जीवन में सुख-शांति व समृद्धि प्राप्त करने के लिए स्वस्थ शरीर की नितान्त आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही स्वस्थ मन और विवेकवती कुशाग्र बुद्धि प्राप्त हो सकती है । मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए उचित निद्रा, श्रम, व्यायाम और संतुलित आहार अति आवश्यक है । पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन की गलतियों के कारण ही मनुष्य रोगी होता है । इसमें भोजन की गलतियों का सबसे अधिक महत्त्व है। गलत विधि से, गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन के सेवन से मन्दाग्नि और मन्दाग्नि से कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रुका हुआ मल सड़कर आम व दूषित रस बनाने लगता है । यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है ।
उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है । साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यन्त आवश्यक है । जैसेः
- प्रातःकाल 9 से 11 और सायंकाल 5 से 7 बजे का समय भोजन के लिए श्रेष्ठ माना जाता है ।
- एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम से कम तीन घण्टों का अन्तर अवश्य होना चाहिए क्योंकि इन तीन घण्टों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया संपन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा ।
- रात्रि में आहार के पाचन में समय अधिक लगता है । इसीलिये रात्रि को प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रात बड़ी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन बड़े होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है ।
- अपनी प्रकृति के अनुसार यथावश्यक मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है । स्वभाव से हल्के पदार्थ जैसे कि चावल, मूँग, दूध, अधिक मात्रा में ग्रहण करना सम्भव है परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी के पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है ।
- आहार ग्रहण करते समय सर्वप्रथम मधुर, बीचे में खट्टे और नमकीन तथा अन्त में तीखे, कड़वे व कसैले पदार्थों का सेवन करना उचित है ।
- भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है । वह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है और भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि करता है
- भोजन गर्म और स्निग्ध होना चाहिए ।
- गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और भोजन शीघ्र पच जाता है । यह वायु को निकाल देता है और कफ को सुखा देता है ।
- स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है ।
- बहुत जल्दी जल्दी अथवा बहुत देर तक, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए ।
- भोजन के बीच-बीच में प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए परन्तु बाद में पीना हानिकारक है ।
- भोजन के बाद तक्र (छाछ) का सेवन हितकर है और अनेक रोगों से बचाने वाला है ।
- अच्छी तरह भूख एवं प्यास लगना, शरीर में उत्साह उत्पन्न होना एवं हल्कापन महसूस होना, शुद्ध डकार आना और दस्त साफ आना-ये आहार के ठीक प्रकार से पाचन होने के लक्षण हैं ।
सात्त्विक आहार से जीवन में सात्त्विकता और राजसिक-तामसिक आहार से आचरण में स्वार्थपूर्ण एवं पाशविक वृत्तियाँ बढ़ती हैं। हमारा आहार कैसा हो इस संबंध में नीचे कुछ बिंदु दिये जा रहे हैं।
भोजन नैतिक हो
अनैतिक स्रोतों से धन द्वारा निर्मित भोजन करने से मन में अशांति, भय, अस्थिरता रहती है, जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटती है, रोगों के पैदा होने की सम्भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। जो भोजन अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर, दूसरों के अधिकार को छीने बिना, ईमानदारी से अर्जित साधनों से प्राप्त किया जाता है, वह भोजन नैतिक होता है। साधन-भजन में उन्नति तथा मन-बुद्धि की सात्त्विकता के लिए जरूरी है कि भोजन नैतिक हो।
शुद्ध भाव व सात्विकता से बनाया गया हो
भोजन बनाने वालों के भावों की तरंगें भी हमारे भोजन को प्रभावित करती हैं। होटल या बाजार के भोजन में घर में बने भोजन जैसी स्वच्छता, पवित्रता और उच्च भावों का अभाव होने से उससे मात्र पेट भरा जा सकता है, मन-बुद्धि में शुभ विचारों का निर्माण नहीं किया जा सकता। राजसी-तामसी भोजन जैसे – लहसुन, शराब, बासी खुराक, मासिक धर्मवाली महिला के हाथ का बना भोजन रजो-तमोगुण बढ़ाता है, सत्त्वगुण की ऊँचाई से गिरा देता है। शुद्ध भाव वाले, सात्त्विक व्यक्तियों द्वारा बनाया हुआ भोजन करना चाहिए।
मौसम के अनुकूल हो
जिस मौसम में जो फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ सहजता व सरलता से भरपूर मात्रा में उपलब्ध हों वे सारे पदार्थ प्रायः स्वास्थ्य के अनुकूल होते हैं।
पौष्टिक व संतुलित हो
अव्यवस्थित, असंतुलित और अऩुचित आहार शरीर को ऊर्जा देने के स्थान पर ऊर्जा का ह्रास करता है। भोजन में शरीर की शक्ति, पुष्टि प्रदान करने वाले प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज, विटामिन्स उचित अनुपात और पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए एवं भोजन षड् रस युक्त होना चाहिए ताकि शरीर में अच्छे कोषाणुओं का निरंतर सृजन होता रहे। भोजन में स्निग्ध पदार्थों का उपयोग हो, जैसे घी, तेल आदि। हलका भोजन शीघ्र ही पच जाता है तथा स्निग्ध और उष्ण भोजन शरीर के बल तथा पाचकाग्नि को बढ़ाता है। स्निग्ध (चिकनाईयुक्त) भोजन वात का शमन करता है, शरीर को पुष्ट व इन्द्रियों को दृढ़ करता है, अंग-प्रत्यंग के बल को बढ़ाता है एवं शरीर की रूक्षता को हटा के चिकनापन ला देता है।