शरीर शुद्धि

यह बात सर्वविदित है कि अच्छी उपजाऊ मिट्टी से उत्तम फसल उत्पन्न होती है । इसीलिए किसान फसल बोने से पूर्व मिट्टी की गुणत्ता परखता है, उसे खेड़ता है, जोतता है । यदि मिट्टी कम उपजाऊ है तो विभिन्न उपायों से उसकी ऊर्वरा शक्ति को बढ़ाने का और यदि उपजाऊ है तो उसे बरकरार रखने का प्रयास करता है । जिस तरह उत्तम फसल के लिए किसान पूर्व तैयारी करता है वैसे ही उत्तम संतान प्राप्ति के इच्छुक दम्पति को भी चाहिए कि वो गर्भाधान से पूर्व ही अपने शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करें ताकि उनकी भावी संतान भी पूर्णतः स्वस्थ, सुंदर, बुद्धिमान व संस्कारी हो । 

फसल यदि लापरवाही या किसी प्राकृतिक आपदा से बिगड़ भी गई तो किसान अगले वर्ष मेहनत करके और अच्छी फसल तैयार कर अपनी क्षतिपूर्ति कर सकता है । परंतु जरा सोचिए यदि माता-पिता की लापरवाही से संतान में कोई विकृति आई तो क्या इसकी क्षतिपूर्ति हो सकती है ? एक लापरवाही संतान व माता-पिता का जीवन दुःख से भर सकती है । 

कई बार गलत समय पर या किसी शारीरिक  अथवा मानसिक व्याधि के दौरान हुए गर्भाधान से ऐसे दुःखद प्रसंग घटित हुए हैं । अतः गर्भाधान से पूर्व सबसे पहले अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान देते हुए बताई गए आवश्यक बिंदुओं पर अमल कीजिए –   

त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति ।

आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य शरीर के तीन उपस्तंभ हैं अर्थात् इनके आधार पर शरीर स्थित है ।’(चरक संहिता, सूत्रस्थानम्- 11.35)इनके युक्तिपूर्वक सेवन से शरीर स्थिर होकर बल-वर्ण से सम्पन्न व पुष्ट होता है ।  

शारीरिक स्वास्थ्य हेतु पूज्य श्री की मंत्र प्रसादी

आहार शुद्धि

जीवन में सुख-शांति व समृद्धि प्राप्त करने के लिए स्वस्थ शरीर की नितान्त आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही स्वस्थ मन और विवेकवती कुशाग्र बुद्धि प्राप्त हो सकती है । मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए उचित निद्रा, श्रम, व्यायाम और संतुलित आहार अति आवश्यक है । पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन की गलतियों के कारण ही मनुष्य रोगी होता है । इसमें भोजन की गलतियों का सबसे अधिक महत्त्व है। गलत विधि से, गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन के सेवन से मन्दाग्नि और मन्दाग्नि से कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रुका हुआ मल सड़कर आम व दूषित रस बनाने लगता है । यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है ।

उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है । साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यन्त आवश्यक है । जैसेः

