माँ मात्र बालक की ही नहीं, बल्कि संस्कारों की भी जन्मदात्री होती है

श्री गणेश जयंती

गणेश जयंती यानि श्री गणेशजी का जन्म दिवस । आज हम आपको गणेशजी की महिमा बताएं या फिर उनकी महानता की नींव, उनकी माता – माता पार्वती की ! चलो पहले माता की ही गहराई को मापने का प्रयास करते हैं ।

सतीत्व ही नारी का सौन्दर्य होता है और पातिव्रत्य की रक्षा ही उसका व्रत । मन, वाणी और क्रिया द्वारा पति के चरणों में पवित्र प्रेम ही उसका धर्म है । ऊँची-से-ऊँची स्थिति को पाकर भी मन में अहंकार का उदय न होना, भारी-से-भारी संकट आने पर भी धैर्य न छोड़ना, स्वयं कष्ट सहकर भी सभी को यथायोग्य सेवा से प्रसन्न रखना, विनय, कोमलता, दया, प्रेम, लज्जा, सुशीलता और वत्सलता आदि सद्गुणों को हृदयमें धारण करना, यह प्रत्येक साध्वी नारी का स्वभाव होता है ।

नारी के इन सभी सद्गुणों और सभी रूपों का एकत्र समन्वय देखना हो तो भगवती पार्वती के जीवन पर दृष्टिपात करना चाहिये । पार्वतीजी ने जहाँ प्रेम और विनय की प्रतिमूर्ति होकर पति के आधे अंग में स्थान प्राप्त किया, उन्हें अर्धनारीश्वर बनाया; वहीं अपने स्वामी को अपनी विराट् शक्ति देकर मृत्युञ्जय के रूप में प्रतिष्ठित किया और कार्तिकेय और श्री गणेशजी को उत्तम गुणों से संपन्न बनाकर एक श्रेष्ठ माता होने का दायित्व निभाया ।

भगवान शिव और पार्वती सदैव एक प्राण, एक आत्मा की भांति रहते थे । पार्वतीजी के पुत्र श्रीगणेश की उत्पत्ति का वृत्तान्त विभिन्न पुराणोंमें भिन्न-भिन्न प्रकार का मिलता है ।
एक समयकी बात है, पार्वतीजी ने स्नान करनेसे पहले अपने शरीर में उबटन लगवाया । उससे जो मैल गिरी, उसको हाथ में लेकर देवी ने कौतूहलवश एक बालक की प्रतिमा बनायी । वह प्रतिमा बड़ी सुन्दर बन गयी । ऐसा जान पड़ा, मानो कोई सुन्दर बालक सो रहा है । यह देख उन्होंने उसमें अपनी शक्ति से प्राण सञ्चार कर दिया । बालक सजीव हो उठा और उन्हीं का नाम श्रीगणेश पड़ा । यही वो गणेश हैं जिन्हें मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता कहा जाता है, जिन्हें बुद्धि, कला, विवेक, ज्ञान और शांत स्वाभाव का प्रतीक माना जाता है, जो अपने माता-पिता के प्रति अप्रतिम भक्ति के कारण सर्वप्रथम पूज्य देव हो गए ।

                                                              शायद इसीलिए शास्त्र कहते हैं ‘मात्र बालक की ही नहीं; बल्कि उसके संस्कारों की भी जन्मदात्री होती है’ ।

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