योगासन

सुखासन –

जमीन पर बिछे हुए आसन के ऊपर पलथी मारकर बैठें । सिर, गर्दन, छाती, मेरूदण्ड आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ रहे । दोनों हाथ घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रहें ।

 

 

 

 

 

पद्मासन –

आसन के ऊपर स्वस्थ होकर बैठें । दाहिने पैर को मोड़कर बायीं जंघा पर रखें । बायें पैर को मोड़कर दाहिनी जंघा पर रखें अथवा पहले बायाँ पैर और बाद में दाहिना पैर भी रख सकते है । पैर के तलवे ऊपर की ओर और एड़ी नाभि के नीचे रहे । घुटने जमीन से लगे रहें । सिर, गर्दन, छाती, मेरूदण्ड (पीठ) आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ रहे । दोनों हाथ घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रहे । अँगूठे को तर्जनी अँगुली के नाखून से लगाकर शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रखने से ज्ञानमुद्रा बनती है; अथवा बायें हाथ को गोद में रखें, हथेली ऊपर की ओर रहे । उसके ऊपर उसी प्रकार दाहिना हाथ रखें । दोनों हाथ की अँगुलियाँ परस्पर लगी रहेंगी । दोनों हाथों को मुट्ठी बाँधकर घुटनों पर भी रख सकते है ।

लाभः अभ्यासपूर्वक पद्मासन में बैठने से शरीर की ऐसी स्थिति बनती है जिससे श्वसन तंत्र (Respiratory system), तंत्रिका तंत्र (Nervous system) और रक्ताभिसरण तंत्र (Circulatory system) सुव्यवस्थित ढंग के कार्य करने लगते हैं । गर्भ के बौद्धिक-मानसिक-आध्यात्मिक विकास हेतु गर्भिणी को इस आसन में बैठकर प्राणायाम, ध्यान व जप करना चाहिए ।

 

वज्रासन –

पैरों को घुटनों से मोड़कर एड़ियों पर बैठ जायें । पैर के दोनों अंगूठे परस्पर लगे रहें । पैर के तलवों के ऊपर नितम्ब रहे । कमर और पीठ बिल्कुल सीधी रहे, कुहनियाँ मोड़े बिना दोनों हाथों को घुटनों पर रख दें । हथेलियाँ नीचे की ओर रहें । आँखें बंद, खुली या अर्ध खुली रख सकते है ।
लाभः भोजन के बाद इस आसन से बैठने से पाचनशक्ति तेज होती है । भोजन जल्दी पच जाता है । वायु का अनुलोमन होता है । कब्ज दूर होकर पेट की समस्याएँ मिटती है । पाण्डुरोग (रक्त की कमी) से मुक्ति मिलती है । रीढ़, कमर, जाँघ, घुटने और पैरों के स्नायु सशक्त व पुष्ट होते है जिससे सामान्य प्रसव में सहायता मिलती है । बुखार, सिरदर्द, कब्ज, मंदाग्नि या अजीर्ण जैसे छोटे-मोटे रोगों से गर्भिणी की रक्षा होती है । ध्यान के लिये भी यह आसन उत्तम है ।

 

शवासन –

अश्विनी मुद्रा के बाद शवासन का अभ्यास करना चाहिए ।

विधि : सीधे लेटे हुए स्थिति में रहे । दोनों पैरों को परस्पर से थोड़े अलग कर दें । दोनों हाथ भी शरीर से थोड़े अलग रहें इस प्रकार पैरों की ओर फैला दें । हाथ की हथेलियाँ आकाश की तरफ खुली रखें । सिर सीधा रहे और आँखें बन्द रहें । पूरे शरीर को शव की तरह ढ़ीला छोड़ दें । शरीर में सम्पूर्ण विश्राम का अनुभव करें । मन को भी बाह्य विषयों से हटाकर एकाग्र करें । शवासन में २ अवस्थायें होती है ।
प्रथम अवस्था – मानसिक दृष्टि से शरीर को पैर से सिर तक क्रमश: देखते जायें । बारी-बारी से हर एक अंग पर मानसिक दृष्टि एकाग्र करते हुए भावना करें कि वह अंग अब आराम पा रहा है, उसकी थकान उतर रही है । इस प्रकार भावना करते-करते सब स्नायुओं को शिथिल होने दें । शरीर के एक भी अंग में कहीं भी तनाव (strain) न रहे । शिथिलीकरण की प्रक्रिया में पैर से प्रारम्भ करके धीरे-धीरे सिर तक जायें । इस प्रथम अवस्था का उद्देश्य शरीर के तमाम अंगों एवं ज्ञानतंतुओं को विश्राम की अवस्था में लाना है ।
द्वितीय अवस्था – शवासन की दूसरी अवस्था में श्वासोच्छ्वास पर ध्यान देना है । शवासन की यही मुख्य प्रक्रिया है । इसमें श्वास और उच्छ्वास की नियमितता, दीर्घता और समानता स्थापित करने का लक्ष्य है । श्वास नियमित चले, लम्बा और गहरा चले, श्वास और उच्छ्वास एक समान रहे तो मन को एकाग्र करने की शक्ति प्राप्त होती है । केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रथम अवस्था पर्याप्त है । शारीरिक के साथ मानसिक विश्रान्ति व आध्यात्मिक उन्नति चाहनेवाली माताओं के लिए यह दूसरी अवस्था अत्यन्त उपयोगी है ।
शवासन यदि ठीक ढंग से किया जाए तो नाड़ीतंत्र इतना शांत हो जाता है कि माता को नींद आने लगती है । लेकिन ध्यान रहे, निद्रित न होकर जाग्रत रहना आवश्यक है । ३ से ५ मिनट तक शवासन करना चाहिए ।
लाभः शवासन के द्वारा शिथिलीकरण से स्नायु एवं मांसपेशियों में शक्ति बढ़ती है । रक्तप्रवाह तीव्र होने से सारी थकान उतर जाती है । नाड़ीतंत्र को बल मिलता है । शारीरिक व मानसिक तनाव दूर होता है । सगर्भावस्था के आखिरी ३ महीनों में रक्तदाब में वृद्धि होने की सम्भावना शवासन के नियमित अभ्यास से दूर होती है ।

 

 

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