निष्क्रमण संस्कार

निष्क्रमण संस्कार छठा संस्कार है । निष्क्रमण अर्थात् बाहर निकालना… इसमें शिशु को पहली बार घर से बाहर लाया जाता है ।

इस संस्कार का फल विद्वानों ने शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है : निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः ।
गृह्यसूत्रों के अनुसार यह संस्कार शिशु के जन्म के चौथे महीने में करना चाहिए परंतु बृहस्पति-स्मृति में १२वें दिन करने का विधान है अर्थात् नामकरण संस्कार के साथ यह संस्कार भी सम्पन्न हो जाता है । परंतु संस्कार इस संस्कार में शिशु को सूर्य के दर्शन कराये जाते हैं । शिशु के पैदा होते ही उसे सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिए अन्यथा उसकी आँखों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है । इसलिए जब शिशु की आँखें तथा शरीर कुछ पुष्ट बन जायें तब इस संस्कार को करना चाहिए ।

चूँकि शिशु का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पंचभूतों से बना है इसलिए शिशु का पिता इस संस्कार के अंतर्गत पंचभूतों के अधिष्ठाता देवों से उसके कल्याण की कामना करता है :
शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असन्तापे अभिश्रियौ शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते हृदे ।
शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ॥
‘हे शिशु ! तेरे निष्क्रमण के समय आकाश और पृथ्वी मंगलकारी, संतापरहित और सब ओर से ऐश्वर्यप्रद हों । सूर्य तेरे लिए शांति से तपता रहे, पवन तेरे हृदय के लिए शांति से चले । मंगलकारी, दिव्य गुणवाले, दूधवाले अर्थात् उत्तम रसवाले जल तेरे लिए बहें ।’
(अथर्ववेद: कांड ८, सूक्त २, मंत्र १४)

यदि मंत्रोच्चारण न कर सकें तो केवल उसके भावार्थ द्वारा सद्भाव एवं प्रार्थना करने पर भी ये लाभ मिल सकते हैं तथापि इस वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ ये संस्कार सम्पन्न होने पर इनका प्रभाव अमोघ और दीर्घकालीन होता है तथा शास्त्र की मर्यादा का रक्षण भी होता है ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।