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कौशल्यानंदन श्रीराम

कौशल्यानंदन श्रीराम

श्रीरामचन्द्र जी परम ज्ञान में नित्य रमण करते थे । ऐसा ज्ञान जिनको उपलब्ध हो जाता है, वे आदर्श पुरुष हो जाते हैं । मित्र हो तो श्रीराम जैसा हो । उन्होंने सुग्रीव से मैत्री की और उसे किष्किंधा का राज्य दे दिया और लंका का राज्य विभीषण को दे दिया । कष्ट आप सहें और यश और भोग सामने वाले को दें, यह सिद्धान्त श्रीरामचन्द्रजी जानते हैं ।
        शत्रु हो तो रामजी जैसा हो । रावण जब वीरगति को प्राप्त हुआ तो श्रीराम कहते हैं- ‘हे विभीषण ! जाओ, पंडित, बुद्धिमान व वीर रावण की अग्नि संस्कार विधि सम्पन्न करो ।”
विभीषणः “ऐसे पापी और दुराचारी का मैं अग्नि-संस्कार नहीं करता ।”
       ‘रावण का अंतःकरण गया तो बस, मृत्यु हुई तो वैरभाव भूल जाना चाहिए । अभी जैसे बड़े भैया का, श्रेष्ठ राजा का राजोचित अग्नि-संस्कार किया जाता है ऐसे करो ।”
     बुद्धिमान महिलाएँ चाहती हैं कि ‘पति हो तो राम जी जैसा हो’ और प्रजा चाहती है, ‘राजा हो तो राम जी जैसा हो ।’ पिता चाहते हैं कि ‘मेरा पुत्र हो तो राम जी के गुणों से सम्पन्न हो’ और भाई चाहते हैं कि ‘मेरा भैया हो तो राम जी जैसा हो ।’ रामचन्द्र जी त्याग करने में आगे और भोग भोगने में पीछे । 

तुमने कभी सुना कि राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न में, भाई-भाई में झगड़ा हुआ ? नहीं सुना ।
      श्रीराम जी का चित्त सर्वगुणसम्पन्न हैं । कोई भी परिस्थिति उनको द्वन्द्व या मोह में खींच नहीं सकती । वे द्वन्द्वातीत, गुणातीत, कालातीत स्वरूप में विचरण करते हैं ।
 
 रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः ।
जिनमें योगी लोगों का मन रमण करता है वे हैं रोम-रोम में बसने वाले अंतरात्मा राम । वे कहाँ प्रकट होते हैं ? कौसल्या की गोद में, लेकिन कैसे प्रकट होते हैं कि दशरथ यज्ञ करते हैं अर्थात् साधन, पुण्यकर्म करते हैं और उस साधन पुण्य, साधन यज्ञ से उत्पन्न वह हवि बुद्धिरूपी कौसल्या लेती है और उसमें सच्चिदानंद राम का प्राकट्य होता है ।
      धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए इतना सहज-सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुकरण कर सकता है ।
      श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए उसी दिन को श्रीरामनवमी के पावनवर्ष के रूप में मनाते हैं भारतवासी ।
      श्रीरामनवमी दिव्य संतान की चाह रखनेवालें माता-पिता को यही सीख देती हैं की यदि आप भी दिव्य संतान चाहते हैं तो माता कौशल्या व राजा दशरथ जी कि भांति अपने जीवन को धर्ममय, तपमय, यज्ञमय बनाइए श्रीरामजी के दिव्य गुणों का स्मरण कीजिए और शुभ संकल्प कीजिए कि हमारे घर भी ऐसा प्रकाशपुंज अवतरित हो अपने सद्गुणों से आपके घर ही नहीं वरन् सारे संसार को प्रकाशित कर दे  ।  
      

श्रीरामनवमी के पावन पर्व पर उन्हीं पूर्णाभिराम श्रीराम के दिव्य गुणों को अपने जीवन में अपनाकर, श्रीरामतत्त्व की ओर प्रयाण करने के पथ पर अग्रसर हों, यही शुभकामना…..

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संस्कार साधना – ध्यान

ध्यान

 

संस्कार साधना के क्रम में आज हम चर्चा करेंगे ऐसी साधना के विषय में है जो आध्यात्मिक जगत का आधार तो है ही, साथ ही लौकिक जगत में इससे होनेवाले लाभ का वर्णन नहीं किया जा सकता और वह साधना है – ध्यान अर्थात् मेडिटेशन । गर्भाधान से पूर्व पति-पत्नी द्वारा नियमित रूप से किया जानेवाला ध्यान दोनों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ तो बनाता ही है, साथ-ही-साथ बीज को भी परिशुद्ध और सुदृढ़ करता है । गर्भावस्था में ध्यान करने से माता को तो अद्भुत लाभ होता ही है, उसके शिशु में भी विलक्षण लक्षण प्रकट होने लगते हैं । आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने-अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होंगे, उतने ही आप उस कार्य में सफल होंगे ।

शास्त्र कहते हैं –

नास्ति ध्यान समं तीर्थम् । नास्ति ध्यानसमं दानम् । नास्ति ध्यानसमं यज्ञम् । नास्ति ध्यानसमं तपम् । तस्मात् ध्यानं समाचरेत् ।

अर्थात् ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं । ध्यान के समान कोई दान नहीं । ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं । ध्यान के समान कोई तप नहीं । अतः हर रोज़ ध्यान करना चाहिए ।

ध्यान का अर्थ क्या ?

ध्यान है डूबना । ध्यान है आत्म-निरीक्षण करना… ‘हम क्या हैं, कैसे हैं’ यह देखना…। ध्यान अर्थात् न करना… कुछ भी न करना । सब काम करने से नहीं होते हैं । कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं । ध्यान ऐसा ही एक कार्य है । कम-से-कम सुनें, मन में कम-से-कम संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, इन्द्रियों का व्यापार कम-से-कम हो ।

विधि –

सुबह सूर्योदय से पहले उठकर, नित्यकर्म करके गरम कंबल अथवा टाट का आसन बिछाकर सुखासन में बैठ जाएँ । अपने सामने भगवान अथवा अपने गुरूदेव का चित्र रखें । धूप-दीप-अगरबत्ती जलायें । फिर दोनों हाथों को ज्ञानमुद्रा में घुटनों पर रखें । थोड़ी देर तक चित्र को देखते-देखते त्राटक करें । पहले खुली आँख आज्ञाचक्र में ध्यान करें । फिर आँखें बंद करके ध्यान करें । बाद में गहरा श्वास लेकर थोड़ी देर अंदर रोक रखें, फिर हरि ॐ….. दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़ें । श्वास को भीतर लेते समय मन में भावना करें- मैं सदगुण, भक्ति, निरोगता, माधुर्य, आनंद को अपने भीतर भर रहा हूँ/रही हूँ । और श्वास को बाहर छोड़ते समय ऐसी भावना करें- मैं दुःख, चिंता, रोग, भय को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा हूँ/सही हूँ । इस प्रकार कम-से-कम सात बार करें । ध्यान करने के बाद पाँच-सात मिनट शाँत भाव से बैठे रहें ।

लाभ-

ध्यान सर्वोच्च मेधा, प्रज्ञा, दिव्यता तथा प्रतिभारूपी अमूल्य सम्पत्ति को प्रकट करता है । गर्भावस्था में होनेवाले मानसिक उत्तेजना, उद्वेग और तनाव की बड़े-में-बड़ी दवा ध्यान है । ध्यान का अभ्यास करने से अलग से दवाइयों पर धन खर्च नहीं करना पड़ता । ध्यान करने से हाई बी.पी., लो बी.पी., अच्छी नींद का अभाव, थायराइड जैसे रोगों से दूरी बनी रहती है । चित्त में प्रसन्नता बनी रहती है । जो पति-पत्नी नियमित रूप से ध्यान करते हैं, उनमें भगवद्ध्यान से मन-मस्तिष्क में नवस्फूर्ति, नयी अनुभूतियाँ, नयी भावनाएँ, सही चिंतन प्रणाली, नयी कार्यप्रणाली का संचार होता है । परिणामस्वरूप गर्भस्थ शिशु में भी दैवी सम्पदा का विकास होता है । 

ध्यान के प्रकार

ध्यान चार प्रकार का होता है :

(१) पादस्थ ध्यान:

भगवान या सदगुरु- जिनमें तुम्हारी प्रीति हो, उनके चरणारविंद को देखते-देखते ध्यानस्थ हो जाना – इसको बोलते हैं ‘पादस्थ ध्यान’।

(२) पिंडस्थ ध्यान:

अपने शरीर में सात केंद्र या चक्र हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा एवं सहस्रार । आँखें बंद करके इनमें से किसी भी केन्द्र पर मन को एकाग्र करना ‘पिंडस्थ ध्यान’ कहलाता हैं ।

(३) रूपस्थ ध्यान:

बहती हुई नदी, सागर, चन्द्रमा, आकाश, प्रकृति को, किसी वस्तु को अथवा भगवान या सदगुरु के मुखमंडल को एकटक देखते- देखते मन शांत हो गया । इसे “रूपस्थ ध्यान” कहते हैं । हम पहले भगवान की मूर्ति का ध्यान करते थे । जब गुरुजी मिल गये तो सारे भगवान गुरुतत्त्व में ही समा गये । डीसा में हमारा साधना का कमरा कोई खोलकर देखे तो गुरुजी की मूर्ति ही होगी बस । ध्यानमूल गुरोमूर्ति:  ।

(४) रूपातीत ध्यान:

वासुदेव: सर्वम्‌… ‘वासुदेव ही सब कुछ हैं, सर्वत्र हैं’ – इस प्रकार का चिंतन-ध्यान ‘रूपातीत ध्यान’ कहलाता है  । फिर द्वेष नहीं रहता, भय नहीं रहता, क्रोध नहीं रहता  । “अनेक रूपों में एक मेरा वासुदेव है” – ऐसा चिंतन करके भावातीत, गुणातीत दशा में चुप हो जाना । ऐसा चुप होना सबके बस की बात नहीं है । इसलिए तनिक चुप हो जायें, फिर ॐ हरि ॐ… का दीर्घ उच्चारण करें  । ‘म’ बोलने के समय होंठ बंद रहें  । इस प्रकार के ध्यान से ऊँची दशा में पहुँच जाओगे ।

पादस्थ से पिंडस्थ ध्यान अंतरंग है पिंडस्थ से रूपस्थ ध्यान अंतरंग है और रूपस्थ से रूपातीत  । लेकिन जो जिसका अधिकारी है, उसके लिए वही बढ़िया है । ध्यान करनेवाले को अपनी रुचि और योग्यता का भी विचार करना चाहिए  ।इनमें से किसी भी प्रकार के ध्यान में लग जाओ तो अद्भुत शक्तियों का प्राकट्य होने लगेगा । एक अनपढ़ गँवार व्यक्ति भी अगर किसी एक प्रकार का ध्यान करने लगे तो बड़े-बड़े धनिकों के पास, बड़े- बड़े सत्ताधीशों के पास, बडे-बड़े विद्वानों के पास जो नहीं है वे सारी शक्तियाँ उसके पास आ जायेंगी ।

 विज्ञान को अब समझ में आयी ध्यान की महिमा

आज आधुनिक वैज्ञानिक संत-महापुरुषों की इस देन एवं इसमें छुपे रहस्यों के कुछ अंशों को जानकर चकित हो रहे हैं ।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक अध्ययन में पाया गया कि ध्यान के दौरान जब हम अपने हर एक श्वास पर ध्यान लगाते हैं तो इसके साथ ही हमारे मस्तिष्क के कॉर्टेक्स नाम हिस्से की मोटाई बढ़ने लगती है, जिससे सम्पूर्ण मस्तिष्क की तार्किक क्षमता में बढ़ोतरी होती है । अच्छी नींद के बाद सुबह की ताजी हवा में गहरे श्वास लेने का अभ्यास दिमागी क्षमता को बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका है । पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी दिनचर्या में प्रातः 3 से 5 का समय इस हेतु सर्वोत्तम बताया गया है । कई शोधों से पता चला है कि जो लोग नियमित तौर पर ध्यान करते हैं, उनमें ध्यान न करने वालों की अपेक्षा आत्मविश्वास का स्तर ज्यादा होता है । साथ ही उनमें ऊर्जा और संकल्पबल अधिक सक्रिय रहता है । येल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता का कहना है कि ‘ध्यान करने वाले छात्रों का आई.क्यू. लेवल (बौद्धिक क्षमता) औरों से अधिक देखा गया है ।’

इस प्रकार दिव्य संतान चाहनेवाले माता-पिता को गर्भधारण से पूर्व और गर्भावस्था के दौरान दोनों संध्याओं में ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।

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नूतन वर्ष मंगलमय कैसे हो ?

चैत्री नूतन वर्ष मंगलमय कैसे हो ?

 वर्ष संवत् 2082 में दिनांक 30 मार्च 2025 को प्रवेश कर रहे हैं  । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन अत्यंत शुभ होता है  । इस दिन भगवान ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना हुई तथा युगों में प्रथम सतयुग का प्रारम्भ हुआ ।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम एवं धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक दिवस, मत्स्यावतार दिवस, वरुणावतार संत झुलेलालजी का अवतरण दिवस, सिक्खों के द्वितीय गुरु अंगददेवजी का जन्मदिवस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार का जन्मदिवस, चैत्री नवरात्र प्रारम्भ आदि पर्व-उत्सव एवं जयंतियाँ वर्ष-प्रतिपदा के दिन से आरंभ होती है  । इस दिन गुड़ी पड़वा भी मनाया जाता है, जिसमें गुड़ी खड़ी करके उस पर वस्त्र, ताम्र कलश, नीम की पत्तेदार टहनियों तथा शर्करा से बने हार बनाये जाते हैं । गुड़ी उतारने के बाद उस शर्करा के साथ नीम की पत्तियों का भी प्रसाद के रूप में सेवन किया जाता है जो जीवन में (विशेषकर वसंत ऋतु में) मधुर रस के साथ कड़वे रस की भी आवश्यकता को दर्शाता है ।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रकृति सर्वत्र माधुर्य बिखेरने लगती है । भारतीय संस्कृति का यह नूतन वर्ष जीवन में नया उत्साह, नयी चेतना व नया आह्लाद जगाता है । वसंत ऋतु का आगमन होने के साथ वातावरण समशीतोषण बन जाता है । सुप्तावस्था में पड़े जड़-चेतन तत्व गतिमान हो जाते हैं । नदियों में स्वच्छ जल का संचार हो जाता है । आकाश नीले रंग की गहराइयों में चमकने लगता है । सूर्य-रश्मियों की प्रखरता में खड़ी फसलें परिपक्व होने लगती हैं । किसान नववर्ष एवं नयी फसल के स्वागत में जुट जाते हैं । पेड़-पौधे रंग-बिरंगे फूलों के साथ लहराने लगते हैं । आम और कटहल नूतन संवत्सर के स्वागत में अपनी सुगन्ध बिखेरने लगते हैं । सुगन्धित वायु के झकोरों से सारा वातावरण सुरभित हो उठता है । कोयल गाने लगती है । चिड़ियाँ चहचहाने लगती है । इस सुहावने मौसम में कृषिक्षेत्र सुंदर स्वर्णिम खेती से लहलहा उठता है ।

इस प्रकार नूतन वर्ष का प्रारम्भ आनंद उल्लासमय हो इस हेतु प्रकृति माता सुंदर भूमिका बना देती है । इस बाह्य चैतन्यमय प्राकृतिक वातावरण का लाभ लेकर व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में भी उपवास द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ जागरण, नृत्य कीर्तन आदि द्वारा भावनात्मक एवं आध्यात्मिक जागृति लाने हेतु नूतन वर्ष के प्रथम दिन से ही माँ आद्यशक्ति की उपासना का नवरात्रि महोत्सव शुरू हो जाता है ।

