होली के रंग... गुरुज्ञान के संग ...
होली के पर्व पर इस वर्ष एक-दूसरे को, अपने गर्भस्थ शिशु को, अपने नवजात शिशु को कोई कच्चा रंग नहीं लगाना… गुरूजी के ज्ञान पक्का और आध्यात्मिक रंग लगाना, वैदिक होली खेलना, खिलाना । यह रंग दूसरों को लगाने के लिए पहले खुद को इस रंग में रंगना जरुरी है, इस रंग को समझना पड़ेगा ।

होली मात्र लकड़ी के ढ़ेर जलाने का त्यौहार नहीँ है । यह तो चित्त की दुर्बलताओं को दूर करने का, मन की मलिन वासनाओं को जलाने का पवित्र दिन है । अपने दुर्गुणों, व्यसनों व बुराइयों को जलाने का पर्व है होली… शोक और खिन्नता भूल जायें और हर्ष से, प्रसन्नता से विभोर हो जायें, यह होली का संदेश है ।
लकड़ियाँ जलायी, आग पैदा हुई, यह कोई आखिरी होली नहीं है । यह संसार में भटकनेवालों की होली है । साधक की होली कुछ और होती है । साधक तो वह होली खेलेंगे जिसमें वे संयम की, समझ की लकडियाँ इकट्ठी करके उनका घर्षण करेंगे और उसमें ब्रम्हज्ञान की आग जलाकर सारे विकारों को भस्म कर देंगे । ऐसी ही होली आपको अपने गर्भस्थ शिशु के साथ खेलनी है ।
फिर दूसरे दिन धुलेंडी आएगी, उसे निर्दोष बालक होकर खेलेंगे, ‘शिवोsहम… शिवोsहम…’ गायेंगे । एक परमात्मा की ही याद…. जहाँ-जहाँ नजर पड़े हम अपने-आपसे खेल रहे है, अपने-आपसे बोल रहे है, अपने-आपको देख रहे है, हम अपने-आपमें मस्त हैं । भिन्न-भिन्न प्रकार के रंगों से अपने तन के वस्त्र रंग देना और उन रंगों के बीच-बीच कभी कोई मिट्टी भी उँडेल देता है अर्थात् रंग छिड़कने के बीच धूल का भी प्रयोग हो जाता है, उसको धुलेंडी बोलते हैं । हमारे जीवन में भी अनेक प्रकार के हर्ष और शोक आयेंगे, अनेक प्रकार के प्रसंग पैदा होंगे और ऐसी रंग-बेरंगी परिस्थितियों पर आखिर एक दिन धूल पड़ जायेगी- इस बात की खबर यह धुलेंडी देती है ।
आप अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को, कमियों को धूल में मिला दो, अहंकार को धूल में मिला दो – यह धुलेंडी का संदेश है । गर्भस्थ शिशु में मिथ्या अहंकार पनपने न देना, माँ के हाथ में है ।
जिसने भीतर की होली खेल ली, जिसके भीतर प्रकाश हो गया, भीतर का प्रेम आ गया, जिसने आध्यात्मिक होली खेल ली, उसको जो रंग चढ़ता है वह अबाधित रंग होता है । संसारी होली का रंग हमें नहीं चढ़ता, हमारे कपड़ों को चढ़ता है । वह टिकता भी नहीं, कपड़ों पर टिका तो वे तो फट जाते है लेकिन आपके ऊपर अगर फकीरी होली का रंग चढ़ जाय… काश ! ऐसा कोई सौभाग्यशाली दिन आ जाय कि तुम्हारे ऊपर आत्मानुभवी महापुरुषों की होली का रंग लग जाय, फिर ३३ करोड़ देवता धोबी का काम शुरू करें और तुम्हारा रंग उतारने की कोशिश करें तो भी तुम्हारा रंग न उतारने बल्कि तुम्हारा रंग उन पर चढ़ जायेगा ।
पूज्य बापूजी की माता की भांति अपने बच्चों को इस वैदिक होली के पीछे छिपा रहस्य अवश्य बताना । होली में रोटी को धागा बाँधते हैं और उसे आग में सेंकते हैं, तब रोटी जल जाती है लेकिन धागा ज्यों-का-त्यों रहता है । तुम्हारा शरीर भी रोटी है । माता-पिता ने रोटी खायी, उसीसे रज-वीर्य बना और तुम्हारा जन्म हुआ । तुमने रोटी खायी और बड़े हुए इसलिए तुम जिस शरीर को आज तक ‘मैं’ मान रहें हो उसको रोटी जैसा ही समझो । होली पैगाम देती है कि शरीररूपी यह रोटी तो जल जायेगी, सड़ जायेगी लेकिन उसके इर्द-गिर्द, अंदर-बाहर जो सूत्ररूप आत्मा है वह न जलेगा, न टूटेगा । ऐसा जो आत्मरस का धागा है, ब्रह्मानंद का धागा है, उसे ज्यों-का-त्यों तुम समझ लेना ।
जब तक ज्ञान का रंग पक्का नहीं लगा, तब तक खूब सँभल-सँभलकर होली खेलें । होली के दिन संयम रखना बहुत हितकारी है । अगर इस दिन नासमझी से पति-पत्नी का संसारी व्यवहार किया तो विकलांग संतान ही होती है । अगर संतान नहीं भी हुई तो भी पति-पत्नी को बड़ी हानि होती है । रोगप्रतिकारक शक्ति का खूब नाश होता है । होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है, एक जप हजार गुना फल देता है ।
होली कैसे मनाएं ?
प्राचीन समय में लोग पलाश के फूलों से बने रंग अथवा अबीर-गुलाल, कुमकुम–हल्दी से होली खेलते थे । किन्तु वर्त्तमान समय में रासायनिक तत्त्वों से बने रंगों का उपयोग किया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । अतः ऐसे रंगों से बचना चाहिये । यदि किसी ने आप पर ऐसा रंग लगा दिया हो तो तुरन्त ही बेसन, आटा, दूध, हल्दी व तेल के मिश्रण से बना उबटन रंगे हुए अंगों पर लगाकर रंग को धो डालना चाहिये । इससे पूर्व उस स्थान को नींबू से रगड़कर साफ कर लिया जाए तो रंग छूटने में और अधिक सुगमता होती है । रंग खेलने से पहले अपने शरीर को नारियल अथवा सरसों के तेल से अच्छी प्रकार लेना चाहिए ताकि तेलयुक्त त्वचा पर रंग का दुष्प्रभाव न पड़े और साबुन लगाने मात्र से ही शरीर पर से रंग छूट जाये ।
होली पलाश के रंग एवं प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिए । (पलाश के फूलों का रंग सभी संत श्री आशाराम जी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों में उपलब्ध है।) उसमें गंगाजल तथा तीर्थों का जल भी मिलाया जा सकता है । होली के बाद १५ दिन तक बिना नमक या कम नमक का भोजन करना चाहिए । २०-२५ नीम के पत्ते २-३ काली मिर्च के साथ खाने से बहुत से रोगों से रक्षा होती है । इन दिनों में भुने हुए चने ‘होला’ का सेवन शरीर से वात, कफ आदि दोषों का शमन करता है । होली के बाद खजूर नहीं खाने चाहिए ।
सच मानिये ! ये वैदिक होली आपके और आपके शिशु के जीवन को सच्चे रंगों से रंग देंगी ।
Views: 1