दिव्य संतान प्राप्ति योग का लाभ कैसे लें ?
दिव्य संतान प्राप्ति योग – 15 नवम्बर 2025 से 16 जनवरी 2026
उत्तम संतान प्राप्ति हेतु सर्वप्रथम पति-पत्नी का तन-मन स्वस्थ होना चाहिए। वैद्यकीय सलाह अनुसार शारीरिक शुद्धि (शास्त्रोक्त शोधन कर्म के द्वारा) आसन-प्राणायाम, आहार-विहार से कम-से-कम तीन महीनों तक करें। क्योंकि नया वीर्य 90 दिन में संस्कारित एवं पुष्ट होता है। इसके साथ ही मंत्रजप, अनुष्ठान, ध्यान, योग व ब्रह्मचर्य का पालन करें।
उत्तम संतानप्राप्ति के लिए गर्भाधान का समय
ऋतुकाल (रजोदर्शन के प्रथम दिन से 16वें दिन का काल) के प्रथम तीन दिन मैथुन के लिए सर्वथा निषिद्ध हैं। साथ ही 11वीं व 13वीं रात्रि भी वर्जित है।
उत्तरोत्तर रात्रियों में गर्भाधान होने पर प्रसवित शिशु की आयु, आरोग्य, सौभाग्य, पौरूष, बल एवं ऐश्वर्य अधिकाधिक होता है।
यदि पुत्र की इच्छा हो तो ऋतुकाल की 4, 6, 8, 10, 12, 14 या 16वीं रात्रि एवं यदि पुत्री की इच्छा हो तो ऋतुकाल की 5,7,9 या 15वीं रात्रि में से किसी एक रात्रि का शुभ मुहूर्त पसंद करना चाहिए।
रजोदर्शन दिन को हो तो वह प्रथम दिन गिनना चाहिए। सूर्यास्त के बाद हो तो सूर्यास्त से सूर्योदय तक के समय की तीन समान भाग कर प्रथम दो भागों में हुआ हो तो उसी दिन को प्रथम दिन गिनना चाहिए। रात्रि के तीसरे भाग में रजोदर्शन हुआ हो तो दूसरे दिन को प्रथम दिन गिनना चाहिए।
पूर्णिमा, अमावस्या, प्रतिपदा, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, पर्व या त्यौहार की रात्रि श्राद्ध के दिन, चतुर्मास, प्रदोषकाल (त्रयोदशी के दिन सूर्यास्त के निकट का काल), क्षयतिथि (दो तिथियों का समन्यवकाल) एवं मासिक धर्म के तीन दिन समागम नहीं करना चाहिए।
सभी पक्षों की अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी – इन सभी तिथियों में स्त्री-समागम करने से नीच योनि एवं नरकों की प्राप्ति होती है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्वः 104.29-30)
माता-पिता की मृत्युतिथि, स्वयं की जन्मतिथि, नक्षत्रों की संधि (दो नक्षत्रों के बीच का समय) तथा अश्विनी, रेवती, भरणी, मघा व मूल इन नक्षत्रों में समागम वर्जित है।
दिन में और दोनों संध्याओं के समय जो सोता है या स्त्री-सहवास करता है, वह सात जन्मों तक रोगी और दरिद्र होता है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खण्डः 75.80)
दिन में स्त्री समागम पुरुष के लिए बड़ा भारी आयु का नाशक माना गया है।
(स्कन्द पुराण, ब्राह्म खंड, धर्मारण्य माहात्म्यः 6.35)
गर्भधारण के पूर्व के कर्तव्य
दम्पत्ति की स्थिति शारीरिक थकान व मानसिक तनाव से मुक्त हो। परिवार में वाद-विवाद या अचानक मृत्यु की घटना न घटी हो। मन, शरीर व वातावरण स्वस्थ व स्वच्छ हो।
आध्यात्मिकता बढ़े इसलिए दोनों से लम्बे, गहरे श्वास लें। भगवत्कृपा, आनंद, प्रसन्नता, ईश्वरीय ओज को भीतर भर के श्वास रोकें, मन में सद्विचार लायें। भगवन्नाम जपते हुए मलिनता, राग-द्वेष आदि अपने मानसिक दोष याद कर फूँक मारते हुए उन्हें श्वास के साथ बाहर फेंके। गर्भाधान के पूर्व 5 से 7 दिन रोज 7 से 10 बार यह प्रयोग करें। शयनगृह हवादार, स्वच्छ, सात्त्विक धूप के वातावरण से युक्त हो। कमरे में अनावश्यक सामान व काँटेदार पौधे न हों। कमरे में अपने गुरुदेव, इष्टदेव या महापुरुषों के श्रीचित्र लगायें तथा रेडियो व फिल्मों से दूर रहें। दम्पत्ति सफेद या हलके रंगवाले वस्त्र पहनें एवं हलके रंग की चादर बिछायें। इससे प्राप्त प्रसन्नता व सात्त्विकता दिव्य आत्माएँ लाने में सहायक होगी।
कम से कम तीन दिन पूर्व रात्रि व समय तय कर लेना चाहिए। निश्चित दिन में शाम होने से पूर्व पति-पत्नी को स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन के सद्गुरु व इष्टदेव की पूजा करनी चाहिए।
दम्पत्ति अपनी चित्तवृत्तियों को परमात्मा में स्थिर करके उत्तम आत्माओं को आह्वान करते हुए प्रार्थना करें- ‘हे ब्रह्माण्ड में विचरण कर रहीं सूक्ष्मरूपधारी पवित्र आत्माओ ! हम दोनों आपको प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारे घर, जीवन व देश को पवित्र तथा उन्नत करने के लिए आप हमारे यहाँ जन्म लेकर हमें कृतार्थ करें। हम दोनों अपने शरीर, मन, प्राण व बुद्धि को आपके योग्य बनायेंगे।’
पुरुष दायें पैर से स्त्री से पहले शय्या पर चढ़े और स्त्री बायें पैर से पति के दक्षिण पार्श्व में शय्या पर चढ़े। तत्पश्चात् निम्नलिखित मंत्र पढ़ना चाहिए।
अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठाऽसि धाता त्वा दधातु विधाता त्वा दधातु ब्रह्मववर्चसा भव।
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोमः सूर्यस्तथाऽश्विनौ। भगोऽथ मित्रावरुणौ वीरं ददतु मे सुतम्।
‘हे गर्भ ! तुम सूर्य के समान हो, तुम मेरी आयु हो, तुम सब प्रकार से मेरी प्रतिष्ठा हो। धाता (सबके पोषक ईश्वर) तुम्हारी रक्षा करें, विधाता (विश्व के निर्माता ब्रह्मा), तुम्हारी रक्षा करें। तुम ब्रह्म से युक्त होओ। ब्रह्मा, बृहस्पति, विष्णु, सोम, सूर्य, अश्विनीकुमार और मित्रावरुण, जो दिव्य शक्तिरूप हैं, वे मुझे वीर पुत्र प्रदान करें।’ (चरक संहिता, शारीरस्थानम्- 8.8)
दम्पत्ति गर्भ-विषय में मन लगाकर रहें। इससे तीनों दोष अपने-अपने स्थानों में रहने से स्त्री बीज को ग्रहण करती है। विधिपूर्वक गर्भधारण करने से इच्छानुकूल संतान प्राप्त होती है।
क्या आप भी इस योग का लाभ लेना चाहेंगे ?
Views: 360