नूतन वर्ष प्रारंभ की पावन वेला में हम सब एक-दूसरे संकल्प द्वारा पोषित करें कि सूर्य का तेज, चंद्रमा का अमृत, माँ शारदा का ज्ञान, भगवान शिवजी की तपोनिष्ठा, माँ अम्बा का शत्रुदमन- सामर्थ्य व वात्सल्य, दधीचि ऋषि का त्याग, भगवान नारायण की समता, भगवान श्रीरामचंद्रजी की कर्तव्यनिष्ठा व मर्यादा, भगवान श्रीकृष्ण की नीति व योग, हनुमानजी का निःस्वार्थ सेवाभाव, नानकजी की भगवन्नाम-निष्ठा, पितामह भीष्म एवं महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा, गौमाता की सेवा तथा ब्रह्मज्ञानी सद्‌गुरु का सत्संग सान्निध्य व कृपावर्षा यह सब आपको सुलभ हो । इस शुभ संकल्प द्वारा परस्परं भावयन्तु की स‌द्भावना दृढ़ होगी और इसीसे पारिवारिक व सामाजिक जीवन में रामराज्य का अवतरण हो सकेगा, इस बात की ओर संकेत करता है यह ‘राम राज्याभिषेक दिवस’ ।

अपनी गरिमामयी संस्कृति की रक्षा हेतु अपने मित्रों-संबंधियों को इस पावन अवसर की स्मृति दिलाने के लिए बधाई-पत्र लिखें, दूरभाष करते समय उपरोक्त सत्संकल्प दोहरायें, सामूहिक भजन-संकीर्तन व प्रभातफेरी का आयोजन करें, मंदिरों आदि में शंखध्वनि करके नववर्ष का स्वागत करें ।

सभी गर्भवती बहनों को अपनी भारतीय संस्कृति आधारित नूतन वर्ष, पर्व-उत्सव एवं जयंतियों से संबंधित जानकारी अवश्य होनी चाहिये । तभी आप अपनी संतान को भी भारतीय संस्कृति से अवगत करा सकेंगे । जिससे समाज, देश और विश्व में भारतीय संस्कृति की पताका फहराएगी । आज हम फिल्म ऐक्टर-ऐक्ट्रेस से संबंधित जानकारी तो रखते हैं लेकिन अपनी संस्कृति व शास्त्रों की जानकारी का अभाव होता है । अतः माताओं-बहनों का नैतिक कर्तव्य है कि अपनी भारतीय संस्कृति को गर्व से अपनायें । सभी को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…

सभी को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

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आदिशक्ति की उपासना का पर्व – नवरात्रि

आदिशक्ति की उपासना का पर्व

       सनातन धर्म में निर्गुण निराकार परब्रह्म परमात्मा को पाने की योग्यता बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार की उपासनाएँ चलती हैं । उपासना माने उस परमात्म-तत्व के निकट आने का साधन । शक्ति के उपासक नवरात्रि में विशेष रूप से शक्ति की आराधना करते हैं । इन दिनों में पूजन-अर्जन, कीर्तन, व्रत-उपवास, मौन, जागरण आदि का विशेष महत्त्व होता है । जिस दिन महामाया ब्रह्मविद्या आसुरी वृतियों को मारकर जीव के ब्रह्मभाव को प्रकट करती हैं, उसी दिन जीव की विजय होती है । हज़ारों-लाखों जन्मों से जीव त्रिगुणमयी माया के चक्कर में फँसा था, आसुरी वृतियों के फँदे में पड़ा था । जब महामाया जगदम्बा की अर्चना-उपासना-आराधना की तब वह जीव विजेता हो गया । माया के चक्कर से, अविद्या के फँदे से मुक्त हो गया, वह ब्रह्म हो गया । विजेता होने के लिए बल चाहिए, बल बढ़ाने के लिए उपासना करनी चाहिए । उपासना में तप, संयम और एकाग्रता आदि जरूरी है । साधकों के लिए उपासना अत्यंत आवश्यक है । जीवन में कदम-कदम पर कैसी-कैसी मुश्किलें, कैसी-कैसी समस्याएँ आती हैं ! उनसे लड़ने के लिए, सामना करने के लिए भी बल चाहिए । वह बल उपासना-आराधना से मिलता है ।

नवरात्रि में शुभ संकल्पों को पोषित करने, रक्षित करने और शत्रुओं की मित्र बनानेवाले मंत्र की सिद्धि का योग होता है। वर्ष में दो नवरात्रियों आती है। शारदीय नवरात्रि और चैत्री नवरात्रि। चैत्री नवरात्रि के अंत में रामनवमी आती है और रामजी का प्रागट्य होता है । 

नवरात्रि को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है। इसमें पहले तीन दिन तमस् को जीतने की आराधना के हैं। दूसरे तीन दिन रजस् को और तीसरे तीन दिन सत्त्व को जीतने की आराधना के हैं। यह सत्व-रज-तम तीनों गुणों को जीत के जीव को माया के जाल से छुड़ाकर शिव से मिलाने का दिन है। चैत्री नवरात्रि विषय-विकारों में उलझे हुए मन पर विजय पाने के लिए और रचनात्मक संकल्प, रचनात्मक कार्य, रचनात्मक जीवन के लिए, राम-प्रागट्य के लिए है।

नवरात्रि के प्रथम तीन दिन होते हैं माँ काली की आराधना करने के लिए, तामसी आदतों से ऊपर उठने के लिए । पिक्चर देखना, काम-विकार में फिसलना-इन सब पाशविक वृत्तियों पर विजय पाने के लिए नवरात्रि के प्रथम तीन दिन माँ काली की उपासना की जाती है।

दूसरे तीन दिन सुख-सम्पदा के अधिकारी बनने के लिए हैं। इसमें लक्ष्मीजी की उपासना होती है। नवरात्रि के तीसरे तीन दिन सरस्वती की आराधना उपासना के हैं। प्रज्ञा तथा ज्ञान का अर्जन करने के लिए हैं। हमारे जीवन में सत्-स्वभाव, ज्ञान-स्वभाव और आनंद-स्वभाव का प्रागट्य हो। 

चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक का पर्व चैत्री नवरात्रि के रूप में जाना जाता है। यह व्रत-उपवास, आद्यशक्ति माँ जगदम्बा के पूजन-अर्चन व जंप-ध्यान का पर्व है। यदि कोई पूरे नवरात्रि के उपवास-व्रत न कर सकता हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तीन दिन उपवास करके देवी की पूजा करने से वह सम्पूर्ण नवरात्रि के उपवास के फल को प्राप्त करता है। देवी की उपासना के लिए तो नौ दिन हैं लेकिन जिन्हें ईश्वरप्राप्ति करनी है उनके लिए तो सभी दिन हैं ।

विशेष :- नवरात्रि  में जप, ध्यान, उपवास एवं जागरण का अधिक से अधिक लाभ लेना चाहिए । नवरात्रि  में नवार्ण मंत्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का  पूरे नौ दिन का जप अनुष्ठान करना चाहिए (गर्भवती बहनें इस मंत्र का ज्यादा जप न करें)। यदि कोई पूरे नवरात्रि के व्रत न कर सकता हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं तीन व्रत करके सम्पूर्ण नवरात्रि के व्रत का फल प्राप्त कर सकता है ।

गर्भिणी बहनें और प्रसूता मातायें अनशन अर्थात् बिना कुछ खाये उपवास न करें। एकादशी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि तथा अन्य व्रतों में दूध, फल, पानक अथवा राजगीरे के आटे की रोटी, सिंघाड़े का हलवा या खीर, लौकी, कद्दू आदि की सब्जी, छाछ, नारियल, खजूर, मखाने इत्यादि का सेवन कर सकती है। मोरधन (सामा के चावल), साबूदाना, कुट्टू, आलू, शकरकंद नहीं खायें। 

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होली के रंग… गुरुज्ञान के संग …

होली के रंग... गुरुज्ञान के संग ...

होली के पर्व पर इस वर्ष एक-दूसरे को, अपने गर्भस्थ शिशु को, अपने नवजात शिशु को कोई कच्चा रंग नहीं लगाना… गुरूजी के ज्ञान पक्का और आध्यात्मिक रंग लगाना, वैदिक होली खेलना, खिलाना । यह रंग दूसरों को लगाने के लिए पहले खुद को इस रंग में रंगना जरुरी है, इस रंग को समझना पड़ेगा ।  

होली मात्र लकड़ी के ढ़ेर जलाने का त्यौहार नहीँ है । यह तो चित्त की दुर्बलताओं को दूर करने का, मन की मलिन वासनाओं को जलाने का पवित्र दिन है । अपने दुर्गुणों, व्यसनों व बुराइयों को जलाने का पर्व है होली… शोक और खिन्नता भूल जायें और हर्ष से, प्रसन्नता से विभोर हो जायें, यह होली का संदेश है ।

लकड़ियाँ जलायी, आग पैदा हुई, यह कोई आखिरी होली नहीं है । यह संसार में भटकनेवालों की होली है । साधक की होली कुछ और होती है । साधक तो वह होली खेलेंगे जिसमें वे संयम की, समझ की लकडियाँ इकट्ठी करके उनका घर्षण करेंगे और उसमें ब्रम्हज्ञान की आग जलाकर सारे विकारों को भस्म कर देंगे । ऐसी ही होली आपको अपने गर्भस्थ शिशु के साथ खेलनी है ।

फिर दूसरे दिन धुलेंडी आएगी, उसे निर्दोष बालक होकर खेलेंगे, ‘शिवोsहम… शिवोsहम…’ गायेंगे । एक परमात्मा की ही याद…. जहाँ-जहाँ नजर पड़े हम अपने-आपसे खेल रहे है, अपने-आपसे बोल रहे है, अपने-आपको देख रहे है, हम अपने-आपमें मस्त हैं । भिन्न-भिन्न प्रकार के रंगों से अपने तन के वस्त्र रंग देना और उन रंगों के बीच-बीच कभी कोई मिट्टी भी उँडेल देता है अर्थात् रंग छिड़कने के बीच धूल का भी प्रयोग हो जाता है, उसको धुलेंडी बोलते हैं । हमारे जीवन में भी अनेक प्रकार के हर्ष और शोक आयेंगे, अनेक प्रकार के प्रसंग पैदा होंगे और ऐसी रंग-बेरंगी परिस्थितियों पर आखिर एक दिन धूल पड़ जायेगी- इस बात की खबर यह धुलेंडी देती है । 

आप अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को, कमियों को धूल में मिला दो, अहंकार को धूल में मिला दो – यह धुलेंडी का संदेश है । गर्भस्थ शिशु में मिथ्या अहंकार पनपने न देना, माँ के हाथ में है ।

जिसने भीतर की होली खेल ली, जिसके भीतर प्रकाश हो गया, भीतर का प्रेम आ गया, जिसने आध्यात्मिक होली खेल ली, उसको जो रंग चढ़ता है वह अबाधित रंग होता है । संसारी होली का रंग हमें नहीं चढ़ता, हमारे कपड़ों को चढ़ता है । वह टिकता भी नहीं, कपड़ों पर टिका तो वे तो फट जाते है लेकिन आपके ऊपर अगर फकीरी होली का रंग चढ़ जाय… काश ! ऐसा कोई सौभाग्यशाली दिन आ जाय कि तुम्हारे ऊपर आत्मानुभवी महापुरुषों की होली का रंग लग जाय, फिर ३३ करोड़ देवता धोबी का काम शुरू करें और तुम्हारा रंग उतारने की कोशिश करें तो भी तुम्हारा रंग न उतारने बल्कि तुम्हारा रंग उन पर चढ़ जायेगा ।

पूज्य बापूजी की माता की भांति अपने बच्चों को इस वैदिक होली के पीछे छिपा रहस्य अवश्य बताना । होली में रोटी को धागा बाँधते हैं और उसे आग में सेंकते हैं, तब रोटी जल जाती है लेकिन धागा ज्यों-का-त्यों रहता है । तुम्हारा शरीर भी रोटी है । माता-पिता ने रोटी खायी, उसीसे रज-वीर्य बना और तुम्हारा जन्म हुआ । तुमने रोटी खायी और बड़े हुए इसलिए तुम जिस शरीर को आज तक ‘मैं’ मान रहें हो उसको रोटी जैसा ही समझो । होली पैगाम देती है कि शरीररूपी यह रोटी तो जल जायेगी, सड़ जायेगी लेकिन उसके इर्द-गिर्द, अंदर-बाहर जो सूत्ररूप आत्मा है वह न जलेगा, न टूटेगा । ऐसा जो आत्मरस का धागा है, ब्रह्मानंद का धागा है, उसे ज्यों-का-त्यों तुम समझ लेना ।

जब तक ज्ञान का रंग पक्का नहीं लगा, तब तक खूब सँभल-सँभलकर होली खेलें । होली के दिन संयम रखना बहुत हितकारी है । अगर इस दिन नासमझी से पति-पत्नी का संसारी व्यवहार किया तो विकलांग संतान ही होती है । अगर संतान नहीं भी हुई तो भी पति-पत्नी को बड़ी हानि होती है । रोगप्रतिकारक शक्ति का खूब नाश होता है । होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है, एक जप हजार गुना फल देता है ।

होली कैसे मनाएं ?

प्राचीन समय में लोग पलाश के फूलों से बने रंग अथवा अबीर-गुलाल, कुमकुम–हल्दी से होली खेलते थे । किन्तु वर्त्तमान समय में रासायनिक तत्त्वों से बने रंगों का उपयोग किया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । अतः ऐसे रंगों से बचना चाहिये । यदि किसी ने आप पर ऐसा रंग लगा दिया हो तो तुरन्त ही बेसन, आटा, दूध, हल्दी व तेल के मिश्रण से बना उबटन रंगे हुए अंगों पर लगाकर रंग को धो डालना चाहिये । इससे पूर्व उस स्थान को नींबू से रगड़कर साफ कर लिया जाए तो रंग छूटने में और अधिक सुगमता होती है । रंग खेलने से पहले अपने शरीर को नारियल अथवा सरसों के तेल से अच्छी प्रकार लेना चाहिए ताकि तेलयुक्त त्वचा पर रंग का दुष्प्रभाव न पड़े और साबुन लगाने मात्र से ही शरीर पर से रंग छूट जाये । 

होली पलाश के रंग एवं प्राकृतिक रंगों से ही खेलनी चाहिए । (पलाश के फूलों का रंग सभी संत श्री आशाराम जी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों में उपलब्ध है।) उसमें गंगाजल तथा तीर्थों का जल भी मिलाया जा सकता है । होली के बाद १५ दिन तक बिना नमक या कम नमक का भोजन करना चाहिए । २०-२५ नीम के पत्ते २-३ काली मिर्च के साथ खाने से बहुत से रोगों से रक्षा होती है । इन दिनों में भुने हुए चने ‘होला’ का सेवन शरीर से वात, कफ आदि दोषों का शमन करता है । होली के बाद खजूर नहीं खाने चाहिए ।

सच मानिये ! ये वैदिक होली आपके और आपके शिशु के जीवन को सच्चे रंगों से रंग देंगी ।

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स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज – एक दिव्य हिन्दू संत

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स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज एक दिव्य विभूति

जन्म एवं बाल्यकाल

हमारी वैदिक हिन्दू संस्कृति का विकास सिंधु नदी के तट से ही प्रारंभ हुआ है । अनेकों ऋषि-मुनियों ने उसके तट पर तपस्यारत होकर आध्यात्मिकता के शिखरों को सर किया है एवं पूरे विश्व क अपने ज्ञान-प्रकाश से प्रकाशित किया है ।

उसी पुण्यसलिला सिंधु नदी के तट पर स्थित सिंध प्रदेश के हैदराबाद जिले के महराब चांडाई नामक गाँव में ब्रह्मक्षत्रिय कुल में परहित चिंतक, धर्मप्रिय एवं पुण्यात्मा टोपणदास गंगाराम का जन्म हुआ था । वे गाँव के सरपंच थे । सरपंच होने के बावजूद उनमें जरा-सा भी अभिमान नहीं था । वे स्वभाव से खूब सरल एवं धार्मिक थे । गाँव के सरपंच होने के नाते वे गाँव के लोगों के हित का हमेशा ध्यान रखते थे । भूल से भी लाँच-रिश्वत का एवं हराम का पैसा गर में न आ जाये इस बात का वे खूब ख्याल रखते थे एवं भूल से भी अपने सरपंच पद का दुरुपयोग नहीं करते थे । गाँव के लोगों के कल्याण के लिए ही वे अपनी समय-शक्ति का उपयोग करते थे । अपनी सत्यनिष्ठा एवं दयालुता तथा प्रेमपूर्ण स्वभाव से उन्होंने लोगों के दिल जीत लिए थे । साधु-संतों के लिए तो पहले से ही उनके हृदय में सम्मान था । इन्हीं सब बातों के फलस्वरूप आगे चलकर उनके घर में दिव्यात्मा का अवतरण हुआ ।

