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बुद्धिशक्ति व् स्मरणशक्ति बढ़ाने के लिए चतुर्मास में करें पुरुषसूक्त का पाठ ……

चतुर्मास में विशेष पठनीय – पुरुष सूक्त

    जो चतुर्मास में संध्या के समय भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का जप करता हैउसकी बुद्धि बढ़ती है ।
    यदि गर्भवती बहन अपने गर्भस्थ शिशु के लिए संकल्प करके नित्य पुरुष-सूक्त का पाठ करती है तो गर्भस्थ शिशु की बुद्धिशक्ति और स्मरणशक्ति विलक्षण होगी । जिनके घर-आँगन में दिव्य संतान का जन्म हो चुका है वे भी अपने बच्चों को पास बिठाकर पुरुष सूक्त का पाठ करें  
    अनेक शोधों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि यदि गर्भावस्था में माता संस्कृत के श्लोकों का अधिक से अधिक उच्चारण करती है तो गर्भस्थ शिशु की स्मरणशक्ति तेज होती है और जन्म के बाद शिशु जब बोलने लगता है तो उसके शब्दों के उच्चारण स्पष्ट होते हैं । इसलिए गर्भवती को चतुर्मास में पुरुष-सूक्त के पाठ नियम अवश्य लेना चाहिए । 
ૐ श्री गुरुभ्यो नमः।
हरिः ૐ
 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाઽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम् ।।1।।
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ।।1।।
पुरुषઽएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।
जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं । इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ।।2।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः ।
पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।3।।
विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है । इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ।।3।।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोઽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेઽअभि ।।4।।
चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है । इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।।4।।
ततो विराडजायत विराजोઽअधि पूरुषः ।
स जातोઽअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ।।5।।
उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ । उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए । वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को,  फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ।।5।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।6।।
उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) । वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ।।6।।
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतઽऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।7।।
उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ । उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ।।7।।
तस्मादश्वाઽअजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताઽअजावयः ।।8।।
उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए ।।8।।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवाઽअयजन्त साध्याઽऋषयश्च ये ।।9।।
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया ।।9।।
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाઽउच्येते।।10।।
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ।।10।।
ब्राह्मणोઽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोઽअजायत ।।11।।
विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए । क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं । वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ।।11।।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत ।।12।।
विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ।।12।।
नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत।
पद्भ्याँ भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन्।।13।।
विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ।।13।।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोઽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मઽइध्मः शरद्धविः ।।14।।
जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ।।14।।
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाઽअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।15।।
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ।।15।।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया । यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ।।16।।
ૐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!
(यजुर्वेदः 31.1.16)
 

सुनिए सम्पूर्ण पुरुष-सूक्त और साथ में आप स्वयं भी पाठ कर सकते हैं ।

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संस्कार साधना 6. सत्संग

सत्संग

सत्संग क्या है ?

सत्यस्वरूप जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उसको जानने की रुचि होना यह सत्संग है । सत्संग… हिंदी में ‘संग’ माने साथ, मिलन । पति-पत्नी संग जा रहे हैं, भाई-भाई संग जा रहे हैं… मिलाप को संग बोलते हैं परंतु संस्कृत में संग बोलते हैं आसक्ति को, प्रीति को । संसार में आसक्ति को नष्ट करनेवाला और सारस्वरूप परमात्मा में प्रीति करानेवाला सुमिरन, चिंतन, सत्कर्म, इसको ‘सत्संग’ बोलते हैं । भगवान की कथा सुनना तो सत्संग है लेकिन शबरी भीलन गुरु के द्वार पर झाड़ू लगा रही है वह भी सत्संग है और राम जी गुरुद्वार पर गाय चरा रहे हैं वह भी सत्संग है ।

सत्संग से क्या लाभ ?

सत्संग ऐसा परम औषध है जो बड़े-से-बड़े दुःखद प्रारब्ध को भी हँसते-हँसते सहन करने की शक्ति देता है और अच्छे से अच्छे अनुकूल प्रारब्ध को भी अनासक्त भाव से भोगने का सामर्थ्य देता है । उन्हीं का जीवन धन्य है जो ब्रह्मवेत्ता संतों का सत्संग सुनते हैं, उसे समझ पाते हैं और जीवन में उतार पाते हैं । जिनके जीवन में सत्संग नहीं है वे छोटी-छोटी बात में परेशान हो जाते हैं, घबरा जाते हैं किंतु जिनके जीवन में सत्संग है वे बड़ी-से-बड़ी विपदा में भी रास्ता निकाल लेते हैं और बलवान होते हैं, सम्पदा में फँसते नहीं, विपदा में दबते नहीं । ऐसे परिस्थिति विजयी आत्मारामी हो जाते हैं ।

दुनिया में सत्संग एक अद्वितीय रत्न है, कोहिनूर है, पारस मणि है । ये सब तो पत्थर हैं… जबकि सत्संग तो मुक्ति की जीती जागती ज्योति है । अगर आप नियमित रूप से सत्संग व शास्त्र सुनेंगे तो आपका मन फालतू के विचारों में नहीं रहेगा । मनोराज से बचोगे और आप जो सत्संग सुनेंगे उसी के विचारों में आपका मन लगा रहेगा । सत्संग के वचनों के बार-बार मनन से आपमें विवेक-वैराग्य स्वत: ही जागृत होगा । आपका मन हल्की कामनाओं और कुछ आकर्षणों से बचकर सत्संग-सुधा के पान में संलग्न रहेगा । ठीक ही कहा है सत्संग से वंचित होना महान पापों का फल है ।

सत्संग कैसे सुनें ?

किसी एकांत स्थान में एक ही आसन में स्थिर बैठकर एकाग्र मन से सत्संग सुनना चाहिए । सत्संग सुनने के लिए मात्र कान ही पर्याप्त नहीं हैं, आपका हृदय (मन) भी पूरी तरह से वहीं होना चाहिए । जीभ तालू में लगाकर रखें तो सुना हुआ सत्संग याद भी रहेगा । सत्संग ऐसे सुनें जैसे कोई अपनी निंदा सुनता है, एक भी शब्द छूटना नहीं चाहिए । हो सके तो सत्संग सुनते समय नोटबुक और पेन साथ रखना चाहिए । महत्वपूर्ण बिन्दुओं को लिख लेना चाहिए और चलते-फिरते उसका चिंतन-मनन करना चाहिए ।

तो क्या करें ?

यदि आप एक दिव्य गुणों से संपन्न संतान की चाहना रखते हैं तो दोनों पति-पत्नी को प्रतिदिन कम-से-कम 10 से 15 मि. सत्संग जरुर-जरुर सुनना चाहिए । श्रवण के बाद उसका चिंतन-मनन और निदिध्यासन के द्वारा उसे अपने जीवन में आत्मसात करना चाहिए ।

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संस्कार साधना 5. श्वासोश्वास की गिनती

श्वासोश्वास की साधना...

हर कोई चिंतित है...

इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है । प्राण तालबद्ध न होने के कारण मन तालबद्ध नहीं, इसलिए इन्द्रियों पर मन का शासन ठीक नहीं चलता । औषधियाँ लेते हैं, इंजेक्शन लगवाते हैं, शल्यक्रिया (ऑपरेशन) भी कराते हैं, आयुर्वेदिक व् होमियोपैथिक उपचार भी करते हैं, फिर भी शरीर का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता । थोड़े दिन ठीक रहा-न-रहा फिर बेठीक हो जाता है । आज के मानव की यही समस्या है । वास्तव में स्वास्थ्य का, सुख का, आनंद का, माधुर्य का और सारी समस्याओं के समाधान का स्रोत जो है, उसको मानव भूलता चला गया । इसलिए आज समाज का हर वर्ग चिंतित है, हर व्यक्ति चिंतित है ।

क्या किया जाये ?

गर्भावस्था में सही जानकारी के अभाव में ये चिंता और भी बढ़ जाती है । कभी प्रेगनेंसी के दौरान आनेवाले छोटे-बड़े complications को लेकर, तो कभी गर्भस्थ शिशु के विकास को लेकर, तो कभी अपनी डिलीवरी को लेकर ।

ऐसे में क्या किया जाये कि मन के साथ-साथ तन भी स्वस्थ रहे ? ऐसा क्या किया जाये कि आपके साथ-साथ आपके बच्चे का तन और मन दोनों स्वस्थ रह सकें ?

आपको करनी है एक सहज-सी, सरल-सी साधना, जिसे करने में कोई परिश्रम नहीं है, जो कभी भी, कहीं भी की जा सकती है, जो केवल गर्भवती बहनों को ही नहीं; बल्कि सभी को करनी चाहिए और life time करनी चाहिए जिसका नाम है श्वासोश्वास की साधना !

लाभ :

Pregnancy में यह साधना माँ और शिशु दोनों को दीर्घायु बनाती है । इसके नियमित अभ्यास से तनाव व बेचैनी दूर होते हैं और blood pressure नियंत्रित रहता है, Plus Rate नॉर्मल रहती है । ध्यान के समय आने-जाने वाले श्वास पर ध्यान देना, हमें न सिर्फ शारीरिक; बल्कि मानसिक विकारों से भी दूर रखता है । साथ ही जिस शांति और आनंद की अनुभूति होती है, उसके लिए तो शब्द भी कम पड़ जाते हैं ।

श्वासोश्वास की साधना कैसे करें ?

श्वासोश्वास की साधना का अर्थ है प्राणों को निहारना अर्थात् जो श्वास चल रहे हैं उन्हें देखना । साथ में भगवान्नाम मिला दें तो सोने पे सुहागा हो जायेगा ! जैसे, श्वास अंदर जाय तो ॐ, हरि, गुरु या जो भी भगवन्नाम प्यारा लगे वो, और बाहर आए तो गिनती, जैसे श्वास अंदर जाय तो हरि, बाहर आए तो 1, श्वास अंदर जाय तो शिव, बाहर आए तो 2 । अपनी और से प्रयत्न करके श्वास नहीं लेना है, बल्कि जो श्वास स्वाभाविक चल रहा हो, उसी को देखना है । इस प्रकार से 108 तक की गिनती बिना भूले रोज करें, कम से कम 51 तक तो करनी ही है । प्रतिदिन रात्रि को सोते समय यह साधना करने से आपकी निद्रा योगनिद्रा बन जायेगी ।

घंटोंभर पार्टी या क्लबों में जाने की अपेक्षा मात्र 8-10 मिनट का यह प्रयोग माँ और बच्चे दोनों के लिए बेहद लाभकारी है ।   करके देखिये, फिर बताईयेगा कि आपको इस साधना से क्या लाभ हुआ ।

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संस्कार साधना 3. भगवन्नाम जप

भगवन्नाम

गर्भस्थ शिशु को गर्भ में अपने अनेक पूर्व जन्मों का स्मरण रहता है । इसलिए हमारे शास्त्रों में गर्भस्थ शिशु को ऋषि की संज्ञा दी गई है | गर्भस्थ शिशु की सूक्ष्म चेतना उस परम चेतना के साथ एकाकार रहे, शिशु को अपने शाश्वत स्वरूप की स्मृति बनी रहे, इसके लिए गर्भवती माता को गर्भावस्था के दौरान अधिकाधिक साधना का अवलंबन लेना चाहिए । संस्कार साधना के इस क्रम में हम जिस साधना का अभ्यास करेंगे उसे भगवान ने अपने नवधा भक्ति के उपदेश में पाँचवां स्थान दिया है –

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥

अपने आनेवाले शिशु की चेतना के उच्चतम विकास के लिए माता-पिता दोनों ही को गर्भधारण से पूर्व और गर्भधारण के पश्चात् से सम्पूर्ण गर्भावस्था के दौरान एकांत में बैठकर तीनों संध्याओं के समय अधिक से अधिक अर्थसहित भगवन्नाम जप अथवा गुरुमंत्र का जप करना चाहिए । बच्चे के जन्म के बाद भी माता-पिता को चाहिए कि वो जप-ध्यान आदि के समय बच्चे को साथ लेकर बैठें ।

पूज्य बापूजी बताते हैं कि मेरी माँ मुझे पूजा में बिठाकर कहतीं “खूब जप करेगा, अच्छे से ध्यान करेगा तभी मक्खन-मिश्री मिलेगा और जब मैं ध्यान करने बैठता तो माँ चाँदी की कटोरी में मक्खन-मिश्री लेकर मेरे सामने धीरे-से खिसकाकर रख देती थीं । इस प्रकार माता महँगीबा ने पूज्य बापूजी में भगवदभक्ति के संस्कार भरे । 

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है,

यज्ञानाम् जपयज्ञो अस्मि । 
यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ ।

श्री रामचरितमानस में भी आता हैः कलियुग केवल नाम आधाराजपत नर उतरे सिंधु पारा । इस कलयुग में भगवान का नाम ही आधार है । जो लोग भगवान के नाम का जप करते हैं, वे इस संसार सागर से तर जाते हैं ।

जप अर्थात्…… ज = जन्म का नाश, प पापों का नाश

पापों का नाश करके जन्म-मरण करके चक्कर से छुड़ा दे, उसे जप कहते हैं । परमात्मा के साथ संबंध जोड़ने की एक कला का नाम है जप । इसीलिए कहा जाता हैः

अधिकम् जपं अधिकं फलम् ।

भगवान का नाम क्या नहीं कर सकता ? भगवान का मंगलकारी नाम दुःखियों का दुःख मिटा सकता है, रोगियों के रोग मिटा सकता है, पापियों के पाप हर लेता है, अभक्त को भक्त बना सकता है, मुर्दे में प्राणों का संचार कर सकता है । भगवन्नाम-जप से क्या फायदा होता है ? कितना फायदा होता है ? इसका पूरा बयान करनेवाला कोई पैदा ही नहीं हुआ और न होगा ।

शास्त्र में आता हैः

देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनाश्च देवताः । 

‘सारा जगत भगवान के अधीन है और भगवान मंत्र के अधीन हैं ।”

संत तुलसीदासजी ने कहा हैः

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अध दहहीं । ।

‘जो विवश होकर भी नाम-जप करते हैं उनके अनेक जन्मों के पापों का दहन हो जाता है ।’ कोई डंडा मारकर, विवश करके भी भगवन्नाम-जप कराये तो भी अनेक जन्मों के पापों का दहन होता है तो जो प्रीतिपूर्वक हरि का नाम जपते-जपते हरि का ध्यान करते हैं उनके सौभाग्य का क्या कहना !