  • प्रातःकाल 9 से 11 और सायंकाल 5 से 7 बजे का समय भोजन के लिए श्रेष्ठ माना जाता है ।
  • एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम से कम तीन घण्टों का अन्तर अवश्य होना चाहिए क्योंकि इन तीन घण्टों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया संपन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा ।
  • रात्रि में आहार के पाचन में समय अधिक लगता है । इसीलिये रात्रि को प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रात बड़ी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन बड़े होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है ।
  • अपनी प्रकृति के अनुसार यथावश्यक मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है । स्वभाव से हल्के पदार्थ जैसे कि चावल, मूँग, दूध, अधिक मात्रा में ग्रहण करना सम्भव है परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी के पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है । 
  • आहार ग्रहण करते समय सर्वप्रथम मधुर, बीचे में खट्टे और नमकीन तथा अन्त में तीखे, कड़वे व कसैले पदार्थों का सेवन करना उचित है ।
  • भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है । वह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है और भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि करता है
  • भोजन गर्म और स्निग्ध होना चाहिए ।
  • गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और भोजन शीघ्र पच जाता है । यह वायु को निकाल देता है और कफ को सुखा देता है ।
  • स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है ।
  • बहुत जल्दी जल्दी अथवा बहुत देर तक, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए ।
  • भोजन के बीच-बीच में प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए परन्तु बाद में पीना हानिकारक है ।
  • भोजन के बाद तक्र (छाछ) का सेवन हितकर है और अनेक रोगों से बचाने वाला है ।
  • अच्छी तरह भूख एवं प्यास लगना, शरीर में उत्साह उत्पन्न होना एवं हल्कापन महसूस होना, शुद्ध डकार आना और दस्त साफ आना-ये आहार के ठीक प्रकार से पाचन होने के लक्षण हैं ।

सात्त्विक आहार से जीवन में सात्त्विकता और राजसिक-तामसिक आहार से आचरण में स्वार्थपूर्ण एवं पाशविक वृत्तियाँ बढ़ती हैं। हमारा आहार कैसा हो इस संबंध में नीचे कुछ बिंदु दिये जा रहे हैं।

भोजन नैतिक हो

अनैतिक स्रोतों से धन द्वारा निर्मित भोजन करने से मन में अशांति, भय, अस्थिरता रहती है, जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटती है, रोगों के पैदा होने की सम्भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। जो भोजन अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर, दूसरों के अधिकार को छीने बिना, ईमानदारी से अर्जित साधनों से प्राप्त किया जाता है, वह भोजन नैतिक होता है। साधन-भजन में उन्नति तथा मन-बुद्धि की सात्त्विकता के लिए जरूरी है कि भोजन नैतिक हो।

शुद्ध भाव व सात्विकता से बनाया गया हो 

भोजन बनाने वालों के भावों की तरंगें भी हमारे भोजन को प्रभावित करती हैं। होटल या बाजार के भोजन में घर में बने भोजन जैसी स्वच्छता, पवित्रता और उच्च भावों का अभाव होने से उससे मात्र पेट भरा जा सकता है, मन-बुद्धि में शुभ विचारों का निर्माण नहीं किया जा सकता। राजसी-तामसी भोजन जैसे – लहसुन, शराब, बासी खुराक, मासिक धर्मवाली महिला के हाथ का बना भोजन रजो-तमोगुण बढ़ाता है, सत्त्वगुण की ऊँचाई से गिरा देता है। शुद्ध भाव वाले, सात्त्विक व्यक्तियों द्वारा बनाया हुआ भोजन करना चाहिए।

मौसम के अनुकूल हो 

जिस मौसम में जो फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ सहजता व सरलता से भरपूर मात्रा में उपलब्ध हों वे सारे पदार्थ प्रायः स्वास्थ्य के अनुकूल होते हैं।

पौष्टिक व संतुलित हो

अव्यवस्थित, असंतुलित और अऩुचित आहार शरीर को ऊर्जा देने के स्थान पर ऊर्जा का ह्रास करता है। भोजन में शरीर की शक्ति, पुष्टि प्रदान करने वाले प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज, विटामिन्स उचित अनुपात और पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए एवं भोजन षड् रस युक्त होना चाहिए ताकि शरीर में अच्छे कोषाणुओं का निरंतर सृजन होता रहे। भोजन में स्निग्ध पदार्थों का उपयोग हो, जैसे घी, तेल आदि। हलका भोजन शीघ्र ही पच जाता है तथा स्निग्ध और उष्ण भोजन शरीर के बल तथा पाचकाग्नि को बढ़ाता है। स्निग्ध (चिकनाईयुक्त) भोजन वात का शमन करता है, शरीर को पुष्ट व इन्द्रियों को दृढ़ करता है, अंग-प्रत्यंग के बल को बढ़ाता है एवं शरीर की रूक्षता को हटा के चिकनापन ला देता है।