जन्म एवं बाल्यकाल

वैसे तो उनका कुटुंब सभी प्रकार से सुखी था, दो पुत्रियाँ भी थीं, किन्तु एक पुत्र की कमी उन्हें सदैव खटकती रहती थी । उनके भाई के यहाँ भी एक भी पुत्र-समान नहीं थी ।

एक बार पुत्रेच्छा से प्रेरित होकर टोपणदास अपने कुलगुरु श्री रतन भगत के दर्शन के लिए पास के गाँव तलहार में गये । उन्होंने खूब विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर एवं मस्तक नवाकर कुलगुरु को अपनी पुत्रेच्छा बतायी । साधु-संतों के पास सच्चे दिल से प्रार्थना करने वाले को उनके अंतर के आशीर्वाद मिल ही जाते हैं । कुलगुरु ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हुए कहाः

“तुम्हें 12 महीने के भीतर पुत्र होगा जो केवल तुम्हारे कुल का ही नहीं परंतु पूरे ब्रह्मक्षत्रिय समाज का नाम रोशन करेगा । जब बालक समझने योग्य हो जाये तब मुझे सौंप देना ।”

संत के आशीरवाद फले । रंग-बिरंगे फूलों का सौरभ बिखेरती हुई वसंत ऋतु का आगमन हुआ । सिंधी पंचाग के अनुसार संवत् 1937 के 23 फाल्गुन के शुभ दिवस पर टोपणदास के घर उनकी धर्मपत्नी हेमीबाई के कोख से एक सुपुत्र का जन्म हुआ ।

कुल पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन ।

‘जिस कुल में महापुरुष अवतरित होते हैं वह कुल पवित्र हो जाता है । जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह माता कृतार्थ हो जाती है एवं जिस जगह पर वे जन्म लेते हैं वह वसुन्धरा भी पुण्यशालिनी हो जाती है ।’

पूरेकुटुंब एवं गाँव में आनन्द की लहर छा गयी । जन्मकुंडली के अनुसार बालक का नाम लीलाराम रखा गया । आगे जाकर यही बालक लीलाराम प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज ने केवल सिंध देश के ही गाँवों में ज्ञान की ज्योति जगाई हो – ऐसी बात नहीं थी, वरन् पूरे भारत में एवं विदेशों में भी सत्शास्त्रों एवं ऋषि-मुनियों द्वारा दिये गये आत्मा की अमरता के दिव्य संदेश को पहुँचाया था । उन्होंने पूरे विश्व को अपना मानकर उसकी सेवा में ही अपना पूरा जीवन लगा दिया था । वे सच्चे देशभक्त एवं सच्चे कर्मयोगी तो थे ही, महान् ज्ञानी भी थे ।

इसलिए उत्तम संतानप्राप्ति के इच्छुक दम्पत्तियों को चाहिए कि वे ब्रह्मज्ञानी संतों के दर्शन-सत्संग का लाभ लेकर स्वयं सुविचारी, सदाचारी एवं पवित्र बनें । साथ ही उत्तम संतानप्राप्ति के नियमों को जान लें और शास्त्रोक्त रीति से गर्भधान कर परिवार, देश व मानवता का मंगल करने वाली महान आत्माओं की आवश्यकता की पूर्ति करें ।

 

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जल है औषध समान…

जल है औषध समान

ग्रीष्म ऋतु आते ही जल हमारे जीवन के लिए श्वासों के समान बहुमूल्य हो जाता है । सगर्भा माँ के भोजन और जल से शिशु का पोषण होता है । सगर्भावस्था में अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है क्योंकि उस दौरान प्यास अधिक लगना, गर्मी अधिक लगना, पसीना अधिक आना, बार-बार मूत्र त्याग के लिए जाना जैसे लक्षण भी सामान्यत: सभी में देखे जाते हैं । गर्भाशय में गर्भ गर्भकोष के अन्दर गर्भोदक में तैरता रहता है । गर्भावस्था में सातवें-आठवें माह में गर्भोदक कम होने की सम्भावना अधिक होती है । इसलिए प्रारम्भ से ही पर्याप्त पानी पीना चाहिए ।

विशेष ध्यान दें :
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् । भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ॥
‘अजीर्ण होने पर जल-पान औषधवत् है । भोजन पच जाने पर अर्थात् भोजन के डेढ़-दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक है । भोजन के मध्य में पानी पीना अमृत के समान है और भोजन के अंत में विष के समान अर्थात् पाचनक्रिया के लिए हानिकारक है ।’ (चाणक्य नीति : ८.७)

प्रातः उषापान :
सूर्योदय से २ घंटा पूर्व, शौच क्रिया से पहले रात का ताम्बे के पत्र में रखा हुआ पाव से आधा लीटर पानी पीना असंख्य रोगों से रक्षा करनेवाला है । शौच के बाद पानी न पियें ।

औषधि-सिद्ध जल

(१) अजवायन-जल : एक लीटर पानी में एक चम्मच (करीब ८.५ ग्राम) अजवायन डालकर उबालें । पानी आधा रह जाय तो ठंडा करके छान लें । उष्ण प्रकृति का यह जल हृदय-शूल, गैस, कृमि, हिचकी, अरुचि, मंदाग्नि, पीठ व कमर का दर्द, अजीर्ण, दस्त, सर्दी व बहुमूत्रता में लाभदायी है । प्रसूति के बाद होनेवाले वायु प्रकोप में यह अजवायन जल बहुत लाभदायक है । इसके सेवन से गर्भाशय में संक्रमण नहीं होता, भूख खुलकर लगती है, कब्ज नहीं होती ।

 

 

(२) जीरा-जल : एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच जीरा डालकर उबालें । पौना लीटर पानी बचने पर ठंडा कर छान लें । शीतल गुणवाला यह जल गर्भवती एवं प्रसूता स्त्रियों के लिए तथा रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिकस्राव, गर्भाशय की सूजन, गर्मी के कारण बार-बार होनेवाला गर्भपात व अल्पमूत्रता में आशातीत लाभदायी है ।

 

 

 

(३) हंसोदक : जिस जल पर दिन में सूर्य की किरणें पड़ें तथा रात में चन्द्रमा की किरणें पड़ें, वह जल स्निग्ध और तीनों दोषों का निवारक है । गर्भावस्था में यह जल पीना, शीतल हवा व चन्द्रमा की शीतल किरणों का सेवन करना एवं घास पर चलना खूब लाभदायी है । (Matter lks 2015)

महत्वपूर्ण बातें :

(१) भूखे पेट, भोजन की शुरुआत व अंत में, धूप से आकर, शौच, व्यायाम या अधिक परिश्रम व फल खाने के तुरंत बाद पानी पीना निषिद्ध है ।

(२) अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नम् अर्थात् बहुत अधिक या एक साथ पानी पीने से पाचन बिगड़ता है । इसीलिए मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि । बार-बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए । (भावप्रकाश, पूर्वखंड: (५.१५७)

(३) लेटकर, खड़े होकर पानी पीना तथा पानी पीकर तुरंत दौड़ना या परिश्रम करना हानिकारक है । बैठकर धीरे-धीरे चुस्की लेते हुए बायाँ स्वर सक्रिय हो तब पानी पीना चाहिए ।

     (४) प्लास्टिक की बोतल में रखा हुआ पानी हानिकारक है ।

(५) फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ मिलाया हुआ पानी स्पर्श में ठंडा लेकिन तासीर में गरम होने से हितकर नहीं है । मिट्टी के बर्तन में (मटके में) रखा हुआ पानी सबसे हितकर है ।

 

 

 

 

(६) वाटर प्युरिफायर द्वारा शुद्ध किये पानी में से शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्व एवं एलेक्ट्रोलाईट नष्ट हो जाते हैं । अत: इसकी अपेक्षा पानी को १०-१५ मिनट उबालकर ठंडाकर पीना स्वास्थ्यकर है । उबालने से पानी के हानिकारक तत्व तो नष्ट होते हैं, परंतु पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं । सम्भव हो तो उबालते समय पानी में शुद्ध सोने का छोटा-सा टुकड़ा अथवा स्वच्छ गहना डालें । इससे बल, वर्ण, ओज-तेज में वृद्धि होगी ।

 

 

 

 

(६) ताम्बे के पात्र में रखा हुआ जल पवित्र, शीतल व औषधीय गुणों से युक्त होता है । शरीर में लौह तत्व के अवशोषण में सहायता करता है, जल में निहित जीवाणुओं को नष्ट करता है । (ताम्बे के पात्र को प्रतिदिन माँजना जरुरी है अन्यथा उसके भीतर कॉपर ऑक्साइड की हरे रंग की परत जमने लग जाती है जो नुकसानदायक है ।)

 

 

(५) सामान्यतः एक दिन में दो-ढाई लीटर पानी पर्याप्त है । देश-ऋतु-प्रकृति आदि के अनुसार यह मात्रा बदल सकती है ।

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Pregnancy में अति मीठा : शिशु के लिए अभिशाप !!!

Pregnancy में अति मीठा : शिशु के लिए अभिशाप !!!

जैसे-जैसे हर माह प्रेग्नेंसी का सफ़र आगे बढ़ता है, सगर्भा को तरह-तरह की चीजें खाने का मन करता है, कभी खट्टी, कभी नमकीन, कभी तीखी, कभी मीठी… इन सभी टेस्ट्स में से मिठाई का ग्राफ हमेशा सबसे ऊपर ही रहता है । मीठे को देखते ही मुँह में पानी आ जाना स्वाभाविक है । लेकिन गर्भवती माता के खान-पान का सीधा प्रभाव शिशु पर पड़ता है, इसलिए उसे मीठा खाने को लेकर बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है । इसलिए मिठाईयों की शौक़ीन मातायें पहले इस लेख को ध्यान पढ़ें और फिर तय करें कि उन्हें कब, कितनी और कैसी मिठास लेनी है ।

मिठाई की दुकान : साक्षात् यमदूत का घर

  • आचार्य सुश्रुत ने कहा है : ‘भैंस का दूध पचने में अति भारी होने से रसवाही स्रोतों को कफ से अवरुद्ध करनेवाला एवं जठराग्नि का नाश करनेवाला है !’ यदि भैंस का दूध इतना नुकसान कर सकता है तो उसका मावा जठराग्नि का कितना भयंकर नाश करता होगा ? मावे के लिए शास्त्र में ‘किलाटक’ शब्द का उपयोग किया गया है, जो भारी होने के कारण भूख मिटा देता है : किरति विक्षिपत क्षुधं गुरुत्वात् कृ विक्षेपे किरे लश्रति किलाटः इति हेमः ततः स्वार्थेकन् ।
  • नयी ब्याही हुई गाय-भैंस के शुरुआत के दूध को ‘पीयूष’ भी कहते हैं । यही कच्चा दूध बिगड़कर गाढ़ा हो जाता है, जिसे ‘क्षीरशाक’ कहते हैं । दूध में दही अथवा छाछ डालकर उसे फाड़ लिया जाता है फिर उसे स्वच्छ वस्त्र में बाँधकर उसका पानी निकाल लिया जाता है जिसे ‘तक्रपिंड’ (छेना या पनीर) कहते हैं ।
  • ‘भावप्रकाश निघंटु’ में लिखा गया है कि ‘ये सब चीजें पचने में अत्यंत भारी एवं कफकारक होने से अत्यंत तीव्र जठराग्निवालों को ही पुष्टि देती हैं, अन्य के लिए तो रोगकारक ही साबित होती हैं ।’
  • श्रीखंड और पनीर भी पचने में अति भारी, कब्जियत करनेवाले हैं । ये चर्बी, कफ, पित्त एवं सूजन उत्पन्न करनेवाले हैं । ये यदि नहीं पचते हैं तो चक्कर, ज्वर, रक्तपित्त (रक्त का बहना), रक्तवात, त्वचारोग, पांडुरोग (रक्त न बनना) तथा रक्त का कैंसर आदि रोगों को जन्म देते हैं ।
  • जब मावा, पीयूष, छेना (तक्रपिंड), क्षीरशाक, दही आदि से मिठाई बनाने के लिए उनमें शक्कर मिलायी जाती है, तब तो वे और भी ज्यादा कफ करनेवाले, पचने में भारी हो जाते हैं । पाचन में अत्यंत भारी ऐसी मिठाइयाँ खाने से कब्जियत एवं मंदाग्नि होती है जो सब रोगों का मूल है । इसका योग्य उपचार न किया जाए तो ज्वर आता है एवं ज्वर को दबाया जाय अथवा गलत चिकित्सा हो जाय तो रक्तपित्त, रक्तवात, त्वचा के रोग, पांडुरोग, रक्त का कैंसर, गाँठ, चक्कर आना, उच्च रक्तचाप, गुर्दे के रोग, लकवा, मधुमेह, कोलेस्ट्रोल बढ़ने से हृदयरोग आदि रोग होते हैं । कफ बढ़ने से खाँसी, दमा, क्षयरोग जैसे रोग होते हैं । मंदाग्नि होने से सातवीं धातु (वीर्य) कैसे बन सकती है ? अतः अंत में नपुंसकता आ जाती है !
  • आज का विज्ञान भी कहता है कि ‘बौद्धिक कार्य करनेवाले व्यक्ति के लिए दिन के दौरान भोजन में केवल ४० से ५० ग्राम वसा (चरबी) पर्याप्त है और कठिन श्रम करनेवाले के लिए ९० ग्राम । इतनी वसा तो सामान्य भोजन में लिये जानेवाले घी, तेल, मक्खन, गेहूँ, चावल, दूध आदि में से ही मिल जाती है । इसके अलावा मिठाई खाने से कोलेस्ट्रोल बढ़ता है । धमनियों की जकड़न बढ़ती है, नाड़ियाँ मोटी होती जाती हैं । दूसरी ओर, रक्त में चरबी की मात्रा बढ़ती है और वह इन नाड़ियों में जाती है। जब तक नाड़ियों में कोमलता होती है तब तक वे फैलकर इस चरबी को जाने के लिए रास्ता देती है । परंतु जब वे कड़क हो जाती हैं, उनकी फैलने की सीमा पूरी हो जाती है तब वह चरबी वहीं रुक जाती है और हृदयरोग को जन्म देती है ।’
  • मिठाई में अनेक प्रकार की दूसरी ऐसी चीजें भी मिलायी जाती हैं, जो घृणा उत्पन्न करें । शक्कर अथवा बूरे में कॉस्टिक सोडा अथवा चॉक का चूरा भी मिलाया जाता है जिसके सेवन से आँतों में छाले पड़ जाते हैं । प्रत्येक मिठाई में प्रायः कृत्रिम (एनेलिन) रंग मिलाये जाते हैं जिसके कारण कैंसर जैसे रोग उत्पन्न होते हैं ।
  • जलेबी में कृत्रिम पीला रंग (मेटालीन येलो) मिलाया जाता है, जो हानिकारक है । लोग उसमें टॉफी, खराब मैदा अथवा घटिया किस्म का गुड़ भी मिलाते हैं । उसे जिन आयस्टोन एवं पेराफील से ढका जाता है, वे भी हानिकारक हैं । उसी प्रकार मिठाइयों को मोहक दिखानेवाले चाँदी के वर्क एल्यूमिनियम फॉइल में से बने होते हैं ।
  • आधुनिक विदेशी मिठाइयों में पीपरमेंट, गोले, चॉकलेट, बिस्कुट, लालीपॉप, केक, टॉफी, जेम्स, जेलीज़, ब्रेड आदि में घटिया किस्म का मैदा, सफेद खड़ी, प्लास्टर ऑफ पेरिस, बाजरी अथवा अन्य अनाज का बिगड़ा हुआ आटा मिलाया जाता है । अच्छे केक में भी अण्डे का पाउडर मिलाकर बनावटी मक्खन, घटिया किस्म के शक्कर एवं जहरीले सुगंधित पदार्थ मिलाये जाते हैं । नानखटाई में इमली के बीज के आटे का उपयोग होता है । ‘कन्फेक्शनरी’ में फ्रेंच चॉक, ग्लुकोज़ का बिगड़ा हुआ सीरप एवं सामान्य रंग अथवा एसेन्स मिलाये जाते हैं । बिस्कुट बनाने के उपयोग में आनेवाले आकर्षक जहरी रंग हानिकारक होते हैं ।
  • इस प्रकार, ऐसी मिठाइयाँ वस्तुतः मिठाई न होते हुए बल, बुद्धि और स्वास्थ्यनाशक, रोगकारक एवं तमस बढ़ानेवाली साबित होती हैं ।
  • मिठाइयों का शौक कुप्रवृत्तियों का कारण एवं परिणाम है । डॉ. ब्लोच लिखते हैं कि ‘मिठाई का शौक जल्दी कुप्रवृत्तियों की ओर प्रेरित करता है । जो बालक मिठाई के ज्यादा शौकीन होते हैं उनके पतन की ज्यादा संभावना रहती है और वे दूसरे बालकों की अपेक्षा हस्तमैथुन जैसे कुकर्मों की ओर जल्दी खिंच जाते हैं ।
  • स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है : “मिठाई (कंदोई) की दुकान साक्षात् यमदूत का घर है ।”
  • जैसे, खमीर लाकर बनाये गये इडली-डोसे आदि खाने में तो स्वादिष्ट लगते हैं परंतु स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक होते हैं, इसी प्रकार मावे एवं दूध को फाड़कर बने पनीर से बनायी गयी मिठाइयाँ लगती तो मीठी हैं पर होती हैं जहर के समान । मिठाई खाने से लीवर और आँतों की भयंकर असाध्य बीमारियाँ होती हैं ।

गर्भावस्था में मिठाईयाँ कितनी सुरक्षित?

