अपना जन्म दिव्यता की ओर ले चलो
अवतरण दिवस (19 अप्रैल)
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन । । (गीताः 4.9)
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इस प्रकार मेरे जन्म और कर्म को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर का त्याग करने के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, भगवद् तत्त्व को प्राप्त हो जाता है ।
आप जिसका जन्मदिवस मनाने को जाते हैं अथवा जो अपना जन्मदिवस मनाते हैं, उन्हें इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वास्तव में उस दिन उनका जन्म नहीं हुआ, उनके साधन का जन्म हुआ है । उस साधन को 50 साल गुजर गये, उसका सदुपयोग कर लो । बाकी के जो कुछ दिन बचे हैं उनमें ‘सत्’ के लिए उस साधन का उपयोग कर लो । करने की शक्ति का आप सदुपयोग कर लो, ‘सत्’ को रब, अकाल पुरुष को जानने के उद्देश्य से सत्कर्म करने में इसका उपयोग कर लो । आपमें मानने की शक्ति है तो आप अपनी अमरता को मान लो । जानने की शक्ति है तो आप अपने ज्योतिस्वरूप को जान लो । सूर्य और चन्द्र एक ज्योति है लेकिन उनको देखने के लिए नेत्रज्योति चाहिए । नेत्रज्योति ठीक देखती है कि नहीं इसको देखने के लिए मनःज्योति चाहिए । मन हमारा ठीक है कि नहीं इसे देखने के लिए मतिरूपी ज्योति चाहिए और हमारी मति गड़बड़ है कि ठीक है इसको देखने के लिए जीवरूपी ज्योति चाहिए । हमारे जीव को चैन है कि बेचैनी है, मेरी जी घबरा रहा है कि संतुष्ट है, इसको देखने के लिए आत्मज्योति, अकाल पुरुष की ज्योति चाहिए ।
मन तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान ।
अपने जन्म दिवस को जरा समझ पाइये तो आपका जन्म दिव्य हो जायेगा, आपका कर्म दिव्य हो जायेगा । जब शरीर को ‘मैं’ मानते हैं तो आपका जन्म और कर्म तुच्छ हो जाते हैं । जब आप अपने आत्मा को अमर व अपने इस ज्योतिस्वरूप को ‘मैं’ मानते हैं और ‘शरीर अपना साधन है और वस्तु तथा शरीर संसार का है । संसार की वस्तु और शरीर संसार के स्वामी की प्रसन्नता के लिए उपयोग करने भर को ही मिले हैं ।’ ऐसा मानते हैं तो आपका कर्म दिव्य हो जाता है, आपका जन्म दिव्यता की तरफ यात्रा करने लगता है ।
मनोबुद्धयहंकारीचित्तानी नाहं….
शरीर भी मैं नहीं हूँ और मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी मैं नहीं हूँ । तो फिर क्या हूँ ? बस डूब जाओ, तड़पो तो प्रकट हो जायेगा !
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः । अपने आत्मदेव को जानने वाले शोक, भय, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि – सब बंधनों से मुक्त होता है ।
मुझ चिदाकाश को ये सब छू नहीं सकते, प्रतीतिमात्र है, वास्तव में हैं नहीं । जैसे स्वप्न व उसकी वस्तुएँ, दुःख, शोक प्रतीतिमात्र हैं । ये सब गड़बड़ें मरने मिटने वाले तन-मन में प्रतीत होती हैं । आप न मरते हैं न जन्मते हैं, न सुखी-दुःखी होते हैं । आप इन सबको जानने वाले हैं, नित्य शुद्ध बुद्ध, विभु-व्यापक चिदानंद चैतन्य हैं ।
तुम ज्योतियों की ज्योति हो, प्रकाशकों के प्रकाशक हो । द्रष्टा हो मन-बुद्धि के और ब्रह्माँडों के अधिष्ठान हो । ॐ आनंद… ॐ अद्वैतं ब्रह्मास्मि । द्वितयाद्वै भयं भवति । द्वैत की प्रतीति है, लीला है । अद्वैत ब्रह्म सत्य…. ।
देना ही चाहते हो तो ऐसा दो
कुछ वर्ष पहले की बात है । अवतरण दिवस पर कोई साधक मुझे कुछ भेंट करना चाहते थे । मैंने इन्कार किया लेकिन साधकों का मन दिये बिना मानता नहीं तो मैंने कहा कि “दक्षिणा का लिफ़ाफ़ा मुझे दोगे उससे मैं इतना राज़ी नहीं होऊँगा जितना साधना के संकल्प का लिफ़ाफ़ा देने से होऊँगा । यदि मेरे पास संकल्प लिख के रख दिया जाय कि ‘आज से लेकर आने वाले जन्मदिन तक मैं प्रतिदिन इतने घंटे या इतने दिन मौन रखूँगा अथवा इतने दिन एकांत में रहूँगा…. इतना योगवासिष्ठ का पारायण करूँगा…..’ और भी ऐसा कोई नियम ले लो । वह संकल्प का कागज अर्पण कर दोगे तो मेरे लिए वह तुम्हारी बड़ी भेंट हो जायेगी ।”
अवतरण दिवस पर कुछ देना है तो ऐसी चीज दो कि तुम्हारे अहं को ठोकर लगे और फिर भी तुम्हें दुःख न हो, तुम्हारे अहं को पुचकार मिले फिर भी तुमको आसक्ति न हो तो यह बड़ी उपलब्धि है ।
एक संकल्प का कागज बना लें कि ‘मैं इस साल कम से कम 10 बार अपमान के प्रसंग में समता रखूँगा ।’ तुमने सत्संग तो सुन रखे हैं तो जिस साधन से तुम्हारी आध्यात्मिकता में ऊँचाई आ जाती हो ऐसे साधन का कोई संकल्प कर लो, जैसे कि ‘मैं हिले-डुले बिना इतनी देर एक आसन पर बैठूँगा । हर रोज आधा घंटा नियम से पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख हो आसन में बैठकर ध्यान करूँगा ।’ आसन में बैठ गये, ज्ञान मुद्रा कर ली (अँगूठे के पास वाली पहली उँगली और अँगूठा – दोनों के अग्रभागों को आपस में मिला लिया), गहरा श्वास लिया और ‘ॐऽऽऽऽऽ…..’ का गुंजन किया ।
ऐसा 40 दिन तक रोज नियम से कम से कम आधा घंटा करो, ज्यादा करो तो और अच्छा है, आधा घंटा एक साथ करो या तो 2-3 बार में करो । इस प्रकार की किसी साधना को जीवन में लाइये ।
कर्म परहित के लिए करें तो कर्म का प्रवाह प्रकृति में चला जाता है और कर्ता अपने ‘स्व’ स्वभाव – आत्मस्वभाव में विश्रांति पाता है ।
मातायें-बहनें भी अपने जीवन में पूज्य श्री के अवतरण दिवस पर कुछ नियम अवश्य लें । जिससे आप और आपकी संतान का जन्म-कर्म दिव्यता की ओर आगे बढ़े । सभी को पूज्यश्री के अवतरण दिवस की खूब-खूब बधाई...
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