नींद का अचूक उपाय

 

  • सुखपूर्वक निद्रा से शरीर की पुष्टि व आरोग्य, बल एवं शुक्र धातु की वृद्धि होती है । साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ सुचारू रूप से कार्य करती है तथा व्यक्ति को पूर्ण आयु-लाभ प्राप्त होता है ।
  • निद्रा उचित समय पर उचित मात्रा में लेनी चाहिए । असमय तथा अधिक मात्रा में शयन करने से अथवा निद्रा का बिल्कुल त्याग कर देने से आरोग्य व आयुष्य का ह्रास होता है ।
  • दिन में शयन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकर है परंतु जो व्यक्ति अधिक अध्ययन, अत्यधिक श्रम करते हैं धातु-क्षय से क्षीण हो गये हैं, रात्रि-जागरण अथवा मुसाफिरी से थके हुए हैं वे तथा बालक, वृद्ध, कृश, दुर्बल व्यक्ति दिन में शयन कर सकते हैं ।
  • ग्रीष्म ऋतु में रात छोटी होने के कारण व शरीर में वायु का संचय होने के कारण दिन में थोड़ी देर शयन करना हितावह है ।
  • घी व दूध का भरपूर सेवन करने वाले, स्थूल, कफ प्रकृतिवाले व कफजन्य व्याधियों से पीड़ित व्यक्तियों को सभी ऋतुओं में दिन की निद्रा अत्यंत हानिकारक है ।

दिन में सोने से होने वाली हानियाँ-

दिन में सोने से जठराग्नि मंद हो जाती है । अन्न का ठीक से पाचन न होकर अपाचित रस (आम) बन जाता है, जिससे शरीर में भारीपन, शरीर टूटना, जी मिचलाना, सिरदर्द, हृदय में भारीपन, त्वचारोग आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं । तमोगुण बढ़ने से स्मरणशक्ति व बुद्धि का नाश होता है ।

अतिनिद्रा दूर करने के उपाय –

उपवास, प्राणायाम व व्यायाम करने तथा तामसी आहार (लहसुन, प्याज, मूली, उड़द, बासी व तले हुए पदार्थ आदि) का त्याग करने से अतिनिद्रा का नाश होता है ।

अनिद्रा

कारणः वात व पित्त का प्रकोप, धातुक्षय, मानसिक क्षोभ, चिंता व शोक के कारण, सम्यक् नींद नहीं आती ।
लक्षणः शरीर मसल दिया हो ऐसी पीड़ा, शरीर व सिर में भारीपन, चक्कर, जँभाइयाँ अनुत्साह व अजीर्ण ये वायुसंबंधी लक्षण अनिद्रा से उत्पन्न होते हैं ।

अनिद्रा दूर करने के उपायः

  • सिर पर तेल की मालिश, पैर के तलुओं में घी की मालिश, कान में नियमित तेल डालना, संवाहन (अंग दबवाना), घी, दूध (विशेषतः भैंस का), दही व भात का सेवन, सुखकर शय्या व मनोनुकूल वातावरण से अनिद्रा दूर होकर शीघ्र निद्रा आ जाती है ।
  • कफ व तमोगुण की वृद्धि से नींद अधिक आती है तथा वायु व सत्त्वगुण की वृद्धि से नींद कम होती है ।
  • रात्रि जागरण से वात की वृद्धि होकर शरीर रुक्ष होता है ।
  • दिन में सोने से कफ की वृद्धि होकर शरीर में स्निग्धता बढ जाती है परंतु बैठे-बैठे थोड़ी सी झपकी लेना रूक्षता व स्निग्धता दोनों को नहीं बढ़ाता व शरीर को विश्राम भी देता है ।
  • सोते समय पूर्व अथवा दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए ।
  • हाथ पैरों को सिकोड़कर, पैरों के पंजों की आँटी (क्रास) करके, सिर के पीछे तथा ऊपर हाथ रखकर व पेट नहीं सोना चाहिए ।
  • सूर्यास्त के दो ढाई-घंटे पूर्व उठ जाना उत्तम है ।
  • सोने से पहले शास्त्राध्ययन करके प्रणव (ॐ) का दीर्घ उच्चारण करते हुए सोने से नींद भी उपासना हो जाती है ।