ये तो वो हकीकत है जिससे एक व्यस्क व्यक्ति प्रभावित होता है । गर्भ में पल रहे शिशु का शरीर तो अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ है । माँ के भोजन से उसका शरीर पोषण प्राप्त करता है । ऐसे में गर्भवती माता का मिठाईयों का शौक शिशु के लिए कैसे हानिकारक है, यह भी समझते हैं । गर्भावस्था में अधिक मीठा खाने से –   

  1. माता का वजन बढ़ सकता है, जिसके कारण कई बार पीठ दर्द, पैरों में दर्द और गर्भकालीन मधुमेह जैसी जटिलताएं भी हो सकती हैं ।
  2. अधिक मीठा खाने से माता को एक्‍यूट फैटी लिवर सिंड्रोम हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण को मेटाबॉलिक सिंड्रोम हो सकता है और आगे चलकर बच्‍चा मोटापे का शिकार हो सकता है ।
  3. रक्त में सुक्रोज का स्तर अधिक हो जाता है । शिशु मेंडायबिटीज- टाइप 2 का खतरा रहता है ।
  4. अधिक शुगर प्‍लेसेंटा से शिशु को नुकसान पहुँचा सकती है, भ्रूण में ब्‍लड शुगर के स्‍तर को बढ़ा सकती है और शिशु का आकार बढ़ सकता है । इस स्थिति को मैक्रोसोमिया कहते हैं ।
  5. शिशु का आकार बड़ा होने पर सिजेरियन डिलीवरी और प्रीमैच्‍योर डिलीवरी की नौबत आ सकती है ।
  6. गर्भावस्था के दौरान अधिक चीनीवाली चीजें खाने से बच्चे को अस्थमा का खतरा हो सकता है और यह उसकी संज्ञानात्मक क्षमताओं को भी प्रभावित कर सकता है । अमेरिकन जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, गर्भवती महिला द्वारा चीनी का सेवन उसके बच्चे की याददाश्त और सीखने को प्रभावित कर सकता है ।
  7. कई बार ज्यादा मीठा खाना होनेवाले बच्चे में हृदय रोग का कारण भी बन सकता है ।
  8. सभी गर्भवती महिलाओं को अपने गर्भावस्था के आहार में सैकरीन को शामिल करने से बचना चाहिए क्योंकि इसके उपयोग से बच्चे में मूत्राशय कैंसर होने की संभावना बढ़ सकती है ।

तो अब क्या करें ?

मिठास को पोषक (कैलोरी युक्त) और गैर-पोषक (कैलोरी रहित) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है । गर्भवती महिलाओं के लिए प्राकृतिक मिठास हमेशा सबसे अच्छा विकल्प होता है । कृत्रिम मिठास गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान सबसे सुरक्षित मानी गई है । गर्भावस्था के दौरान शरीर में मीठे की कमी को पूरा करने के लिए फल (अंगूर, केले, संतरे, सेब, खरबूजा, आम), शहद, मिश्री, देसी गुड़ का पानी, ब्राउन शुगर, किशमिश, खजूर, अंजीर (सूखे मेवे भिगोकर ही उपयोग करें), गन्ना, गन्ने का रस, नारियल पानी, घर में बने आटे के बिस्किट आदि का सेवन सीमित मात्रा में किया जा सकता है ।

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गाय का दूध : शिशु के लिए सर्वोत्तम आहार

गाय का दूध : शिशु के लिए सर्वोत्तम आहार

माँ के दूध के अलावा जब बच्चा अन्य आहार लेने लगता है, तब देशी गाय का दूध उन शिशुओं के लिए सबसे उत्तम आहार है । गोदुग्ध में क्षार अधिक होते हैं तथा पाचक रसों का पर्याप्त समावेश होता है, जिससे इस दूध को बालक का कोमल पाचन तंत्र सरलता से पचा लेता है । गाय का दूध बुद्धि व स्फूर्तिवर्धक भी है ।
भैंस के दूध में प्रोटीन, कैल्शियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस जैसे तत्त्व माँ तथा गाय के दूध की तुलना में अधिक होते हैं जिससे पाँच वर्ष तक के शिशु की kidneys उन्हें सहन नहीं कर पाती और उसकी kidneys में पथरी बनने लगती है । इसलिए बच्चों को भैंस के बजाय गाय का दूध देना चाहिए ।

गर्भिणी और गर्भस्थ शिशु दोनों के लिए जरूरी है गोदुग्ध

प्रसव के पूर्व माँ के गर्भ में जब बालक का निर्माण होता है, उस समय यदि माँ को गोदुग्ध दिया जाय तो उसके स्वास्थ्य पर उत्तम प्रभाव पड़ता है और गर्भस्थ शिशु की वृद्धि भी सही ढंग से होती है । प्रसव के बाद स्तनपान काल में भी माँ को गोदुग्ध का सेवन कराया जाय तो स्तनपान कराने से शरीर में जिन तत्त्वों की आवश्यकता उत्पन्न होती है, उनकी पूर्ति भली प्रकार हो जाती है ।

यदि कोई बच्चा भारतीय नस्ल की गाय का दूध बचपन में तीन वर्ष भी सेवन कर ले तो वह मानसिक और शारीरिक रूप से इतना सक्षम हो सकता है कि वह अपने जीवन में कम-से-कम बीमार पड़ेगा (जैसे पूज्य बापूजी) ।

कोई कुपोषित बच्चा हो तो उसे मात्र एक वर्ष ऐसा दूध मिल जाय तो उसका कुपोषण दूर हो जायेगा ।

‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार गोदुग्ध माता के दूध के बाद सबसे अधिक उपयोगी है ।

गाय का दूध पीनेवाले बच्चे होते हैं ज्यादा समझदार व ताकतवर

देशी गाय का दूध शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि करता है । गोदुग्ध में तेज तत्त्व अधिक मात्रा में एवं पृथ्वी तत्त्व बहुत कम मात्रा में होने से इसका सेवन करनेवाला प्रतिभासम्पन्न व तीव्र ग्रहण शक्तिवाला हो जाता है । गोदुग्ध में उपस्थित ‘सेरीब्रोसाइड्स’ मस्तिष्क को ताजा रखने एवं बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए उत्तम टॉनिक का काम करते हैं ।

‘डूडी विश्वविद्यालय’ के शोधकर्ताओं द्वारा इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, इटली तथा बेल्जियम के १५० बच्चों पर एक अध्ययन किया गया । इन बच्चों को दो समूहों में बाँटा गया । एक समूह उन बच्चों का था जो नियमित रूप से दूध पीते थे और दूसरे समूह में वे बच्चे थे जो दूध नहीं पीते थे । अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अन्य पोषक आहार का सेवन करनेवाले लेकिन दूध न पीनेवाले बच्चों के मुकाबले में दूध पीनेवाले बच्चे ज्यादा समझदार व ताकतवर होते हैं । इससे बच्चों का बेहतर विकास होता है । दूध के सेवन से न केवल दिमागी शक्ति में वृद्धि होती है बल्कि समस्याओं का भी बेहतर ढंग से समाधान कर पाना सम्भव होता है ।

शोध से यह भी पता चला कि दूध पीनेवाले बच्चों में निम्न रक्तचाप से लड़ने की क्षमता भी अधिक होती है । ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ (एम्स) के अनुसार ‘हड्डियों के रोगों से बचने के लिए छोटी उम्र से ही दूध पीने की आदत डालनी चाहिए । नियमित रूप से दूध पीनेवाले लोगों में बीमारियाँ नहीं पनपतीं, उन्हें कमजोरी नहीं सताती ।’

गाय का दूध पीनेवाले प्रसन्न रहते हैं । गाय के दूध में ‘ट्रिप्टोफेन’ सबसे अधिक पाया जाता है जो ‘सेरोटोनिन’ हार्मोन की कमी नहीं होने देता । इस हार्मोन की कमी से ही मनोदशा बिगड़ती है ।

यदि आप चाहते हैं कि आपका शरीर सुंदर एवं सुगठित हो, वजन एवं कद में खूब वृद्धि हो, आप मेधावी और प्रचंड बुद्धिशक्तिवाले व विद्वान बनें तो नियमित रूप से देशी गाय के दूध, घी, मक्खन का सेवन करें । अपने बच्चों को भी देशी गाय का दूध, मक्खन, घी खिलायें ।

ध्यान रहें :

दूध को खूब फेंटकर झाग पैदा करके धीरे-धीरे घूँट-घूँट पीना चाहिए । इसका झाग त्रिदोषनाशक, बलवर्धक, तृप्तिकारक व हलका होता है ।
ये विशेषताएँ केवल देशी गाय के दूध में ही होती हैं । जर्सी गाय, भैंस अथवा बकरी आदि के दूध से उपरोक्त लाभ नहीं होते ।
सावधानी : दूध को खूब उबाल-उबालकर गाढ़ा करके पीना हानिकारक है ।

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अद्भुत प्रभाव-संपन्न संतान की प्राप्ति करानेवाला व्रत : पयोव्रत

पयोव्रत

11 मार्च से 20 मार्च 2024

अद्भुत प्रभाव-संपन्न संतान की प्राप्ति करानेवाला व्रत : पयोव्रत

अद्भुत प्रभाव-सम्पन्न संतान की प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले स्त्री-पुरुषों के लिए शास्त्रों में पयोव्रत करने का विधान है । यह भगवान को संतुष्ट करनेवाला है । इसलिए इसका नाम ‘सर्वयज्ञ’ और ‘सर्वव्रत’ भी है । यह फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है । इसमें केवल दूध पीकर रहना होता है ।

व्रत के नियम

व्रतधारी दम्पति व्रत के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करें ।

धरती पर दरी या कंबल बिछाकर शयन करें अथवा गद्दा-तकिया हटा के सादे पलंग पर शयन करें ।

व्रतधारी तीनों समय स्नान करें ।

झूठ न बोलें एवं भोगों का त्याग कर दें ।

किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचायें ।

सत्संग-श्रवण, भजन-कीर्तन, स्तुति-पाठ तथा अधिक-से-अधिक गुरुमंत्र या भगवन्नाम का जप करें ।

भक्तिभाव से सद्गुरुदेव को सर्वव्यापक परमात्मस्वरूप जानकर उनकी पूजा करें और स्तुति करें : ‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हैं । समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं । आप अव्यक्त और परम सूक्ष्म हैं । आप सबके साक्षी हैं । आपको मेरा नमस्कार है ।’

व्रत के एक दिन पूर्व (10 मार्च) से समाप्ति (20 मार्च) तक करने योग्य

  • द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) से भगवान या सद्गुरु का पूजन करें तथा इस मंत्र की एक माला जपें ।
  • यदि सामर्थ्य हो तो दूध में पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले हुए चावल का नैवेद्य अर्पण करें और उसीका देशी गौ-गोबर के कंडे जलाकर द्वादशाक्षर मंत्र से हवन करें । (नैवेद्य हेतु दूध के साथ गुड़ का अल्प मात्रा में उपयोग करें ।) नैवेद्य को भक्तों में थोड़ा-थोड़ा बाँट दें ।
  • सम्भव हो तो दो निर्व्यसनी, सात्त्विक ब्राह्मणों को खीरका भोजन करायें । अमावस्या के दिन (10 मार्च को) खीर का भोजन करें । 11 मार्च को निम्नलिखित संकल्प करें तथा 20 मार्च तक केवल दूध पीकर रहें ।

संकल्प : मम सकलगुणगणवरिष्ठमहत्त्वसम्पन्नायुष्मत्पुत्रप्राप्तिकामनया विष्णुप्रीतये पयोव्रतमहं करिष्ये ।

व्रत-समाप्ति के अगले दिन (21 मार्च को) सात्विक ब्राह्मण को तथा अतिथियों को अपने सामर्थ्य अनुसार शुद्ध, सात्त्विक भोजन कराना चाहिए । दीन, अंधे और असमर्थ लोगों को भी अन्न आदि से संतुष्ट करना चाहिए । जब सब लोग खा चुके हों तब उन सबके सत्कार को भगवान की प्रसन्नता का साधन समझते हुए अपने भाई-बंधुओं के साथ स्वयं भोजन करें । इस प्रकार विधिपूर्वक यह व्रत करने से भगवान प्रसन्न होकर व्रत करनेवाले की अभिलाषा पूर्ण करते हैं ।

ध्यान रहें

ब्राहमण भोजन के लिए बिना गुड़-मिश्रित खीर बनायें एवं एकादशी (20 मार्च) के दिन खीर चावल की न बनायें अपितु मोरधन, सिंघाड़े का आटा, राजगिरा आदि उपवास में खायी जानेवाली चीजें डालकर बनायें ।

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महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि धार्मिक दृष्टि से देखा जाय तो पुण्य अर्जित करने का दिन है लेकिन भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाय तो इस दिन आकाशमण्डल से कुछ ऐसी किरणें आती हैं, जो व्यक्ति के तन-मन को प्रभावित करती हैं। इस दिन व्यक्ति जितना अधिक जप, ध्यान व मौन परायण रहेगा, उतना उसको अधिक लाभ होता है।

महाशिवरात्रि भाँग पीने का दिन नहीं है । शिवजी को व्यसन है भुवन भंग करने का अर्थात् भुवनों की सत्यता को भंग करने का लेकिन भँगेड़ियों ने ‘भुवनभंग’ भाँग बनाकर घोटनी से घोंट-घोंट के भाँग पीना चालू कर दिया। शिवजी यह भाँग नहीं पीते हैं जो ज्ञानतंतुओं को मूर्च्छित कर दे। शिवजी तो ब्रह्मज्ञान की भाँग पीते हैं, ध्यान कीभाँग पीते हैं । शिवजी पार्वती जी को लेकर कभी-कभी अगस्त्य ऋषि के आश्रम में जाते हैं और ब्रह्मविद्या की भाँग पीते हैं । गंगा-किनारा नहीं देखा हो तो मन-ही-मन ‘गंगे मात की जय!’ कह के गंगा जी में नहा लिया। फिर एक लोटा पानी का भरकर धीरे-धीरे शिवजी को चढ़ाया, ऐसा नहीं कि उँडेल दिया । और ‘नमः शिवाय, ‘जय भोलानाथ ! मेरे शिवजी ! नमः शिवाय, नमः शिवाय….’ मन में ऐसा बोलते-बोलते पानी का लोटा चढ़ा दिया, मन-ही-मन हार, बिल्वपत्र चढ़ा दिये । फिर प्रार्थना कीः ‘आज की महाशिवरात्रि मुझे आत्मशिव से मिला दे ।’ कई लोग कहते हैं कि शिवजी को भाँग का व्यसन है । वास्तव में तो उऩ्हें भुवन भंग करने का यानी सृष्टि का संहार करने का व्यसन है, भाँग पीने का नहीं । किन्तु भंगेड़ियों ने ʹभुवन भंगʹ में से अकेले ʹभंगʹ शब्द का अर्थ ʹभाँगʹ लगा लिया और भाँग पीने की छूट ले ली । उत्तम माली वही है जो आवश्यकता के अनुसार बगीचे के काँट-छाँट करता रहता है, तभी बगीचा सजा-धजा रहता है । अगर वह बगीचे में काट-छाँट न करे तो बगीचा जंगल में बदल जाये । ऐसे ही भगवान शिव इस संसार के उत्तम माली हैं, जिन्हें भुवनों को भंग करने का व्यसन है । शिवजी के यहाँ बैल-सिंह, मोर-साँप-चूहा आदि परस्पर विपरीत स्वभाव के प्राणी भी मजे एक साथ निर्विघ्न रह लेते हैं। क्यों ? शिवजी की समता के प्रभाव से । ऐसे ही जिसके जीवन में समता है वह विरोधी वातावरण में, विरोधी विचारों मे भी बड़े मजे से जी लेता है ।

जैसे, आपने देखा होगा कि गुलाब के फूल को देखकर बुद्धिमान व्यक्ति प्रसन्न होता है किः ʹकाँटों के बीच भी वह कैसे महक रहा है ! जबकि फरियादी व्यक्ति बोलता है किः ʹएक फूल और इतने सारे काँटे ! क्या यही है संसार, कि जिसमें जरा सा सुख और कितने सारे दुःख !ʹ जो बुद्धिमान है, शिवतत्त्व का जानकार है, जिसके जीवन में समता है, वह सोचता है कि जिस सत्ता से फूल खिला है, उसी सत्ता ने काँटों को भी जन्म दिया है । जिस सत्ता ने सुख दिया है, उसी सत्ता ने दुःख को भी जन्म दिया है । सुख-दुःख को देखकर जो उसके मूल में पहुँचता है, वह मूलों के मूल महादेव को भी पा लेता है । इस प्रकार शिवतत्त्व में जो जगे हुए हैं उन महापुरुषों की तो बात ही निराली है लेकिन जो शिवजी के बाह्य रूप को ही निहारते हैं वे भी अपने जीवन में उपरोक्त दृष्टि ले आयें तो उनकी भी असली शिवरात्रि, कल्याणमयी रात्रि हो जाये….

