कर्णवेध संस्कार
9वाँ संस्कार है कर्णवेध (कान छेदना) संस्कार ।
शास्त्रों में दीर्घायु व श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि हेतु इस संस्कार की प्रशंसा की गयी है ।
आयुर्वेदाचार्य सुश्रुतजी ने सुश्रुत संहिता के सूत्र स्थान में लिखा है कि ‘(रोग आदि से) रक्षा तथा आभूषण के लिए बालक के कानों का वेधन करना चाहिए ।’ तथा चिकित्सा स्थान में लिखा है कि ‘कान छेदने से अंत्रवृद्धि (inguinal hernia) होने की सम्भावना नहीं रहती ।’
कात्यायन-सूत्र के अनुसार यह संस्कार बालक के जन्म के तीसरे या पाँचवें वर्ष में करना चाहिए ।
यह मान्यता है कि कर्ण-छेदन करने से सूर्य की किरणें कानों के उन छिद्रों से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज-सम्पन्न बनाती हैं ।
बालक के पहले दायें कान में और बाद में बायें कान में छेद करें तथा बालिका के पहले बायें कान में फिर दायें कान में छेद करें । बालिका के बायें नथुने में भी छेद करके आभूषण पहनाने का विधान है ।
मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशाली बनाने के लिए नाक और कान में सोना पहनना लाभकारी माना गया है ।