भीमाष्टमी व्रत से संतान प्राप्ति

भीमाष्टमी व्रत से संतान प्राप्ति

भीष्माष्टमी : १६ फरवरी
माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी ‘भीष्माष्टमी’ के नाम से प्रसिद्ध है । बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन भीष्म पितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण किया जाता है, चाहे हमारे माता-पिता जीवित ही क्यों न हों । इस व्रत को करने से नि:संतान दम्पति सुंदर, संस्कारी और गुणवान संतति प्राप्त करते हैं ।
महाभारत’ के अनुसार जो मनुष्य ‘माघ शुक्ल अष्टमी’ को भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसके वर्षभर के पाप नष्ट हो जाते हैं, पितृदोष भी दूर हो जाता है ।

व्रत-विधि :
इस दिन प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर जाकर स्नान करना चाहिए । अन्यथा घर पर ही विधिपूर्वक स्नान कर भीष्मजी के निमित्त हाथ में तिल, जल आदि लेकर अपसव्य (दाहिने कंधे पर जनेऊ रखे हुए) और दक्षिणाभिमुख होकर निम्नलिखित मंत्रों से तर्पण करना चाहिए । (अंगूठे और तर्जनी उंगली के मध्य भाग से होते हुए जल को किसी पात्र में छोड़ दें । तर्पणवाले जल को बाद में किसी पवित्र वृक्ष पीपल या बड़ के पेड़ में चढ़ा दें ।)

तर्पण का मंत्र
वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥
भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ।।

इसके बाद पुनः सव्य होकर (बायें कंधे पर जनेऊ रखे हुए) निम्न मंत्र से गंगापुत्र भीष्म को अर्घ्य देना चाहिए । (जनेऊ धारण किये हुए लोग और ब्राहाण इस विधि को करते है और सहज में सिखा सकते हैं।)

अर्घ्य का मंत्र
वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च ।
अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे ।।

अंत में हाथ जोड़कर भीष्म पितामह एवं अपने पितरों को प्रणाम करना चाहिए ।

क्षमतानुसार फल, दूध आदि लेकर अथवा एक समय उपवास का भोजन करके व्रत रखना चाहिए ।

आज भी पुत्र की भाँति उनका तर्पण किया जाता है, क्यों ?

पितामह भीष्म हस्तिनापुर के राजा शंतनु के पुत्र थे । श्रीगंगाजी उनकी माता थीं । बचपन में उनका नाम देवव्रत था । उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से शास्त्र तथा परशुरामजी से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी । उनके समकालीनों में शस्त्र-शास्त्र का उनके जैसा कोई ज्ञाता नहीं था । वीर होने के साथ ही वे सदाचारी और धार्मिक भी थे । सब प्रकार से योग्य देखकर महाराज शंतनु ने उन्हें युवराज घोषित कर दिया ।

एक बार महाराज शंतनु शिकार खेलने गये । वहाँ उन्होंने मत्स्यगंधा नामक एक निषादकन्या को देखा जो पराशर ऋषि के वरदान से अपूर्व लावण्यवती हो गयी थी । उसके शरीर से कमल की सुगंध निःसृत हो रही थी, जो एक योजन तक फैलती थी । महाराज शांतनु उसके रूप लावण्य पर मुग्ध हो गये । उन्होंने उसके पिता निषादराज से उस कन्या के लिए याचना की। निषादराज ने शर्त रखी कि इस कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी हो, तभी मैं अपनी कन्या का विवाह आपसे करूँगा ।

राजा उदास हो गये । उन्हें राजकुमार देवव्रत के अधिकार को छीनना अनुचित लगा, पर मत्स्यगंधा को वे अपने हृदय से निकाल नहीं सके । परिणामस्वरूप वे बीमार हो गये । राजकुमार देवव्रत को जब राजा की बीमारी और उसका कारण पता चला तो वे निषादराज के पास गये और निषादराज से कन्या को अपने पिता के लिए माँगा । निषादराज ने अपनी शर्त राजकुमार देवव्रत के सामने भी रख दी । इस पर देवव्रत ने कहा कि “इस कन्या से उत्पन्न होनेवाला पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा । मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं राजसिंहासन पर नहीं बैठूंगा ।” इस पर निषादराज ने कहा: “आप राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे, परंतु आपका पुत्र मेरे नातियों से सिंहासन छीन ले तो ?” निषादराज की इस शंका पर राजकुमार देवव्रत ने सभी दिशाओं और देवताओं को साक्षी करके आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीषण प्रतिज्ञा की । इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम ‘भीष्म’ पड़ा ।

अपने पिता के सुख के लिए आजीवन इतने कठिन व्रत को निभानेवाले बाल-ब्रह्मचारी भीष्म का चरित्र हम सभीके लिए अनुकरणीय है ।

‘पितृदेवो भव ।’ का दिव्य संदेश देनेवाली भारतभूमि में जन्मे इस महान सपूत का सभी भारतवासी बहुत आदर करते हैं । भीष्मजी के इस जीवन-वृत्तांत से प्रेरणा लेकर जीवन में उन्नति चाहनेवाले सज्जनों-सन्नारियों को उनके जैसा दृढव्रती, सत्यनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनने का संकल्प लेना चाहिए । वे केवल धर्म के कोरे ज्ञाता नहीं थे, बल्कि उन्होंने धर्ममय जीवन जिया तथा अंतकाल में भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में अपनी विशुद्ध बुद्धि को अर्पित करते हुए देहत्याग किया । इस प्रकार उन्होंने मानवमात्र के समक्ष जीवन के अंतकाल में किस प्रकार अपनी मति को भगवान में लगाते हुए इस धरा से प्रयाण करना चाहिए, इसका सुंदर आदर्श प्रस्तुत किया है ।

उनकी पुत्रहीन-अवस्था में मृत्यु हुई, परंतु उनके अखंड ब्रहाचर्य व्रत के कारण समाज पुत्र की भाँति उनका तर्पण करता है ।

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