तृप्तिदायक पेय सत्तू
प्राचीन काल से जौ का उपयोग होता चला आ रहा है । कहा जाता है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों का आहार मुख्यतः जौ थे । वेदों ने भी यज्ञ की आहुति के रूप में जौ को स्वीकार किया है । गुणवत्ता की दृष्टि से गेहूँ की अपेक्षा जौ हलका धान्य है । उत्तर प्रदेश में गर्मी की ऋतु में भूख-प्यास शांत करने के लिए सत्तू का उपयोग अधिक होता है । जौ को भूनकर, पीसकर, उसके आटे में थोड़ा सेंधा नमक और पानी मिलाकर सत्तू बनाया जाता है । कई लोग नमक की जगह गुड़ भी डालते हैं । सत्तू में घी और चीनी मिलाकर भी खाया जाता है ।
सत्तू, मधुर, शीतल, बलदायक, कफ-पित्तनाशक, भूख व प्यास मिटाने वाला तथा श्रमनाशक (धूप, श्रम, चलने के कारण आयी हुई थकान को मिटाने वाला) है ।
सक्तवो वातला रूक्षा बहुर्वचोऽनुलोमिनः।
तर्पयन्ति नरं सद्यः पीताः सद्योबलाश्च ते।।
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 27.263)
- ‘सभी प्रकार के सत्तू कफकारक, रूखे, मल निकालने वाले, दोषों का अनुलोमन करने वाले, शीघ्र बलदायक और घोल के पीने पर शीघ्र तृप्ति देने वाले हैं ।’
- जौ का सत्तू ठंडा, अग्निप्रदीपक, हलका, कब्ज दूर करने वाला, कफ एवं पित्त को हरने वाला, रूक्षता और मल को दूर करने वाला है । गर्मी से तपे हुए एवं कसरत से थके हुए लोगों के लिए सत्तू पीना हितकर है । मधुमेह के रोगी को जौ का आटा अधिक अनुकूल रहता है । इसके सेवन से शरीर में शक्कर की मात्रा बढ़ती नहीं है । जिसकी चरबी बढ़ गयी हो वह अगर गेहूँ और चावल छोड़कर जौ की रोटी एवं बथुए की या मेथी की भाजी तथा साथ में छाछ का सेवन करे तो धीरे-धीरे चरबी की मात्रा कम हो जाती है । जौ मूत्रल (मूत्र लाने वाला पदार्थ) हैं अतः इन्हें खाने से मूत्र खुलकर आता है ।
- सत्तू को ठण्डे पानी में (मटके आदि का हो, फ्रिज का नहीं) में मध्यम पतला घोल बना के मिश्री मिला के लेना चाहिए । शुद्ध घी मिला के पीना बहुत लाभदायक होता है । 3 भाग चने (भुने, छिलके निकले हुए) व 1 भाग भुने जौ को पीस व छान के बनाया गया सत्तू उत्तम माना जाता है । केवल चने या जौ का भी सत्तू बना सकते हैं ।
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