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स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज एक दिव्य विभूति

जन्म एवं बाल्यकाल

हमारी वैदिक हिन्दू संस्कृति का विकास सिंधु नदी के तट से ही प्रारंभ हुआ है । अनेकों ऋषि-मुनियों ने उसके तट पर तपस्यारत होकर आध्यात्मिकता के शिखरों को सर किया है एवं पूरे विश्व क अपने ज्ञान-प्रकाश से प्रकाशित किया है ।

उसी पुण्यसलिला सिंधु नदी के तट पर स्थित सिंध प्रदेश के हैदराबाद जिले के महराब चांडाई नामक गाँव में ब्रह्मक्षत्रिय कुल में परहित चिंतक, धर्मप्रिय एवं पुण्यात्मा टोपणदास गंगाराम का जन्म हुआ था । वे गाँव के सरपंच थे । सरपंच होने के बावजूद उनमें जरा-सा भी अभिमान नहीं था । वे स्वभाव से खूब सरल एवं धार्मिक थे । गाँव के सरपंच होने के नाते वे गाँव के लोगों के हित का हमेशा ध्यान रखते थे । भूल से भी लाँच-रिश्वत का एवं हराम का पैसा गर में न आ जाये इस बात का वे खूब ख्याल रखते थे एवं भूल से भी अपने सरपंच पद का दुरुपयोग नहीं करते थे । गाँव के लोगों के कल्याण के लिए ही वे अपनी समय-शक्ति का उपयोग करते थे । अपनी सत्यनिष्ठा एवं दयालुता तथा प्रेमपूर्ण स्वभाव से उन्होंने लोगों के दिल जीत लिए थे । साधु-संतों के लिए तो पहले से ही उनके हृदय में सम्मान था । इन्हीं सब बातों के फलस्वरूप आगे चलकर उनके घर में दिव्यात्मा का अवतरण हुआ ।

जन्म एवं बाल्यकाल

वैसे तो उनका कुटुंब सभी प्रकार से सुखी था, दो पुत्रियाँ भी थीं, किन्तु एक पुत्र की कमी उन्हें सदैव खटकती रहती थी । उनके भाई के यहाँ भी एक भी पुत्र-समान नहीं थी ।

एक बार पुत्रेच्छा से प्रेरित होकर टोपणदास अपने कुलगुरु श्री रतन भगत के दर्शन के लिए पास के गाँव तलहार में गये । उन्होंने खूब विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर एवं मस्तक नवाकर कुलगुरु को अपनी पुत्रेच्छा बतायी । साधु-संतों के पास सच्चे दिल से प्रार्थना करने वाले को उनके अंतर के आशीर्वाद मिल ही जाते हैं । कुलगुरु ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हुए कहाः

“तुम्हें 12 महीने के भीतर पुत्र होगा जो केवल तुम्हारे कुल का ही नहीं परंतु पूरे ब्रह्मक्षत्रिय समाज का नाम रोशन करेगा । जब बालक समझने योग्य हो जाये तब मुझे सौंप देना ।”

संत के आशीरवाद फले । रंग-बिरंगे फूलों का सौरभ बिखेरती हुई वसंत ऋतु का आगमन हुआ । सिंधी पंचाग के अनुसार संवत् 1937 के 23 फाल्गुन के शुभ दिवस पर टोपणदास के घर उनकी धर्मपत्नी हेमीबाई के कोख से एक सुपुत्र का जन्म हुआ ।

कुल पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन ।

‘जिस कुल में महापुरुष अवतरित होते हैं वह कुल पवित्र हो जाता है । जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह माता कृतार्थ हो जाती है एवं जिस जगह पर वे जन्म लेते हैं वह वसुन्धरा भी पुण्यशालिनी हो जाती है ।’

पूरेकुटुंब एवं गाँव में आनन्द की लहर छा गयी । जन्मकुंडली के अनुसार बालक का नाम लीलाराम रखा गया । आगे जाकर यही बालक लीलाराम प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज ने केवल सिंध देश के ही गाँवों में ज्ञान की ज्योति जगाई हो – ऐसी बात नहीं थी, वरन् पूरे भारत में एवं विदेशों में भी सत्शास्त्रों एवं ऋषि-मुनियों द्वारा दिये गये आत्मा की अमरता के दिव्य संदेश को पहुँचाया था । उन्होंने पूरे विश्व को अपना मानकर उसकी सेवा में ही अपना पूरा जीवन लगा दिया था । वे सच्चे देशभक्त एवं सच्चे कर्मयोगी तो थे ही, महान् ज्ञानी भी थे ।

इसलिए उत्तम संतानप्राप्ति के इच्छुक दम्पत्तियों को चाहिए कि वे ब्रह्मज्ञानी संतों के दर्शन-सत्संग का लाभ लेकर स्वयं सुविचारी, सदाचारी एवं पवित्र बनें । साथ ही उत्तम संतानप्राप्ति के नियमों को जान लें और शास्त्रोक्त रीति से गर्भधान कर परिवार, देश व मानवता का मंगल करने वाली महान आत्माओं की आवश्यकता की पूर्ति करें ।

 

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