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गर्भवती और प्रसूता माताओं के लिए फायदेमंद सिंघाड़ा

गर्भवती और प्रसूता माताओं के लिए फायदेमंद सिंघाड़ा

पौष्टिक सिंघाड़ा

सिंघाड़े मधुर, शीतल, वीर्यवर्धक, पित्तशामक तथा रक्त विकार, जलन और सूजन दूर करनेवाले, पचने में भारी तथा वात एवं कफकारक हैं ।

ये विटामिन बी-1, बी-2, बी-9, सी तथा कैल्शियम, ताँबा, लौह तत्त्व, पोटैशियम, मैंगनीज आदि पोषक तत्त्वों के अच्छे स्रोत हैं । एंटी ऑक्सीडेंट्स का समृद्ध स्रोत होने से सिंघाड़े उच्च रक्तचाप (hypertension) में एवं हृदय के लिए भी लाभकारी हैं ।

सिंघाड़े के आटे से कई प्रकार के पौष्टिक व आरोग्यप्रद व्यंजन बनाये जाते हैं । आटा बनाने हेतु इसकी गिरी को निकालकर धूप में सुखा लें, फिर पिसवा लें । इसे उपवास में भी खा सकते हैं ।

पाचनशक्ति के अनुसार 20-30 ग्राम सिंघाड़े के आटे से बने हलवे का सेवन करने से श्वेतप्रदर व रक्तप्रदर में लाभ होता है, साथ ही शरीर भी पुष्ट होता है ।

चलिए जानें कि सिंघाड़े के आटे से कौन-कौन से पौष्टिक व आरोग्यप्रद व्यंजन बनाये जाते हैं और कैसे ?

सिंघाड़े का हलवा

100 ग्राम सिंघाड़े के आटे को घी में धीमी आँच पर सुनहरा होने तक भून लें । कढ़ाई को उतारकर आटे को ठंडा होने दें । फिर इसमें 1 कप गुनगुना दूध व स्वादानुसार मिश्री मिलाकर धीमी आँच पर पकायें । सिंघाड़े का यह हलवा लौह तत्त्व से भरपूर है । रक्ताल्पता (anaemia) एवं मासिक संबंधी रोगों में उपयोगी होने के साथ यह पौष्टिक और बलप्रद भी है ।

सिंघाड़े की पुष्टिदायी गोलियाँ

सिंघाड़े के आटे को घी में सेंक लें । आटे के समभाग खजूर को मिक्सी में पीसकर आटे में मिला लें । अब इसे हलका-सा सेंककर बेर के आकार की गोलियाँ बना लें । 2-4 गोलियाँ सुबह चूसकर खायें, थोड़ी देर बाद दूध पियें ।  इससे अतिशीघ्रता से रक्त की वृद्धि होती है । उत्साह, प्रसन्नता व वर्ण में निखार आता है । गर्भिणी माताएँ गर्भावस्था के छठे महीने से यह प्रयोग शुरू करें । इससे गर्भ का पोषण व प्रसव के बाद मातृदुग्ध में वृद्धि होगी । माताएँ बालकों को हानिकारक चॉकलेट्स की जगह ये पुष्टिदायी गोलियाँ खिलायें ।

पुष्टिकारक खीर

सिंघाड़े का 2 छोटी चम्मच आटा, 1 चम्मच घी, 300 मि.ली. दूध, 100 मि.ली. पानी, स्वादानुसार मिश्री व थोड़ी इलायची लें । सिंघाड़े के आटे को घी डालकर धीमी आँच पर सुनहरा लाल होने तक भून लें । फिर इसमें दूध तथा पानी डाल के पकायें । पकने पर मिश्री व थोड़ी इलायची डालें । यह स्वादिष्ट तथा पौष्टिक खीर रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, शुक्रधातु की दुर्बलता, रक्तपित्त (शरीर के किसी भी भाग से खून आना) आदि समस्याओं में तथा गर्भिणी व प्रसूता माताओं के लिए लाभकारी है । इसके सेवन से वजन व बल की वृद्धि होती है ।

गर्भस्थापक व गर्भपोषक पाक

सिंघाड़ा सगर्भावस्था में अत्यधिक लाभक होता है । यह गर्भस्थापक अर्थात् गर्भपात से रक्षा करनेवाला तथा गर्भपोषक है । इसका नियमित और उचित मात्रा में सेवन गर्भस्थ शिशु को कुपोषण से बचाकर स्वस्थ व सुंदर बनाता है । यदि गर्भाशय की दुर्बलता या पित्त की अधिकता के कारण न ठहरता हो, बार-बार गर्भस्राव या गर्भपात जाता हो तो सिंघाड़े के आटे से बने पाक का सेवन करें ।

सामग्री : 200-200 ग्राम सिंघाड़े व गेहूँ का आटा, 400 ग्राम देशी घी, 100 ग्राम पिसा हुआ खजूर, 100 ग्राम बबूल का पिसा हुआ गोंद, 400 ग्राम पिसी मिश्री ।

विधि : गोंद को घी में भून लें । फिर उसमें सिंघाड़े व गेहूँ का आटा मिलाकर धीमी आँच पर सेंकें । जब मंद सुगंध आने लगे तब पिसा हुआ खजूर व मिश्री मिला दें । पाक बनने पर थाली में फैलाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट के रख लें ।

सेवन विधि : 2 टुकड़े (लगभग 20 ग्राम) सुबह-शाम खायें । ऊपर से दूध पी सकते हैं ।

सावधानियाँ : सिंघाड़ा या उसके आटे का सेवन पाचनशक्ति के अनुसार करें । कफ प्रकृति के लोग इसका सेवन अल्प मात्रा में करें । कब्ज हो तो इसका सेवन न करें ।

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हे माँ ! तुम्हें प्रणाम …

हे माँ ! तुम्हें प्रणाम...