जबहिं नाम हृदय धरयो, भयो पाप को नास ।

जैसे चिंनगी आग की, पड़ी पुराने घास ।।

माता कयाधू ने प्रहलाद के जन्म से पहले भगवान् में वैर रखनेवाले हिरण्यकश्यप से भी युक्तिपूर्वक 108 बार नारायण नाम जपवाया था । भगवन्नाम की बड़ी भारी महिमा है ।

नारदजी पिछले जन्म में विद्याहीन, जातिहीन, बलहीन दासीपुत्र थे । साधुसंग और भगवन्नाम-जप के प्रभाव से वे आगे चलकर देवर्षि नारद बन गये । साधुसंग और भगवन्नाम-जप के प्रभाव से ही कीड़े में से मैत्रेय ऋषि बन गये । परंतु भगवन्नाम की इतनी ही महिमा नहीं है । जीव से ब्रह्म बन जाय, इतनी भी नहीं; भगवन्नाम व मंत्रजाप की महिमा तो लाबयान है ।

जैसे, भारत में देश का सब कुछ आ जाता है ऐसे ही भगवान शब्द में, ॐ शब्द में सारे ब्रह्मांड सूत्रमणियों के समान ओतप्रोत हैं । जैसे, मोती सूत के धागे में पिरोये हुए हों ऐसे ही ॐ सहित अथवा बीजमंत्र सहित जो गुरुमंत्र है उसमें ‘सर्वव्यापिनी शक्ति’ होती है ।

इस शक्ति का पूरा फायदा उठाने के लिए तथा अपने बच्चे को भी गर्भकाल और बाल्यकाल से ही मंत्रशक्ति संपन्न बनाने के इच्छुक दम्पत्तियों को दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मंत्र-जप करना चाहिए । मंत्र में अडिग आस्था रखनी चाहिए । एकांतवास का अभ्यास करना चाहिए । व्यर्थ का विलास, व्यर्थ की चेष्टा और व्यर्थ का चटोरापन छोड़ देना चाहिए । व्यर्थ का जनसंपर्क कम कर देना चाहिए ।

बार-बार भगवन्नाम-जप करने से एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और भगवदीय अमृत प्रकट होने लगता है । जप से उत्पन्न भगवदीय आभा आपके पाँचों शरीरों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) को तो शुद्ध रखती ही है, साथ ही आपकी अंतरात्मा को भी तृप्त करती है । 

कोई मनुष्य दिशाशून्य हो गया हो, लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुंबियों ने मुख मोड़ लिया हो, किस्मत रूठ गयी हो, साथियों ने सताना शुरू कर दिया हो, पड़ोसियों ने पुचकार के बदले दुत्कारना शुरू कर दिया हो... चारों तरफ से व्यक्ति दिशाशून्य, सहयोगशून्य, धनशून्य, सत्ताशून्य हो गया हो फिर भी हताश न हो वरन् सुबह-शाम 3 घंटे ओंकार सहित भगवन्नाम का जप करे तो वर्ष के अंदर वह व्यक्ति भगवत्शक्ति से सबके द्वारा सम्मानित, सब दिशाओं में सफल और सब गुणों से सम्पन्न होने लगेगा । भगवान तुम्हारे आत्मा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुम्हें सहज में प्राप्त हो सकता है फिर क्यों दुःखी होना ?

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संस्कार साधना 2. प्रार्थना

प्रार्थना

घर आँगन में किलकारियों की गूंज किसे अच्छी नहीं लगती ? इस गूंज की चाह में बच्चे के जन्म के पहले से ही माता-पिता की हर धड़कन प्रार्थना के स्वरों के साथ चलती है और गर्भावस्था के दौरान यही प्रार्थना गर्भस्थ शिशु में भगवद्भक्ति, शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक स्वास्थ्य और उच्च नैतिक मूल्यों के संवर्धन का कार्य करती है । सच्चे हृदय की गयी प्रार्थना भगवान तक तुरंत पहुँचती है । हरि ओम गुंजन के बाद संस्कार साधना के अगले क्रम में हम बढ़ते हैं प्रार्थना की ओर । कैसी है प्रार्थना की महिमा ! एक पपीहा पेड़ पर बैठा था । वहाँ उसे बैठा देखकर एक शिकारी ने धनुष पर बाण चढ़ाया । आकाश से भी एक बाज उस पपीहे को ताक रहा था । इधर शिकारी ताक में था और उधर बाज । पपीहा क्या करता ? कोई ओर चारा न देखकर पपीहे ने प्रभु से प्रार्थना कीः “हे प्रभु ! तू सर्वसमर्थ है । इधर शिकारी है, उधर बाज है । अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! तू ही रक्षा कर….” पपीहा प्रार्थना में तल्लीन हो गया ।वृक्ष के पास बिल में से एक साँप निकला । उसने शिकारी को दंश मारा । शिकारी का निशाना हिल गया । हाथ में से बाण छूटा और आकाश में जो बाज मँडरा रहा था उसे जाकर लगा । शिकारी के बाण से बाज मर गया और साँप के काटने से शिकारी मर गया । पपीहा बच गया । वाह ! परमात्मा कैसा समर्थ है ! वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः…. है । असम्भव भी उसके लिए सम्भव है । सृष्टि में चाहे कितनी भी उथल-पुथल मच जाये लेकिन जब वह अदृश्य सत्ता किसी की रक्षा करना चाहती है तो वातावरण में कैसी भी व्यवस्था करके उसकी रक्षा कर देती है । कितना बल है प्रार्थना में ! कितना बल है उस अदृश्य सत्ता में !

गर्भ संस्कार में प्रार्थना का अद्भुत महत्व है । माता-पिता दोनों को संध्या-वंदन करते समय हरि ओम का गुंजन करने के बाद अपने सद्गुरुदेव और इष्टदेव की हृदयपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । गर्भाधान से पूर्व माता इस प्रकार प्रार्थना करे – “हे प्रभु ! हे परमात्मा ! आप सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक हैं । सम्पूर्ण जगत आपकी ही कृति है । हे सृजनकर्ता ! जिस प्रकार धरती पर अनेक माताओं के गर्भ से दिव्य संतानें अवतरित हुई, उसी प्रकार हे प्रभु ! मेरे गर्भ से आपका ही दिव्य अंश प्रकट हो और उस अलौकिक संतान की माता-पिता कहलाने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो, हमारी यह प्रार्थना आप स्वीकार करें।“

बिना प्रार्थना के किया गया गर्भाधान निम्न स्वभाववाली संतान को आमंत्रित करता है । एक शोध के अनुसार, प्रार्थना करनेवाली महिलाओं में गर्भधारण करने की संभावना, प्रार्थना न करनेवाली महिलाओं की अपेक्षा दुगुनी हो पाई गई थी ! इसी प्रार्थना का आश्रय जब गर्भवती माता लेती है तो गर्भस्थ शिशु की रक्षा का दायित्व भगवान स्वयं पर ले लेते हैं । जैसे – उत्तरा की प्रार्थना और समता से प्रभावित होकर अपनी समता का परीक्षा स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे मृत परीक्षित को जीवित कर दिया था । जिन माताओं को बार-बार गर्भ गिर जाता हो उन्हें उत्तरा की तरह भगवान से प्रार्थना करना चाहिए ।

महाराष्ट्र स्थित मनशक्ति रिसर्च सेंटर में की गई स्टडी के अनुसार गर्भावस्था में माँ द्वारा की गई प्रार्थना उसके साथ गर्भ में मौजूद शिशु की pulse rate को नॉर्मल रखती है । इससे माँ और गर्भ में पल रहे शिशु दोनों का ही स्वास्थ्य बेहतर रहता है । 

सगर्भा की प्रार्थना के फलस्वरूप संतान में असाधारण दैवी सद्गुणों का विकास होता है । आनेवाली संतान वीर, सद्गुणी, विद्वान, यशस्वी, श्रेष्ठ और दीर्घजीवी होती है ।प्रार्थना के फलस्वरूप जन्म लेनेवाली दिव्यात्मा परमात्मा द्वारा भेजा गया सुंदर उपहार है ।

संत विनोबा भावे माँ रुक्मिणी रात को जब दही जमाती तो भगवान की प्रार्थना करके जमातीं थीं । बालक विनोबा ने एक दिन पूछाः “माँ ! दही जमाने में परमेश्वर को बीच में घसीटने की क्या जरूरत है ? उनकी प्रार्थना न करें, उनका नाम न लें तो क्या दही नहीं जमेगा ? माँ ने कहाः “विन्या ! हम अपनी तरफ से भले ही पूरी तैयारी कर लें, पर दही तो ठीक से तभी जमेगा, जब भगवान की कृपा होगी।“ विनोबा जी कहते है- “जेल में मैं सब बातों का ध्यान रखकर दही जमाता था, फिर भी कभी-कभी खट्टा हो जाता था, तब मुझे माँ की यह बात याद आती थी ।“

कितनी ऊँची शिक्षा दी है भारत की इस माता ने अपने बालक को ! बचपन से ही वेदांत के संस्कारों का सिंचन किया कि दही भले जमता हुआ दिखता है परंतु वह जिसकी सत्ता से जमता है, उसका स्मरण कर हमें उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । हे भारत की माताओं ! आप भी गर्भाधान से लेकर गर्भावस्था के दौरान और शैशवकाल से ही अपने बच्चों में प्रार्थना द्वारा ऐसे दिव्य संस्कारों का सिंचन करोगी तो आगे चलकर उनके कर्मों में भक्तिरस आयेगा जो उन्हें निर्वासनिक नारायण के सुख में प्रतिष्ठित कर देगा ।

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संस्कार साधना 1. हरि ॐ गुंजन

हरि ॐ गुंजन

महत्त्व : मातृत्व का सुख बहुत ही सौम्य और मधुर होता है । गर्भावस्था में इस सुख की अनुभूतियाँ के साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व भी जुड़े होते हैं- जैसे गर्भ में आयी नन्हीं संतान में ज्ञान और संस्कारों के सिंचन का उत्तरदायित्व । गर्भावस्था वह स्वर्णिम समय है जिसमें सगर्भा माता अपनी साधना द्वारा अपने और अपने गर्भस्थ शिशु के भावी जीवन का मनचाहा चित्रांकन कर सकती है । जैसे बूँद-बूँद से सरिता और सरोवर बनते हैं, ऐसे ही छोटे-छोटे पुण्य महापुण्य बनते हैं । माता-पिता की पुण्यायी समय पाकर गर्भस्थ शिशु को इतना महान बना सकती है कि वह बन्धन और मुक्ति के पार अपने निजस्वरूप को निहारकर विश्वरूप हो सकता है ।
संस्कार साधना के इस क्रम में सबसे पहले हम चर्चा करेंगे हरि ॐ गुंजन पर । विधि बताने से पहले हम आपको इस हरि ॐ मंत्र की महिमा से अवगत करना चाहेंगे । ‘हरि ॐ’ दो शब्दों से मिलकर बना है ‘हरि+ॐ’ । हरि माना जो हमारे पाप-ताप, दुःख-दोषों को हर ले, हमारे मन की हल्की मान्यताओं को, बुद्धि के अविवेक को और क्षुद्र अहं को हर ले- वो है हरि ।
भगवान वेदव्यासजी कहते हैं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
पद्मपुराण में आया हैः
ये वदन्ति नरा नित्यं हरिरित्यक्षरद्वयम्।
तस्योच्चारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः।।
‘जो मनुष्य परमात्मा के इस दो अक्षरवाले नाम ‘हरि’ का नित्य उच्चारण करते हैं, उसके उच्चारणमात्र से वे मुक्त हो जाते हैं, इसमें शंका नहीं है ।’
ॐकार मूल अक्षर है । इसकी चेतना सारी सृष्टि में व्याप्त है । सब मंत्रों में ॐ राजा है । ॐकार अनहद नाद है । यह सहज में स्फुरित हो जाता है। ॐ आत्मिक बल देता है । ॐ के उच्चारण से जीवनशक्ति उर्ध्वगामी होती है । चित्त से हताशा-निराशा भी दूर होती है । यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने सभी मंत्रों के आगे ॐ जोड़ा है । ॐ (प्रणव) परमात्मा का वाचक है, उसकी स्वाभाविक ध्वनि है ।
ॐ = अ+उ+म+(ँ) अर्ध तन्मात्रा। ॐ का अ कार स्थूल जगत का आधार है । उ कार सूक्ष्म जगत का आधार है । म कार कारण जगत का आधार है । अर्ध तन्मात्रा (ँ) जो इन तीनों जगत से प्रभावित नहीं होता बल्कि तीनों जगत जिससे सत्ता-स्फूर्ति लेते हैं फिर भी जिसमें तिलभर भी फर्क नहीं पड़ता, उस परमात्मा का द्योतक है ।
वेदव्यास जी महाराज कहते हैं कि
मंत्राणां प्रणवः सेतुः। यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है ।
सिख धर्म में भी एको ओंकार सतिनामु…… कहकर उसका लाभ उठाया जाता है।