शिवजी का अनोखा वेश, देता है दिव्य सन्देश

यस्यांकि य विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके। 
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोઽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा।
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातु माम्।।

ʹजिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ सर्वेश्वर, संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याणस्वरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।ʹ

ʹशिवʹ अर्थात् कल्याण-स्वरूप । भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याणकारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को एक मार्गदर्शन प्रदान करनेवाला है ।

शिवजी का निवास-स्थान है कैलास शिखर । ज्ञान हमेशा धवल शिखर पर रहता है अर्थात् ऊँचे केन्द्रों में रहता है जबकि अज्ञान नीचे के केन्द्रों में रहता है । काम, क्रोध, भय आदि के समय मन-प्राण नीचे के केन्द्र में, मूलाधार केन्द्र में रहते हैं । मन और प्राण अगर ऊपर के केन्द्रों में हो तो वहाँ काम टिक नहीं सकता । शिवजी को काम ने बाण मारा लेकिन शिवजी की निगाहमात्र से ही काम जलकर भस्म हो गया । आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाये तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके । कैलास शिखर धवल है, हिमशिखर धवल है और वहाँ शिवजी निवास करते हैं। ऐसे ही जहाँ सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, वहीं आत्मशिव रहता है।

शिवजी की जटाओं से गंगाजी निकलती है अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञानगंगा बहती है । उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं कि जिनसे जटिल-से-जटिल समस्याओं का समाधान भी अत्यंत सरलता से हँसते-हँसते हो जाता है ।

शिवजी के मस्तक पर द्वितीया का चाँद सुशोभित होता है अर्थात् जो ज्ञानी हैं वे दूसरों का नन्हा सा प्रकाश, छोटा-सा गुण भी शिरोधार्य करते हैं । शिवजी ज्ञान के निधि हैं, भण्डार हैं, इसीलिए तो किसी के भी ज्ञान का अनादर नहीं करते हैं वरन् आदर ही करते हैं ।

शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण की है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये मुण्ड किसी साधारण व्यक्ति के मुण्ड नहीं, वरन् ज्ञानवानों के मुण्ड हैं । जिनके मस्तिष्क में जीवनभर ज्ञान के विचार ही रहे हैं, ऐसे ज्ञानवानों की स्मृति ताजी करने के लिए उन्होंने मुण्डमाला धारण की है । कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण करके हमें बताया है कि गरीब हो चाहे धनवान्, पठित हो चाहे अपठित, माई हो या भाई लेकिन अंत समय में सब खोपड़ी छोड़कर जाते हैं । आप अपनी खोपड़ी में चाहे कुछ भी भरो, आखिर वह यहीं रह जाती है ।

भगवान शंकर देह पर भभूत रमाये हुए हैं क्योंकि वे शिव हैं, कल्याणस्वरूप हैं । लोगों को याद दिलाते हैं कि चाहे तुमने कितना ही पद-प्रतिष्ठावाला, गर्व भरा जीवन बिताया हो, अंत में तुम्हारी देह का क्या होने वाला है, वह मेरी देह पर लगायी हुई भभूत बताती है । अतः इस चिताभस्म को याद करके आप भी मोह-ममता और गर्व को छोड़कर अंतर्मुख हो जाया करो ।

शिवजी के अन्य आभूषण हैं बड़े विकराल सर्प । अकेला सर्प होता है तो मारा जाता है लेकिन यदि वह सर्प शिवजी के गले में, उनके हाथ पर होता है तो पूजा जाता है। ऐसे ही आप संसार का व्यवहार केवल अकेले करोगे तो मारे जाओगे लेकिन शिवतत्त्व में डुबकी मारकर संसार का व्यवहार करोगे तो आपका व्यवहार भी आदर्श व्यवहार बन जायेगा ।

शिवजी के हाथों में त्रिशूल एवं डमरू सुशोभित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे सत्त्व, रज एवं तम – इन तीन गुणों के आधीन नहीं होते, वरन् उन्हें अपने आधीन रखते हैं और जब प्रसन्न होते हैं तब डमरू लेकर नाचते हैं ।

व्रत की 3 महत्त्वपूर्ण बातें

महाशिवरात्रि वस्त्र-अलंकार से इस देह को सजाने का, मेवा-मिठाई खाकर जीभ को मजा दिलाने का पर्व नहीं है । यह देह से परे देहातीत आत्मा में आत्मविश्रांति पाने का पर्व है, संयम और तप बढ़ाने का पर्व है । महाशिवरात्रि का व्रत ठीक से किया जाये तो अश्वमेध यज्ञ का फल होता है । इस व्रत में 3 बातें होती हैं ।

१. उपवासः ‘उप’ माने समीप । आप शिव के समीप, कल्याणस्वरूप अंतर्यामी परमात्मा के समीप आने की कोशिश कीजिए, ध्यान कीजिए । महाशिवरात्रि के दिन अन्न-जल या अन्न नहीं लेते हैं । इससे अन्न पचाने में जो जीवनशक्ति खर्च होती है वह बच जाती है । उसको ध्यान में लगा दें । इससे शरीर भी तंदुरुस्त रहेगा ।

२. पूजनः आपका जो व्यवहार है वह भगवान के लिए करिये, अपने अहं या विकार को पोसने के लिए नहीं । शरीर को तन्दुरुस्त रखने हेतु खाइये और उसकी करने की शक्ति का सदुपयोग करने के लिए व्यवहार कीजिए, भोग भोगने के लिए नहीं । योगेश्वर से मिलने के लिए आप व्यवहार करेंगे तो आपका व्यवहार पूजन हो जायेगा ।
पूजन क्या है ? जो भगवान के हेतु कार्य किया जाता है वह पूजा है । जैसे – बाजार में जो महिला झाड़ू लगा ही है, वह रूपयों के लिए लगा रही है । वह नौकरी कर रही है, नौकरानी है । और घर में जो झाड़ू लगा रही है माँ, वह नौकरानी नहीं है, वह सेवा कर रही है । लेकिन हम भगवान के द्वार पर झाड़ू लगा रहे हैं तो वह पूजा हो गयी, भगवान के लिए लगा रहे हैं । महाशिवरात्रि हमें सावधान करती है कि आप जो भी कार्य करें वह भगवत् हेतु करेंगे तो भगवान की पूजा हो जायेगी ।

३. जागरणः आप जागते रहें । जब ‘मैं’ और ‘मेरे’ का भाव आये तो सोच लेना कि ‘यह मन का खेल है ।’ मन के विचारों को देखना । क्रोध आये तो जागना कि ‘क्रोध आया है ।’ तो क्रोध आपका खून या खाना खराब नहीं करेगा । काम आया और जग गये कि ‘यह काम विकार आया है ।’ तुरंत आपने हाथ पैर धो लिये, राम जी का चिंतन किया, कभी नाभि तक पानी में बैठ गये तो कामविकार में इतना सत्यानाश नहीं होगा । आप प्रेमी हैं, भक्त हैं और कोई आपकी श्रद्धा का दुरुपयोग करता है तो आप सावधान हो के सोचना कि ‘यह मेरे को उल्लू तो नहीं बना रहा है ?’
आप जगेंगे तो उसका भी भला होगा, आपका भी भला होगा । तो जीवन में जागृति की जरूरत है । जो काम करते हैं उसे उत्साह, ध्यान व प्रेम से करिये, बुद्धु, मूर्ख, बेवकूफ होकर मत करिये ।

‘जागरण’ माने जो भी कुछ जीवन में आप लेते-देते, खाते-पीते या अपने को मानते हैं, जरा जगकर देखिये कि क्या आप सचमुच में वह हैं ? नहीं, आप तो आत्मा हैं, परब्रह्म के अभिन्न अंग है । आप जरा अपने जीवन में जाग के तो देखिये !

विशेष

गर्भिणी मातायें और प्रसूता बहनें अनशन अर्थात् बिना कुछ खाये उपवास न करें । एकादशी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि तथा अन्य व्रतों में दूध, फल, पानक अथवा राजगीरे के आटे की रोटी, सिंघाड़े का हलवा या खीर, लौकी, कद्दू आदि की सब्जी, छाछ, नारियल, खजूर, मखाने इत्यादि का सेवन कर सकती है । मोरधन (सामा के चावल), साबूदाना, कुट्टू, आलू, शकरकंद नहीं खायें ।

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यदि आप भी दूसरी गर्भ धारणा के बारे में विचार कर रही हैं तो…

यदि आप भी दूसरी गर्भधारणा के बारे में विचार कर रही हैं तो...

एक संतान को जन्म देना हर माता-पिता के लिए बड़े सौभाग्य की बात होती है । जब आधुनिक दम्पति एक संतान के बाद दूसरी संतान के लिए विचार करते हैं तो उनके बीच पहला मतभेद तो यह खड़ा होता है कि दूसरी संतान चाहिए भी कि नहीं ? कभी पति दूसरी संतान नहीं चाहता, तो कभी पत्नी । जब यह मतभेद सुलझता है तो बात आगे बढ़ती है । लेकिन कई बार संयम के अभाव में या परिवार के प्रभाव में आकर दूसरी संतान के लिए प्लान करते समय दम्पति अक्सर यह भूल जाते हैं कि दो गर्भधारणा के बीच कितना अंतर होना चाहिए ।

यदि आप भी इसी असमंजस में हैं तो पहले स्वयं से पूछे यह सवाल :

क्या आप शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से सक्षम हैं ?

माता और शिशु दोनों के सम्पूर्ण स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाये तो दो गर्भधारणा के बीच कम-से-कम २ वर्ष का अंतर होना ही चाहिए और यदि पहली प्रसूति ऑपरेशन से (सिजेरियन) हुई है तो यह अंतर कम-से-कम ३ वर्ष का तो होना ही चाहिए ।

इतना अंतर क्यों आवश्यक है ?

  1. विशेषज्ञों की मानें तो संतान के जन्म के बाद माता का शरीर काफी कमजोर हो जाता है । उसके शरीर से आवश्यक पोषक तत्व निकल जाते हैं और शरीर में एनर्जी काफी कम हो जाती है । इस स्थिति से उबरने के लिए माँ को पर्याप्त समय की चाहिए होता है ।
  2. शारीरिक स्थिति के साथ-साथ Stress recovery में भी समय लगता है । दूसरी गर्भधारणा जल्दी होने से माता में ड‍िप्रेशन जैसे लक्षण नजर आने लगते हैं ।
  3. दो बच्‍चों के बीच कम अंतर रखने से miscarriage, Low Birth weight और Pre-mature delivery का खतरा हो सकता है ।
  4. कम अंतर की गर्भधारणा से माँ को एनीमिया और गर्भाशय में इंफेक्शन का खतरा बढ़ सकता है ।
  5. माता के लिए कब्ज, उदर पीड़ा, श्वेत प्रदर, योनिभ्रंश, क्षय जैसी बहुत सारी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है । कभी-कभी यह खतरा माँ की जान जाने की सीमा तक पहुँच जाता है ।
  6. अगर पहली डिलीवरी सी-सेक्शन है उस दौरान लगनेवाले टांके अगर अच्छे से सूखने से पहले ही आप दूसरी गर्भधारणा लेते हैं तो वे बहुत जल्द ही खुल भी सकते हैं जो गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं ।
  7. कम अंतरवाली गर्भधारणा में प्रसूति के बाद माँ के शरीर में बननेवाला दूध कम गुणवत्ता वाला होता है ।
  8. एक प्रसूति के तुरंत बाद दूसरी गर्भधारणा के कारण दोनों बच्चों को ब्रेस्ट-फीडिंग करवाने, उनका ध्यान रखने, उनका सारा काम करने, उनके साथ रातभर जागने यानि कि दो बच्चों की सारी जिम्मेदारी एक साथ उठाने के कारण माता के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
  9. प्रसूति के बाद जब मासिक चक्र शुरू होता है उस समय बननेवाले स्त्री बीज अपेक्षाकृत कम स्वस्थ और सुदृढ होते हैं ।
  10. दूसरे बच्चे के लिए प्‍लान करने से पहले आपको अपनी आर्थ‍िक स्‍थ‍िति पर विचार करना चाहिए । लगातार बच्चों के बीच कम अंतर वर्तमान के साथ-साथ भविष्य में भी आपको आर्थिक रूप से कमजोर बना सकता है ।
  11. अगर दो बच्चों के जन्म में 3 साल का अंतर होता है तो पहला बच्चा थोड़ा समझदार होने लगता है । इसलिए माता-पिता दोनों बच्चों की सही ढंग से परवरिश कर पाते हैं ।

इस पक्ष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता :

आयु और प्रजनन क्षमता एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं । पति-पत्नी की आयु जितनी अधिक होती है, उनकी प्रजनन क्षमता उतनी ही कम होती जाती है । जो मातायें 30 की उम्र में पहले बच्चे को जन्म देती हैं उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे अपने 2 बच्चों के बीच अधिक अंतर रख पाएं क्योंकि उनके लिए उनकी बढ़ती उम्र फर्टिलिटी से जुड़ी समस्याएं उत्पन्न कर सकती है । ऐसा भी नहीं है क‍ि आपकी दूसरी प्रेग्नेंसी भी पहली जैसी होगी क्‍योंक‍ि हर प्रेग्नेंसी का केस अलग होता है, हर बार आपको अलग तरह की चुनौत‍ियों के ल‍िए तैयार रहना होगा । अगर आप बहुत अधिक वर्षों का अंतर रखते हैं तो हाइपरटेंशन, क‍िडनी ड‍िसऑर्डर या डायब‍िटीज का खतरा हो सकता है ।

सावधान !!!

प्राय: ऐसा देखा जाता है कि कई बार महिलायें जाने-अनजाने ही दूसरी बार प्रेग्नेंट हो जाती हैं ।
इसमें ‘असंयम’ एक प्रधान कारण है । विषयभोग की अतिशयता जैसे पुरुष के लिये घातक है, वैसे ही स्त्री के लिये भी अत्यन्त हानिकारक है । अधिक विषय-भोग से गर्भस्त्राव तो होता ही है; संतान भी दुर्बल, अल्पजीवी, रोगी, मंदबुद्धि, चरित्रहीन और अधार्मिक होती है । अग्नि में घी डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है, वैसे ही अतिरिक्त भोग से भोगकामना उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है । अतएव दम्पति को चाहिये कि वे नीरोगता, धार्मिकता, उत्तम स्वस्थ संतान और दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिये अधिक-से-अधिक संयम करें । यह स्मरण रखना चाहिये कि विषय सेवन विषय सुख के लिये नहीं है, संतानोत्पत्तिरूप धर्मपालन के लिये है । अतएव धर्मानुकूल विषय-सेवन ही है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीताजी में कहा है –
‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।’ ‘हे अर्जुन ! प्राणियों में धर्म से अविरुद्ध काम में हूँ ।’

इसी दृष्टि से शास्त्रानुसार ऋतुकाल में कम-से-कम विषय-संसर्ग करना चाहिये । गर्भाधान हो जाने पर विषय संसर्ग सर्वथा बंद कर देना चाहिये ।

क्या करना चाहिए ?