माँ की महिमा का वर्णन करते हुए ʹब्रह्मवैवर्त पुराणʹ में गणेश खंड के 40 वें अध्याय में आया हैः

जनको जन्मदानाच्च पालनाच्च पिता स्मृतः।।
गरीयान् जन्मदातुश्च योઽन्नदाता पिता मुने।
तयोः शतगुणं माता पूज्या मान्या च वन्दिता।।
गर्भधारणपोषाभ्यां सैव प्रोक्ता गरीयसी।
ʹ(कोई) जन्म देने के कारण जनक और पालन करने के कारण पिता कहलाता है । उस जन्मदाता से अन्नदाता पिता श्रेष्ठ होता है । इनसे भी माता सौ गुनी अधिक पूज्या, मान्या और वन्दनीया होती है क्योंकि वह गर्भधारण तथा पोषण करती है ।ʹ

इसलिए जननी एवं जन्मभूमि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है ।

माँ महँगीबाजी उन महान माताओं में से एक है जिन्होंने धरा पर पूज्य बापूजी जैसे संत को अवतरित करके न केवल एक संतमाता होने का गौरव प्राप्त किया, बल्कि खुद भी पूर्ण संतत्व प्राप्त कर, ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त कर सदा-सदा के लिए अमर हो गईं ।

बचपन से ही माँ महँगीबाजी में गुरुसेवा का बड़ा प्रबल भाव था । वे अपने कुलगुरु की सेवा पूरे हृदयपूर्वक करती थीं । उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उनके कुलगुरु ने ही उनका विवाह नगरसेठ थाऊमलजी से करवाया था । महँगीबाजी के ससुराल में सुख-सुविधाएँ तो थीं, साथ ही मानसिक कष्ट भी थे । महँगीबाजी की जेठानियाँ उनसे घर का सारा काम तो करवातीं ही, ऊपर से ताने भी मारतीं । किंतु महँगीबाजी इतनी सरल थीं कि कभी उनका कोई प्रतिकार नहीं करती थीं वरन् चुप्पी साधकर प्रभु-चिंतन करते-करते सब सहन कर लेती थीं । सहनशीलता तो मानो उनमें कूट-कूटकर भरी थी । और शायद उनके जीवन का यह कसौटी का काल ही उनके उज्जवल भविष्य की नींव बना । उनके गर्भ में एक पूर्णपुरुष का आगमन हुआ ।

माँ महँगीबाजी का स्वभाव अत्यंत नम्र, दयालु, सरल, सेवाभावी एवं ईश्वरभक्ति से परिपूर्ण था । वे प्रतिदिन नियम से पक्षियों को दाना डालतीं और नियमपूर्वक ईश्वर की पूजा-अर्चना करती थीं । घर आये अतिथियों, साधु-संतों की सेवा, घर की गायों की देखभाल तथा अन्य कितने ही घरेलु काम वे खुद ही करतीं । माता यशोदा की तरह वे स्वयं दही बिलोकर गाँव के लोगों में छाछ, मक्खन बड़े प्रेमपूर्वक बाँटती थीं । उन्होंने सभी से कह रखा था कि ʹयदि किसी कारणवश मैं यहाँ न होऊँ तो भी कभी किसी को भी घर से खाली हाथ लौटने मत देना । ऐसी थी उनकी अनन्य परोपकारिता ! मातुश्री का इन्हीं संस्कारों के साथ हुआ संतप्रवर का गर्भ संस्कार !

माँ महँगीबाजी को प्रसव-पीड़ा सुबह से ही होने लगी थी परंतु जब उन्होंने देखा कि आज अभी तक छाछ नहीं बाँटी हैं तो उऩ्होंने भगवान से प्रार्थना की कि ʹहे प्रभु ! पहले मैं छाछ व मक्खन बाँट लूँ फिर ही प्रसूति हो ।ʹ परमात्मा ने उनकी पुकार सुन ली और हमारे प्यारे सदगुरुदेव पूज्य बापूजी का अवतरण उनके रोज के सेवाकार्य के बाद दोपहर 12 बजे हुआ ।

अम्माजी की जेठानी अस्वस्थता के कारण अपने बच्चों को पेयपान कराने में असमर्थ थीं । उसी दौरान महँगीबाजी ने भी एक बच्चे को जन्म दिया था । जेठानियाँ इतनी-इतनी परेशानियाँ एवं कष्ट देती रहती थीं तो भी महँगीबाजी उदारतापूर्ण व्यवहार रखतीं और अपने बच्चे के साथ जेठानी के बच्चे को भी पयपान करातीं । साक्षात् परब्रह्मस्वरूप ब्रह्मज्ञानी संतशिरोमणि की जननी के वक्षस्थल से सदैव सबके लिये वात्सल्य का अमृत तो बहेगा ही । उनके हृदय में अपने परायेपन का भेद कैसे हो सकता है !

अम्माजी स्वयं तो ईश्वर की पूजा अर्चना करती ही थीं, अपने पुत्र आसुमल में भी यही संस्कार उन्होंने बाल्यकाल में डाले थे । अम्माजी आटा-पीसते नन्हें आसु को गोदी में बिठाकर भगवन के भजन सुनातीं । मातुश्री सोचतीं कि ʹमेरे लाल को बचपन से ही भगवान में विश्वास हो जाये इसके लिए मैं क्या करूँ, उसे कौनसी चीज दूँ ?ʹ फिर आसू से कहतीं- ʹतू भगवान के आगे आँखें बंद करके बैठेगा तो भगवान तुझे मक्खन मिश्री देंगे ।ʹ फिर अम्मा स्वयं ही चुपके से आसु के पास मक्खन-मिश्री रख जातीं । आँखें खोलते ही मक्खन मिश्री देखकर आसु खुश हो जाता । बहनें बताने जातीं ʹआसु ! यह तो माँ ने रखा है।ʹ तो अम्माजी उन्हें आँखें दिखाकर चुप करवा देतीं और समझातीं कि इससे आसु का भगवद्विश्वास नहीं जमेगा । इस प्रकार पूज्य बापू जी की बचपन में ध्यान-भजन में रूचि जगाने वाली माँ महँगीबाजी ही थीं ।