विधि : हररोज़ प्रतःकाल जल्दी उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृत हो जायें । स्वच्छ पवित्र स्थान में आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख होकर सुखासन में बैठ जायें । शान्त और प्रसन्न वृत्ति धारण करें । मन में दृढ भावना करें कि मैं प्रकृति-निर्मित इस शरीर के सब अभावों को पार करके, सब मलिनताओं-दुर्बलताओं से पिण्ड़ छुड़ाकर आत्मा की महिमा में जागकर ही रहूँगी । आँखें आधी खुली, आधी बंद । अब गहरा श्वास भरें और भावना करें कि श्वास के साथ में सूर्य का दिव्य ओज भीतर भर रही हूँ । फ़िर ‘हरि ॐ…’ का लम्बा उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते जायें । श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास ना लें । भीतर ही भीतर ‘हरि: ॐ…’ ‘हरि: ॐ…’ का मानसिक जप करें । फ़िर से श्वास भरकर पूर्वोक्त रीति से धीरे-धीरे छोड़ते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन करें । गुंजन करते हुए अपना सारा ध्यान उस ध्वनि पर एकाग्र करें ।
दस-पंद्रह मिनट इस प्रकार दीर्घ स्वर से ‘हरि ॐ…’ की ध्वनि करके शान्त हो जायें । सब प्रयास छोड़ दें । वृत्तियों को आकाश की ओर फ़ैलने दें । आकाश के अन्दर पृथ्वी है । पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं । उनमें से एक आपका शरीर आसन पर बैठा हुआ है । इस पूरे दृश्य को आप मानसिक आँख से, भावना से देखते रहो । आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो । इस प्रकार आपका गर्भस्थ शिशु भी इन सबका दृष्टा है ।
ऐसी भावना करें कि मेरे अंदर आरोग्यता व आनंद का अनंत स्त्रोत प्रवाहित हो रहा है… मेरे अंतराल में दिव्यामृत का महासागर लहरा रहा है । समग्र सुख, आरोग्यता, शक्ति मेरे भीतर है । मेरे मन में अनन्त शक्ति और सामर्थ्य है । मैं स्वस्थ हूँ । पूर्ण प्रसन्न हूँ । इसी प्रकार मेरा शिशु भी निरोग और प्रफुल्लित है । मेरे अंदर-बाहर, मेरे शिशु के चारों ओर सर्वत्र परमात्मा का प्रकाश फ़ैला हुआ है ।
सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ आपकी शक्तियां भी बिखरती है । अतः वृत्तियों को बिखरने न दें ।

दोनों संध्याओं की उपासना के समय पति-पत्नी साथ बैठकर इस प्रकार हरि ॐ का उच्चारण अथवा गुंजन करें तो गर्भस्थ शिशु पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है ।

लाभ :
• ह्रीं शब्द बोलने से यकृत पर गहरा प्रभाव पड़ता है और हरि के साथ यदि ॐ मिला कर उच्चारण किया जाए तो हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों पर अच्छी असर पड़ती है ।
• हरि ऊँ का गुंजन करने से मूलाधार केन्द्र रुपांतरित होता है तो काम राम में, भय निर्भयता में और ईर्ष्या प्रेम में परिणत हो जाता है ।
• हरि ऊँ के गुंजन से मूलाधार केन्द्र में स्पंदन होता है एवं कई कीटाणु भाग खड़े होते हैं ।
• गर्भवती में निर्भयता व प्रेममय स्वभाव का निर्माण होना जरुरी है । साथ ही माँ का चित्त एकाग्र होना, हृदय निर्मल व शांत होना भी अति आवश्यक है क्योंकि माँ का हृदय बच्चे के हृदय से जुड़ा है । जैसा माँ का हृदय (आचार, विचार, व्यवहार ) होगा वैसा ही बच्चे का हृदय निर्मित होगा ।
• हरि ऊँ गुंजन से आपको मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी । बच्चे का विकास भी समुचित प्रकार से होगा ।
• ज्ञानमुद्रा सहित हरि ऊँ की ध्वनि करने से मन की भटकान शीघ्र बंद होने लगेगी । ज्ञानमुद्रा से आपके और आपके गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलेगी । आप स्वयं को सहज अनुभव करेंगे ।
• निःसंतान व्यक्ति को इस मंत्र के बल से संतान प्राप्त हो सकती है ।

सावधानी : गर्भावस्था में अकेले प्रणव का गुंजन नहीं करना चाहिए । प्रणव(ॐ ) के साथ हरि अथवा अन्य कोई मंत्र जोड़कर उच्चारण करें ।

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पिता की भूमिका भी है अत्यंत महत्वपूर्ण

गर्भस्थ शिशु के लिए केवल माँ की नहीं... पिता की भी भूमिका महत्वपूर्ण 

         नि:संदेह माता और गर्भस्थ शिशु एक ही शरीर में वास कर रहे दो हृदय होते हैं। लेकिन गर्भस्थ शिशु के प्रति जितना दायित्व माँ का होता है उतना ही पिता और परिवार के अन्य सदस्यों का भी होता है। उसमें भी माँ के बाद भावी पिता की पृष्ठभूमि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
         उत्तम संतान हेतु जितना सुसंस्कारी, सुयोग्य माँ का होना जरूरी है, उतना ही पिता का भी । रामजी जैसी संतान हेतु जहाँ कौशल्याजी जैसी माता चाहिए, वहीं दशरथजी जैसे धर्मात्मा, गुरुभक्त पिता भी चाहिए। श्रीकृष्ण जैसी संतान हेतु माता देवकी हों तो पिता भी वसुदेवजी जैसे चाहिए । इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ पिता के गुण बालक पर प्रभावी हुए हैं । महर्षि वेदव्यासजी में उनके पिता पराशर ऋषि के गुण-संस्कारों की प्रधानता थी।ऐसे ही महाभारत के एक प्रसंग में अर्जुन अपनी पत्नी देवी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन के बारे में बता रहे थे, तब सुभद्राजी को नींद आ गयी परन्तु गर्भस्थ अभिमन्यु ने  इस विद्या को ग्रहण किया और इसका उपयोग भी किया जिसका प्रमाण हमें महाभारत के युद्ध में देखने को मिलता है। जब अर्जुन अनुपस्थिति में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन किया जिसे देखकर अन्य  योद्धा भी हैरान थे। इसलिए गर्भावस्था के दौरान जितनी महत्वपूर्ण भूमिका माँ की होती है उतना ही अहम् पिता का सान्निध्य भी है। अतः गर्भावस्था के प्रत्येक क्षण में एक-दूसरे का के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही ढंग से करें।

एक पति और भावी पिता के रूप में आपके दायित्व -

१. पत्नी की माहवारी चूक गई तो गर्भधारण की जाँच कराने से लेकर प्रसव तक की प्रत्येक सीढ़ी पर पति को अपनी धर्मपत्नी के साथ होना चाहिए।

२. पत्नी को नियमित जाँच के लिए लेकर जाना और डॉक्टर द्वारा निर्देशित टेस्ट्स एवं दवाओं के लिए तत्पर रहना चाहिए।

३. गर्भावस्था के दौरान सगर्भा में शारीरिक बदलाव के साथ-साथ कई भावात्मक परिवर्तन भी आते हैं जैसे चिड़चिड़ापन, छोटी-छोटी बातों में घबरा जाना, डर जाना, रो देना, चिंतित होना आदि। ऐसे में उसे एक मानसिक आधार की आवश्यकता होती है जो केवल पति ही दे सकता है। इसलिए पति में धैर्य की बहुत आवश्यकता होती है।

४. सुबह जल्दी उठकर अपनी पत्नी के साथ पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठकर ओमकार गुंजन-जप-ध्यान-श्वासोश्वास की गिनती, प्रार्थना आदि करे सत्संग सुनना चाहिए।

५. गर्भ की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए पत्नी को किसी देव मंदिर, संत-महापुरुष के आश्रम अथवा गौशाला आदि पवित्र एवं उच्च आध्यात्मिक स्पंदनों से युक्त वातावरण में लेकर जाना चाहिए।

६. गर्भस्थ शिशु के साथ गर्भसंवाद (वार्तालाप) कर उसे उदार, संयमी, सदाचारी, गुणवान व महान बनने की शिक्षा देनी चाहिए । रात को भोजन आदि के बाद अपनी पत्नी के साथ बैठकर सुने हुए सत्संग पर चर्चा अथवा ज्ञानवर्धक वार्ता करनी चाहिए।

७. अपनी पत्नी के साथ–साथ गर्भस्थ शिशु को भी कोई आध्यात्मिक सत्शास्त्र (श्रीमदभागवद, रामायण, रामचरितमानस, अष्टावक्र गीता, संतों-महापुरुषों के जीवन चरित आदि) प्रतिदिन पढ़कर सुनाना चाहिए। 

८. जन्म लेने से पहले गर्भ में रहते हुए शिशु जो-जो आवाजें सुनता है, जल्दी पहचानता है। इसलिए वह सबसे पहले माँ की आवाज पहचानता है। अगर पिता भी प्रतिदिन गर्भस्थ शिशु के साथ बात करे तो वो जन्म के बाद पिता की भी आवाज पहचान सकता है।

९. गर्भावस्था के दौरान पति को अपना काम खुद ही करना शुरू कर देना चाहिए। ऐसा करने से पत्नी का तनाव कम होता है। आगे चलकर प्रसव के बाद पिता का यह स्वावलंबन बहुत काम आता है।

१०. प्रसव की तैयारी में पत्नी का सहयोग करना चाहिए। प्रसव के समय भी यथासंभव पत्नी के साथ रहना चाहिए।

११. गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद माता के पूरी तरह से स्वस्थ होने तक पत्नी से संसार व्यवहार के लिये आग्रह न करना चाहिए।

१२. किसी भी तरह का व्यसन जैसे बीड़ी-सिगरेट-तम्बाकू आदि का सेवन बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।

१३. पिता की जिम्मेदारी यहीं पर खत्म नहीं होती। माँ का अगर ऑपरेशन हुआ हो तो टांकों की वजह से उसे चलने-फिरने में असुविधा होती है, ऐसे समय में पिता बच्चे को उठाकर माँ को देना-लेना, उसके गीले कपड़े बदलना, यह काम खुशी से करे तो माँ का तनाव कम होता है और माँ को प्रसव की थकान चली जाती है।

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गर्भिणी पर टेलीविजन के घातक प्रभाव

गर्भिणी पर टेलीविजन के घातक प्रभाव

 

गर्भावस्था में माँ देखने–सुनने-सोचने से लेकर अपने प्रत्येक क्रियाकलाप से गर्भ को संस्कार देती है । इतिहास साक्षी है कि माताओं ने अपनी इसी देखने-सुनने, सोचने-समझने की क्षमता का सदुपयोग करके अपने बच्चों को महान आत्मा बना दिया लेकिन आज अज्ञानतावश इन क्षमताओं का दुरुपयोग हो रहा है जिसका विभीत्स प्रभाव बच्चों के जीवन में स्पष्टत: परिलक्षित होता है ।

आज के आधुनिक युग में घर-घर में टी.वी. का होना सामान्य बात है । अगर यूँ भी कहें कि हर कमरे में अलग-अलग टी.वी. होता है तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । क्षणिक मनोरंजन के भ्रम में टी.वी. से कितना नुकसान हो रहा है, यह शायद हम भूल रहे हैं । जनसाधारण के लिए तो यह खतरनाक है ही; परन्तु गर्भवती बहनों के लिए यह और भी अधिक हानिकारक है । अतः यदि आप गर्भवती हैं तो टी.वी. से जितने दूर रहें, उतना अच्छा है ।

टेलीविजन पर प्रसारित अधिकतर कार्यक्रम राग-द्वेष, निंदा-चुगली, छल-कपट, अश्लीलता, मार-धाड़, खून-खराबा, बलात्कार आदि से घटनाओं पर आधारित होते हैं । जब गर्भवती इन्हें देखती है तो गर्भस्थ शिशु में अपराध की भावना पनपती है । गर्भस्थ शिशु में चित्त में अनजाने में गंदे और कुत्सित संस्कार गहरे पड़ जाते हैं । गर्भस्थ शिशु की प्रत्येक संवेदना पर उक्त दृश्यों और शब्दों का गहरा असर पड़ता है ।

यह जानते हुए भी कि फिल्मों और सीरियलों में दिखाए जानेवाले सभी किरदार काल्पनिक होते हैं और उनकी भावनाएं अभिनयमात्र हैं फिर भी दर्शक उन किरदारों से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं, खासकर बहनें । फिर माँ की वो भावनाएं गर्भस्थ शिशु को भी प्रभावित करती हैं । 

टी.वी. में दिखाये जानेवाले फास्टफूड, कोल्डड्रिंक्स और दवाओं आदि के विज्ञापनों से प्रभावित होकर गर्भवती माता उनका सेवन करने लगती है, जिससे उनका पाचन खराब होता है परिणामस्वरूप सगर्भा का स्वास्थ्य बिगड़ता है जिसका सीधा कुप्रभाव गर्भ पर पड़ता है ।

अँधेरे कमरे में टी.वी. देखने से उसके पर्दे पर आते-जाते दृश्यों के साथ प्रकाश भी कम-ज्यादा होता रहता है, आँखें उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाती, जिससे आगे चलकर नेत्ररोग हो जाते हैं जो अनुवांशिक रूप से बच्चों में स्थान्तरित होते हैं । टी.वी. से निकलनेवाली लेजर किरणें दृष्टिदोष तो पैदा करती ही हैं साथ ही में आनेवाली संतान को मंदमति, विकलांग बना सकती हैं । अधिक टी.वी. देखने से हमारी सोच का दायरा भी सीमित हो जाता है, मस्तिष्क में नए विचार नहीं आते । 

गर्भवती माता जितना समय टी.वी. सीरियल और फ़िल्में देखने में लगाती है, उतना समय यदि रामायण पढ़ने, भगवद्गीता के श्लो‌कों का संगीतमय वाचन करने, भक्तिमय प्रेममय भजन गाने, शास्त्रीय संगीत का श्रवण करने, सुन्दर देवालयों, मंदिरों, आश्रमों का भ्रमण करने, सत्संग करने और गौसेवा व गुरुसेवा करने में लगाती है उसके गर्भ से एक स्वस्थ, पवित्रहृदयी और दिव्यात्मा का अवतरण होगा ।

गर्भवती माता अपने मन को समझाकर स्वयं को टेलीविजन कार्यक्रम देखने से बचाए और यदि देखना हो तो चयनित सुसंस्कारोंवाले कार्यक्रम देखे वो भी कम से कम 3 मीटर की दूरी से । अपने और अपने शिशु के चरित्र को अपवित्र होने से बचाये । अब निर्णय आपके हाथों में है कि आपको अपने शिशु का भविष्य उज्जवल बनाना है या उसके मन मस्तिष्क को कलुषित करके उसे अंधकारमय गर्त में धकेल देना है ?

