गर्भस्थ शिशु के लिए केवल माँ की नहीं... पिता की भी भूमिका महत्वपूर्ण 

         नि:संदेह माता और गर्भस्थ शिशु एक ही शरीर में वास कर रहे दो हृदय होते हैं। लेकिन गर्भस्थ शिशु के प्रति जितना दायित्व माँ का होता है उतना ही पिता और परिवार के अन्य सदस्यों का भी होता है। उसमें भी माँ के बाद भावी पिता की पृष्ठभूमि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
         उत्तम संतान हेतु जितना सुसंस्कारी, सुयोग्य माँ का होना जरूरी है, उतना ही पिता का भी । रामजी जैसी संतान हेतु जहाँ कौशल्याजी जैसी माता चाहिए, वहीं दशरथजी जैसे धर्मात्मा, गुरुभक्त पिता भी चाहिए। श्रीकृष्ण जैसी संतान हेतु माता देवकी हों तो पिता भी वसुदेवजी जैसे चाहिए । इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ पिता के गुण बालक पर प्रभावी हुए हैं । महर्षि वेदव्यासजी में उनके पिता पराशर ऋषि के गुण-संस्कारों की प्रधानता थी।ऐसे ही महाभारत के एक प्रसंग में अर्जुन अपनी पत्नी देवी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन के बारे में बता रहे थे, तब सुभद्राजी को नींद आ गयी परन्तु गर्भस्थ अभिमन्यु ने  इस विद्या को ग्रहण किया और इसका उपयोग भी किया जिसका प्रमाण हमें महाभारत के युद्ध में देखने को मिलता है। जब अर्जुन अनुपस्थिति में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन किया जिसे देखकर अन्य  योद्धा भी हैरान थे। इसलिए गर्भावस्था के दौरान जितनी महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है उतना ही अहम् पिता का सान्निध्य भी है। अतः गर्भावस्था के प्रत्येक क्षण में एक-दूसरे का के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही ढंग से करें।

एक पति और भावी पिता के रूप में आपके दायित्व -

१. पत्नी की माहवारी चूक गई तो गर्भधारण की जाँच कराने से लेकर प्रसव तक की प्रत्येक सीढ़ी पर पति को अपनी धर्मपत्नी के साथ होना चाहिए।

२. पत्नी को नियमित जाँच के लिए लेकर जाना और डॉक्टर द्वारा निर्देशित टेस्ट्स एवं दवाओं के लिए तत्पर रहना चाहिए।

३. गर्भावस्था के दौरान सगर्भा में शारीरिक बदलाव के साथ-साथ कई भावात्मक परिवर्तन भी आते हैं जैसे चिड़चिड़ापन, छोटी-छोटी बातों में घबरा जाना, डर जाना, रो देना, चिंतित होना आदि। ऐसे में उसे एक मानसिक आधार की आवश्यकता होती है जो केवल पति ही दे सकता है। इसलिए पति में धैर्य की बहुत आवश्यकता होती है।

४. सुबह जल्दी उठकर अपनी पत्नी के साथ पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठकर ओमकार गुंजन-जप-ध्यान-श्वासोश्वास की गिनती, प्रार्थना आदि करे सत्संग सुनना चाहिए।

५. गर्भ की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए पत्नी को किसी देव मंदिर, संत-महापुरुष के आश्रम अथवा गौशाला आदि पवित्र एवं उच्च आध्यात्मिक स्पंदनों से युक्त वातावरण में लेकर जाना चाहिए।

६. गर्भस्थ शिशु के साथ गर्भसंवाद (वार्तालाप) कर उसे उदार, संयमी, सदाचारी, गुणवान व महान बनने की शिक्षा देनी चाहिए । रात को भोजन आदि के बाद अपनी पत्नी के साथ बैठकर सुने हुए सत्संग पर चर्चा अथवा ज्ञानवर्धक वार्ता करनी चाहिए।

७. अपनी पत्नी के साथ–साथ गर्भस्थ शिशु को भी कोई आध्यात्मिक सत्शास्त्र (श्रीमदभागवद, रामायण, रामचरितमानस, अष्टावक्र गीता, संतों-महापुरुषों के जीवन चरित आदि) प्रतिदिन पढ़कर सुनाना चाहिए। 

८. जन्म लेने से पहले गर्भ में रहते हुए शिशु जो-जो आवाजें सुनता है, जल्दी पहचानता है। इसलिए वह सबसे पहले माँ की आवाज पहचानता है। अगर पिता भी प्रतिदिन गर्भस्थ शिशु के साथ बात करे तो वो जन्म के बाद पिता की भी आवाज पहचान सकता है।

९. गर्भावस्था के दौरान पति को अपना काम खुद ही करना शुरू कर देना चाहिए। ऐसा करने से पत्नी का तनाव कम होता है। आगे चलकर प्रसव के बाद पिता का यह स्वावलंबन बहुत काम आता है।

१०. प्रसव की तैयारी में पत्नी का सहयोग करना चाहिए। प्रसव के समय भी यथासंभव पत्नी के साथ रहना चाहिए।

११. गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद माता के पूरी तरह से स्वस्थ होने तक पत्नी से संसार व्यवहार के लिये आग्रह न करना चाहिए।

१२. किसी भी तरह का व्यसन जैसे बीड़ी-सिगरेट-तम्बाकू आदि का सेवन बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।

१३. पिता की जिम्मेदारी यहीं पर खत्म नहीं होती। माँ का अगर ऑपरेशन हुआ हो तो टांकों की वजह से उसे चलने-फिरने में असुविधा होती है, ऐसे समय में पिता बच्चे को उठाकर माँ को देना-लेना, उसके गीले कपड़े बदलना, यह काम खुशी से करे तो माँ का तनाव कम होता है और माँ को प्रसव की थकान चली जाती है।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।