छोटी उम्र में ही बालक आसुमल पर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ आ गयीं । बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी व बड़े भाई के साथ जिम्मेदारियों को निभाने में सहभागी होना पड़ा । इतने पर भी ये माँ महँगीबाजी की तपस्या ही थी कि आसुमल ने अपने ध्यान-भजन के नियमों में थोड़ी भी कमी नहीं आने दी, ध्यान-भजन में उनकी रूचि और अधिक प्रगाढ़ होने लगी थी । पूज्य बापू जी की बढ़ती आध्यात्मिक उत्कंठा के बारे में अम्मा कहती थीं- “घर में स्वामी विवेकानंदजी का फोटो लगा हुआ था। नन्हा आसुमल मुझे फोटो दिखाकर बोलता कि ʹमैं विवेकानंदजी जैसा कब बनूँगा ?ʹ और फिर भाभी को कहताः ʹदेखना, इनके समान घर-घर में मेरे भी फोटो लगेंगे।ʹ यह सुनकर भाभी मुँह बनाती, मुँह में हवा भरकर आवाज निकालती और बोलतीः “हं… आया बड़ा विवेकानंद बननेवाला… छोटा मुँह बड़ी बात…।” लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे आसुमल का वचन साकार होता गया… वास्तव में ऐसे दिन आये कि आसुमल महान संत श्री आशारामजी बापू बन गये और आज घर-घर में उनके फोटो लगे हुए हैं ।

माता देवहूति ने अपने ही पुत्र कपिल मुनि में भगवदबुद्धि, गुरुबुद्धि करके ईश्वरप्राप्ति की और अपना जीवन सार्थक किया था, उसी इतिहास का पुनरावर्तन करने का गौरव प्राप्त करने वाली पुण्यशीला माँ महँगीबा जी के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम। उनके विराट व्यक्तित्व के लिए तो जगज्जननी की उपमा भी नन्हीं पड़ जात वात्सल्य की साक्षात मूर्ति… प्रेम का अथाह सागर…. करूणा की अविरत सरिता बहाते नेत्र…. प्रेममय वरदहस्त… कंठ अवरूद्ध हो जाता है उनके स्नेहमय संस्मरणों से ! धन्य धन्य माँ महँगीबाजी !! हे माँ ! तुम्हें प्रणाम !!!

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सुंदर व स्वस्थ संतान के लिए अवश्य खाएं

आँवला

आँवले को धात्रीफल भी कहा जाता है । यह त्रिदोषशामक, विशेषकर पित्त व कफ शामक है । आँवला शुक्रवर्धक, रुचिकर, भूखवर्धक, भोजन पचाने में सहायक, मलमूत्र को साफ लानेवाला व शरीर की गर्मी को कम करनेवाला है । यह मधुर, अम्ल, कड़वा, तीखा व कसैला इन पाँच रसों की शरीर में पूर्ति करता है । आँवले के सेवन से आयु, स्मृति, कांति एवं बल बढ़ता है । हृदय एवं मस्तिष्क को शक्ति मिलती है । आँखों के तेज में वृद्धि, बालों की जड़ें मजबूत होकर बाल काले होना आदि अनेकों लाभ होते हैं । शास्त्रों में आँवले का सेवन पुण्यादायी माना गया है । अतः अस्वस्थ एवं निरोगी सभी को आँवले का किसी-न-किसी रूप में सेवन करना ही चाहिए ।
शरद पूनम के बाद से आँवले वीर्यवान माने जाते हैं । आँवले के सेवन से शरीर में धातुओं का निर्माण होता है और यह शरीर की रस, रक्त आदि सप्तधातुओं के दोषों को दूर करता है । इस प्रकार यह युवावस्था को बनाये रखने में सहायक है ।

गुणकारी आँवले के कुछ औषधीय प्रयोग

1. जिन्हें भोजन में अरुचि हो या भूख कम लगती हो उन्हें भोजन से पहले 2 चम्मच आँवला रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर लेना लाभकारी है ।
2. नाक, मूत्रमार्ग, गुदामार्ग से रक्तस्राव, योनिमार्ग में जलन व अतिरिक्त रक्तस्राव, पेशाब में जलन, रक्तप्रदर, त्वचा विकार आदि समस्याओं में आँवला रस अथवा आँवला चूर्ण दिन दो बार लेना लाभदायी है ।
3. आँवला रस में 4 चुटकी हल्दी मिलाकर दिन में दो बार लें । यह स्वप्नदोष, मधुमेह व पेशाब में धातु जाना आदि सभी प्रकार के प्रमेहों में श्रेष्ठ औषधि है ।
4. अम्लपित्त, सिरदर्द, सिर चकराना, आँखों के सामने अँधेरा छाना, उलटी होना आदि में आँवला रस या चूर्ण मिश्री मिलाकर लेना फायदेमंद है ।
5. रक्ताल्पता या पीलिया जैसे विकारों में आँवला चूर्ण का दिन में 2 बार उपयोग करने से रस-रक्त का पोषण होकर उन विकारों में लाभ होता है ।
6. आँवला एवं मिश्री का मिश्रण घी के साथ प्रतिदिन सुबह लेने से असमय बालों का सफेद होना व झड़ना बंद हो जाता है तथा सभी ज्ञानेन्द्रियों की कार्यक्षमता बढ़ती है ।
7.10-15 मि.ली. आँवला रस में उतना ही पानी मिलाकर मिश्री, शहद अथवा शक्कर का मिश्रण करके भोजन के बीच में लेने वाला व्यक्ति कुछ ही सप्ताह में निरोगी काया व बलवृद्धि का एहसास करता है, ऐसा कइयों का अनुभव है। (वैद्य सम्मत)
8. आँवले के रस में 2 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण व मिश्री मिलाकर लेने से शरीरपुष्टि, वीर्यवृद्धि एवं वंध्यत्व में लाभ होता है । स्त्री-पुरुषों के शरीर में शुक्रधातु की कमी का रोग निकल जाता है और संतानप्राप्ति की ऊर्जा बनती है ।