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प्लास्टिक बोतल में दूध ?

प्लास्टिक बोतल में दूध ???

कहा जाता है कि शिशु को जन्म के बाद छह महीने तक केवल माँ का दूध ही पिलाना चाहिए । एक नवजात शिशु के लिए माँ का दूध अमृत के समान होता है । लेकिन जैसे-जैसे बच्चा थोड़ा बड़ा होने लगता है, उसे माँ के दूध के साथ-साथ बाहर का (गाय/भैंस का) दूध भी दिया जाता है । पहले के समय में बच्चों को कटोरी और चम्मच से दूध पिलाया जाता था लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ-साथ कटोरी-चम्मच का स्थान प्लास्टिक की बोतलों ने ले लिया है । इससे दूध पिलाने में भी सुविधा होती है और गिरने-बिखरने का डर भी नहीं रहता । प्लास्टिक की बोतलें मार्केट में आसानी से मिल भी जाती हैं, सस्ती भी होती हैं और इनके टूटने-फूटने का खतरा भी नहीं रहता । इसलिए आज वर्किंग वुमेन हो या हाउस वाइफ, सभी अपने छोटे बच्चों को दूध पिलाने के लिए इन्हीं बोतलों का प्रयोग करती हैं । लेकिन क्या आप जानते हैं कि प्लास्टिक की बोतल से दूध पिलाना आपके बच्चे की सेहत के लिए कितना हानिकारक हो सकता है !

आइए जानते हैं कैसे ?

बच्चों को दूध पिलाने के लिए उपयोग की जानेवाली प्लास्टिक की बोतलें बनाने के लिए बिसफेनोल ए (बीपीए) नाम के केमिकल का प्रयोग होता है जो एक प्रतिबंधित रसायन है । बी.पी.ए. का इस्तेमाल प्लास्टिक को ठोस बनाने के लिए किया जाता है । एक शोध के अनुसार, प्लास्टिक की बोतल में गर्म दूध डालने पर उसमें मौजूद केमिकल्स दूध में मिल जाते हैं जिससे बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ता है । यह शरीर में कैंसर पैदा करने के साथ ही श्वसन तंत्र के विकास को भी प्रभावित करता है । इससे पाचन शक्ति कमजोर होती है और आपके शिशु को उल्टी, दस्त, बुखार और कब्ज जैसी समस्याएं हो सकती हैं । प्लास्टिक की बोतल से दूध पिलाने से बच्चे का शरीर कमजोर हो जाता है और उसके वजन में भी कमी आ सकती है । इसके अलावा प्लास्टिक की बोतल में मौजूद हानिकारक केमिकल्स से आपके बच्चे को इन्फेक्शन होने का खतरा भी रहता है । प्लास्टिक की बोतल में दूध पिलाने से बच्चे के मस्तिष्क पर भी नकारात्मक प्रभाव हो सकता है ।

बोतल से दूध पिलाने के निम्नलिखित नुकसान भी देखे जाते हैं :

  • बोतल से दूध पिलाने से बच्चा आवश्यकता से अधिक दूध का सेवन कर सकता है ।
  • दूध की बोतल को ठीक से साफ नहीं किया गया तो बोतल में जमे बैक्टीरिया बच्चे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं और शारीरिक रोगों का कारण बन सकते हैं ।
  • स्तनपान कराने से माँ और शिशु में आपसी प्रेम और स्नेह पैदा होता है, वहीं बोतल से दूध पिलाने से ऐसे भाव बनना संभव नहीं ।
  • आवश्यकता पड़ने पर बच्चे को तुरंत स्तनपान कराया जा सकता है, लेकिन बोतल से दूध पिलाने से पहले दूध को तैयार करना पड़ता है ।

ऐसे में क्या करें ???

आप मार्केट से ‘बीपीए फ्री’ प्लास्टिक की बोतल ही खरीदें । फिर भी प्लास्टिक के बजाय काँच या स्टील की बोतल एक बेहतर विकल्प हो सकता है । इसके अलावा इसके अलावा बच्चे को दूध देने से पहले बोतल और निप्पल को गर्म पानी और साबुन से अच्छी तरह से धोएं । बोत्तल और निप्पल को कुछ महीने में बदलते रहें । लेकिन कोशिश करें कि दूध पिलाने के लिए कटोरी-चम्मच का ही उपयोग करें । 

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ये मोबाइल नहीं; बीमारियों का घर है…

ये मोबाइल नहीं; बीमारियों का घर है...

आधुनिक विज्ञान की यह विशेषता है कि वह अपने हर नये आविष्कार के साथ पहले सुविधाओं का पॅकेजभेजता है, जिसका लाभ लेनेवालों को पीछे से मुफ्त में मिलता है घातक दुष्परिणामों का पॅकेज । मोबाइल फोन भी इस बात से अछूता नहीं हैयह सिद्ध कर रहे हैं आज के वैज्ञानिक ।

आधुनिक विज्ञान कह रहा है -

अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से प्रमाणित हो चुका है कि मोबाइल से प्रसारित विद्युत-चुंबकीय विकिरण शरीर में न केवल हानिकारक उष्णता पैदा करते हैं बल्कि इनसे कैंसर, मस्तिष्क ट्यूमर, नपुंसकता, आनुवांशिक विकृतियाँ, अनिद्रा, याददाश्त में कमी, सिरदर्द आदि अनेक भयानक रोग भी होते हैं ।

स्वीडन के डॉ. जोनास हार्डेल ने मस्तिष्क-ट्यूमर के १६१७ रोगियों की जाँच से पाया कि कैंसर का खतरा उसी पैमाने में बढ़ता है जितनी तीव्रता से (प्रतिदिन जितना समय) मोबाइल का उपयोग किया जाता है । श्रवण से संबंधित नस में ट्यूमर होने का खतरा भी ३०% बढ़ जाता है जिससे स्थायी बहरापन हो सकता है ।

फिनलैंड की शोध संस्था ‘रेडिएशन एण्ड न्यूक्लियर सेफ्टी अथॉरिटी’ ने पाया कि मस्तिष्क के जिस ओर (दायें-बायें) मोबाइल सटाकर प्रयोग किया जाता है, उस तरफ मस्तिष्क-कैंसर होने की संभावना ३९% बढ़ जाती है

‘यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन’ के शोधकर्ताओं ने चूहों पर प्रयोग किया व देखा कि मोबाइल की तरंगों से उनकी प्रजनन-क्षमता इतनी प्रभावित हो जाती है कि करीब पाँच पीढ़ियों बाद वह पूरी तरह नष्ट हो जाती है ।

ऑस्ट्रेलिया की ‘मेलबोर्न यूनिवर्सिटी’ के शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुँचे कि मोबाइल व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से प्रसारित विद्युत-चुंबकीय तरंगों की सघनता से इन तरंगों की अदृश्य धुंध उत्पन्न होती है, जिससे मानसिक अवसाद एवं उच्च रक्तचाप होकर परिणामस्वरूप ऐसे क्षेत्र में आत्महत्या की दर में वृद्धि हो सकती है ।

इजराईल के डॉ. सीगाल सादेत्स्की के अनुसार मोबाइल के प्रयोग से लार ग्रंथी में कैंसर होने की संभावना ५० से ५८% बढ़ जाती है । शोध में यह भी बताया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल के इस्तेमाल से स्वास्थ्य को अधिक खतरा है क्योंकि आसपास में कम एंटीना होने के कारण मोबाइल से प्रसारित तरंगें अधिक शक्तिशाली होती हैं ।

मोबाइल से सर्वाधिक खतरा है बच्चों को । स्वीडन में हुए शोध से स्पष्ट हुआ कि २० वर्ष की उम्र से पूर्व ही इसका प्रयोग शुरू करनेवालों को मस्तिष्क कैंसर का सर्वाधिक खतरा है

आपका समय, आपका जीवन अनलिमिटेड नहीं है...

‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ को भूलकर मोबाइल के अमर्यादित इस्तेमाल से सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं । अधिकांश समय मोबाइल पर की जानेवाली बातें इतनी आवश्यक नहीं होतीं कि उनके लिए घर या ऑफिस पहुँचने का इंतजार न किया जा सके । आज के तनावग्रस्त जीवन के लिए मोबाइल काफी जिम्मेदार है । विश्रांति या आत्मचिंतन का समय तो मोबाइल खा जाता है । मोबाइल ने निजी व व्यावसायिक जीवन का अंतर लगभग समाप्त कर दिया है ।

कहते हैं यह लोगों में दूरियाँ मिटाता है पर देखने में तो इसके विपरीत ही आता है । आज घर में हर सदस्य के पास एक या एक से अधिक मोबाइल है । व्यक्ति मोबाइल पर तो घंटों बातें करता है पर अपने निकट बैठे व्यक्ति को पलक उठाकर देखता तक नहीं । मोबाइल हाथ में आते ही व्यक्ति अपनी ही दुनिया में खो जाता है । बतलाइये, इससे मनुष्य-मनुष्य में फासला बढ़ा या घटा ? कार या स्कूटर चलाते हुए मोबाइल का इस्तेमाल कर कइयों ने तो अपने कुटुम्बियों से हमेशा के लिए फासला बना लिया !

बच्चों के स्वास्थ्य एवं अध्ययन में व्यवधान आने से कई शिक्षा बोर्डों व शिक्षण संस्थाओं ने मोबाइल के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है ।

मोबाइल कंपनियाँ कुछ समय ‘आउटगोइंग फ्री’ या ‘इनकमिंग फ्री’ देती हैं लेकिन बोलने में आपकी ओजशक्ति कितनी खर्च होती है, आपका अमूल्य समय कितना बर्बाद होता है और मोबाइल से आपके स्वास्थ्य की कितनी भारी हानि होती है ? यह बात भी सोचो । अन्यथा आउटगोइंग फ्री या इनकमिंग फ्री की भ्रांति में फँसकर आप अपना भारी घाटा कर बैठोगे । जिसकी पूर्ति किसी भी धन से नहीं हो पायेगी ।

मोबाइल के विज्ञापनों में अक्सर आता है : ‘सिर्फ इतने पैसे भरो और अनलिमिटेड बात करो ।’ पर याद रखिये आपका समय, आपका जीवन अनलिमिटेड नहीं है । अंतिम घड़ी में एक श्वास भी आप अधिक नहीं ले सकते । एक शब्द भी अधिक नहीं बोल सकते, भले ही आपके सिरहाने मोबाइलों का ढेर लगा हो । आपके जीवन का क्षण-क्षण कीमती है और ईश्वर की प्राप्ति के लिए है । अपने कीमती समय को कीमती-में-कीमती परमात्मा के भजन-सुमिरन, सत्संग, सत्कर्म में लगायें; मोबाइल की मुसीबतों में न उलझें ।

"मोबाइल फोन का उपयोग ऐसे करो जैसे शौचालय का..."

एक अनुसन्धान के अनुसार, मोबाइल से निकलनेवाली रेडिएशन कोशिकाओं में स्थित डीएनए (DNA) को हानि  पहुँचाती हैं, साथ ही इनसे शुक्राणुओं की संख्या भी कम होती है । गर्भावस्था में मोबाइल के अधिक उपयोग से शिशु में चंचलता बढ़ती है । मोबाइल की किरणें गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास में बाधक बनती हैं ।

कई संशोधन से यह सिद्ध हुआ है कि मोबाइल फोन से निकलनेवाले Radio frequency radiations गर्भस्थ शिशु में तंत्रिका विकासात्मक विकार (Neuro Developmental Disorder) उत्पन्न करते हैं । इससे बालकों की ग्रहण-शक्ति, स्मृति-शक्ति, आत्मनियंत्रण की क्षमता का ह्रास होता है व भावनात्मक विकास अवरुद्ध होता है । अनुसंधानकर्ता डॉ. बोरिस पेट्रिक वास्को ने संशोधन में पाया कि मोबाइल फोन की ध्वनि व स्पंदन (Vibrations) से गर्भस्थ शिशु कई बार चौंक कर जग जाते है, इससे उनकी नींद मे बाधा उत्पन्न होती है । फोन की आवाज से शिशु घबराकर सिर घुमाते हैं, मुँह खोलते हैं अथवा आँखें झपकाते हैं ।

डॉ. बोरिस कहते हैं कि यह उपकरण बालक से जितना दूर रखेंगे, उतना इसकी दुष्प्रभाव कम होगा । दिव्य संतान की इच्छा रखनेवाले माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे गर्भस्थ शिशु की हर हानिकारक वस्तु से रक्षा करें । जरा-सी लापरवाही आपकी संतान की आयु, बल, बुद्धि की हानि का निमित्त हो सकती है ।

अब प्रश्न उठता है कि क्या गर्भवती बहनों को मोबाईल का प्रयोग नहीं करना चाहिए ?

