माँ के दिए संस्कारों का प्रभाव

सन् १८९३ में गोरखपुर (उ.प्र.) में भगवती बाबू एवं ज्ञान प्रभा देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया मुकुंद ।

मुकुंद के माता-पिता ब्रह्मज्ञानी महापुरुष योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी के शिष्य थे । माँ मुकुंद को रामायण-महाभारत आदि सद्ग्रंथों की कथाएँ सुनाती व अच्छे संस्कार देतीं ।

बालक को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा में बड़ी रुचि हो गयी । एक दिन नियम पूरा करने के बाद उसके मन में गरीबों की सहायता करने का विचार आया । उसने कुछ धन एकत्र किया और अपने भाई व मित्रों के साथ गरीबों में बाँटने गया । धन बाँटकर वापस आने के लिए ये लोग गाड़ी पकड़ने जा रहे थे तभी इनकी भेंट दयनीय कुष्ठ रोगियों से हुई जो कुछ पैसे माँग रहे थे । यद्यपि इनके पास केवल गाड़ी के भाड़े के लिए ही पैसे थे फिर भी मुकुंद ने एक क्षण का भी विचार किये बिना गरीबों को पैसे दे दिये । वहाँ से मुकुंद का घर १० कि.मी. की दूरी पर था । किराये के पैसे न होने के कारण वह सहयोगियों के साथ पैदल चल के घर आया । किसी को भी थकान का अनुभव नहीं हुआ अपितु निःस्वार्थ सेवा से हृदय में गजब का आनंद आया ।

सर्दियों की ठंड में एक रात मुकुंद को केवल एक धोती लपेटे व ऊपर का शरीर पूर्ण नग्न देखकर उनके पिता ने पूछाः- “तुम्हारे वस्त्र कहाँ हैं ? तुम ठंडी हवा में ऐसे बाहर क्यों घूम रहे हो ?

मुकुंद – “घर आते समय रास्ते में मैंने एक गरीब वृद्ध व्यक्ति को काँपते हुए देखा, उसके पास चिथड़े के अतिरिक्त कुछ भी न था । यह देखते ही मुझसे रहा न गया और मैंने उसे अपने कपड़े दे दिये और मुझे भी यह समझने का अवसर मिला कि जिनके पास स्वयं को ढकने के लिए साधन नहीं होते हैं वे कैसा अनुभव करते हैं ।’
करुणा और समता का सद्गुण जीवन में संजोने का अभ्यास करने वाले पुत्र के इस कार्य का अनुमोदन करते हुए पिता ने कहा ”तुमने बहुत अच्छा काम किया ।”

इस प्रकार बचपन से ही माता-पिता से प्राप्त भक्ति, परमात्मा प्रीति, सेवा-परोपकार के संस्कारों ने मुकुंद के मन में ऐसी आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने की जिज्ञासा जगा दी जो स्कूली कक्षाओं में नहीं मिल सकती थी । और वह ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति की जिज्ञासा सद्गुरु युक्तेश्वर गिरि की कृपा से पूर्ण हुई ।

यही बालक मुकुंद आगे चलकर विश्व प्रसिद्ध परमहंस योगानंदजी के नाम से सुविख्यात हुए ।

क्या आप भी अपनी संतान को नीतिपूर्ण सुशिक्षा दे रहे हैं ?

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