विशेष ध्यान रखें :

सेवन मात्राः आँवला चूर्ण – 2 से 5 ग्राम, आँवला रस – 15 से 20 मि.ली.
ध्यान दें- आगे-पीछे 2 घंटे तक दूध न लें ।
रविवार व शुक्रवार को आँवले का सेवन वर्जित है ।
सप्तमी, नवमी, अमावस्या, रविवार, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा सक्रांति – इन तिथियों को छोड़कर बाकी के दिन आँवले का रस शरीर पर लगाकर स्नान करने से आर्थिक कष्ट दूर होता है। (स्कन्द पुराण, वैष्णव खंड)
मृत व्यक्ति की हड्डियाँ आँवले के रस से धोकर किसी भी नदी में प्रवाहित करने से उसकी सदगति होती है। (स्कन्द पुराण, वैष्णव खंड)

गर्भपोषक आँवला

आँवला रसायन होने के कारण यह गर्भ में सारभूत उत्तम धातुओं (अंग-प्रत्यंगों) का निर्माण करता है, वर्ण में निखार लाता है, हृदय व हड्डियों को मजबूत बनाता है, रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है । आँवले के प्रभाव से शिशु ओजस्वी व सुंदर होता है ।

गर्भावस्था के दौरान आँवले का मुरब्बा प्रतिदिन सेवन करने से बालक स्वस्थ और गौरवर्ण होता है ।

प्रतिदिन २ नग आँवले का मुरब्बा खाने से अथवा १० से २० मिली. आँवले का रस १० ग्राम घी अथवा शहद मिलाकर पीने से प्रसव नैसर्गिक रूप से बिना किसी कष्ट के होता है ।

भोजन के साथ आँवले का हलवा/सीरा, मुरब्बा अथवा चटनी का सेवन करने से जी मिचलाना, खट्टी डकारें, सिरदर्द, उल्टी, जलन, प्यास आदि पित्तजन्य तकलीफों; भोजन में अरुचि, भूख न लगना, थकान, कमजोरी आदि अनेक समस्याओं से छुटकारा मिलता है ।

जिनके वंश में मधुमेह (Diabetes), थेलेसीमिया, सिकल सेल एनीमिया आदि रोग परम्परा से चलते आ रहे है, उन्हें सगर्भावस्था में प्रतिदिन आँवले के सेवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।

आँवले के स्वादिष्ट, पौष्टिक और सुपाच्य व्यंजन

आँवले के मीठे लच्छे

सामग्रीः 500 ग्राम आँवला, 5 ग्राम काला नमक, चुटकीभर सादा नमक, चुटकीभर हींग, 500 ग्राम मिश्री, आधा चम्मच नींबू का रस, 150 ग्राम तेल ।

विधिः आँवलों को धोकर कद्दूकश कर लें । गुलाबी होने तक इनको तेल में सेंके । फिर कागज पर निकालकर रखें ताकि कागज सारा तेल सोख ले । इनमें काला नमक व नींबू का रस मिलाकर अलग रख दें । मिश्री की चाशनी बनाकर इनको उसमें थोड़ी देर पका लें । बस, हो गये आँवले के मीठे लच्छे तैयार ! इन्हें काँच के बर्तन में भरकर रख लें ।

आँवले की चाय, शरबत और चटनी

१-२ किलो आँवले धो-धा के कुकर में डाल दो । २५ से ५० मि.ली. पानी डाल दो। एक सीटी बजे न बजे, आँवले उतार लो । थोड़ी देर बाद कुकर खोल के आँवलों की गुठलियाँ निकालकर आँवलों को जरा मथ के उनका मावा-सा बना लो ।

फिर घी हो तो घी, नहीं तो तेल में उनको सेंक लो । जितना आँवला हो उतनी ही शक्कर या मिश्री की एक तारवाली चाशनी बनाकर उसमें मिला दो और उसे अच्छे-से गरम कर लो । उसमें से आधा अलग करके रख दो और रोज १० ग्राम एक गिलास में डाल दो। शरबत पीने का शौक है तो उसमें ठंडा पानी डालो और चाय पीने का शौक है तो गर्म पानी डालो । अगर धातु कमजोर है, स्वप्नदोष है, सफेद पानी पड़ने की बीमारी है तो १ ग्राम हल्दी डाल के चुसकी ले के पियो । चाय की चाय, शरबत का शरबत !

बाकी का जो आधा मिश्रण बचा है उसमें धनिया, मिर्च और जो भी मसाला हो उसे डालकर चटनी बना दो । भोजन के पहले थाली में १-१ चम्मच चटनी परोस दो । आँवले की चटनी खाने के बाद जो भोजन खायेगा उसका भोजन पुष्टिदायी हो जायेगा ।

ताजे आँवलों से बना ‘च्यवनप्राश’ भी शक्ति, स्फूर्ति, ताज तथा रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाने की श्रेष्ठ औषधि है । च्यवनप्राश मिश्रीयुक्त ‘आँवला चूर्ण’ के साथ ही आँवला रस, आँवला कैंडी, आँवला अचार, आँवला पाउडर आदि आँवले से बने उत्पाद संत श्री आशारामजी आश्रमों में व समितियों के सेवाकेन्द्रों से प्राप्त हो सकते हैं । इनका उपयोग करके आँवले के विभिन्न गुणों का लाभ ले सकते हैं ।

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यदि आप भी रिफाइंड तेल का प्रयोग करते हैं तो

यदि आप भी रिफाइंड तेल का प्रयोग करते हैं तो...

गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए सगर्भा का भोजन पौष्टिक चाहिए । भोजन की पौष्टिकता जितनी पौष्टिक खाद्य पदार्थों पर निर्भर करती है उतनी ही भोजन बनाने में उपयोग किये जानेवाले तेल पर भी निर्भर करती है । आजकल ज्यादातर घरों में भोजन बनाने में रिफाइंड तेल का प्रयोग होता है । पर क्या आपने कभी विचार किया है कि आप जिस तेल में भोजन बना रही हैं वो आपके और आपके गर्भस्थ शिशु के लिए सुरक्षित है भी या नहीं ?

रिफाइंड तेल बनाने की प्रक्रिया में न केवल तेल के पौष्टिक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं बल्कि इसमें कई प्रकार के जहरीले व रोगोत्पादक रसायनों का निर्माण भी होता है । साथ ही सोयाबीन, सूरजमुखी, मूँगफली आदि के तेलों को रिफाइन करने के दौरान फॉस्फोरिक एसिड, ऑक्जेलिक एसिड, सिलिका, साइट्रिक एसिड, ब्लीचिंग अर्थ, एक्टिवेटेड कार्बन, कॉस्टिक सोडा जैसे रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है ।

रिफाइंड तेलों के कारण गर्भिणी को कब्ज, एसिडिटी की समस्या हो सकती है । रिफाइंड तेल का उपयोग हृदयरोग (heart disease), यकृत (liver) व गुर्दों (kidneys) की खराबी, कैंसर, मधुमेह (diabetes), अस्थि-भंगुरता (osteoporosis), गठिया, अवसाद (depression), सूजन जैसे कई गम्भीर रोगों को निमंत्रण देता है । इनका लगातार प्रयोग न केवल सगर्भा को बल्कि गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है । सामान्य प्रसूति में भी अवरोध उत्पन्न होने की सम्भावना होती है ।

अतः तिल, नारियल, सूरजमुखी, सरसों, मूँगफली के घानीवाले (बिना रिफाइन किये) तेल का उपयोग करना हितकारी एवं स्वास्थ्यकर है । व्यक्ति जिस स्थान पर जन्म लेता है तथा निवास करता है उस स्थान पर प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होते हैं । दक्षिण भारत में नारियल का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होता है । अतः वहाँ के निवासियों के लिए नारियल का तेल अनुकूल है । ऐसे ही उत्तर भारत में सरसों की एवं मध्य भारत में मूँगफली की पैदावार विशेष रूप से होती है । अतः उन-उन भागों में तत्संबंधी तेल उपयुक्त हैं । सोयाबीन मूलरूप से हमारे देश की उपज नहीं है । इसी कारण सोयाबीन पौष्टिकता से भरपूर होने पर भी हमारे देशवासियों के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है । आजकल हमारे देश में जैतून के तेल (olive oil) का उपयोग बढ़ता जा रहा है । मेडिटेरेनियन सागर के किनारों पर बसे हुए देशों के जैतून-वृक्ष के फलों से बननेवाला यह तेल औषधीय गुणों से युक्त होने पर भी जो लाभ भारतीयों को नारियल, मूँगफली, सरसों, तिल आदि के तेल से मिल सकता है वह जैतून या सोयाबीन के तेल से नहीं मिल सकता ।

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पितरों की प्रसन्नता से आती है दिव्य संतान

पितरों की प्रसन्नता से आती है दिव्य संतान

दिव्य संतान की चाहना रखनेवालों को श्रद्धा और आदरसहित श्राद्ध करना ही चाहिए ।

‘श्राद्ध’ किसे कहते हैं ?

श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिचक्षते ।
श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।’
श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरों की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं । इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते हैं । जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते हैं, वे हमारे जीवन की समस्याओं को दूर करने में हमारी सहायता करते हैं ।

श्राद्ध करने का अधिकारी कौन ?

वर्णसंकर के हाथ का दिया हुआ पिण्डदान और श्राद्ध पितर स्वीकार नहीं करते और वर्णसंकर संतान से पितर तृप्त नहीं होते वरन् दुःखी और अशांत होते हैं । अतः उसके कुल में भी दुःख, अशांति और तनाव बना रहता है ।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। (श्रीमदभगवदगीता 1.42)

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला ही होता है । श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन (कुलघातियों) के पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।
(वर्णसंकरः एक वर्ण के पिता एवं दूसरी वर्ण की माता से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर कहते हैं ।)

श्राद्धकर्म किसलिए ?

श्राद्ध की बड़ी महिमा है । सूक्ष्म जगत के लोगों को हमारी श्रद्धा और श्रद्धा से दी गयी वस्तु से तृप्ति का एहसास होता है । बदले में वे भी हमें मदद करते हैं, प्रेरणा देते हैं, प्रकाश देते हैं, आनंद और शाँति देते हैं । हमारे घर में किसी संतान का जन्म होनेवाला हो तो वे अच्छी आत्माओं को भेजने में सहयोग करते हैं । पूर्वजों से उऋण होने के लिए, उनके शुभ आशीर्वाद से उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है । इस प्रकार नि:संतान दम्पत्तियों के लिए भी श्राद्धकर्म वरदानस्वरूप है ।

गरुड़ पुराण में आता है –

कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति ।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते ।।

देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् । “समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है । देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है । देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है ।” (गरुड़ पुराण 10.57.59)

पद्म पुराण में भी आता है कि जो भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी संतुष्ट करते हैं । वे पुष्टि, आरोग्य, संतान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं । पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही संतुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है ।’

जो पूर्णिमा के दिन श्राद्धादि करता है उसकी बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, धारणाशक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती । वह पर्व का पूर्ण फल भोगता है ।