परम पूज्य बापूजी का स्पष्ट संदेश है कि “मोबाइल फोन का उपयोग ऐसे करो जैसे शौचालय का…” आवश्यकता पड़ने पर उपयोग किया फिर तुरंत शरीर से दूर रख दिया । जितना हो सके लेंडलाइन फोनों का प्रयोग करें । मोबाइल पर बात करते समय मोबाइल मस्तिष्क के अधिक निकट (कान के पास) ना पकड़ें । यथासंभव स्पीकर का उपयोग करें या फिर earphone का प्रयोग करें । अपनी बात को कम-से-कम शब्दों में पूरा करने का प्रयास करें । अँधेरे में मोबाइल फोन का उपयोग न करें ।  

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भोजन पात्र विवेक क्यों है जरुरी ?

भोजन पात्र विवेक

भोजन को शुद्ध, पौष्टिक, हितकर व सात्त्विक बनाने के लिए हम जितना ध्यान देते हैं उतना ही ध्यान हमें भोजन बनाने के बर्तनों पर देना भी आवश्यक है। भोजन जिन बर्तनों में पकाया जाता है उन बर्तनों के गुण अथवा दोष भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। अतः भोजन किस प्रकार के बर्तनों में बनाना चाहिए अथवा किस प्रकार के बर्तनों में भोजन करना चाहिए, इसके लिए भी शास्त्रों ने निर्देश दिये हैं। भोजन करने का पात्र सुवर्ण का हो तो आयुष्य को टिकाये रखता है, आँखों का तेज बढ़ता है।चाँदी के बर्तन में भोजन करने से आँखों की शक्ति बढ़ती है, पित्त, वायु तथा कफ नियंत्रित रहते हैं। काँसे के बर्तन में भोजन करने से बुद्धि बढ़ती है, रक्त शुद्ध होता है।

पत्थर या मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने से लक्ष्मी का क्षय होता है। लकड़ी के बर्तन में भोजन करने से भोजन के प्रति रूचि बढ़ती है तथा कफ का नाश होता है। पत्तों से बनी पत्तल में किया हुआ भोजन, भोजन में रूचि उत्पन्न करता है, जठराग्नि को प्रज्जवलित करता है, जहर तथा पाप का नाश करता है।

भोजन-पात्र विवेक क्यों है जरुरी?

पानी पीने के लिए ताम्र पात्र उत्तम है। यह उपलब्ध न हों तो मिट्टी का पात्र भी हितकारी है।पेय पदार्थ चाँदी के बर्तन में लेना हितकारी है लेकिन लस्सी आदि खट्टे पदार्थ न लें।लोहे के बर्तन में भोजन पकाने से शरीर में सूजन तथा पीलापन नहीं रहता, शक्ति बढ़ती है और पीलिया के रोग में फायदा होता है। लोहे की कढ़ाई में सब्जी बनाना तथा लोहे के तवे पर रोटी सेंकना हितकारी है परंतु लोहे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए इससे बुद्धि का नाश होता है।स्टेनलेस स्टील के बर्तन में बुद्धिनाश का दोष नहीं माना जाता है। सुवर्ण, काँसा, कलई किया हुआ पीतल का बर्तन हितकारी है।एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें।केला, पलाश, तथा बड़ के पत्र रूचि उद्दीपक, विषदोषनाशक तथा अग्निप्रदीपक होते हैं। अतः इनका उपयोग भी हितावह है।पानी पीने के पात्र के विषय में भावप्रकाश ग्रंथ‘ में लिखा है।पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। सम्भव हो तो वैङूर्यरत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें। इनके अभाव में मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए ।  

 

सोना

सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।

 

चाँदी

चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।

 

कांसा

काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

 

 

 

तांबा

तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।

 

पीतल

पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।


लोहा

लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से शरीर की शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है. लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।

 

स्टील

स्टील के बर्तन नुक्सान दायक नहीं होते क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसलिए नुक्सान नहीं होता है. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुँचता तो नुक्सान भी नहीं पहुँचता।

 

 

एलुमिनियम

एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम के प्रेशर कूकर से खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।

 

मिट्टी

मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त हैमिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।

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प्रेग्नेंसी में स्मोकिंग से होता है भारी नुकसान

प्रेग्नेंसी में स्मोकिंग से होता है भारी नुकसान

यदि आपकी धर्मपत्नी के गर्भ में एक नन्हीं-सी जान पल रही है, और ऐसे में भी आप उसके आसपास या घर में धुम्रपान कर रहे हैं तो सावधान ! आपकी यह लत न सिर्फ आपके और आपकी गर्भवती पत्नी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के लिए भी घातक है ।

बीड़ी-सिगरेट के धुएँ के संपर्क में आने से कई खतरनाक रसायन फेफड़े के माध्यम से शरीर में पहुँच जाते हैं तथा बच्चे को क्षति पहुँचाते हैं । कुछ अन्य रसायन गर्भ तक ले जानेवाली नलियों को सिकोड़कर छोटा कर देते हैं । कई बार तो धुएँ के कारण blood  circulation सही ढंग से नहीं होने से lungs और heart तक ब्लड नहीं पहुँच पाता । प्लेसेंटा में भी ब्लड नहीं पहुँचने से प्लेसेंटा develop नहीं हो पाता है और बच्चे का आकार छोटा और वजन कम रह जाता है जिससे pre-mature delivery का risk बढ़ जाता है ।

यह धुआँ आपके बच्चे की देखने और सुनने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकता है । धूम्रपान के कारण गर्भ में पल रहे बच्चे के हृदय को धड़कने के लिए ज्यादा श्रम करना पड़ता है । इतना ही नहीं, मानसिक विकलांगता, Cerebral palsy और Sudden Death Syndrome (अकस्मात शिशु मृत्यु सिंड्रोम) का खतरा भी बढ़ जाता है । प्रारंभिक महीनों में धुम्रपान के धुंएँ के कारण गर्भपात, ectopic pregnancy (अस्थानिक गर्भावस्था), Placental Abruption की सम्भावना बढ़ जाती हैं ।

बीड़ी-सिगरेट में निकोटिन, कार्बन मोनोऑक्साइड और टार नामक हानिकारक रसायन होते हैं जो neurological development में बाधा, endocrine dysfunction और Oncogenesis जैसी समस्‍याओं का कारण बन सकते  हैं । ये रोग कभी-कभी जन्‍म के साथ ही तो कभी बचपन में देर से उत्‍पन्‍न होते हैं । प्रसव के बाद भी बच्चे के स्वास्थ्य पर धुएँ के नकारात्‍मक प्रभाव पड़ते हैं । जो माता-पिता धूम्रपान करते हैं, उनके बच्चों में पहले साल में ब्रोंकाईटिस (Bronchitis) और न्युमोनिया (Pneumonia) के आदि होने की शक्यता अधिक होती है । यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के शोधकर्ताओं ने बताया कि लगभग 700 केमिकल्स के कॉकटेल वाला सिगरेट बच्चे के शरीर में लीवर के विकास के लिए बेहद हानिकारक है ।

गर्भधारण की तैयारी कर रहे दंपत्तियों को भी इस विषय में सजग रहना चाहिए क्योंकि पति के या ऑफिस में सहकर्मियों के स्मोकिंग करने से उत्पन्न होनेवाले धुएँ से महिला के गर्भवती होने की संभावना कम हो सकती है । यह धुआँ न केवल ओवरीज, बल्कि एंडोमेट्रियल लाइनिंग को भी प्रभावित करता है, जिससे महिलाओं की फर्टिलिटी की क्षमता प्रभावित होती है । इस धुएँ में वे सभी कैंसरकारक और जहरीले पदार्थ होते हैं, जो कोई स्मोकर सीधे तौर पर लेता है । सिगरेट के धुएँ के विभिन्‍न उत्‍पाद, जैसे बेंजो पायरीन, कैडमियम और निकोटिन का मैटाबोलाइट कोटिनाइन अंडाशय के कोष तक पहुँच जाते हैं और अंडे के निषेचन की क्षमता को कम करते हैं । पुरुषों में पैसिव स्‍मोकिंग से शुक्राणुओं के डी.एन.ए. को क्षति होती है, जिससे न केवल इनफर्टिलिटी होती है, बल्कि संभावित शिशु बननेवाले भ्रूण में Epigenetics changes भी होते हैं ।

वो परिजन जो बच्चों की उपस्थिति में बीड़ी-सिगरेट आदि पीते हैं, उनके बच्चों की रक्त नलिकाओं की दीवारें मोटी होने लगती हैं जिससे भविष्य में हृदय रोग की संभावना बढ़ जाती है । घर में किये जानेवाले धूम्रपान के धुएँ से अवयस्क बच्चों को अत्यधिक हानि पहुँचती है । ब्रिटेन में वैज्ञानिकों के एक दल ने ऐसे 315 घरों का अध्ययन किया जहाँ पर धूम्रपान किया जाता था उन्होंने पाया कि धूम्रपान का शिशुओं के स्वास्थ्य पर बड़ा भारी दुष्प्रभाव पड़ता है । उनके मूत्र में निकोटिन का सह-उत्पाद कोटनाइन पाया गया यह कोटनाइन असमय ही बच्चों के लिंग पर दबाव डालने लगता है, जिससे बच्चों की प्रवृत्ति कामुक बनती जाती है ।

इसलिए धूम्रपान करनेवालों से अनुरोध है कि वे कम-से कम अपने बच्चों के स्वास्थ्य एवं चारित्र्य की रक्षा की खातिर तो धूम्रपान छोड़ दें ।

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माँ अंजना : एक आदर्श माता

माता अंजना

माँ अंजना ने तप करके हनुमान जैसे पुत्र को पाया था । वे हनुमानजी में बाल्यकाल से ही भगवदभक्ति के संस्कार डाला करती थीं, जिसके फलस्वरूप हनुमानजी में श्रीराम-भक्ति का प्रादुर्भाव हो गया । आगे चलकर वे प्रभु के अनन्य सेवक के रूप में प्रख्यात हुए – यह तो सभी जानते हैं ।

भगवान श्री राम रावण का वध करके माँ सीता, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, जांबवत आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे । मार्ग में हनुमान जी ने श्रीरामजी से अपनी माँ के दर्शन की आज्ञा माँगी कि “प्रभु ! अगर आप आज्ञा दें तो मैं माता जी के चरणों में मत्था टेक आऊँ ।”

श्रीराम ने कहाः “हनुमान ! क्या वे केवल तुम्हारी ही माता हैं ? क्या वे मेरी और लखन की माता नहीं हैं ? चलो, हम भी चलते हैं ।”

पुष्पक विमान किष्किंधा से अयोध्या जाते-जाते कांचनगिरि की ओर चल पड़ा और कांचनगिरी पर्वत पर उतरा । श्रीरामजी स्वयं सबके साथ माँ अंजना के दर्शन के लिए गये ।

हनुमानजी ने दौड़कर गदगद कंठ एवं अश्रुपूरित नेत्रों से माँ को प्रणाम किया । वर्षों बाद पुत्र को अपने पास पाकर माँ अंजना अत्यंत हर्षित होकर हनुमान का मस्तक सहलाने लगीं ।

माँ का हृदय कितना बरसता है यह बेटे को कम ही पता होता है । माता-पिता का दिल तो माता-पिता ही जानें !

माँ अंजना ने पुत्र को हृदय से लगा लिया । हनुमान जी ने माँ को अपने साथ ये लोगों का परिचय दिया कि ‘माँ ! ये श्रीरामचन्द्रजी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं । ये जांबवंत जी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं । ये जांबवत जी हैं…. आदि आदि ।

भगवान श्रीराम को देखकर माँ अंजना उन्हें प्रणाम करने जा ही रही थीं कि श्रीरामजी ने कहाः “माँ ! मैं दशरथपुत्र राम आपको प्रणाम करता हूँ ।”

माँ सीता व लक्ष्मण सहित बाकी के सब लोगों ने भी उनको प्रणाम किया । माँ अंजना का हृदय भर आया । उन्होंने गदगद कंठ एवं सजल नेत्रों से हनुमान जी से कहाः “बेटा हनुमान ! आज मेरा जन्म सफल हुआ । मेरा माँ कहलाना सफल हुआ । मेरा दूध तूने सार्थक किया । बेटा ! लोग कहते हैं कि माँ के ऋण से बेटा कभी उऋण नहीं हो सकता लेकिन मेरे हनुमान ! तू मेरे ऋण से उऋण हो गया । तू तो मुझे माँ कहता ही है किंतु आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी मुझे ‘माँ’ कहा है ! अब मैं केवल तुम्हारी ही माँ नहीं, श्रीराम, लखन, शत्रुघ्न और भरत की भी माँ हो गयी, इन असंख्य पराक्रमी वानर-भालुओं की भी माँ हो गयी । मेरी कोख सार्थक हो गयी । पुत्र हो तो तेरे जैसा हो जिसने अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया और जिसके कारण स्वयं प्रभु ने मेरे यहाँ पधार कर मुझे कृतार्थ किया ।”

हनुमानजी ने फिर से अपनी माँ के श्रीचरणों में मत्था टेका और हाथ जोड़ते हुए कहाः “माँ ! प्रभु जी का राज्याभिषेक होनेवाला था परंतु मंथरा ने कैकेयी को उलटी सलाह दी, जिससे प्रभुजी को 14 वर्ष का बनवास एवं भरत को राजगद्दी मिली राजगद्दी अस्वीकार करके भरतजी उसे श्रीरामजी को लौटाने के लिए आये लेकिन पिता के मनोरथ को सिद्ध करने के लिए भाव से प्रभु अयोध्या वापस न लौटे ।

माँ ! दुष्ट रावण की बहन शूर्पणखा प्रभुजी से विवाह के लिए आग्रह करने लगी किंतु प्रभुजी उसकी बातों में नहीं आये, लखन जी भी नहीं आये और लखन जी ने शूर्पणखा के नाक कान काटकर उसे दे दिये । अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए दुष्ट रावण ब्राह्मण का रूप लेकर माँ सीता को हरकर ले गया ।

करूणानिधान प्रभु की आज्ञा पाकर मैं लंका गया और अशोक वाटिका में बैठी हुई माँ सीता का पता लगाया तथा उनकी खबर प्रभु को दी । फिर प्रभु ने समुद्र पर पुल बँधवाया और वानर-भालुओं को साथ लेकर राक्षसों का वध किया और विभीषण को लंका का राज्य देकर प्रभु माँ सीता एवं लखन के साथ अयोध्या पधार रहे हैं ।”

अचानक माँ अंजना कोपायमान हो उठीं । उन्होंने हनुमान को धक्का मार दिया और क्रोधसहित कहाः “हट जा, मेरे सामने । तूने व्यर्थ ही मेरी कोख से जन्म लिया । मैंने तुझे व्यर्थ ही अपना दूध पिलाया । तूने मेरे दूध को लजाया है । तू मुझे मुँह दिखाने क्यों आया ?”

