जल है औषध समान
ग्रीष्म ऋतु आते ही जल हमारे जीवन के लिए श्वासों के समान बहुमूल्य हो जाता है । सगर्भा माँ के भोजन और जल से शिशु का पोषण होता है । सगर्भावस्था में अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है क्योंकि उस दौरान प्यास अधिक लगना, गर्मी अधिक लगना, पसीना अधिक आना, बार-बार मूत्र त्याग के लिए जाना जैसे लक्षण भी सामान्यत: सभी में देखे जाते हैं । गर्भाशय में गर्भ गर्भकोष के अन्दर गर्भोदक में तैरता रहता है । गर्भावस्था में सातवें-आठवें माह में गर्भोदक कम होने की सम्भावना अधिक होती है । इसलिए प्रारम्भ से ही पर्याप्त पानी पीना चाहिए ।
विशेष ध्यान दें :
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् । भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ॥
‘अजीर्ण होने पर जल-पान औषधवत् है । भोजन पच जाने पर अर्थात् भोजन के डेढ़-दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक है । भोजन के मध्य में पानी पीना अमृत के समान है और भोजन के अंत में विष के समान अर्थात् पाचनक्रिया के लिए हानिकारक है ।’ (चाणक्य नीति : ८.७)
प्रातः उषापान :
सूर्योदय से २ घंटा पूर्व, शौच क्रिया से पहले रात का ताम्बे के पत्र में रखा हुआ पाव से आधा लीटर पानी पीना असंख्य रोगों से रक्षा करनेवाला है । शौच के बाद पानी न पियें ।
औषधि-सिद्ध जल
(१) अजवायन-जल : एक लीटर पानी में एक चम्मच (करीब ८.५ ग्राम) अजवायन डालकर उबालें । पानी आधा रह जाय तो ठंडा करके छान लें । उष्ण प्रकृति का यह जल हृदय-शूल, गैस, कृमि, हिचकी, अरुचि, मंदाग्नि, पीठ व कमर का दर्द, अजीर्ण, दस्त, सर्दी व बहुमूत्रता में लाभदायी है । प्रसूति के बाद होनेवाले वायु प्रकोप में यह अजवायन जल बहुत लाभदायक है । इसके सेवन से गर्भाशय में संक्रमण नहीं होता, भूख खुलकर लगती है, कब्ज नहीं होती ।
(२) जीरा-जल : एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच जीरा डालकर उबालें । पौना लीटर पानी बचने पर ठंडा कर छान लें । शीतल गुणवाला यह जल गर्भवती एवं प्रसूता स्त्रियों के लिए तथा रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिकस्राव, गर्भाशय की सूजन, गर्मी के कारण बार-बार होनेवाला गर्भपात व अल्पमूत्रता में आशातीत लाभदायी है ।
(३) हंसोदक : जिस जल पर दिन में सूर्य की किरणें पड़ें तथा रात में चन्द्रमा की किरणें पड़ें, वह जल स्निग्ध और तीनों दोषों का निवारक है । गर्भावस्था में यह जल पीना, शीतल हवा व चन्द्रमा की शीतल किरणों का सेवन करना एवं घास पर चलना खूब लाभदायी है । (Matter lks 2015)
महत्वपूर्ण बातें :
(१) भूखे पेट, भोजन की शुरुआत व अंत में, धूप से आकर, शौच, व्यायाम या अधिक परिश्रम व फल खाने के तुरंत बाद पानी पीना निषिद्ध है ।
(२) अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नम् अर्थात् बहुत अधिक या एक साथ पानी पीने से पाचन बिगड़ता है । इसीलिए मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि । बार-बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए । (भावप्रकाश, पूर्वखंड: (५.१५७)
(३) लेटकर, खड़े होकर पानी पीना तथा पानी पीकर तुरंत दौड़ना या परिश्रम करना हानिकारक है । बैठकर धीरे-धीरे चुस्की लेते हुए बायाँ स्वर सक्रिय हो तब पानी पीना चाहिए ।
(४) प्लास्टिक की बोतल में रखा हुआ पानी हानिकारक है ।
(५) फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ मिलाया हुआ पानी स्पर्श में ठंडा लेकिन तासीर में गरम होने से हितकर नहीं है । मिट्टी के बर्तन में (मटके में) रखा हुआ पानी सबसे हितकर है ।
(६) वाटर प्युरिफायर द्वारा शुद्ध किये पानी में से शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्व एवं एलेक्ट्रोलाईट नष्ट हो जाते हैं । अत: इसकी अपेक्षा पानी को १०-१५ मिनट उबालकर ठंडाकर पीना स्वास्थ्यकर है । उबालने से पानी के हानिकारक तत्व तो नष्ट होते हैं, परंतु पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं । सम्भव हो तो उबालते समय पानी में शुद्ध सोने का छोटा-सा टुकड़ा अथवा स्वच्छ गहना डालें । इससे बल, वर्ण, ओज-तेज में वृद्धि होगी ।
(६) ताम्बे के पात्र में रखा हुआ जल पवित्र, शीतल व औषधीय गुणों से युक्त होता है । शरीर में लौह तत्व के अवशोषण में सहायता करता है, जल में निहित जीवाणुओं को नष्ट करता है । (ताम्बे के पात्र को प्रतिदिन माँजना जरुरी है अन्यथा उसके भीतर कॉपर ऑक्साइड की हरे रंग की परत जमने लग जाती है जो नुकसानदायक है ।)
(५) सामान्यतः एक दिन में दो-ढाई लीटर पानी पर्याप्त है । देश-ऋतु-प्रकृति आदि के अनुसार यह मात्रा बदल सकती है ।
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