पितरों की प्रसन्नता से आती है दिव्य संतान

दिव्य संतान की चाहना रखनेवालों को श्रद्धा और आदरसहित श्राद्ध करना ही चाहिए ।

‘श्राद्ध’ किसे कहते हैं ?

श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिचक्षते ।
श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।’
श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरों की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं । इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते हैं । जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते हैं, वे हमारे जीवन की समस्याओं को दूर करने में हमारी सहायता करते हैं ।

श्राद्ध करने का अधिकारी कौन ?

वर्णसंकर के हाथ का दिया हुआ पिण्डदान और श्राद्ध पितर स्वीकार नहीं करते और वर्णसंकर संतान से पितर तृप्त नहीं होते वरन् दुःखी और अशांत होते हैं । अतः उसके कुल में भी दुःख, अशांति और तनाव बना रहता है ।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। (श्रीमदभगवदगीता 1.42)

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला ही होता है । श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन (कुलघातियों) के पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।
(वर्णसंकरः एक वर्ण के पिता एवं दूसरी वर्ण की माता से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर कहते हैं ।)

श्राद्धकर्म किसलिए ?

श्राद्ध की बड़ी महिमा है । सूक्ष्म जगत के लोगों को हमारी श्रद्धा और श्रद्धा से दी गयी वस्तु से तृप्ति का एहसास होता है । बदले में वे भी हमें मदद करते हैं, प्रेरणा देते हैं, प्रकाश देते हैं, आनंद और शाँति देते हैं । हमारे घर में किसी संतान का जन्म होनेवाला हो तो वे अच्छी आत्माओं को भेजने में सहयोग करते हैं । पूर्वजों से उऋण होने के लिए, उनके शुभ आशीर्वाद से उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है । इस प्रकार नि:संतान दम्पत्तियों के लिए भी श्राद्धकर्म वरदानस्वरूप है ।

गरुड़ पुराण में आता है –

कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति ।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते ।।

देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् । “समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है । देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है । देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है ।” (गरुड़ पुराण 10.57.59)

पद्म पुराण में भी आता है कि जो भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी संतुष्ट करते हैं । वे पुष्टि, आरोग्य, संतान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं । पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही संतुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है ।’

जो पूर्णिमा के दिन श्राद्धादि करता है उसकी बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, धारणाशक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती । वह पर्व का पूर्ण फल भोगता है ।

श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते हैं, जो शरीर की मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं । श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है । बूढ़े-बुजुर्गों की उन्नति के लिए आप कुछ करेंगे तो आपके हृदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा ।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रूपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन 11.36 से 12.24 बजे के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें । चारा खरीदने को भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें- ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं । मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-कराने वाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है । इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं ।’ इससे आपको मंगलमय लाभ होगा ।’

 

इतिहास गवाह है…

मालवीयजी के जन्म से पूर्व हिन्दुओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध जब आंदोलन की शुरुआत की थी तब अंग्रेजों ने सख्त ‘कर्फ्यू’ जारी कर दिया था। ऐसे दौर में एक बार मालवीयजी के पिता जी कहीं से कथा करके पैदल ही घर आ रहे थे। उन्हें मार्ग में जाते देखकर अंग्रेज सैनिकों ने रोका-टोका एवं सताना शुरु किया। वे उनकी भाषा नहीं जानते थे और अंग्रेज सैनिक उनकी भाषा नहीं जानते थे। मालवीय जी के पिता ने अपना साज निकाला और कीर्तन करने लगे। कीर्तन से अंग्रेज सैनिकों को कुछ आनंद आया और इशारों से धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा किः “चलो, हम आपको पहुँचा देते हैं।” यह देखकर मालवीयजी के पिता को हुआ किः “मेरे कीर्तन से प्रभावित होकर इन्होंने मुझे तो हैरान करना बन्द कर दिया किन्तु मेरे भारत देश के लाखों-करोड़ों भाईयों का शोषण हो रहा है, इसके लिए मुझे कुछ करना चाहिए।”
बाद में वे गया जी गये और प्रेमपूर्वक श्राद्ध किया। श्राद्ध के अंत में अपने दोनों हाथ उठाकर पितरों से प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहाः ‘हे पितरो ! मेरे पिण्डदान से अगर आप तृप्त हुए हों, मेरा किया हुआ श्राद्ध अगर आप तक पहुँचा हो तो आप कृपा करके मेरे घर में ऐसी ही संतान दीजिए जो अंग्रेजों को भगाने का काम करे और मेरा भारत आजाद हो जाये…..।’ पिता की अंतिम प्रार्थना फली। समय पाकर उन्हीं के घर मदनमोहन मालवीय जी का जन्म हुआ ।

औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पीने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था । तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य हैं वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते हैं और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नहीं दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते हैं ।”

 

अमावस्या को श्राद्ध की महिमा

‘वराह पुराण’ के अनुसार एक बार पितरों ने ब्रह्मा जी के चरणों में निवेदन कियाः “भगवन् ! हमें जीविका देने की कृपा कीजिये, जिससे हम सुख प्राप्त कर सकें ।”
प्रसन्न होते हुए भगवान ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान देते हुए कहाः “अमावस्या की तिथि को मनुष्य जल, तिल और कुश से तुम्हारा तर्पण करेंगे । इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे । पितरों के प्रति श्रद्धा रखनेवाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उस पर अत्यंत संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है ।”
यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है । जिन पितरों की शरीर छूटने की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है ।
अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिंडदान एवं श्राद्धादि की आशा में आते हैं । यदि वहाँ उन्हें पिंडदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती है तो वे श्राप देकर चले जाते हैं । अतः श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।

सावधान – श्राद्ध पक्ष के दिनों में संसार-व्यवहार नहीं करना चाहिये ।

सामूहिक श्राद्ध का लाभ लें

सर्वपित्री दर्श अमावस्या के दिन विभिन्न स्थानों के संत श्री आशारामजी आश्रमों में सामूहिक श्राद्ध का आयोजन होता है । आप भी इसका लाभ ले सकते हैं । इस हेतु अपने नजदीकी आश्रम में पंजीकरण करा लें । अधिक जानाकारी हेतु पहले ही अपने नजदीकी आश्रम से सम्पर्क कर लें । अगर खर्च की परवाह न हो तो अपने घर में भी श्राद्ध कर सकते हैं । (श्राद्ध से संबंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें, आश्रम से प्रकाशित पुस्तक श्राद्ध-महिमा) ।

बुद्धिमान, धनवान, धर्मात्मा व दीर्घजीवी संतान हेतु

बुद्धिमान, धनवान, धर्मात्मा व दीर्घजीवी संतान हेतु

मनु महाराज कहते हैं कि किसी स्त्री को दीर्घजीवी, यशस्वी, बुद्धिमान, धनवान, संतानवान (पुत्र-पौत्रादि संतानों से युक्त होनेवाला), सात्त्विक तथा धर्मात्मा पुत्र चाहिए तो श्राद्ध करे और श्राद्ध में पिंडदान के समय बीच का (पितामह संबंधी) पिंड उठाकर उस स्त्री को खाने को दे दिया जाये ।

‘आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्रजम् ।’ (पितरो ! आप लोग मेरे गर्भ में कमलों की माला से अलंकृत एक सुंदर कुमार की स्थापना करें।) इस मंत्र से प्रार्थना करते हुए स्त्री पिंड को ग्रहण करे। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक यह विधि करने से उपरोक्त गुणोंवाला बच्चा होगा ।

(इस प्रयोग हेतु पिंड बनाने के लिए चावल को पकाते समय उसमें दूध और मिश्री भी डाल दें। पानी एवं दूध की मात्रा उतनी ही रखें जिससे उस चावल का पिंड बनाया जा सके। पिंडदान-विधि के समय पिंड को साफ-सुथरा रखें ।
ऋषि प्रसाद अगस्त 2019 पृष्ठ 34

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