श्रीराम, लखन भैयासहित अन्य सभी आश्चर्यचकति हो उठे कि माँ को अचानक क्या हो गया ? वे सहसा कुपित क्यों हो उठीं ? अभी-अभी ही तो कह रही थीं कि ‘मेरे पुत्र के कारण मेरी कोख पावन हो गयी…. इसके कारण मुझे प्रभु के दर्शन हो गये….’ और सहसा इन्हें क्या हो गया जो कहने लगीं कि ‘तूने मेरा दूध लजाया है ।’

हनुमानजी हाथ जोड़े चुपचाप माता की ओर देख रहे थे । सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयो पिता…. माता सब तीर्थों की प्रतिनिधि है । माता भले बेटे को जरा रोक-टोक दे लेकिन बेटे को चाहिए कि नतमस्तक होकर माँ के कड़वे वचन भी सुन लें । हनुमान जी के जीवन से यह शिक्षा अगर आज के बेटे-बेटियाँ ले लें तो वे कितने महान हो सकते हैं !

माँ की इतनी बातें सुनते हुए भी हनुमानजी नतमस्तक हैं । वे ऐसा नहीं कहते कि ‘ऐ बुढ़िया ! इतने सारे लोगों के सामने तू मेरी इज्जत को मिट्टी में मिलाती है ? मैं तो यह चला….’

आज का कोई बेटा होता तो ऐसा कर सकता था किंतु हनुमानजी को तो मैं फिर-फिर से प्रणाम करता हूँ । आज के युवान-युवतियाँ हनुमानजी से सीख ले सकें तो कितना अच्छा हो ?

मेरे जीवन में मेरे माता-पिता के आशीर्वाद और मेरे गुरुदेव की कृपा ने क्या-क्या दिया है उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता हूँ । और भी कइयों के जीवन में मैंने देखा है कि जिन्होंने अपनी माता के दिल को जीता है, पिता के दिल की दुआ पायी है और सदगुरु के हृदय से कुछ पा लिया है उनके लिए त्रिलोकी में कुछ भी पाना कठिन नहीं रहा । सदगुरु तथा माता-पिता के भक्त स्वर्ग के सुख को भी तुच्छ मानकर परमात्म-साक्षात्कार की योग्यता पा लेते हैं ।

माँ अंजना कहे जा रही थीं- “तुझे और तेरे बल पराक्रम को धिक्कार है । तू मेरा पुत्र कहलाने के लायक ही नहीं है । मेरा दूध पीने वाले पुत्र ने प्रभु को श्रम दिया ? अरे, रावण को लंकासहित समुद्र में डालने में तू समर्थ था । तेरे जीवित रहते हुए भी परम प्रभु को सेतु-बंधन और राक्षसों से युद्ध करने का कष्ट उठाना पड़ा । तूने मेरा दूध लज्जित कर दिया । धिक्कार है तुझे ! अब तू मुझे अपना मुँह मत दिखाना ।”

हनुमानजी सिर झुकाते हुए कहाः “माँ ! तुम्हारा दूध इस बालक ने नहीं लजाया है । माँ ! मुझे लंका भेजने वालों ने कहा था कि तुम केवल सीता की खबर लेकर आओगे और कुछ नहीं करोगे । अगर मैं इससे अधिक कुछ करता तो प्रभु का लीलाकार्य कैसे पूर्ण होता ? प्रभु के दर्शन दूसरों को कैसे मिलते ? माँ ! अगर मैं प्रभु-आज्ञा का उल्लंघन करता तो तुम्हारा दूध लजा जाता । मैंने प्रभु की आज्ञा का पालन किया है माँ ! मैंने तेरा दूध नहीं लजाया है ।”

तब जाबवंतजी ने कहाः “माँ ! क्षमा करें । हनुमानजी सत्य कह रहे हैं । हनुमानजी को आज्ञा थी कि सीताजी की खोज करके आओ । हम लोगों ने इनके सेवाकार्य बाँध रखे थे । अगर नहीं बाँधते तो प्रभु की दिव्य निगाहों से दैत्यों की मुक्ति कैसे होती ? प्रभु के दिव्य कार्य में अन्य वानरों को जुड़ने का अवसर कैसे मिलता ? दुष्ट रावण का उद्धार कैसे होता और प्रभु की निर्मल कीर्ति गा-गाकर लोग अपना दिल पावन कैसे करते ? माँ आपका लाल निर्बल नहीं है लेकिन प्रभु की अमर गाथा का विस्तार हो और लोग उसे गा-गाकर पवित्र हों, इसीलिए तुम्हारे पुत्र की सेवा की मर्यादा बँधी हुई थी ।”

श्रीरामजी ने कहाः “माँ ! तुम हनुमान की माँ हो और मेरी भी माँ हो । तुम्हारे इस सपूत ने तुम्हारा दूध नहीं लजाया है । माँ ! इसने तो केवल मेरी आज्ञा का पालन किया है, मर्यादा में रहते हुए सेवा की है । समुद्र में जब मैनाक पर्वत हनुमान को विश्राम देने के लिए उभर आया तब तुम्हारे ही सुत ने कहा था ।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।

मेरे कार्य को पूरा करने से पूर्व तो इसे विश्राम भी अच्छा नहीं लगता है । माँ ! तुम इसे क्षमा कर दो ।”

रघुनाथ जी के वचन सुनकर माता अंजना का क्रोध शांत हुआ । फिर माता ने कहाः

“अच्छा मेरे पुत्र ! मेरे वत्स ! मुझे इस बात का पता नहीं था । मेरा पुत्र, मर्यादा पुरुषोत्तम का सेवक मर्यादा से रहे – यह भी उचित ही है । तूने मेरा दूध नहीं लजाया है, वत्स !”

इस बीच माँ अंजना ने देख लिया कि लक्ष्मण के चेहरे पर कुछ रेखाएँ उभर रही हैं कि ‘अंजना माँ को इतना गर्व है अपने दूध पर ?’ माँ अंजना भी कम न थीं । वे तुरंत लक्ष्मण के मनोभावों को ताड़ गयीं ।

“लक्ष्मण ! तुम्हें लगता है कि मैं अपने दूध की अधिक सराहना कर रही हूँ, किंतु ऐसी बात नहीं है । तुम स्वयं ही देख लो ।” ऐसा कहकर माँ अंजना ने अपनी छाती को दबाकर दूध की धार सामनेवाले पर्वत पर फेंकी तो वह पर्वत दो टुकड़ों में बँट गया ! लक्ष्मण भैया देखते ही रह गये । फिर माँ ने लक्ष्मण से कहाः “मेरा यही दूध हनुमान ने पिया है । मेरा दूध कभी व्यर्थ नहीं जा सकता ।”

हनुमानजी ने पुनः माँ के चरणों में मत्था टेका । माँ अंजना ने आशीर्वाद देते हुए कहाः “बेटा ! सदा प्रभु को श्रीचरणों में रहना । तेरी माँ ये जनकनंदिनी ही हैं । तू सदा निष्कपट भाव से अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक परम प्रभु श्री राम एवं माँ सीताजी की सेवा करते रहना ।”

कैसी रही हैं भारत की नारियाँ, जिन्होंने हनुमानजी जैसे पुत्रों को जन्म ही नहीं दिया बल्कि अपनी शक्ति तथा अपने द्वारा दिये गये संस्कारों पर भी उनका अटल विश्वास रहा । आज की भारतीय नारियाँ इन आदर्श नारियों से प्रेरणा पाकर अपने बच्चों में हनुमानजी जैसे सदाचार, संयम आदि उत्तम संस्कारों का सिंचन करें तो वह दिन दूर नहीं, जिस दिन पूरे विश्व में भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति की दिव्य पताका पुनः लहरायेगी ।

 

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गर्भवती व गर्भस्थ शिशु के लिए अमृतमय वरदान – शरद पूर्णिमा

गर्भवती और गर्भस्थ शिशु के लिए अमृतमय वरदान : शरद पूर्णिमा

अश्विन मास की पूर्णिमा को ‘शरद पूर्णिमा’ कहते हैं जो इस वर्ष 28 अक्टूबर को है । शरद पूर्णिमा की रात को चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषकशक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है । यूँ तो बारहों महीने चन्द्रमा की चाँदनी गर्भ को और औषधियों को पुष्ट करती है, लेकिन शरद पूनम की चाँदनी का अपना विशेष महत्व है ।

शरद पूर्णिमा की रात को सगर्भा माता चन्द्रमा के दर्शन करती जाये और भावना करे कि ‘चन्द्रमा के रूप में साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा की रसमय, पुष्टिदायक रश्मियाँ आ रही हैं । मैं और मेरा गर्भस्थ शिशु उसमें विश्रांति पा रहे हैं । मन पावन हो रहा है, तन पुष्ट हो रहा है, ॐ शांति… ॐ आनंद…’ पहले होंठों से, फिर हृदय से जप करते-करते अपने गर्भस्थ शिशु के लिये शुभ संकल्प करे ।

सगर्भा माता महीन कपड़े से ढँककर चन्द्रमा की चाँदनी में रखी हुई खीर भगवान को भोग लगाकर प्रसादरूप में ग्रहण करे । लेकिन देर रात को खाते हैं, इसलिए थोड़ी कम खाए और थोड़ी बच जाये तो फ्रिज में रख देवे । सुबह गर्म करके खा सकते हैं । (खीर दूध, चावल, मिश्री, चाँदी, चन्द्रमा की चाँदनी – इन पंचश्वेतों से युक्त होती हैं, अतः सुबह बासी नहीं मानी जाती।)

पूर्णिमा को चन्द्रमा के विशेष प्रभाव से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है । जब चन्द्रमा समुद्र में उथल-पुथल कर उसे विशेष कम्पायमान कर देता है तो हमारे शरीर में जो जलीय अंश है, सप्तधातुएँ हैं, सप्तरंग हैं, उन पर भी चन्द्रमा का प्रभाव पड़ता है, इसमें क्या संदेह ? इन दिनों में अगर काम-विकार भोगा तो विकलांग संतान अथवा ला-ईलाज बीमारी हो जाती है ।

शरद पूर्णिमा के अवसर पर निम्न प्रयोग विशेष लाभकारी हैं –
दशहरे से शरद पूर्णिमा तक प्रतिदिन गर्भवती यदि 15 से 20 मिनट चन्द्रमा का त्राटक करे और सूई में धागा पिरोने का अभ्यास करे तो माता और गर्भस्थ शिशु की नेत्रज्योति बढ़ती है ।
यदि गर्भवती हल्के-फुल्के परिधान पहनकर शरद पूर्णिमा की चाँदनी में टहलती है तो चन्द्र-किरणें त्वचा के रोमकूपों में समा जाती हैं और बंद रोम-छिद्र प्राकृतिक ढंग से खुलते हैं जिससे गर्भस्थ शिशु की त्वचा भी सुंदर, कोमल और स्वस्थ बनती है ।
गर्भवती यदि शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि को चन्द्रमा की किरणों में महीन कपड़े से ढँककर रखी हुई दूध-चावल की खीर का सेवन करे तो माँ के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु भी पुष्ट होता है ।
सगर्भा शरद पूर्णिमा की रात खीर बनाकर चन्द्रमा की चाँदनी में रखे और भगवान को भोग लगाकर देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करे – ‘हे देव ! मेरे गर्भस्थ शिशु की सभी इन्द्रियों का बल-ओज बढ़े ।’ फिर वह खीर खा लें । यह प्रयोग करने से शिशु हृष्ट-पुष्ट होगा ।
शरद पूर्णिमा की रात दो पके सेवफल काटकर चाँदनी में रखने से उनमें चन्द्र किरणें और ओज के कण समा जाते हैं । सुबह खाली पेट सेवन करने से गर्भावस्था के दौरान होनेवाली कब्ज की तकलीफ में राहत मिलती है ।
गर्भवती बहनें नियमित सेवनीय खाद्य सामग्रियों (घी, आँवला, सूखे मेवे आदि) व औषधियों को भी चंद्रमा की किरणों में रखें जिससे ये सभी सामग्रियाँ अधिक बलवर्धक व दिव्य हो जाएँगी ।