निद्रा लाने का मंत्र – 

शुद्धे शुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहा ।

इस मंत्र का जप करते हुए सोने से प्रगाढ़ व शांत निद्रा आती है ।

 

ऐसे हों ब्रह्मचर्य में दृढ़

  • कार्य करते समय एक मिनट में 12-13 श्वास खर्च होते हैं । दौड़ते समय या चलते-चलते बात करते समय एक मिनट में 18-20 श्वास खर्च होते हैं । क्रोध करते समय एक मिनट में 24 से 28 श्वास खर्च हो जाते हैं और काम भोग के समय एक मिनट में 32 से 36 श्वास खर्च हो जाते हैं ।
  • जो अधिक विकारी है उनके श्वास ज्यादा खत्म होते हैं, उनकी नस-नाड़ियाँ जल्दी कमजोर हो जाती हैं । हर मनुष्य का जीवनकाल उसके श्वासों के मुताबिक कम-अधिक होता है । कम श्वास (प्रारब्ध) लेकर आया है तो भी निर्विकारी जीवन जी लेगा । भले कोई अधिक श्वास लेकर आया हो लेकिन अधिक विकारी जीवन जीने से वह उतना नहीं जी सकता जितना जी सकता था ।
  • ब्रह्मचर्य शरीर का तीसरा उपस्तंभ है । (पहला उपस्तंभ आहार व दूसरा निद्रा है, जिनका वर्णन पिछले अंकों में किया गया है । ) शरीर, मन, बुद्धि व इन्द्रियो को आहार से पुष्टि, निद्रा, मन, बुद्धि व इऩ्द्रियों को आहार से पुष्टि, निद्रा से विश्रांति व ब्रह्मचर्य से बल की प्राप्ति होती है ।
  • ब्रह्मचर्य से शरीर को धारण करने वाली सप्तम धातु शुक्र की रक्षा करती है । शुक्र सम्पन्न व्यक्ति स्वस्थ, बलवान, बुद्धिमान व दीर्घायुषी होते हैं । वे कुशाग्र व निर्मल बुद्धि, तीव्र स्मरणशक्ति, दृढ़ निश्चय, धैर्य, समझ व सद्विचारों से सम्पन्न तथा आनंदवान होते हैं । वृद्धावस्था तक उनकी सभी इन्द्रियाँ, दाँत, केश व दृष्टि सुदृढ़ रहती है । रोग सहसा उनके पास नहीं आते । क्वचित् आ भी जायें तो अल्प उपचारों से शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं ।

ब्रह्मचर्य रक्षा के उपायः

  • ब्रह्मचर्य-पालन का दृढ़ शुभसंकल्प, पवित्र, सादा रहन-सहन, सात्त्विक, ताजा अल्पाहार, शुद्ध वायु-सेवन, सूर्यस्नान, व्रत-उपवास, योगासन, प्राणायाम, ॐकार का दीर्घ उच्चारण, ‘ॐ अर्यामायै नमः’ मंत्र का पावन जप, शास्त्राध्ययन, सतत श्रेष्ठ कार्यों में रत रहना, सयंमी व सदाचारी व्यक्तियों का संग, रात को जल्दी सोकर ब्राह्ममुहूर्त में उठना, प्रातः शीतल जल से स्नान ।

गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्यः

  • श्री मनु महाराज ने गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य की व्याख्या इस प्रकार की हैः

ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः ।
चतुर्भिरितरैः सार्द्धं अहोभिः सद्विगर्हिते ।।