श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते हैं, जो शरीर की मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं । श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है । बूढ़े-बुजुर्गों की उन्नति के लिए आप कुछ करेंगे तो आपके हृदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा ।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रूपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन 11.36 से 12.24 बजे के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें । चारा खरीदने को भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें- ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं । मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-कराने वाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है । इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं ।’ इससे आपको मंगलमय लाभ होगा ।’

 

इतिहास गवाह है…

मालवीयजी के जन्म से पूर्व हिन्दुओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध जब आंदोलन की शुरुआत की थी तब अंग्रेजों ने सख्त ‘कर्फ्यू’ जारी कर दिया था। ऐसे दौर में एक बार मालवीयजी के पिता जी कहीं से कथा करके पैदल ही घर आ रहे थे। उन्हें मार्ग में जाते देखकर अंग्रेज सैनिकों ने रोका-टोका एवं सताना शुरु किया। वे उनकी भाषा नहीं जानते थे और अंग्रेज सैनिक उनकी भाषा नहीं जानते थे। मालवीय जी के पिता ने अपना साज निकाला और कीर्तन करने लगे। कीर्तन से अंग्रेज सैनिकों को कुछ आनंद आया और इशारों से धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा किः “चलो, हम आपको पहुँचा देते हैं।” यह देखकर मालवीयजी के पिता को हुआ किः “मेरे कीर्तन से प्रभावित होकर इन्होंने मुझे तो हैरान करना बन्द कर दिया किन्तु मेरे भारत देश के लाखों-करोड़ों भाईयों का शोषण हो रहा है, इसके लिए मुझे कुछ करना चाहिए।”
बाद में वे गया जी गये और प्रेमपूर्वक श्राद्ध किया। श्राद्ध के अंत में अपने दोनों हाथ उठाकर पितरों से प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहाः ‘हे पितरो ! मेरे पिण्डदान से अगर आप तृप्त हुए हों, मेरा किया हुआ श्राद्ध अगर आप तक पहुँचा हो तो आप कृपा करके मेरे घर में ऐसी ही संतान दीजिए जो अंग्रेजों को भगाने का काम करे और मेरा भारत आजाद हो जाये…..।’ पिता की अंतिम प्रार्थना फली। समय पाकर उन्हीं के घर मदनमोहन मालवीय जी का जन्म हुआ ।

औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पीने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था । तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य हैं वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते हैं और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नहीं दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते हैं ।”

 

अमावस्या को श्राद्ध की महिमा

‘वराह पुराण’ के अनुसार एक बार पितरों ने ब्रह्मा जी के चरणों में निवेदन कियाः “भगवन् ! हमें जीविका देने की कृपा कीजिये, जिससे हम सुख प्राप्त कर सकें ।”
प्रसन्न होते हुए भगवान ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान देते हुए कहाः “अमावस्या की तिथि को मनुष्य जल, तिल और कुश से तुम्हारा तर्पण करेंगे । इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे । पितरों के प्रति श्रद्धा रखनेवाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उस पर अत्यंत संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है ।”
यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है । जिन पितरों की शरीर छूटने की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है ।
अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिंडदान एवं श्राद्धादि की आशा में आते हैं । यदि वहाँ उन्हें पिंडदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती है तो वे श्राप देकर चले जाते हैं । अतः श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।

सावधान – श्राद्ध पक्ष के दिनों में संसार-व्यवहार नहीं करना चाहिये ।

सामूहिक श्राद्ध का लाभ लें

सर्वपित्री दर्श अमावस्या के दिन विभिन्न स्थानों के संत श्री आशारामजी आश्रमों में सामूहिक श्राद्ध का आयोजन होता है । आप भी इसका लाभ ले सकते हैं । इस हेतु अपने नजदीकी आश्रम में पंजीकरण करा लें । अधिक जानाकारी हेतु पहले ही अपने नजदीकी आश्रम से सम्पर्क कर लें । अगर खर्च की परवाह न हो तो अपने घर में भी श्राद्ध कर सकते हैं । (श्राद्ध से संबंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें, आश्रम से प्रकाशित पुस्तक श्राद्ध-महिमा) ।

बुद्धिमान, धनवान, धर्मात्मा व दीर्घजीवी संतान हेतु

बुद्धिमान, धनवान, धर्मात्मा व दीर्घजीवी संतान हेतु

मनु महाराज कहते हैं कि किसी स्त्री को दीर्घजीवी, यशस्वी, बुद्धिमान, धनवान, संतानवान (पुत्र-पौत्रादि संतानों से युक्त होनेवाला), सात्त्विक तथा धर्मात्मा पुत्र चाहिए तो श्राद्ध करे और श्राद्ध में पिंडदान के समय बीच का (पितामह संबंधी) पिंड उठाकर उस स्त्री को खाने को दे दिया जाये ।

‘आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्रजम् ।’ (पितरो ! आप लोग मेरे गर्भ में कमलों की माला से अलंकृत एक सुंदर कुमार की स्थापना करें।) इस मंत्र से प्रार्थना करते हुए स्त्री पिंड को ग्रहण करे। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक यह विधि करने से उपरोक्त गुणोंवाला बच्चा होगा ।

(इस प्रयोग हेतु पिंड बनाने के लिए चावल को पकाते समय उसमें दूध और मिश्री भी डाल दें। पानी एवं दूध की मात्रा उतनी ही रखें जिससे उस चावल का पिंड बनाया जा सके। पिंडदान-विधि के समय पिंड को साफ-सुथरा रखें ।
ऋषि प्रसाद अगस्त 2019 पृष्ठ 34

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माँ की उत्तम शिक्षा का अद्भुत प्रभाव