प्रथम प्रसव के बाद जब तक बच्चा स्तनपान करता है, तब तक समागम नहीं चाहिये । लगभग डेढ़ वर्ष तक स्तनपान कराना उचित व हितकर है । जिन बच्चों को स्वस्थ माता का स्नेह परिपूर्ण दूध मिलता है, उनका जीवन सब प्रकार से सुखी होता है । असंयमजनित विघ्न नहीं होगा तथा माता का शरीर स्वस्थ रहेगा तो डेढ़ वर्ष तक स्तनों में पर्याप्त दूध आता रहेगा । स्तनपान बंद कराने के पश्चात् उतने ही काल तक माता के शरीर को आराम पहुँचे, इस निमित्त से समागम नहीं करना चाहिये । इस प्रकार लगभग संतानोत्पत्ति के बाद तीन साल तक संयम से रहना उचित है ।

शिशु के स्तनपान छोड़ते ही सम्भोग करना ‘अधम’ है । स्तनपान छोड़ने के बाद उतने ही समय के बाद सम्भोग करना ‘मध्यम’ है और पूरे पाँच साल बीतने पर संभोग करना ‘सर्वश्रेष्ठ’ है ।

 

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भीमाष्टमी व्रत से संतान प्राप्ति

भीमाष्टमी व्रत से संतान प्राप्ति

भीष्माष्टमी : १६ फरवरी
माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी ‘भीष्माष्टमी’ के नाम से प्रसिद्ध है । बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन भीष्म पितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण किया जाता है, चाहे हमारे माता-पिता जीवित ही क्यों न हों । इस व्रत को करने से नि:संतान दम्पति सुंदर, संस्कारी और गुणवान संतति प्राप्त करते हैं ।
महाभारत’ के अनुसार जो मनुष्य ‘माघ शुक्ल अष्टमी’ को भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसके वर्षभर के पाप नष्ट हो जाते हैं, पितृदोष भी दूर हो जाता है ।

व्रत-विधि :
इस दिन प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर जाकर स्नान करना चाहिए । अन्यथा घर पर ही विधिपूर्वक स्नान कर भीष्मजी के निमित्त हाथ में तिल, जल आदि लेकर अपसव्य (दाहिने कंधे पर जनेऊ रखे हुए) और दक्षिणाभिमुख होकर निम्नलिखित मंत्रों से तर्पण करना चाहिए । (अंगूठे और तर्जनी उंगली के मध्य भाग से होते हुए जल को किसी पात्र में छोड़ दें । तर्पणवाले जल को बाद में किसी पवित्र वृक्ष पीपल या बड़ के पेड़ में चढ़ा दें ।)

तर्पण का मंत्र
वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥
भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ।।

इसके बाद पुनः सव्य होकर (बायें कंधे पर जनेऊ रखे हुए) निम्न मंत्र से गंगापुत्र भीष्म को अर्घ्य देना चाहिए । (जनेऊ धारण किये हुए लोग और ब्राहाण इस विधि को करते है और सहज में सिखा सकते हैं।)

अर्घ्य का मंत्र
वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च ।
अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे ।।

अंत में हाथ जोड़कर भीष्म पितामह एवं अपने पितरों को प्रणाम करना चाहिए ।

क्षमतानुसार फल, दूध आदि लेकर अथवा एक समय उपवास का भोजन करके व्रत रखना चाहिए ।

आज भी पुत्र की भाँति उनका तर्पण किया जाता है, क्यों ?

पितामह भीष्म हस्तिनापुर के राजा शंतनु के पुत्र थे । श्रीगंगाजी उनकी माता थीं । बचपन में उनका नाम देवव्रत था । उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से शास्त्र तथा परशुरामजी से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी । उनके समकालीनों में शस्त्र-शास्त्र का उनके जैसा कोई ज्ञाता नहीं था । वीर होने के साथ ही वे सदाचारी और धार्मिक भी थे । सब प्रकार से योग्य देखकर महाराज शंतनु ने उन्हें युवराज घोषित कर दिया ।

एक बार महाराज शंतनु शिकार खेलने गये । वहाँ उन्होंने मत्स्यगंधा नामक एक निषादकन्या को देखा जो पराशर ऋषि के वरदान से अपूर्व लावण्यवती हो गयी थी । उसके शरीर से कमल की सुगंध निःसृत हो रही थी, जो एक योजन तक फैलती थी । महाराज शांतनु उसके रूप लावण्य पर मुग्ध हो गये । उन्होंने उसके पिता निषादराज से उस कन्या के लिए याचना की। निषादराज ने शर्त रखी कि इस कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी हो, तभी मैं अपनी कन्या का विवाह आपसे करूँगा ।

राजा उदास हो गये । उन्हें राजकुमार देवव्रत के अधिकार को छीनना अनुचित लगा, पर मत्स्यगंधा को वे अपने हृदय से निकाल नहीं सके । परिणामस्वरूप वे बीमार हो गये । राजकुमार देवव्रत को जब राजा की बीमारी और उसका कारण पता चला तो वे निषादराज के पास गये और निषादराज से कन्या को अपने पिता के लिए माँगा । निषादराज ने अपनी शर्त राजकुमार देवव्रत के सामने भी रख दी । इस पर देवव्रत ने कहा कि “इस कन्या से उत्पन्न होनेवाला पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा । मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं राजसिंहासन पर नहीं बैठूंगा ।” इस पर निषादराज ने कहा: “आप राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे, परंतु आपका पुत्र मेरे नातियों से सिंहासन छीन ले तो ?” निषादराज की इस शंका पर राजकुमार देवव्रत ने सभी दिशाओं और देवताओं को साक्षी करके आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीषण प्रतिज्ञा की । इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम ‘भीष्म’ पड़ा ।

अपने पिता के सुख के लिए आजीवन इतने कठिन व्रत को निभानेवाले बाल-ब्रह्मचारी भीष्म का चरित्र हम सभीके लिए अनुकरणीय है ।

‘पितृदेवो भव ।’ का दिव्य संदेश देनेवाली भारतभूमि में जन्मे इस महान सपूत का सभी भारतवासी बहुत आदर करते हैं । भीष्मजी के इस जीवन-वृत्तांत से प्रेरणा लेकर जीवन में उन्नति चाहनेवाले सज्जनों-सन्नारियों को उनके जैसा दृढव्रती, सत्यनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनने का संकल्प लेना चाहिए । वे केवल धर्म के कोरे ज्ञाता नहीं थे, बल्कि उन्होंने धर्ममय जीवन जिया तथा अंतकाल में भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में अपनी विशुद्ध बुद्धि को अर्पित करते हुए देहत्याग किया । इस प्रकार उन्होंने मानवमात्र के समक्ष जीवन के अंतकाल में किस प्रकार अपनी मति को भगवान में लगाते हुए इस धरा से प्रयाण करना चाहिए, इसका सुंदर आदर्श प्रस्तुत किया है ।

उनकी पुत्रहीन-अवस्था में मृत्यु हुई, परंतु उनके अखंड ब्रहाचर्य व्रत के कारण समाज पुत्र की भाँति उनका तर्पण करता है ।

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माँ मात्र बालक की ही नहीं, बल्कि संस्कारों की भी जन्मदात्री होती है

श्री गणेश जयंती

गणेश जयंती यानि श्री गणेशजी का जन्म दिवस । आज हम आपको गणेशजी की महिमा बताएं या फिर उनकी महानता की नींव, उनकी माता – माता पार्वती की ! चलो पहले माता की ही गहराई को मापने का प्रयास करते हैं ।

सतीत्व ही नारी का सौन्दर्य होता है और पातिव्रत्य की रक्षा ही उसका व्रत । मन, वाणी और क्रिया द्वारा पति के चरणों में पवित्र प्रेम ही उसका धर्म है । ऊँची-से-ऊँची स्थिति को पाकर भी मन में अहंकार का उदय न होना, भारी-से-भारी संकट आने पर भी धैर्य न छोड़ना, स्वयं कष्ट सहकर भी सभी को यथायोग्य सेवा से प्रसन्न रखना, विनय, कोमलता, दया, प्रेम, लज्जा, सुशीलता और वत्सलता आदि सद्गुणों को हृदयमें धारण करना, यह प्रत्येक साध्वी नारी का स्वभाव होता है ।

नारी के इन सभी सद्गुणों और सभी रूपों का एकत्र समन्वय देखना हो तो भगवती पार्वती के जीवन पर दृष्टिपात करना चाहिये । पार्वतीजी ने जहाँ प्रेम और विनय की प्रतिमूर्ति होकर पति के आधे अंग में स्थान प्राप्त किया, उन्हें अर्धनारीश्वर बनाया; वहीं अपने स्वामी को अपनी विराट् शक्ति देकर मृत्युञ्जय के रूप में प्रतिष्ठित किया और कार्तिकेय और श्री गणेशजी को उत्तम गुणों से संपन्न बनाकर एक श्रेष्ठ माता होने का दायित्व निभाया ।

भगवान शिव और पार्वती सदैव एक प्राण, एक आत्मा की भांति रहते थे । पार्वतीजी के पुत्र श्रीगणेश की उत्पत्ति का वृत्तान्त विभिन्न पुराणोंमें भिन्न-भिन्न प्रकार का मिलता है ।
एक समयकी बात है, पार्वतीजी ने स्नान करनेसे पहले अपने शरीर में उबटन लगवाया । उससे जो मैल गिरी, उसको हाथ में लेकर देवी ने कौतूहलवश एक बालक की प्रतिमा बनायी । वह प्रतिमा बड़ी सुन्दर बन गयी । ऐसा जान पड़ा, मानो कोई सुन्दर बालक सो रहा है । यह देख उन्होंने उसमें अपनी शक्ति से प्राण सञ्चार कर दिया । बालक सजीव हो उठा और उन्हीं का नाम श्रीगणेश पड़ा । यही वो गणेश हैं जिन्हें मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता कहा जाता है, जिन्हें बुद्धि, कला, विवेक, ज्ञान और शांत स्वाभाव का प्रतीक माना जाता है, जो अपने माता-पिता के प्रति अप्रतिम भक्ति के कारण सर्वप्रथम पूज्य देव हो गए ।

                                                              शायद इसीलिए शास्त्र कहते हैं ‘मात्र बालक की ही नहीं; बल्कि उसके संस्कारों की भी जन्मदात्री होती है’ ।

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घोर कलयुग में प्रह्लाद जैसी संतान चाहिए तो….

घोर कलयुग में प्रहलाद जैसी संतान चाहिए तो...

 

हमारे ऋषि-मुनियों ने खोज करके अनादिकाल से यह बताया हुआ है कि बच्चे को गर्भावस्था में जिस प्रकार के संस्कार मिलते हैं, आगे चलकर वह वैसा ही बन जाता है । जैसे राक्षस हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को सगर्भावस्था के दौरान देवर्षि नारदजी के सत्संग से भक्ति के संस्कार मिले तो गर्भस्थ बालक आगे चलकर महान भगवद्भक्त, ज्ञानी व कुशल शासक प्रह्लाद हुआ । इसी प्रकार अभिमन्यु ने माँ के गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदने का ज्ञान पा लिया था । इस युग में ये बातें लोगों के लिए आश्चर्यजनक थीं लेकिन अब वैज्ञानिकों ने शोधों के द्वारा इस बात को स्वीकार कर लिया है कि बच्चा गर्भावस्था से ही सीखने की शुरुआत कर देता है, खासकर उसे शब्दों का ज्ञान हो जाता है । कुछ शिशुओं पर जन्म के बाद परीक्षण किये गये व उनके मस्तिष्क की क्रिया जाँची गयी तो पाया गया कि शिशु के मस्तिष्क ने गर्भावस्था के दौरान सुने हुए शब्दों को पहचानने के तंत्रकीय संकेत दिये ।

शोध के मुताबिक, गर्भावस्था के दौरान ७वें माह से गर्भस्थ शिशु शब्दों की पहचान कर सकता है और उन्हें याद रख सकता है । इतना ही नहीं, वह मातृभाषा के स्वरों को भी याद रख सकता है । हेलसिंकी विश्वविद्यालय (फिनलैंड) के न्यूरोसाइंटिस्ट आयनो पार्टानेन व उनके साथियों ने पाया कि ‘गर्भावस्था में सुनी गयी लोरी को जन्म के चार महीने बाद भी बच्चा पहचानता है या याद रखता है ।’गर्भस्थ बालक पर माँ के खान-पान, क्रियाकलाप, मनोभावों आदि का भी प्रभाव पड़ता है और माँ द्वारा की गयी हर क्रिया से बच्चा सीखता है । परंतु उसके सीखने की सीमा को विज्ञान अभी पता लगाने में सक्षम नहीं हो पाया है । 

जो मातायें सगर्भावस्था में टीवी सीरियल व फिल्में देखती हैं, अश्लील गाने आदि सुनती रहती हैं उनके शिशुओं में वे संस्कार गर्भ में ही गहरे पड़ जाते हैं, जिससे बड़े होकर उनका स्वभाव चंचल, कामुक व आपराधिक होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं । गर्भावस्था के दौरान सत्संग, सत्शास्त्रों का अध्ययन, देव-दर्शन, संत-दर्शन, भगवद्- उपासना करें और मन को सद्विचारों से ओतप्रोत रखें । भगवन्नाम का अधिकाधिक मानसिक जप करें । इससे आपकी संतान दैवी सद्गुणों से युक्त होगी ।गर्भ में ही बना दें बच्चों को सुसंस्कारी वैज्ञानिक भले इस बात को अभी मान रहे हैं परंतु पूज्य बापूजी अपने सत्संगों में पिछले लगभग ५० वर्षों से यह बात बताते आये हैं । बापूजी का ब्रह्मसंकल्प है कि ये ही संस्कारी बालक आगे चलकर भारत को विश्वगुरु के पद पर पहुँचायेंगे । पूज्य बापूजी कहते हैं: “वर्तमान युग में कई माता-पिता ऐसा सोचते हैं कि हमें ऐसे पुत्र क्यों हुए ? उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि आजकल स्त्री अथवा पुरुष गर्भाधान के लिए उचित-अनुचित समय-तिथि का ध्यान नहीं रखते हैं । परिणाम में समाज में आसुरी प्रजा बढ़ रही है । बाद में माता-पिता फरियाद करते रहते हैं कि हमारे पुत्र हमारी आज्ञा में नहीं चलते हैं, उनका चाल-चलन ठीक नहीं है इत्यादि । परंतु यदि माता-पिता शास्त्र की आज्ञानुसार रहें तो उनके यहाँ दैवी और संस्कारी संतानें उत्पन्न होंगी, श्रीराम और श्रीकृष्ण के समान बालक जन्म लेंगे ।”

क्योंकि हर गर्भ में है प्रह्लाद जैसी संतान, बस आपके पुरुषार्थ अपेक्षित है ।

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वसंत पंचमी माँ सरस्वती का प्राकट्य दिवस

वसंत पंचमी

वसंत पंचमी 14 फरवरी 2024

माघ शुक्ल पंचमी का दिन ऋतुराज वसंत के आगमन का सूचक पर्व है । वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है, पशु-पक्षी भी उल्लास से भर जाते हैं । यूँ तो पूरा माघ मास ही उत्साह देनेवाला है पर वसंत पंचमी भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करती है ।

यह पर्व विद्यादेवी माँ सरस्वती का जन्मदिवस है । इस दिन उनकी पूजा कर उनसे बुद्धि में ज्ञान-प्रकाश की प्रार्थना की जाती है । माता सरस्वती विद्या की देवी हैं । उनकी प्रार्थना, उपासना आराधना से विद्या अध्ययन में मदद मिलती है । बुद्धि तीव्र कुशाग्र और सात्विक बनती है । बुद्धि है तो प्रज्ञा और प्रतिभा का विकास होगा ।

पूज्य बापूजी कहते हैं: “सद्गुरु से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र के अनुष्ठान के प्रभाव से विद्यार्थी का जीवन तेजस्वी, ओजस्वी व दिव्य बनता है ।”

