विवाह संस्कार
जीवनसाथी का चुनाव करने से पहले सावधान रहें :
माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों को छोड़कर असगोत्रा अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करके उसमें शास्त्रमर्यादानुसार गर्भाधान करना चाहिये । अन्यत्र कहीं भी गर्भाधान करने से वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है जो अपने समाज का अहित करके इस लोक में और पित्तरों का पतन करके परलोक में भी दुख देनेवाली होती है ।
माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों तक रक्त की अति समान जातीयता होती है । अति समान जातीय पदार्थों को परस्पर मिलाने ने विकास नहीं होता । जैसे, पानी में पानी दूध में दूध मिलाने से कुछ भी नया विकास नहीं होता । यही कारण है कि अपनी माँ, बेटी तथा बहन में गर्भाधान करके संतान उत्पन्न करने के कारण पशु-पक्षियों में विकास कोई नहीं होता । वे अनादिकाल से ज्यों-के-त्यों चले आ रहे हैं ।
अति विजातीय पदार्थों को परस्पर मिलाने से विनाश तथा विकृत विकास होता है । जैसे दूध में नींबू का रस डालने से दूध फट जाता है । घोड़े से गधी में गर्भाधान कराकर उत्पन्न किया हुआ खच्चर अधिक बलवान होने पर भी स्ववंश संचालक नहीं होता । कलमी आम अधिक स्वादिष्ट तथा बड़ा होने पर भी स्वास्थ्य के लिये अधिक हितकर नहीं होता तथा कलमी आम के बीज से कलमी आम पैदा नहीं होता । किंचित् समान जातीय को समान जातीय के साथ मिलाने पर विकास होता है । जैसे दूध में दही का तोड़ मिला देने से मक्खन-जनक, स्वास्थ्य प्रदायक स्वादिष्ट दही बन जाता है । अतः उत्तम संतान प्राप्ति के इच्छुक को चाहिए कि विवाह धर्म, जाति व गोत्र आदि का विचार करके ही करें ।
विवाह का मूल प्रयोजन है क्रमशः वासना-निवृत्ति, वासना-पूर्ति नहीं । आजकल के लोग इस लक्ष्य को भूलते जा रहे हैं । विवाह के द्वारा वे अपनी वासनापूर्ति की अधिक से अधिक सुविधाएँ निकालने को तत्पर हैं । परिणाम में विवाह का आध्यात्मिक उद्देश्य लुप्त होता जा रहा है । पुरुष और स्त्री के तन, मन और बुद्धि का क्षय होता जा रहा है । अति विकारी होने से, अधिक काम भोगने से वीर्य दुर्बल होता है और उस करण से दुर्बल तन, मन और बुद्धि वाले बालक पैदा होते हैं । इस प्रकार जीवन कभी वासनारहित नहीं हो सकेगा, अपने असली घर में नहीं पहुँच सकेगा और सच्चे विश्राम व शांति का अनुभव नहीं कर सकेगा । विवाह का दृढ़ धर्म-बंधन ही जीव को वासनाजाल से मुक्त कर परमार्थ पद की प्राप्ति करा सकता है ।
वासनाओं का नियंत्रण ही विवाह का प्रयोजन है तब भोगवासना के हेतु से रूप, यौवन आदि को ध्यान में रखकर विवाह करना यह तो विपरीत मार्ग है । गुरुजनों की आज्ञा मानकर, धर्म को सामने रखकर, वासनारूपी रोग के निवारण के लिए औषधि समझकर ही विवाह करना चाहिए । स्त्री-पुरुष सम्पर्क के सभी विधि-निषेधों का मूल तत्त्व यही है।
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