माँ की उत्तम शिक्षा का बालक पर पड़ा अद्भुत प्रभाव

लाल बहादुर शास्त्री के पिता मर गये थे तब विधवा माँ ने सोचा कि ‘मेरा कर्तव्य है बच्चे को पढ़ाना ।’ पैसे तो थे नहीं । अपने घर से कोसों दूर किसी पैसेवाले रिश्तेदार के यहाँ हाथाजोड़ी करके लाल बहादुर को रख दिया । पैसे वाले तो पैसे वाले ही होते हैं, उन्होंने लाल बहादुर से जूठे बर्तन मँजवाये, झाड़ू लगवायी । घर का तीसरे-चौथे दर्जे का व्यक्ति जो काम करता है वे सब काम करवाये । उनके घर के कुछ लोग ऐसे उद्दण्ड थे कि लाल बहादुर को बड़े कठोर वचन भी सुना देते थे – ‘हराम का खाता है, ऐसा है विधवा का लड़का, फलाना, ढिमका, हमारे माथे पड़ा है, ऐसा करता है – वैसा करता है… ।’ सहते-सहते बालक की सहनशक्ति की हद हो गयी । वह उस अमीर का घर छोड़ के माँ की गोद में आकर फूट-फूट के रोया ।
लेकिन कैसी है भारत की माँ ! बेटे का सारा हाल-हवाल सुना, फिर बोलती हैः ″बेटा लालू ! तेरा नाम बहादुर है । मेरे में क्षमता नहीं कि मैं पैसे इकट्ठे करके तुझे पढ़ा सकूँ और खिला सकूँ । माँ का कर्तव्य है बेटे को सयाना बनाना, होशियार बनाना । बेटा ! तुझे मेहनत करनी पड़ती है तो तेरी अभी उम्र है, थोड़ा परिश्रम कर ले और तुझे जो सुनाते हैं उसके बदले में तू पढ़ेगा-लिखेगा, विद्वान होगा, कइयों के काम आयेगा मेरे लाल ! बेटा ! और तो मैं तुझसे कुछ नहीं माँगती हूँ, तेरी माँ झोली फैलाती है मेरे लाल ! तेरे दुःख को मैं जानती हूँ, उन लोगों के स्वभाव को भी मैंने समझ लिया किंतु मैं तेरे से माँगती हूँ बेटे !″
″माँ ! क्या माँगती है ?″
″बेटे ! तू मेरे को वचन दे !″
″माँ ! बोलो, क्या माँगती हो ? मैया ! मेरी मैया !! क्या माँगती है ?″
″बेटे ! वे कुछ भी कहें, कितना भी कष्ट दें, तू थोड़ा सह के शास्त्री बन जा बस !″
″माँ ! तेरी ऐसी इच्छा है, मैं सब सह लूँ ?″
″हाँ बेटे ! सह लो और शास्त्री बन जाओ ।″
माँ की उत्तम शिक्षा का बालक बहादुर के जीवन पर कैसा अद्भुत प्रभाव पड़ा । बहादुर बच्चा सचमुच सब सहते हुए शास्त्री बना । दुनिया जानती है कि वही लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने थोड़े माह ही राज्य चलाया परंतु लोगों के हृदय में उनकी जगह अब भी है । जातिवाद, यह वाद-वह वाद आदि के नाम पर लड़ाना-झगड़ाना, झूठ-कपट करना, एक-दूसरे की निंदा करना – ऐसी गंदी राजनीति से वे बहुत दूर थे । उन्होंने माँ की बात रखी और माँ के दिल का वह सत्-चित्-आनंदस्वरूप ईश्वर उनके जीवन में भरपूर बरसा ।

जैसा नाम, वैसे संस्कार

लालबहादुर शास्त्री जी के बाल्यकाल की एक घटना है । एक दिन वे सोचने लगे कि परिवार में सभी लोगों का नाम प्रसाद व लाल पर है लेकिन माँ ने मेरा नाम ‘बहादुर’ क्यों रखा । बालक माँ के पास गया और बोलाः “माँ ! मेरा नाम लालबहादुर क्यों रखा है, जबकि हमारे यहाँ तो किसी का नाम बहादुर पर नहीं है ? अपने रिश्तेदारों में भी तो सभी लाल या प्रसाद हैं, फिर मेरा नाम इतना खराब क्यों है ? मुझे यह नाम अच्छा नहीं लगता ।”
पास ही बैठे उनके मामा ने कहाः “क्यों नहीं है, देखो इलाहाबाद के नामी वकील है तेज बहादुर ।”
तभी माँ रामदुलारी देवी हँसी और बोलीं- “नन्हें का नाम ‘वकील बहादुर’ बनने के लिए तुम्हारे जीजा जी ने नहीं रखा है बल्कि उन्होंने ‘कलम बहादुर’ बनाने के लिए और मैंने अपने नन्हें को ‘करम बहादुर’ बनाने के लिए इसका नाम लालबहादुर रखा है । मेरा लाल ‘बहादुर’ बनेगा अपनी हिम्मत व साहस का…।”
और इतना कहते-कहते उनकी आँखें भर आयीं । पति की स्मृति उनके मानस-पटल पर आ गयी । उन्होंने अपने ‘लाल बहादुर’ को गोद में बैठाकर अनेकानेक आशीष दे डाले । ये ही आशीर्वाद जेल-जीवन की यातनाओं तथा पारिवारिक समस्याओं में उनका साहस बढ़ाते रहे । माता के आशीर्वाद फलीभूत हुए और इतिहास साक्षी है कि वे सहनशीलता, शालीनता, विनम्रता और हिम्मत में कितने बहादुर हुए । उनका धैर्य, साहस, संतोष तथा त्याग असीम था ।
बाल्यावस्था बहुत नाजुक अवस्था होती है, इसमें बच्चों को आप जैसा बनाना चाहते हैं, वे वैसे बन जायेंगे । आवश्यकता है तो बस अच्छे संस्कारों के सिंचन की ।

काश ! यदि आज के नेता भी ऐसे होते….