पूजन विधि :

  • इस दिन प्रात: सरस्वती माँ का मानसिक ध्यान करके बिस्तर का त्याग करें ।
  • पंचमी के दिन पीले या फिर सफेद रंग के वस्त्र धारण करें ।
  • पवित्र निर्मल स्थान पर पीला आसन बिछाकर माँ सरस्वती की स्थापना करें ।
  • उत्तर या पूर्व दिशा की ओर बैठकर माँ सरस्वती का विधिपूर्वक पूजन करें ।
  • माँ को तिलक लगायें और सफ़ेद फूल अर्पित करें ।
  • गाय के दूध की खीर बनाकर माता को भोग लगायें ।
  • सरस्वती माँ को एकटक देखते हुए जीभ तालू में लगाकर सारस्वत्य मंत्र का जप करें ।
  • पुस्तक और लेखनी में भी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है, उनको साथ रखकर पूजा करें ।

सरस्वती पूजन ध्यान मंत्र :
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।।


या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।


शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।।


हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।

वसंत पंचमी का संदेश

आशादीप प्रज्वलित रखें

वसंत संकेत देता है कि जीवन में वसंत की तरह खिलना हो, जीवन को आनंदित-आह्लादित रखना हो तो आशादीप सतत प्रज्वलित रखने की जागरूकता रखना जरूरी है ।

वसंत ऋतु के पहले पतझड़ आती है, जो संदेश देती है कि पतझड़ की तरह मनुष्य के जीवन में भी घोर अंधकार का समय आता है, उस समय सगे-संबंधी, मित्रादि सभी साथ छोड़ जाते हैं और बिन पत्तों के पेड़ जैसी स्थिति हो जाती है । उस समय भी जिस प्रकार वृक्ष हताश-निराश हुए बिना धरती के गर्भ से जीवन-रस लेने का पुरुषार्थ सतत चालू रखता है, उसी प्रकार मनुष्य को हताश-निराश हुए बिना परमात्मा और सदगुरु पर पूर्ण श्रद्धा रखकर दृढ़ता से पुरुषार्थ करते रहना चाहिए, इसी विश्वास के साथ कि ‘गुरुकृपा, ईशकृपा हमारे साथ है, जल्दी ही काले बादल छँटने वाले हैं ।’ आप देखेंगे कि सफलता के नवीन पल्लव पल्लवित हो रहे हैं, उमंग-उत्साह की कोंपलें फूट रही हैं, आपके जीवन-कुंज में भी वसंत का आगमन हो चुका है, भगवद्भक्ति की सुवास से आपका उर-अंतर प्रभुरसमय हो रहा है ।

 समत्व व संयम का प्रतीक

इस ऋतुकाल में जैसे न ही कड़ाके की सर्दी और न ही झुलसाने वाली गर्मी होती है, उसी प्रकार जीवन में वसंत लाना हो तो जीवन में आने वाले सुख-दुःख, जय-पराजय, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में समता का सद्गुण विकसित करना चाहिए ।

भगवान ने भी गीता में कहा हैः समत्वं योग उच्यते ।

वसंत की तरह जीवन को खिलाना हो तो जीवन को संयमित करना होगा । संयम जीवन का अनुपम श्रृंगार है, जीवन की शोभा है । प्रकृति में सूर्योदय-सूर्यास्त, रात-दिन, ऋतुचक्र – सबमें संयम के दर्शन होते हैं इसीलिए निसर्ग का अपना सौंदर्य है, प्रसन्नता है । वसंत सृष्टि का यौवन है और यौवन जीवन का वसंत है । संयम व सद्विवेक से यौवन का उपयोग जीवन को चरण ऊँचाइयों तक पहुँचा सकता है अन्यथा संयमहीन जीवन विलासिता को आमंत्रण देगा, जिससे व्यक्ति पतन के गर्त में गिरेगा ।

 परिवर्तन वेला

आयुर्वेद वसंत पंचमी के बाद गर्म तथा वीर्यवर्धक, पचने में भारी पदार्थों का सेवन कम कर देने की सलाह देता है ।

माँ सरस्वती कह रही हैं...

सरस्वती माँ हमें विद्या और ज्ञान पाने के संदेश के अलावा जीवन-प्रबंधन के कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत देती हैं, जिनका पालन कर हम अपना सर्वांगीण विकास कर सकते हैं ।


माँ सरस्वती के श्वेत वस्त्रों से दो संकेत मिलते हैं । पहला हमारा ज्ञान निर्मल हो, विकृत न हो । जो भी ज्ञान अर्जित करें वह सकारात्मक हो, महापुरुषों से सम्मत हो । दूसरा हमारा चरित्र उत्तम हो । विद्यार्थी-जीवन में कोई दुर्गुण हमारे चरित्र में न हो । वह एकदम निर्मल हो ।
माँ सरस्वती कमल के फूल द्वारा यह संकेत देती हैं कि जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार चंचलता, असंयम, झूठ-कपट, कुसंग, लापरवाही आदि बुराइयों को जीवन में स्थान न दो ।
सरस्वती माँ के हाथ में स्थित सद्ग्रंथ हमें संदेश देता है कि जीवन को यदि महान बनाना हो तो जीवन शास्त्रानुसारी होना चाहिए । हाथ कर्म के सूचक हैं और सत्शास्त्र सत्यस्वरूप के । हमारे हाथों से वही कर्म हों जो भगवान को प्रसन्न करें । इसके लिए हम प्रतिदिन सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करें ।
दूसरे हाथ में, माला है । माला ‘मनन’ की ओर संकेत करती है । यह हमें हमारे मनुष्य-जीवन के मूल उद्देश्य की याद दिलाती है कि परमात्मा के साथ अपने अमिट संबंध की स्मृति और भगवज्ञान का मनन करने के लिए हमें यह मनुष्य-जन्म मिला है । जो ज्ञान सद्गुरु एवं सद्ग्रंथों से अर्जित कर रहे हैं, उसका मनन भी करते रहें । मेघाशक्ति व बुद्धि के विकास के लिए किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर उसका जप करें ।
दो हाथों से वीणा-वादन यह संकेत करता है कि जीवन एकांगी नहीं होना चाहिए । जैसे वीणा तो एक ही होती है परंतु उससे हर प्रकार के मधुर राग आलापे जाते हैं, उसी प्रकार हम अपनी सुषुप्त योग्यताओं को जगाकर जीवन में सफलता के गीत गूँजायें ।
सात्त्विक संगीत एकाग्रता व यादशक्ति बढ़ाने में सहायक है । रॉक व पॉप म्यूजिक तामसी हैं, इनसे तो दूर ही रहना चाहिए । डॉ. डायमण्ड ने प्रयोगों से सिद्ध किया कि ऐसा संगीत बजानेवाले और सुननेवाले की जीवनशक्ति का हास होता है । सच्चा संगीत वह है जो परमात्मा की स्मृति कराके उसमें शांत कर दे ।
सरस्वती माता नदी के किनारे एकांत में बैठी हैं, यह इस बात का संकेत है कि विद्यार्जन के साथ-साथ अपनी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों को जगाने के लिए कुछ समय एकांत में बैठकर जप-ध्यान, उपासना-अनुष्ठान करना भी आवश्यक है । स्थूल अर्थ में प्राकृतिक, शांत, निर्जन स्थान में बैठना भी एकांत कहा जाता है । परंतु एकांत का वास्तविक अर्थ है ‘एक में अंत’ अर्थात् एक परमात्मा में सभी वृत्तियों, कल्पनाओं का अंत हो जाय वही परम एकांत है । मनमाने ढंग के एकांत-सेवन में निद्रा-तंद्रा, तमस आदि के घेर लेने की सम्भावना रहती है । अतः अनेक विद्यार्थी छुट्टियों में अपने गुरुदेव पूज्य बापूजी के आश्रमों में जाकर सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान करते हैं और अपने भीतर छुपी महान सम्भावनाओं के भंडार के द्वार खोल लेते हैं ।
माँ सरस्वती के पीछे उगता हुआ सूरज दिखाई देता है, जो यह संकेत करता है कि विद्यार्थी को सूर्योदय के पहले ही बिस्तर का त्याग कर देना चाहिए । सूर्योदय से पूर्व का समय ‘अमृतवेला’ कहलाता है । सुबह परमात्म-चिंतन में तल्लीन होकर फिर भगवत्प्रार्थना करके विद्याध्ययन करना सबसे उत्तम है ।
माँ सरस्वती के निकट दो हंस हैं अर्थात् हमारी बुद्धि रचनात्मक और विश्लेषणात्मक दोनों होनी चाहिए । जीवन में जहाँ एक ओर दैवी सम्पदा का अर्जन कर महानता का सर्जन करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर सुख-दुःख, राग-द्वेषादि के आने पर उनके कारण, निवारण आदि का विश्लेषण भी करते रहना चाहिए । इस हेतु परमहंस (जीवन्मुक्त) पद को प्राप्त महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य में जाने की प्रेरणा भी ये हंस देते हैं । जैसे हंस दूध को पानी से अलग करके दूध को पी लेते हैं, वैसे ही विद्यार्थियों को अच्छे गुणों को लेकर दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए ।
विद्या की देवी माँ सरस्वती के निकट मोर है जो कला का प्रतीक है । हम विद्याध्ययन तो करें, साथ ही जीवन जीने की कला भी सीखें । जैसे – सुख-दुःख में सम रहना और विकारों के वेग में निर्विकारी नारायण की स्मृति करके भगवद्दल से विकारों के चंगुल से बचे रहना । और यह कला आत्मा में जगे हुए महापुरुषों की शरण में जाने से ही सीखी जा सकती है ।

इस प्रकार माँ सरस्वती का विग्रह विद्यार्थी-जीवन का सम्पूर्ण मार्गदर्शन करता है ।

 

ऐतिहासिक महत्त्व

इस पर्व के साथ रोमांचक ऐतिहासिक घटनाएँ भी जुड़ी हैं । विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को १६ बार पराजित करनेवाले पृथ्वीराज चौहान जब १७वीं बार हुए युद्ध में पराजित हुए तो गौरी ने उनकी आँखें फोड़ दीं और मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा । तब कवि चंदबरदाई ने संकेत किया :
चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान ॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की । उन्होंने इस संकेत व तवे पर हुई चोट से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धँसा । ई.स. ११९२ की यह घटना वसंत पंचमी के दिन ही हुई थी ।

गर्भवती मातायें अपने गर्भस्थ शिशु की बुद्धि को मेधावी बनाने के शुभ संकल्प से सरस्वती जी की पूजा अर्चना करें ।

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एक दृष्टि गर्भपात के इन भयंकर दुष्परिणामों पर डालें…

एक दृष्टि गर्भपात के भयंकर दुष्परिणामों पर डालें...

श्रीरामचरित के अयोध्याकाण्ड में आता है –
करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करई सो तस फलु चाखा ।।
अर्थात् यह संसार कर्मभूमि है । यहाँ जो जैसे कर्म करता है, वैसे ही फल को पाता है ।

इस सत्य से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है फिर भी आज देवभूमि भारत में गर्भपात बहुत सामान्य बात हो गयी है । संतान नहीं चाहिए… करवा दो गर्भपात । सोनोग्राफी करवायी…. कन्या है तो करवा दो गर्भपात… । कई बार तो कन्या होती ही नहीं, पुत्र होता है, परन्तु पैसों की लालच में सोनोग्राफीवाले कन्या बता देते हैं । और तो और, अब तो माँ जो कि स्वयं एक कन्या है, स्त्री है वो ही कन्या संतान नहीं चाहती, कन्या भ्रूण की पुष्टि होने पर गर्भपात करवा देती है… यहाँ पर आगे कहने के लिए कुछ नहीं रहता ।

भारत की गीता-रामायण एवं उपनिषदों में, भगवन्नाम में, परोपकार एवं सहिष्णुता में विश्वास रखनेवाली पीढ़ी की सोच समय के साथ संकीर्ण होती जा रही है । वो सोचते हैं ʹगुलशन में बस एक ही फूल, दूसरी कभी न होवे भूल…. दूसरा अभी नहीं, तीसरा कभी नहीं ।ʹ कोई कहता है किः ‘हमें तो सिंह जैसा एक ही बेटा हो तो बहुत है ।ʹ

पूज्य बापूजी कहते हैं – जो जीव 84 लाख योनियों में भटकते-भटकते आप जैसे पवित्र कुलों में दिव्य ज्ञान पाने, भक्ति, साधना-सेवा करके मुक्ति के मार्ग पर जाने के लिए आया, उसी को आप पैसे देकर, जहरीले दवाओं-इन्जैक्शनों के द्वारा अथवा कातिल औजारों के द्वारा टुकड़े-टुकड़े करवाकर फिंकवा दोगे ? कम-से-कम देश को ऐसे 2-4 बेटे तो दो जो भारतीय संस्कृति के संस्कारों से सम्पन्न हों । यह भी देश की सेवा है । एकाध देश की सेवा के लिए सेना में जाये, एकाध समाज की, एकाध धर्म की सेवा में लगे और एकाध माता-पिता की सेवा करे ।
लोग तर्क करते हैं कि जनसँख्या बढ़ेगी तो खाने को कहाँ से आएगा ? पर विचार करो – पहले जनसंख्या कम थी तो विदेशों से अन्न मँगवाना पड़ता था, अब जनसंख्या बढ़ी तो हम निर्यात कर रहे हैं । अतः जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है तो क्या मनुष्य अधिक होंगे तो अन्न अधिक नहीं होगा ?

शास्त्र कहते हैं – जो स्त्री पूर्व जन्म में गर्भपात करवाती है उसे अगले जन्म में संतान सुख नहीं मिलता । पाराशरस्मृति में आता है – ʹब्रह्महत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है ।

एक दृष्टि गर्भपात के भयंकर दुष्परिणामों पर भी तो डालो, फिर स्वयं निर्णय करना कि क्या सही है क्या नहीं ?

चलो पाप-पुण्य की परवाह नहीं तो कम-से कम अपने स्वास्थ्य, अपने आरोग्य और आयुष्य की तो परवाह करो । एक दृष्टि गर्भपात के भयंकर दुष्परिणामों पर भी तो डालो, फिर स्वयं निर्णय करना कि क्या सही है क्या नहीं ?

 भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अनुसार, गैरकानूनी एवं असुरक्षित ढंग से कराये जानेवाले गर्भपात से लाखों महिलाओं की मृत्यु हो जाती है । जो बचती हैं, उन्हें जीवन भर गहरी मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है । साथ ही, लंबे समय तक संक्रमण, दर्द तथा बाँझपन जैसी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।
 स्त्रियाँ गर्भपात के बाद पूरे जीवन पीड़ा पाती हैं । उनका शरीर रोगों का म्यूजियम बन जाता है ।
 गर्भपात करानेवाली स्त्रियों में से 30 प्रतिशत स्त्रियों को मासिक धर्म संबंधी तकलीफें हो जाती हैं ।
 लिंग परीक्षण करवाने से अपने आप गर्भपात होने व समयपूर्व-प्रसव होने की आशंका बढ़ जाती है । बार-बार अल्ट्रासाउंड कराने से शिशु के वजन पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।
 स्तन कैंसर की सम्भावना में 30 प्रतिशत की वृद्धि होती है ।
 महिलाओं में हार्मोन्स का स्तर कम होने से फिर से माँ बनने की सम्भावना में कमी आ जाती है । यदि संतान होती भी है तो उसके कमजोर और अपंग होने की सम्भावना होती है ।
 सर्वाईकल कैंसर का ढाई गुना व अंडाशय (ओवेरियन) कैंसर का 50 प्रतिशत अधिक खतरा बढ़ जाता है ।
 मनोबल में कमी, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, आत्महत्या के विचारों व मानसिक तनाव में वृद्धि होती है । कमरदर्द की स्थायी शिकायत बढ़ सकती है ।
 गर्भपात के समय इन्फेक्शन होने पर जानलेवा पेल्विक इन्फलेमेटरी डिसीज की सम्भावना अधिक हो जाती है ।
 गर्भपात कराने वाली 50 प्रतिशत महिलाओं में फिर से गर्भपात होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।

गर्भनिरोधक साधनों और नसबंदी का विकल्प तो और भी हानिकर है ।
 नसबन्दी के द्वारा पुरुषत्व का अवरोध करने से, नाश करने से शारीरिक शक्ति भी नष्ट होती है और उत्साह, निर्भयता आदि मानसिक शक्ति भी नष्ट होती है ।
 जिन माताओं ने नसबन्दी ऑपरेशन करवाया है उनमें से बहुतों को रक्त एवं श्वेत प्रदर हो जाता है। ऑपरेशन करवाने से शरीर में कमजोरी आ जाती है, उठते-बैठते समय आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है, छाती व पीठ में दर्द होने लगता है और काम करने की हिम्मत नहीं होती ।
 जो स्त्रियाँ नसबन्दी ऑपरेशन करा लेती हैं उनका स्त्रीत्व अर्थात् गर्भ-धारण करने की शक्ति नष्ट हो जाती है ।
 गर्भ निरोधक गोलियों का इस्तेमान करने वाली महिलाओं को स्तन का कैंसर होने का खतरा है ।

निर्णय आपको ही लेना है….

