समावर्तन संस्कार
सोलह संस्कारों में 12वाँ संस्कार है समावर्तन संस्कार । प्राचीन काल में गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब विद्यार्थी की गुरुकुल से विदाई होती थी तो आगामी जीवन के लिए उसे सद्गुरु द्वारा उपदेश दिया जाता था । इसीको ‘समावर्तन संस्कार’ कहते हैं ।
विद्यार्थी-जीवन की समाप्ति जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अवसर होता है । उस समय विद्यार्थी को जीवन के २ मार्गों में से किसी एक का चुनाव करना होता था :
(१) प्रवृत्ति मार्ग : इसमें विवाह कर गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्वों को स्वीकार करते हुए सांसारिक जीवन में प्रवेश किया जाता है और संयम का अवलम्बन लेते हुए ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर चला जाता है ।
(२) निवृत्ति मार्ग : इसमें सांसारिक बंधनों से दूर रहकर शारीरिक तथा मानसिक संयम एवं तप – तितिक्षा प्रधान जीवन व्यतीत करते हुए ब्रह्मानुभवी सत्पुरुषों की छत्रछाया में रहकर विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व, सत्संग-श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि साधनों के अर्जन में पूरी तरह लग के तीव्रता से ईश्वरप्राप्ति के परम लक्ष्य की ओर बढ़ा जाता है ।
प्रथम मार्ग को चुननेवाले ‘उपकुर्वाण’ कहे जाते थे, जो गुरुकुलों से लौटकर गृहस्थ बन जाते थे और दूसरे मार्ग को चुननेवाले ‘नैष्ठिक’ कहलाते थे । नैष्ठिक ब्रह्मचारी गुरुकुल का त्याग न करके उच्चतम ज्ञान (आत्मज्ञान) की प्राप्ति के लिए लक्ष्यप्राप्ति तक अथवा आजीवन गुरुकुल में ही निवास करते थे । गृहस्थ धर्म में कैसे रहना चाहिए इसके लिए गुरुदेव उपदेश करते थे । इन उपदेशों का पालन करने से स्नातक से गृहस्थ हुए व्यक्ति का जीवन पूर्ण सदाचारमय, भगवद्भक्तिमय और आनंदमय हो जाता है । उस उपदेश के कुछ अंश इस प्रकार हैं : सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः ।… पुत्र ! तुम सदा सत्य – भाषण करना । अपने वर्ण-आश्रम के अनुकूल शास्त्र-सम्मत धर्म का अनुष्ठान करना, स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करना ।… मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि ।… पुत्र ! तुम माता, पिता, आचार्य एवं अतिथि में देवबुद्धि रखना और जगत में जो-जो निर्दोष कर्म हैं उन्हींका तुम सेवन करना । उनसे भिन्न जो दोषयुक्त – निषिद्ध कर्म हैं उनका कभी भूलकर स्वप्न में भी आचरण नहीं करना ।