विशेष लाभकारी प्रयोग

250 ग्राम दूध में 1-2 बादाम व 2-3 छुहारों के टुकड़े करके उबालें । फिर इस दूध को पतले सूती कपड़े से ढँककर चन्द्रमा की चाँदनी में 2-3 घंटे तक रख दें । यह दूध औषधिय गुणों से पुष्ट हो जायेगा । सुबह इस दूध को पी लें ।

शरद पूर्णिमा सगर्भा और गर्भस्थ शिशु दोनों के लिए अमृतमय वरदान है, इसका लाभ उठाना न भूलें ।

विशेष सूचना

लेकिन इस वर्ष शरद पूर्णिमा पर चंद्रग्रहण का योग भी बन रहा है । शरद पूर्णिमा यानि 28 अक्टूबर को भारत में लगनेवाला यह चंद्रग्रहण रात को 1 बजकर 06 मिनिट से शुरू होगा और रात 2 बजकर 22 मिनिट पर पूरा होगा । यूँ तो चंद्रग्रहण का सूतक 9 घंटे पहले से लग जाता है पर गर्भिणी बहनें और प्रसूता बहनें आवश्यकता लगने पर 4 घंटे पहले तक कुछ खा-पी सकती हैं । बस ध्यान रहे कि ग्रहण के दौरान शौचादि के लिए जाना न पड़े । इसलिए गर्भवती बहनें उपरोक्त प्रयोगों का लाभ चंद्रग्रहण की शुद्धि के बाद लें  

अन्य नियम हमारी नई वीडियो शरद पूर्णिमा vs चंद्रग्रहण में विस्तार से बताये गये हैं जो दिव्य शिशु गर्भ संस्कार के यू-ट्यूब चैनल पर उपलब्ध है । वीडियो देखने के लिए इस लिंक पर click करें : https://youtu.be/0Ll9rJQ0Phw

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रक्षा बंधन

वैदिक रक्षाबंधन

हमारे ऋषियों ने बहुत सूक्ष्मता से विचारा होगा कि मानवीय विकास की सम्भावनाएँ कितनी ऊँची हो सकती हैं और असावधानी रहे तो मानवीय पतन कितना निचले स्तर तक और गहरा हो सकता है । ऐसे रक्षाबन्धन महोत्सव को खोजनेवाले ऋषियों को प्रणाम है !

रक्षाबन्धन की पूर्णिमा को ‘नारियली पूनम’ भी कहते हैं । सामुद्रिक धंधा करनेवाले लोग सागर में इस भाव से नारियल अर्पण करते हैं कि ‘अगर आँधी-तूफान आये तो हमारी देह की बलि न चढ़े, इसलिए हम आपको यह बलि अर्पण कर देते हैं ।’

हम कोई शुभ कर्म करते हैं तो ब्राह्मण रक्षासूत्र हमारे दायें हाथ में बाँधते हैं । ब्राह्मण ‘श्रावणी पूर्णिमा’ मनाते हैं और जनेऊ बदलते हैं । जनेऊ में 3 धागे होते हैं। 1-1 में 9-9 गुण… 9×3=27. प्रकृति के गुणों से और बंधनों से पार होने के लिए जनेऊ धारण किया जाता है ।

रक्षाबन्धन की पूर्णिमा उच्च उद्देश्य से मन को बाँधने की प्रेरणा देनेवाली पूर्णिमा है । रक्षाबन्धन पर बहन भाई को रक्षासूत्र (मौली) बाँधती है । रक्षाबंधन में कच्चा धागा बाँधते हैं लेकिन यह द्र्ढ संकल्पशक्ति, पवित्र प्रेम और पक्के हित का बंधन है । तिलक करते समय बहन संकल्प करे कि मेरा भाई त्रिलोचन बने, अक्षत लगाते समय भाव करे कि मेरे भाई का ज्ञान, गुरुभक्ति अक्षय हो, रक्षा सूत्र बांधते हुए संकल्प करे कि मेरा भाई त्रिविध ताप से रक्षित हो और तीनों गुणों से पार अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो ….। रक्षाबंधन के दिन बांधा गया रक्षा सूत्र भाई की वर्षभर रक्षा करता है ।

रक्षाबंधन के अवसर पर घर के बड़े बुजुर्ग गर्भवती बहन को रक्षा सूत्र बांधकर गर्भस्थ शिशु की रक्षा का शुभ संकल्प करें ।

ऋषि अपने शिष्यों के लिए शुभकामना करते हैं । इसी प्रकार शिष्य भी अपने गुरुवर के लिए शुभकामना करते हैं कि ‘गुरुवर ! आपकी आयु दीर्घ हो, आपका स्वास्थ्य सुदृढ़ हो । गुरुज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, लाखों लोग गुरुदेव के दैवी कार्य से लाभान्वित हों । गुरुदेव ! हमारे जैसे करोड़ों-करोड़ों को तारने का कार्य आपके द्वारा सम्पन्न हो।’

हम गुरुदेव से प्रार्थना करें- ‘बहन की रक्षा भले भाई थोड़ी कर ले लेकिन गुरुदेव ! हमारे मन और बुद्धि की रक्षा तो आप हजारों भाइयों से भी अधिक कर पायेंगे । आप हमारी श्रद्धा की रक्षा कीजिये। विषय-विकारों से हमारी रक्षा कीजिये । जब तक हम ईश्वर तक न पहुँचे, तब तक गुरुवर ! आप हमें सँभालना ।’

सर्व मंगलकारी वैदिक रक्षासूत्र

भारतीय संस्कृति में ‘रक्षाबन्धन पर्व’ की बड़ी भारी महिमा है । इतिहास साक्षी है कि इसके द्वारा अनगिनत पुण्यात्मा लाभान्वित हुए हैं फिर चाहे वह वीर योद्धा अभिमन्यु हो या स्वयं देवराज इन्द्र हो । इस पर्व ने अपना एक क्रांतिकारी इतिहास रचा है। रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है ।

कैसे बनायें वैदिक राखी ?

वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें । उसमें दूर्वा, अक्षत (साबुत चावल) केसर या हल्दी, शुद्ध चन्दन. सरसों के साबुत दाने-इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें। फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।

वैदिक राखी का महत्त्व

वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जाने वाले संकल्पों को पोषित करती हैं । 

दूर्वाः

जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सदगुण फैलते जायें, बढ़ते जायें…..’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा। दूर्वा गणेश जी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आने वाले विघ्नों का नाश हो जाय।

अक्षत (साबुत चावल):

हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखण्ड और अटूटट हो, कभी क्षत-विक्षत न हों – यह अक्षत का संकेत है। अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं। जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय।

केसर:

केसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो। उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय। ।

हल्दी:

पीसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं। हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है। यह नजरदोष न नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है ।

चंदनः

चन्दन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है। यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो। उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे। उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले ।

सरसों:

सरसों तीक्ष्ण होती है। इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें ।

रक्षासूत्र या कलावा क्यों धारण करें?

शास्त्र मत है कि मौली या कलावा बाँधने से त्रिदेव – ब्रह्माजी, विष्णुजी और शिवजी तथा तीनों देवियों – लक्ष्मीजी, दुर्गाजी और सरस्वतीजी की कृपा प्राप्त होती है ।

शरीर-विज्ञान की दृष्टि से मौली अर्थात् रक्षासूत्र बाँधने से त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) का शरीर पर आक्रमण नहीं होता, जिससे स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है ।

 

कलावा (रक्षासूत्र) इसलिए भी बाँधते हैं कि आपके शरीर में छुपे दोष या कोई रोग, जो आपके शरीर को अस्वस्थ कर रहे हों, उनके कारण आपके मन-बुद्धि भी निर्णय लेने में थोड़े अस्वस्थ न रह जायें ।

एक्यूप्रेशर की दृष्टि से देखा जाय तो व्यक्ति चिंतातुर, भयभीत होता है तो दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं और उनको नियंत्रित करने के लिए दायें हाथ पर बँधा कलावा बड़ा काम करता है । उसमें शुभकामना भी है और नाड़ी-नियंत्रण भी है ।

राखी पूर्णिमा के दिन यज्ञ की भभूत शरीर को लगायें, मृत्तिका (मिट्टी) लगाकर स्नान करें, फिर गाय का गोबर लगा के स्नान करें। यह कितने ही दोषों एवं चर्मरोगों को खींच लेगा। इससे शारीरिक शुद्धि हो गयी। पंचगव्य पीने का दिन राखी पूनम है। और दिनों में भी पिया जाता है लेकिन इस दिन का कुछ विशेष महत्त्व है।

भद्राकाल के बाद ही राखी बँधवायें

इस राखी बाँधने का शुभ मुहुर्त प्रातः 6:12 से 7:50 तक एवं रात्रि 8:52 से 9:59 तक ही है । इसके अलावा का बाकी समय भद्राकाल होने से अशुभ है ।

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नवजात शिशु में संस्कार सिंचन कैसे करें ?

कैसे करें नवजात शिशु में संस्कार सिंचन ?

मानव की शिक्षा जन्म से नहीं; बल्कि गर्भावस्था से ही शुरु होती है । गर्भकाल में रोपे गये संस्काररूपी बीजों की पुष्टि संतान होने के बाद भी आवश्यक है । उसमें भी शैशवकाल एवं बाल्यकाल में (14 साल तक) दिये गये संस्कार तो सर्वाधिक प्रभावशाली होते हैं एवं जीवनभर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं । ये संस्कार उसके लिये जीवनभर की पूँजी बन जाते हैं । छोटे बच्चों का हृदय गीली मिटटी के लोंदे के समान होता है, उसे जैसे साँचे में डाला जायेगा, वो वैसा बन जायेगा ।

शास्त्रों में महारानी मदालसा को एक आदर्श माता माना गया है । वे जब अपने पुत्रों को स्तनपान करातीं, पालने में सुलातीं, तब उनको आध्यात्मिक ज्ञान की, वेदांत की लोरियाँ सुनाया करती थीं : ‘हे पुत्र ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से रहित है । यह संसार स्वप्नमात्र है । उठ, जाग, मोहनिद्रा का त्याग कर । तू सच्चिदानंद आत्मा है’ । मदालसा देवी हमेशा कहती थीं कि एक बार जो मेरे उदर से गुजरा, वह यदि दोबारा किसी स्त्री के उदर में लटके, मुक्त न होकर दूसरा जन्म ले, तो मेरे गर्भधारण को धिक्कार है । इस आर्यनारी ने, आदर्श माता ने अपने सभी पुत्रों को आत्मज्ञान से सम्पन्न बनाकर उन्हें संसार–सागर से पार करा दिया । इसलिए माँ बनो तो माँ मदालसा जैसी । स्तनपान कराना भी एक पूजा बना लो, सेवा बना लो । उस दौरान बच्चों को आत्मज्ञान की लोरियाँ सुनाओ । बच्चों को रोज़ तिलक लगाओ, मालिश व स्नान करते समय भगवन्नाम संकीर्तन सुनाओ । संध्यावंदन के समय उन्हें साथ बिठाओ । बच्चों में दैवी सम्पदा का वास हो, ऐसी कहानियां और प्रेरक प्रसंग सुनाओ । पास-पड़ोस के वातावरण के हलके संस्कार और बुरी आदतें बच्चों में प्रवेश न कर जाएँ, इसका ध्यान रखें । बच्चों को पैकेटबंद और जंक फ़ूड से दूर रखें । स्वयं को फ्री रखने के लिए बच्चों के साथ में मोबाइल देने की भूल कभी न करें ।  

मातृशक्ति की महिमा अपार है । वे माताएँ ही तो थीं, जिन्होंने अपनी उँगली पकड़ाकर जगदाधार को चलना सिखाया ! जगत के पालक को दूध पिलाया और उस परम प्रेमदाता को गले से लगाकर वात्सल्य लुटाया ! कौसल्या जी एक माँ ही थीं, जिन्होंने भगवान राम को जन्म दिया ! यशोदाजी एक माँ ही तो थीं, जिनकी गोद में भगवान कृष्ण खेले ! देवहूति भी एक माँ ही थीं, जिन्होंने भगवान कपिल को बोलना-चलना सिखाया ! वो आदरणीय माँ महंगीबा ही थीं जिन्होंने पूज्य गुरुदेव को मक्खन-मिश्री देकर उन्हें ध्यान-साधना की ओर अग्रसर किया ।

माता को शिशु का प्रथम गुरु कहा गया है । माता वह किसान है जो बालक की हृदयरूपी भूमि पर सुसंस्कारों के बीज बोता है । ये ही बीज आगे चलकर विशाल वृक्षों के रूप में परिणत होते हैं । सीता माता के संस्कारों ने ही लव-कुश को इतना महान और पराक्रमी बनाया । माता सुनीति से सुसंस्कार एवं सत्प्रेरणा पाकर बालक ध्रुव ने अटल पदवी प्राप्त की । दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू की भक्तिनिष्ठा के प्रभाव से राक्षस कुल में भी प्रह्लाद जैसे भक्त का जन्म हुआ । मुगलों के अत्याचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाले महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी महाराज की महानता के पीछे उनकी माता जीजाबाई के अविस्मरणीय योगदान को कौन भुला सकता है ?