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सिजेरियन डिलीवरी सुरक्षित नहीं हैं…

सिजेरियन डिलीवरी सुरक्षित नहीं है...

विश्वमानव के हितैषी पूज्य संत श्री आशारामजी बापू वर्षों से सत्संग में कहते आ रहे हैं कि ‘ऑपरेशन द्वारा प्रसूति माँ और बच्चे-दोनों के लिए हानिकारक है । अतः प्राकृतिक प्रसूति के उपायों का अवलम्बन लेना चाहिए ।’ कई प्रयोगों के पश्चात विज्ञान भी आज इस तथ्य को मानने के लिए बाध्य हो गया है कि प्राकृतिक प्रसूति ही माँ एवं बच्चे के लिए लाभप्रद है ।

सिजेरियन डिलीवरी से बच्चे को होनेवाली हानियाँ

 जापानी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध से यह सिद्ध हुआ है कि प्रसूति के समय स्रावित होनेवाले 95% योनिगत द्रव्य हितकर जीवाणुओं से युक्त होते हैं, जो सामान्य प्रसूति में शिशु के शरीर में प्रविष्ट होकर उसकी रोगप्रतिकारक शक्ति और पाचनशक्ति को बढ़ाते हैं । इससे दमा, एलर्जी, श्वसन-संबंधी रोगों का खतरा काफी कम हो जाता है, जबकि ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चे अस्पताल के हानिकारक जीवाणुओं से प्रभावित हो जाते हैं ।
 स्विट्जरलैंड के डॉ. केरोलिन रोदुइत ने 2917 बच्चों का अध्ययन करके पाया कि उनमें से 247 बच्चे जो कि सिजेरियन से जन्मे थे, उनमें से 12 % बच्चों को 8 साल की उम्र तक में दमे का रोग हुआ और उपचार कराना पड़ा । इसका कारण यह था कि उनकी रोगप्रतिकारक शक्ति प्राकृतिक रूप से जन्म लेने वाले बच्चों की अपेक्षा कम होती है, जिससे उनमें दमे का रोग होने की सम्भावना 80 % बढ़ जाती है । प्राकृतिक प्रसूति में गर्भाशय के संकोचन से शिशु के फेफड़ों और छाती में संचित प्रवाही द्रव्य मुँह के द्वारा बाहर निकल जाता है, जो सिजेरियन में नहीं हो सकता। इससे शिशु के फेफड़ों को भारी हानि होती है, जो आगे चलकर दमे जैसे रोगों का कारण बनती है ।
 ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चों में मधुमेह (Diabetes) होने की सम्भावना 20 % अधिक रहती है ।
 सिजेरियन के बाद अगले गर्भधारण में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क एवं मेरूरज्जु (Spinal Cord) में विकृति तथा वजन कम होने का भय रहता है ।

सिजेरियन डिलीवरी से माँ को होनेवाली सम्भावित हानियाँ -

 ʹमिन्कोफ्फ एवं चेर्वेनाक 2003ʹ की रिपोर्ट के अनुसार सिजेरियन के समय मृत्यु का भय अधिक होता है ।
 सामान्य प्रसूति की अपेक्षा सिजेरियन के समय माता की मृत्यु की सम्भावना 26 गुऩी अधिक रहती है ।
 सिजेरियन के बाद अत्यधिक रक्तस्राव तथा चीरे के स्थान पर दर्द जो 6 महीनों तक भी रह सकता है ।
 गर्भाशय व मूत्राशय के बीच चिपकाव (Adhesions) अथवा आँतों में अवरोध, जिससे पेट में स्थायी दर्द का प्रादुर्भाव हो सकता है ।
 अगला प्रसव पुनः ऑपरेशन से होने की सम्भावना अत्यधिक बढ़ जाती है । उसमें अत्यधिक रक्तस्राव व गर्भाशय-भेदन (rupture) का डर रहता है ।
 गर्भाशय दुर्बल होता है व गर्भधारण क्षमता (fertility) का ह्रास होता है ।
 भविष्य में गर्भाशयोच्छेदन (hysterectomy) तथा चीरे के स्थान पर हर्निया का खतरा रहता है ।
 आगे चलकर गर्भाशय निकालने तक की नौबत आ सकती है ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन’ को हाथ लगा कड़वा सच

“बहुत से मामलों में अस्पतालों द्वारा पैसे कमाने के लालच में ऑपरेशन द्वारा प्रसूति करवायी गयी ।” अतः लालच के लिए ऐसा करने वाले अस्पतालों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए । अतः प्रसूति के दर्द के भय के कारण अथवा भावी खतरों से अनजान होने से सिजेरियन को स्वीकार करने वाली माताएँ अब सावधान हो जायें । सामान्य प्रसूति से बच्चों को जन्म दें ।

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शीत ऋतु में अमृततुल्य खजूर और छुहारे

शीतऋतु में अमृततुल्य... खजूर और छुहारे

खजूर मधुर, शीतल, पौष्टिक व सेवन करने के बाद तुरंत शक्ति-स्फूर्ति देनेवाला है ।

यह रक्त, मांस व वीर्य की वृद्धि करता है । हृदय व मस्तिष्क को शक्ति देता है । वात, पित्त व कफ इन तीनों दोषों का शामक है । यह मल व मूत्र को साफ लाता है ।

खजूर में कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन्स, कैल्शियम, पौटैशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, लौह आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं ।

‘अमेरिकन कैंसर सोसायटी’ के अनुसार शरीर को एक दिन में 20-35 ग्राम डायटरी फाइबर (खाद्य पदार्थों में स्थित रेशा) की जरूरत होती है, जो खजूर खाने से पूरी हो जाती है ।

खजूर रातभर पानी में भिगोकर सुबह लेना लाभदायक है। कमजोर हृदयवालों के लिए यह विशेष उपयोगी है। खजूर यकृत (लीवर) केरोगों में लाभकारी है।

कृश एवं दुर्बल व्यक्ति बीज निकले 5 खजूर घी में सेंककर सुबह चावल के साथ खाये । इससे वज़न एवं बल में वृद्धि होती है ।

रक्ताल्पता में इसका नियमित सेवन लाभकारी है ।

नींबू के रस में खजूर की चटनी बनाकर खाने से भोजन की अरुचि मिटती है ।

खजूर का सेवन बालों को लम्बे, घने और मुलायम बनाता है ।

 

वीर्यवर्धक खजूर –

5-7 खजूर तथा 25-30 किशमिश प्रतिदिन सेवन करने से रक्त की वृद्धि होती है । दुर्बल शरीर मन वाले एवं जिनका वीर्य क्षीण हो गया है, ऐसे लोगों के लिए प्रतिदिन प्रातः इनका सेवन लाभदायक है ।

5-7 खजूर व रात को भिगोकर छिलके उतारे हुए 5 बादाम सुबह दूध के साथ कुछ महीने सेवन करने से वीर्य की वृद्धि होती है और शीघ्रपतन की विकृति नष्ट होती है ।

दो खजूर लेकर गुठली निकालकर उनमें शुद्ध घी व एक-एक काली मिर्च भरें । इन्हें गुनगुने दूध के साथ एक महीने तक नियमित लें । इससे शरीर पुष्ट व बलवान होगा, शक्ति का संचार होगा ।

शुक्राल्पता – 

गाय के घी अथवा बकरी के दूध के साथ खजूर लेने से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है ।

सर्दियों में सुबह 4 से 5 खजूर को घी में सेंककर खा लें । ऊपर से इलायची, मिश्री व 2 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण डालकर उबाला हुआ दूध पियें । इससे रक्त, मांस व शुक्र धातु की वृद्धि होती है ।

नपुंसकता – खजूर में 1 ग्राम दालचीनी का चूर्ण मिलाकर सुबह गुनगुने दूध के साथ सेवन करने से नपुंसकता में लाभ होता है ।

अन्य सरल एवं हितकर प्रयोग

छुहारे की पौष्टिक खीर

लाभ : यह खीर बालकों के शरीर में रक्त, मांस, बल तथा रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाती है। टी.बी., कुक्कर खाँसी, सूखारोग आदि से बच्चों का रक्षण करती है। गर्भिणी स्त्री यदि तीसरे महीने से इसका नियमित सेवन करे तो गर्भ का पोषण उत्तम होता है। कुपोषित बालकों व गर्भिणी स्त्रियों के लिए यह खीर अमृततुल्य है।
बनाने की विधि : १ से ३ मीठे छुहारे रात को पानी में भिगो दें । सुबह गुठली निकालकर पीस लें । एक कटोरी दूध में थोड़ा पानी, पिसे छुहारे व मिश्री मिलाके उबाल लें । खीर तैयार !

शिशु स्वास्थ्यवर्धक

बच्चों को दस्त लगने पर – बच्चों के दाँत निकलते समय उन्हें बार-बार हरे दस्त होते हों या पेचिश पड़ती हो तो खजूर के साथ शहद को अच्छी तरह फेंटकर एक-एक चम्मच दिन में 2-3 बार चटाने से लाभ होता है ।

लाभकारी छुहारे

यदि बच्चे रात्रि में बिस्तर गीला करते हो तो.... १. दो छुहारे रात्रि में भिगोकर सुबह दूध में उबाल के दें । २. बच्चों के लिए 2-4 खजूर अच्छी तरह धोकर रात को भिगोकर सुबह खिलायें ।

 

सावधानी

आजकल खजूर को वृक्ष से अलग करने के बाद रासायनिक पदार्थों के द्वारा सुखाया जाता है।

ये रसायन शरीर के लिए हानिकारक होते हैं। अतः उपयोग करने से पहले खजूर/छुहारे को अच्छी तरह धो लें ।

धोकर सुखाने के बाद इन्हें विभिन्न प्रकार से उपयोग किया जा सकता है ।

होली के बाद खजूर खाना हितकारी नहीं है ।

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२५ दिसम्बर को अपने बच्चों को दें ये ख़ास उपहार ….

२५ दिसम्बर को अपने बच्चों को दें ये ख़ास उपहार...

२५ दिसंबर यानि क्रिसमस-डे, पश्चिमी देशों के साथ-साथ भारत व अन्य कई देशों में बड़ी धूमधाम से मनाया जानेवाला त्यौहार । बजाय इसके कि हम इसके ‘मनाने या नहीं मनाने’ के बारे में अपने विचार आपके सामने रखें, चलिए हम आपको कुछ सत्य तथ्यों से अवगत करवाते हैं 

गौर फरमाएं :

 कहते हैं कि क्रिसमिस पर ईसा मसीह का जन्मदिन था पर यह सत्य नहीं है । उसदिन उनका जन्म नहीं हुआ था । वास्तव में 25 दिसंबर को पहले यूरोप में सूर्यपूजा होती थी इसलिए सूर्यपूजा खत्म करने एवं ईसाईयत को बढ़ाने के लिए रोमन सम्राट ने ई.स. 336 में 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाया और पोप जुलियस 25 दिसंबर को यीशु का जन्मदिन मनाने लगे ।
 क्रिसमस का प्रमुख आकर्षण, सांता क्लॉज़, एक काल्पनिक पात्र है । इससे बच्चे अवास्तविक और अतार्किक विश्वासों की ओर झुकते हैं ।
 इंटरनेट पर उपलब्ध सूत्रों के आधार पर, सांता क्लॉज़ का चित्रण कभी-कभी उन्हें शराब पीते हुए दर्शाता है । इससे बच्चों के मन में शराब पीने की सकारात्मक छवि बन सकती है कि शराब पीना गलत नहीं है ।
क्रिसमस ट्री का बाइबिल में उल्लेखित नहीं है । इसकी उत्पत्ति 16वीं सदी के जर्मनी की ईसाई परंपराओं में हुई थी ।
 कार्बन ट्रस्ट के अनुसार, एक असली क्रिसमस ट्री में कृत्रिम क्रिसमस ट्री की तुलना में काफी कम कार्बन फुटप्रिंट होता है ।
 असली क्रिसमस ट्री को कचरे में डालने पर इसकी कार्बन फुटप्रिंट 16 किलोग्राम Co2 तक हो सकती है, जबकि इसे जलाने पर 3.5 किलोग्राम Co2 होती है ।
 कृत्रिम क्रिसमस ट्री, जो पेट्रोलियम-आधारित प्लास्टिक से बनते हैं, पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं और उन्हें नष्ट करने में हजारों वर्ष लग सकते हैं ।
 क्रिसमस ट्री बहुत महंगा होता है और उसमें कोई औषधीय गुण भी नहीं होते
 कई स्कूलों में २५ दिसंबर के दिन सभी बच्चों को सांता क्लॉज़ बनकर आने और क्रिसमस ट्री सजाकर लाने के लिए कहा जाता है । कई माता-पिता को आर्थिक रूप से असमर्थ होते हुए भी अपने बच्चों के लिए सांता क्लॉज़ के नये कपड़े और प्लास्टिक के मँहगे-मँहगे क्रिसमस ट्री लाकर देने पड़ते हैं ।
 ऐसा भी प्रचलित है कि बच्चे रात को सोने से पहले अपनी कोई भी wish सांता क्लॉज़ के लिए एक पत्र में लिखकर रख देते हैं और माता-पिता बच्चों के लिए वो वस्तु उपहार के रूप में लाकर चुपचाप उनके पास रख देते हैं । सुबह उठकर जब बच्चे अपना मनचाहा गिफ्ट देखते हैं तो उन्हें लगता है कि ये गिफ्ट सांता रखकर गया है ।
यह प्रथा माता-पिता और बच्चों के बीच की दूरी को कम कर रही है या बढ़ा रही है ?
 समय के साथ-साथ क्रिसमस-डे व्यवसायिकता का शिकार हो गया है । हर वर्ष क्रिसमस-डे और सांता क्लॉज़ के नाम पर करोड़ों अरबों के कपड़े, प्लास्टिक के ट्री, ग्रीटिंग्स, गिफ्ट्स, शराब और विज्ञापन बनते और बिकते हैं जो एक विकासशील देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाते हैं ।

थोड़ा गौर इन बातों पर भी फरमाएं :

 तुलसीजी का वर्णन हमारे वेदों और पुराणों में आता है । धार्मिंक दृष्टिकोण के साथ-साथ तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय गुण होते हैं । प्रतिदिन ५ तुलसी के पत्ते चबाकर खाने और ऊपर से थोड़ा पानी पीने से बच्चों की यादशक्ति पढ़ती हैं और अनेक संक्रामक रोगों से रक्षा होती है । तुलसी की पत्तों का उपयोग हृदय रोग और कैंसर जैसे रोगों के उपचार में किया जाता है । यह न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी हितकारी है ।

 तुलसी माता के पूजन से मनोबल, आत्मबल और चारित्र्यबल बढ़ता है, तनाव और मानसिक अवसाद आदि से रक्षा होती है । दिन में २० घंटे ऑक्सीजन और ४ घंटे ओज़ोन देनेवाली माता तुलसी सर्वहितकारिणी है ।

 दूसरी बात, भारत भूमि संतों-महापुरुषों की भूमि है । आप अपने बच्चों को राम, कृष्ण, स्वामी विवेकानंदजी, महात्मा बुद्ध, झाँसी की रानी, मीरा, गार्गी आदि महापुरुष जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान-भक्ति, शांति, प्रेम, परस्पर सौहार्द बढ़े, उसके लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया, वैसा बनाना चाहेंगे या किसी काल्पनिक पात्र जैसा जिसके होने के लिए भी आप और हम आश्वस्त नहीं हैं, यह विचारणीय है ।

स्वयं भी भ्रमित न हों और अपने बच्चों को भी भ्रम में न रखें । निर्णय आपका है कि आपको क्या करना है ?

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।