अपनी धर्मपत्नी के साथ केवल ऋतुकाल में समागम करना, इसे गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य कहते हैं ।

श्री सुश्रुताचार्य जी ने इस गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा हैः

आयुष्मन्तो मन्दजरा वपुर्वर्णबलान्विताः ।
स्थिरोपचितमासाश्च भवन्ति स्त्रीषु संयता ।।

‘स्त्रीप्रसंग में संयमी पुरुष आयुष्मान व देर से वृद्ध होने वाले होते हैं । उनका शरीर शोभायमान, वर्ण और बल से युक्त तथा स्थिर व मजबूत मांसपेशियों वाला होता है ।’

(सुश्रुत संहिताः चिकित्सास्थानम् 24.112)

इस प्रकार आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य का युक्तिपूर्वक सेवन व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी व सम्मानित जीवन की प्राप्ति में सहायक होता है ।

ब्रह्मचर्य रक्षा हेतु मंत्र – 

ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरू कुरू स्वाहा ।
रोज दूध में निहार कर 21 बार इस मंत्र का जप करें और दूध पी लें। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है । स्वभाव में आत्मसात कर लेने जैसा यह नियम है ।
रात्रि में गोंद पानी में भिगोकर सुबह चाट लेने से वीर्यधातु पुष्ट होता है। ब्रह्मचर्य-रक्षा में सहायक बनता है ।

तीन उपस्तंभों के संतुलन के अलावा शरीर शुद्धि हेतु कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिंदु – 

योगासन

  • योगासनों के द्वारा शरीर, मन एवं बुद्धि की शुद्धि होती है और अच्छे स्वास्थ्य को पाया जा सकता है |

  • योगासनों से शरीर, मन व बुद्धि को शान्ति तथा स्थिरता प्राप्त होती है |

  • योगासन से शरीर की सब स्नायुओं, अंतरभाग की इन्द्रियों व ग्रंथियों का भरपूर व्यायाम हो जाता है और फिर ये अधिक कार्यक्षम हो जाती हैं |

  • अंग-अंग फुर्तीला हो जाता है, शरीर हल्का हो जाता है, मन की चंचलता पर अंकुश लगता है |

  • यदि शरीर स्वस्थ होगा तो विचार भी स्वस्थ होंगे | जो आपकी भावी संतान को लाभप्रद साबित होगा |

योगासनों की जानकारी के लिए क्लिक करें । 

प्राणायाम

‘मनुस्मृति’ में आता है :

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ।।

‘जैसे स्वर्णादि धातुओं को अग्नि में गलाने से उनके मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम करने से शरीर की इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं ।’ (6.71)

प्राण निर्बल हो जाने पर शरीर में रक्तसंचार धीमा हो जाता है, अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ जाते हैं व ठीक से कार्य नहीं कर पाते । प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, रक्तसंचार सुव्यवस्थित होने लगता है, कोशिकाओं को पर्याप्त ऊर्जा मिलती है । रक्त-नाड़ियाँ तथा मन भी शुद्ध हो जाता है । इससे हृदय, मस्तिष्क, गुर्दे, फेफड़े आदि शरीर के सभी मुख्य अंग बलवान व कार्यशील हो जाते हैं । 

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलो भवेत् ।

‘प्राणों के चलायमान होने पर मन भी चलायमान होता है तथा प्राणों के निश्चल होने पर मन चंचलता को छोड़ निश्चल हो जाता है ।‘

मन शांत होने से बुद्धि को भी विश्रांति मिलती है । शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक सामर्थ्य बढ़ाने में प्राणायाम मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । अतः पती-पत्नी दोनों को नियमित रूप से प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।

