यज्ञोपवित संस्कार
16 संस्कारों में 10वा संस्कार है ‘उपनयन यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार’ । इसमें बच्चों को यज्ञोपवीत पहनाकर ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता है । इसके बिना बालक किसी भी श्रौत स्मार्त कर्म (श्रुति स्मृति विहित कर्म) का अधिकारी नहीं होता । इसे यज्ञोपवीत संस्कार, जनेऊ संस्कार तथा व्रत-बंध भी कहा जाता है । बंध का अर्थ है कल्याणकारी व्रतों का बंधन
समष्टि के साथ जोड़ता है यज्ञोपवीत ।
यज्ञोपवीत देखने में तो ३ पतले धागों का एक गठबंधन है परंतु उस धागे में हमारे ऋषियों ने ऐसा तत्वज्ञान जोड़ा है जिसे अपनाकर व्यक्ति सच्चे अर्थों में मनुष्य बन सकता है । यज्ञोपवीत के द्वारा उसे एक नयी चेतना, नयी विशाल सृष्टि के साथ दिया जाता है इसलिए इस संस्कार को का दूसरा जन्म और ‘द्विजत्व संस्कार’ भी कहा गया है ।
मन का स्वभाव होता है पतन की ओर जाना । कहीं बुरे संस्कारों में पड़कर वह उच्छृंखल न हो जाय इसलिए व्यक्ति के कंधों पर यज्ञोपवीत के तीन धागों के रूप में तीन ऋणों को चुकाने की जिम्मेदारी रख दी जाती है । ये तीन ऋण हैं : देव ऋण, पितृ ऋण और गुरु ऋण ।
यज्ञपवित का जीवन में महत्व
पूज्य बापूजी के सत्संग वचनामृत में आता है अगर 5 से 12 वर्ष की उम्र में बालक को जनेऊ धारण करा दिया जाए, सूर्य नमस्कार सिखा दिया जाए और सरस्वती मंत्र आदि के जप का कोई नियम दिया जाए तो बच्चों के केंद्रों के वे उचित रस बनेंगे जो हताशा-निराशा, विघ्न बाधाओं में भी उसका संतुलन बनाये रखने और ऊँची दिशा देने तथा उसकी मति का प्रकाश बनाये रखने में सहायक होंगे ।
जनेऊ में ३ धागे होते हैं । १-१ में ९-९ गुण… ९ x ३ = २७. प्रकृति के इन गुणों से और बंधनों से पार होने के लिए जनेऊ धारण किया जाता है । जनेऊ में ३-३ तार के तीन धागे होते हैं । उनमें १-१ धागे पर १-१ वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद का भाव किया जाता है और चौथी होती है ब्रह्मग्रंथि (ब्रह्मगाँठ), जिसमें चौथे वेद-अथर्ववेद की भावना की जाती है अर्थात् वेदों में जो दैवी ज्ञान है, जीव को शिव बनाने की प्रेरणा है उसकी स्मृति बनी रहे । जनेऊ धारण करनेवाला याद करता है कि ‘मैंने देवों की कृपा, भूदेवों की कृपा, बुजुर्गों की कृपा प्राप्त की है ।’
जब ब्रह्मचारी जनेऊ धारण करता है तो उसका हौसला बुलंद रहता है कि ‘मेरा जीवन खा पी के पशु की नाईं, बैल बनकर संसार का बोझा ढो-ढो के मरने के लिए नहीं है । मैं वेदों की शिक्षा पाऊँगा और अपना वैदिक जन्मसिद्ध अधिकार जो आत्मा-परमात्मा का आनंद है उसको पाऊँगा ।’
यज्ञोपवीत धारण करने के दिन विद्यार्थियों को गुरुकुल में प्रवेश कराया जाता था और वे पढ़ना आरम्भ करते थे । सद्गुरु का दर्शन, उनका सान्निध्य और उनका अनुभव अपना अनुभव बनाने के लिए विद्यार्थी लग जाते थे ।”
जनेऊ त्रिदेवों की भक्ति, कृपा और अनुभूति, वेदमार्ग का ज्ञान-प्रकाश तथा वेदांत दर्शन की प्रसादरूपा ब्राह्मनुभूति जीवन में लाने की दिशा में बढ़ने हेतु प्रेरित करता है । जीवन में अगर उत्तम ज्ञान-प्रकाश, उत्तम दर्शन नहीं है तो हलके संग, हीन शरणागति, हीन सुख में पड़कर दीव हीन योनियों, हीन गतियों को पाता है । जिसको सत्संग, व्रत, नियम मिल जाता है उसके जीवन में दृढ़ता आती है, उसमें अपने आत्मस्वरूप पर, शास्त्र, भगवान, सद्गुरु पर श्रद्धा आती है । वह शाश्वत सत्य को, शाश्वत मुख को पा लेता है ।”
वैज्ञानिक दृष्टिकोण में यज्ञोपवीत
यज्ञोपवीत का हृदय के साथ-साथ आँतों तथा फेफड़ों की क्रियाओं पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है । पेशाब करते समय कान पर जनेऊ लपेटते हैं तो कान के पास से गुजरनेवाली नाड़ी दबाव पड़ने से व्यक्ति को ‘कर्णपीड़ासन’ का लाभ मिलता है और वीर्यरक्षा में मदद मिलती है । कान के पास की नसें दबाने से बढ़े हुए रक्तचाप को नियंत्रित तथा कष्ट से होनेवाली श्वसन-क्रिया को सामान्य किया जा सकता है । स्मरणशक्ति में भी वृद्धि होती है । मूत्राशय की मांसपेशियों का संकोचन वेग के साथ होता है, जिससे मूत्र-त्याग ठीक से होता है । जनेऊ मल त्यागने के बाद अशुद्ध हाथों को तुरंत साफ करने हेतु प्रेरित करता है, जिससे बहुत-से संक्रामक रोगों से बचाव होता है ।
जनेऊ के महत्त्व को शोधों के बाद वैज्ञानिकों ने भी स्वीकारा है । इटली में बारी विश्वविद्यालय के शोध में यह पाया गया है कि कान के मूल के चारों तरफ दबाव डालने से हृदय मजबूत होता है । लंदन में ‘क्वीन एलिजाबेथ हॉस्पिटल फॉर चिल्ड्रन’ के भारतीय मूल के डॉक्टर एस.आर. सक्सेना के अनुसार ‘हिन्दुओं द्वारा लघुशंका या शौच करते समय कान पर जनेऊ लपेटने का वैज्ञानिक आधार है । ऐसा करने से आँतों की सिकुड़ने फैलने की गति बढ़ती है, जिससे कब्ज दूर होता है । पेट साफ होने से शरीर और मस्तिष्क दोनों स्वस्थ रहते हैं ।’
पाश्चात्य कल्चर के अंधानुकरण के चलते लोग अपने को आधुनिक कहलाने की होड़ में जनेऊ पहनने से परहेज करने लगे हैं । आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति के संस्कारों का त्याग करना उचित नहीं है । इनका पालन करने से स्वास्थ्य-लाभ के साथ-साथ शारीरिक व वैचारिक शुद्धि होती है, जिसके सुप्रभाव से हमारी बुद्धि में भी शुभ गुण आते हैं जो हमें मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाते हैं ।