टे, चटपटे, अधिक नमकीन, मिठाईयाँ आदि पदार्थों से निर्मित भोजन रजोगुण बढ़ाता है । लहसुन, प्याज, मांस-मछली, अंडे आदि जाति से ही अपवित्र हैं । उनसे परहेज करना चाहिए नहीं तो अशांति, रोग और चिन्ताएँ बढ़ेंगी ।
5. संस्कार दोषः भोजन बनाने के लिए अच्छे, शुद्ध, पवित्र पदार्थों को लिया जाये किन्तु यदि उनके ऊपर विपरीत संस्कार किया जाये – जैसे पदार्थों को तला जाये, आथा दिया जाये, भोजन तैयार करके तीन घंटे से ज्यादा समय रखकर खाया जाये तो ऐसा भोजन रजो-तमोगुण पैदा करनेवाला हो जाता है।
विरुद्ध पदार्थों को एक साथ लेना भी हानिकारक है जैसे कि दूध पीकर ऊपर से चटपटे आदि पदार्थ खाना । दूध के आगे पीछे प्याज, दही आदि लेना अशुद्ध भी माना जाता है और उससे चमड़ी के रोग, कोढ़ आदि भी होते हैं । ऐसा विरुद्ध आहार स्वास्थय के लिए हानिकारक है ।
खान-पान का अच्छा ध्यान रखने से आपमें स्वाभाविक ही सत्त्वगुण का उदय हो जायेगा। जैसा अन्न वैसा मन । इस लोकोक्ति के अनुसार सात्त्विक पदार्थ भोजन में लोगे तो सात्त्विकता स्वतः बढ़ेगी। दुर्गुण एवं दुराचारों से मुक्त होकर सरलता और शीघ्रता से दैवी सम्पदा कि वृद्धि कर पाओगे।
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