अनुलोम-विलोम प्राणाायाम –

विधिः पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन में बैठकर दोनों नथुनों से पूरा श्वास बाहर निकाल दें । अब दाहिने हाथ की तर्जनी (पहली उँगली) व मध्यमा (बड़ी उँगली) को अंदर की ओर मोड़कर उसके अँगूठे से दायें नथुने को बंद करके बायें नथुने से भीतर लम्बा श्वास लें । श्वास भीतर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं । दोनों नथुनों को बंद करके निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके रखें । यह हुआ आभ्यांतर  कुंभक। कुंभक की अवस्था में ૐ अथवा किसी भी भगवन्नाम का मानसिक जप अत्यंत लाभदायी है । फिर बायें नथुने को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका (सबसे छोटी उँगली) व अनामिका (उसके पास वाली उँगली) से बंद करके दायें नथुने से धीरे धीरे श्वास बाहर छोड़ते हुए पूरा बाहर निकाल दें । श्वास बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं ।

दोनों नथुनों को बंद कर श्वास को बाहर ही सुखपूर्वक रोकें। इसे बाह्य कुम्भक कहते हैं । अब दायें नथुने से श्वास लें । फिर निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके रखें । बायें नथुने से श्वास धीरे धीरे छोड़ें । पूरा श्वास बाहर निकल जाने के बाद उसे बाहर ही रोकें। यह एक प्राणायाम हुआ। इसमें समय का अनुपात इस प्रकार है – 1 : 4 : 2 : 2

अर्थात् श्वास लेने में यदि 10 सैकेण्ड लगायें तो 40 सैकेण्ड श्वास अंदर रोककर ऱखें। 20 सैकेण्ड श्वास छोड़ने में लगायें तथा 20 सैकेण्ड बाहर रोकें । 

 प्राणायामों की अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें ।

सावधानी – गर्भावस्था में स्वांस को रोके बिना केवल सादा अनुलोम-विलोम प्राणायाम ही करें । 

20 से 30 वर्ष की आयु तकः इस युवावस्था में सर्वाधिक आवश्यकता होती है लौह तत्व, एंटी-ऑक्सीडेंट्स, फॉलिक एसिड तथा विटमिन ‘ई’ व ‘सी’ की ।

लौह तत्वः मासिक धर्म के कारण पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को लौह तत्व की दोगुनी जरूरत होती है ।

एंटी-ऑक्सीडेंट्सः कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त होने से बचाने हेतु तथा स्त्री-पुरुषों के प्रजनन-संस्थान को स्वस्थ बनाये रखने के लिए एंटी-ऑक्सीडेंट्स आवश्यक है । आँवला, मुनक्का, अंगूर, अनार, सेवफल, जामुन, बेर, नारंगी, आलूबुखारा, स्ट्रॉबेरी, रसभरी, पालक, टमाटर में एंटी-ऑक्सीडेंट्स अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । फलों के छिलके व बिना पकाये पदार्थ जैसे सलाद, चटनी आदि में भी ये विपुल मात्रा में होते हैं । अन्न को अधिक पकाने से वे घट जाते हैं ।

फॉलिक एसिडः महिलाओं में युवावस्था प्रारम्भिक गर्भावस्था में फॉलिक एसिड की भी आवश्यकता होती है । यह फूलगोभी, केला, संतरा, सेम, पत्तेदार हरी सब्जियों, खट्टे-रसदार फलों, आडू, मदर, पालक, फलियों व शतावरी आदि में पाया जाता है ।

विटामिन ई – पुरुषों में पुंसत्वशक्ति व स्त्रियों में गर्भधारण क्षमता बनाये रखने के लिए इसकी आवश्यकता होती है । यह हृदय व रक्तवाहिनियों को स्वस्थ रखकर रक्तदाब नियंत्रित रखता है । इससे गम्भीर हृदयरोगों से रक्षा होती है । वनस्पतिजन्य तेल (तिल, मूँगफली, सोयाबीन, नारियल तेल आदि) व सूखे मेवे विटामिन ई के अच्छे श्रोत हैं । एक चुटकी तुलसी के बीज रात को भिगोकर सुबह सेवन करने से भी विटामिन ई प्राप्त होता है ।

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