बालकों के जीवन, व्यवहार, अभिरुचि तथा क्रियाकलाप का अध्ययन करनेवाले मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षणों के द्वारा अध्ययन करके बताया कि छोटे बच्चों की सम्पूर्ण क्रिया का आधार अनुकरण है । बच्चे प्रारंभ से ही जैसा आचरण अपने आसपास के लोगों को करते देखते हैं, वैसा ही वे भी करने लगते हैं, यहाँ तक कि यदि बालकों को कुछ भी न बताया जाये तो भी वे अपने अभिभावकों का लगातार अनुकरण करते रहते हैं । इसलिए माता-पिता के आचरण में सावधानी और सजकता जरुरी है । उसमें भी माँ का दायित्व पिता और परिवार की अपेक्षा होता है । माता–पिता को यदि अपने बालकों को चारित्र्यवान, सदाचारी बनाना हो, महान बनाना हो तो उन्हें स्वयं अपने उत्तम आचार, विचार और व्यवहार का आदर्श उनके समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए ।

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उत्तरायण यानि आत्मसूर्य की ओर यात्रा का महापर्व

उत्तरायण सूर्योपासना का महापर्व....

उत्तरायण का पर्व प्राकृतिक नियमों से जुड़ा पर्व है। सूर्य की बारह राशियाँ मानी गयी हैं। हर महीने सूर्य के राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इसमें मुख्य दो राशियाँ बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं – एक मकर और दूसरी कर्क। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश को ʹमकर सक्रान्तिʹ बोलते हैं। देवताओं का प्रभात उत्तरायण के दिन से माना जाता है। दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी उत्तरायण से मानी जाती है और ʹथई पोंगलʹ इस उत्सव का नाम है। पंजाब मे ʹलोहड़ी उत्सवʹ तथा सिंधी जगत में ʹतिर-मूरीʹ के नाम से इस प्राकृतिक उत्सव को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस पर्व पर एक दूसरे को तिल-गुड़ देते हुए बोलते हैं ʹतिळ-गुळ घ्या, गोड-गोड बोलाʹ अर्थात् ʹतिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।ʹ आपके स्वभाव में मिठास भर दो, चिंतन में मिठास भर दो।

 उत्तरायण के दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने अथवा तिल-चावलमिश्रित जल से अर्घ्य देने का भी विधान है। आदित्य देव की उपासना करते समय सूर्यगायत्री मंत्र का जप करके अगर ताँबे के लोटे से जल चढ़ाते हैं और चढ़ा हुआ जल धरती पर गिरा, वहाँ की मिट्टी लेकर तिलक लगाते हैं तथा लोटे में बचाकर रखा हुआ जल महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए पीते हैं तो आरोग्य की खूब रक्षा होती है।इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन लगाना, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल सेवन तथा तिल दान – ये सभी पापशामक और पुण्यदायी प्रवृत्तियाँ हैं।

जिस दिन भगवान सूर्यनारायण उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करते हैं, उस दिन उत्तरायण (मकर सक्रान्ति) पर्व मनाया जाता है। इस दिन से अंधकारमयी रात्रि कम होती जाती है और प्रकाशमय दिवस बढ़ता जाता है। प्रकृति का यह परिवर्तन हमें प्रेरणा देता है कि हम भी अपना जीवन आत्म-उन्नति व परमात्मप्राप्ति की ओर अग्रसर करें। अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर आत्मज्ञानरूपी प्रकाश प्राप्त करने का यत्न करें। उत्तरायण के दिन से शुभ कर्म विशेष रूप से शुरु किये जाते हैं। आज के दिन दिया हुआ अर्घ्य, किया हुआ होम-हवन, जप-ध्यान और दान-पुण्य विशेष फलदायी माना जाता है। उत्तरायण पर्व पर दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन कोई रूपया-पैसा दान करता है, कोई तिल-गुड़ दान करता है। आज के दिन लोगों को सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। परंतु हमारे गुरुदेव कहते हैं कि मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने को ही भगवान के चरणों में दान कर डालो।

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दीपावली संदेश – गर्भवती विशेष

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सभी गर्भवती बहनें धनतेरस से लेकर भाईदूज तक इस संदेश को बार-बार विचारें… इन अमृतवचनों का चिंतन करते-करते इसे आत्मसात करें व अपनी भावी संतान के भविष्य दिव्य प्रकाश से ओतप्रोत कर दें ।

बापूजी दीपावली का आध्यात्मिक संदेश देते हुए कहते हैंः – दीपावली का महापर्व सभीके जीवन में नया उत्साह, उल्लास, प्रसन्नता तथा प्रकाश बिखेरता ही है, साथ ही यह प्रेरणा भी देता है कि अज्ञानरूपी अंधकार में भटकने की जगह अपने जीवन में ज्ञान का प्रकाश ले आओ । दीपावली के पर्व पर घर में और बाहर तो दीपमालाओं का प्रकाश अवश्य करो, साथ-ही-साथ अपने हृदय में भी भगवदीय ज्ञान का आलोक कर दो । जो प्रकाशों-का-प्रकाश है उस दिव्य परमात्म-प्रकाश का चिंतन करो ।

सभी गर्भवती बहनें धनतेरस से लेकर भाईदूज तक इस संदेश को बार-बार विचारें… इन अमृतवचनों का चिंतन करते-करते इसे आत्मसात करें व अपनी भावी संतान के भविष्य दिव्य प्रकाश से ओतप्रोत कर दें ।

बापूजी दीपावली का आध्यात्मिक संदेश देते हुए कहते हैंः – दीपावली का महापर्व सभीके जीवन में नया उत्साह, उल्लास, प्रसन्नता तथा प्रकाश बिखेरता ही है, साथ ही यह प्रेरणा भी देता है कि अज्ञानरूपी अंधकार में भटकने की जगह अपने जीवन में ज्ञान का प्रकाश ले आओ । दीपावली के पर्व पर घर में और बाहर तो दीपमालाओं का प्रकाश अवश्य करो, साथ-ही-साथ अपने हृदय में भी भगवदीय ज्ञान का आलोक कर दो । जो प्रकाशों-का-प्रकाश है उस दिव्य परमात्म-प्रकाश का चिंतन करो ।

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अखंड सौभाग्य देने वाला वट सावित्री व्रत (वट-पूर्णिमा-14 जून २०२२ )

वटसावित्री पर्व नारी-सशक्तिकरण का पर्व है, जो को अपने सामर्थ्य की याद दिलाता है। यह आत्मविश्वास व दृढ़ता को बनाये रखने की प्रेरणा देता है, साथ ही ऊँचा दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि हमें अपने मूल आत्म-तत्त्व की ओर, आत्म-सामर्थ्य की ओर लौटना चाहिए।
इसमें वटवृक्ष की पूजा की जाती है । विशेषकर सौभाग्यवती महिलाएँ श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णिमा तक अथवा कृष्ण त्रयोदशी से अमावास्या तक तीनों दिन अथवा मात्र अंतिम दिन व्रत-उपवास रखती हैं । यह कल्याणकारक व्रत विधवा, सधवा, बालिका, वृद्धा, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को करना चाहिए ऐसा ‘स्कंद पुराण में आता है।
प्रथम दिन संकल्प करें कि ‘मैं मेरे पति और पुत्रों की आयु, आरोग्य व सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए एवं जन्म-जन्म में सौभाग्य की प्राप्ति के लिए वट-सावित्री व्रत करती हूँ ।
वट के समीप भगवान ब्रह्माजी, उनकी अर्धांगिनी सावित्री देवी तथा सत्यवान व सती सावित्री के साथ यमराज का पूजन कर ‘नमो वैवस्वताय इस मंत्र को जपते हुए वट की परिक्रमा करें । इस समय वट को १०८ बार या यथाशक्ति सूत का धागा लपेटें । फिर निम्न मंत्र से सावित्री को अघ्र्य दें।
अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते । पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणाघ्र्यं नमोऽस्तु ते ।।
निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना कर गंध, फूल, अक्षत से उसका पूजन करें।
वट सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः । यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले ।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा ।।

महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति सत्यवान को जीवनदान दिया था। इसीलिए इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की 108 परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेट कर संकल्प करती हैं। साथ में अपने पुत्रों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प किया जाता है। 

वटवृक्ष का महत्त्व

 

वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है। हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं।यह दीर्घ काल तक अक्षय भी बना रहता है। इसी कारण दीर्घायु, अक्षय सौभाग्य, जीवन में स्थिरता तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए इसकी आराधना की जाती है ।यह मन में स्थिरता लाने में मदद करता है एवं संकल्प को अडिग बना देता है। इस व्रत की नींव रखने के पीछे ऋषियों का यह उद्देश्य प्रतीत होता है कि अचल सौभाग्य एवं पति की दीर्घायु चाहने वाली महिलाओं को वटवृक्ष की पूजा उपासना के द्वारा उसकी इसी विशेषता का लाभ मिले और पर्यावरण सुरक्षा भी हो जाय। हमारे शास्त्रों के अनुसार वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं। ‘भावप्रकाश निघंटु’ ग्रंथ में वटवृक्ष को शीतलता-प्रदायक, सभी रोगों को दूर करने वाला तथा विष-दोष निवारक बताया गया है।

वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श तथा सेवा से पाप दूर होते हैं; दुःख, समस्याएँ तथा रोग जाते रहते हैं । अतः इस वृक्ष को रोपने से अक्षय पुण्य-संचय होता है । वैशाख आदि पुण्यमासों में इस वृक्ष की जड में जल देने से पापों का नाश होता है एवं नाना प्रकार की सुख-सम्पदा प्राप्त होती है ।वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लौटना चाहिए और अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए। इसी से हम मौलिक रह सकते हैं। मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं। हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए। यही सुखी जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। वटसावित्री पर्व पर सावित्री की तरह स्वयं को दृढ़प्रतिज्ञ बनायें।

संतान प्राप्ति के लिए भी वट सावित्री व्रत वाले दिन बरगद के पेड़ की पूजा करते हैं। सावित्री ने यमराज से 100 पुत्रों की माता होने का वरदान मांगा था। यमराज ने उनको वरदान दे​ दिया, जिसकी वजह से सत्यवान के प्राण भी उनको लौटाने पड़े थे क्योंकि बिना सत्यवान के रहते सावित्री 100 पुत्रों की माता नहीं बन सकती थीं।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु और अमरत्व के बोध के नाते भी स्वीकार किया जाता है। माना जाता है कि वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु एवं डालियों में शिव शंकर का निवास होता है। इसके अलावा इस पेड़ में बहुत सारी शाखाएं नीचे की तरफ लटकी हुई होती हैं, जिन्हें देवी सावित्री का रूप माना जाता है। यही वजह है कि इस वृक्ष की पूजा से सभी मनोकामनाएं बहुत ही जल्दी पूरी हो जाती है।

धार्मिक आस्थाओं के साथ ही ये वृक्ष पर्यावरण संरक्षण में भी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बरगद के पेड़ और इसकी पत्तियों में कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की सबसे ज्यादा क्षमता होती है। पीपल के समान ही ये वृक्ष भी ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं। कहा जाता है कि एक हरा-भरा बरगद का पेड़ 20 घंटे से भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। इसलिए, बरगद का वृक्ष पर्यावरण के लिए किसी वरदान  से कम नहीं है।    

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श्रीमद भगवत गीता का जीवन में महत्व

श्रीमदभगवतगीता का गर्भवती के लिए महत्व...

श्लोक उच्चारण का महत्व

शास्त्रों में ऐसा वर्णित है और वैज्ञानिकों ने भी इसे प्रमाणित किया है की यदि नियमित संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण किया जाए तो स्मरण शक्ति बढ़ती है और शब्दों का उच्चारण स्पष्ट होता है अतः गर्भवती को चाहिए की वह नियमित रूप से श्रीमद भगवद  गीता का पाठ करें जिससे गर्भस्थ शिशु की स्मरण शक्ति में वृद्दि हो और जन्म के बाद जब बच्चा बोलना शुरू करे तो उसके शब्दों के उच्चारण स्पष्ट होंगे। और श्रीमद भगवद गीत अपने आप में एक ऐसा ग्रंथ है जो ज्ञान का सागर है अगर ऐसे गरबटह का पठन गर्भवती करेगी तो निश्चित ही उसकी संतान दैवीय गुणों से सम्पन्न होगी। 

 

गीता का सार आत्म-ज्ञान

श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्म मंथन करके स्वयं को पहचानो क्योंकि जब स्वयं को पहचानोगे तभी क्षमता का आंकलन कर पाओगे। ज्ञान रूपी तलवार से अज्ञान को काट कर अलग कर देना चाहिए। जब व्यक्ति अपनी क्षमता का आंकलन कर लेता है तभी उसका उद्धार हो पाता है।भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किंतु केवल यह शरीर नश्वर है। आत्मा अजर अमर है, आत्मा को कोई काट नहीं सकता अग्नि जला नहीं सकती और पानी गीला नहीं कर सकता। जिस प्रकार से एक वस्त्र बदलकर दूसरे वस्त्र धारण किए जाते हैं उसी प्रकार आत्मा एक शरीर का त्याग करके दूसरे जीव में प्रवेश करती है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण के द्वारा रण भूमि में अर्जुन को उपदेश दिए गए हैं। गीता की बातें मनुष्य को सही तरह से जीवन जीने का रास्ता दिखाती हैं। गीता के उपदेश हमें धर्म के मार्ग पर चलते हुए अच्छे कर्म करने की शिक्षा देते हैं। महाभारत में युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और कृष्ण के बीच के संवाद से हर मनुष्य को प्रेरणा लेनी चाहिए। अपने गर्भस्थ शिशु में गीत के ज्ञान का सिंचन अवश्य करें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी धर्म के मार्ग पर चल सके और आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सके। 

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गर्भ संस्कार केन्द्र में सम्पर्क करें -
गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।