सन् 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने देश की जनता से अपील की थीः “घर का खर्चा कम कर दो क्योंकि युद्ध के समय सरकार को धन की अधिक आवश्यकता होती है ।”
देश की जनता से तो ऐसी अपील की परन्तु इससे पहले ही स्वयं शास्त्री जी ने अपने घर के खर्चों में कटौती कर दी थी । उनकी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री प्रायः अस्वस्थ रहती थीं । उनके घर में सफाई करने तथा कपड़े धोने के लिए एक बाई आती थी । शास्त्री जी ने उस बाई को दूसरे दिन से आने के लिए मना कर दिया । जब बाई ने पूछा किः “कपड़े धोने और सफाई का काम कौन करेगा ?” तब शास्त्री जी ने कहाः “अपने कपड़ों और कमरे की सफाई मैं स्वयं कर लूँगा तथा बाकी के घर की सफाई अपने बच्चों से करवा लूँगा ।”
शास्त्री जी के सबसे बड़े बेटे को ʹअंग्रेजीʹ का टयूशन पढ़ाने के लिए एक अध्यापक उनके घर आता था। शास्त्री जी ने उसे भी आने से मना कर दिया । अध्यापक ने कहाः “आपका बेटा अंग्रेजी में बहुत कमजोर है । यदि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होगा तो उसका एक साल बर्बाद हो जायेगा ।” इस पर शास्त्री जी ने कहाः “इस देश के लाखों बच्चे हर साल अनुत्तीर्ण हो जाते हैं । यदि मेरा बेटा भी अनुत्तीर्ण हो जायेगा तो इसमें कौन सी बड़ी बात है ? मैं कोई विशेष व्यक्ति तो हूँ नहीं ।”
एक दिन शास्त्री जी की पत्नी ललिता जी ने कहाः “आपकी धोती फट गयी है । आप नई धोती ले आइये ।” शास्त्री जी बोलेः “अच्छा तो यह होगा कि तुम सुई-धागे से इसकी सिलाई कर दो । अभी नयी धोती लाने के बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । मैंने ही अपने देशवासियों से बचत का आह्वान किया है । अतः मुझे स्वयं भी इसका पालन करना चाहिए । मैं भी इस देश का एक नागरिक हूँ और देश के मुखिया के पद पर आसीन होने के नाते यह नियम सबसे पहले मेरे ही घर से लागू होना चाहिए ।”
1965 में दशहरे के दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में शास्त्री जी ने देश की जनता को संबोधित किया । उन्होंने देशवासियों से एक दिन का उपवास रखने की अपील की और साथ में खुद भी एक दिन उपवास का पालन करने का प्रण लिया ।
धन्य हैं ऐसे प्रधानमंत्री ! ऐसी निःस्वार्थ महान आत्माएँ जब किसी पद पर बैठती हैं तो उस पद की शोभा बढ़ती है । यदि देश की सम्पत्ति को घोटालेबाजी से स्विस बैंकों में जमा करनेवाले भारत के घोटालेबाज नेता शास्त्री जी की सीख को अपने जीवन में अपनाते तो देश और अधिक उन्नति की राह पर होता ।

पूरा जीवन ही प्रेरक रहा

 मैं प्रधानमंत्री हूँ पर हूँ तो गरीब ही
बात तब की है जब शास्त्रीजी इस देश के प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे थे । एक दिन वे एक कपड़े की मिल देखने के लिए गए । उनके साथ मिल का मालिक, उच्च अधिकारी व अन्य विशिष्ट लोग भी थे । मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुँचे तो उन्होंने साड़ियाँ दिखलाने को कहा । मिल मालिक व अधिकारियों ने एक से एक खूबसूरत साड़ियाँ उनके सामने फैला दीं । शास्त्रीजी ने साड़ियाँ देखकर कहा- ‘ साड़ियाँ तो बहुत अच्छी हैं, क्या मूल्य है इनका?’
‘जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1 हजार रुपए की है ।’ मिल मालिक ने बताया ।
‘ये बहुत अधिक दाम की हैं । मुझे कम मूल्य की साड़ियाँ दिखलाइए,’ शास्त्रीजी ने कहा । 
‘जी, यह देखिए । यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की’ मिल मालिक ने दूसरी साड़ियाँ दिखलाते हुए कहा । 
‘अरे भाई, यह भी बहुत कीमती है । मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियाँ दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूं ।’ शास्त्रीजी बोले ।
‘वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, गरीब कैसे? हम तो आपको ये साड़ियाँ भेंट कर रहे हैं ।’ मिल मालिक कहने लगा ।
‘नहीं भाई, मैं भेंट में नहीं लूंगा’, शास्त्रीजी स्पष्ट बोले ।
‘क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें’, मिल मालिक अधिकार जताता हुआ कहने लगा ।
‘हाँ, मैं प्रधानमंत्री हूँ’, शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- ‘पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊं । भाई, मैं प्रधानमंत्री हूँ पर हूँ तो गरीब ही । आप मुझे सस्ते दाम की साड़ियाँ ही दिखलाएं । मैं तो अपनी हैसियत की साड़ियाँ ही खरीदना चाहता हूँ ।’
मिल मालिक की सारी अनुनय-विनय बेकार गई । देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियाँ ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं । ऐसे महान थे शास्त्रीजी, लालच जिन्हें छू तक नहीं सका था ।
 
मंत्री कैसा होना चाहिए?
लाल बहादुर शास्त्री जी अपनी माँ को नहीं बताया था कि वो रेलमंत्री हैं । बताया कि “मैं रेलवे में काम करता हूँ” ।
एक बार वो रेलवे द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में आए थे, जहाँ उनकी माँ भी आई थीं और पूछ रही थीं कि मेरा बेटा भी यहाँ रेलवे में है ।
लोगों ने पूछा क्या नाम है ? जब उन्होंने नाम बताया तो सभी चौंक गए, ”आप झूठ बोल रही हैं” ।
लेकिन उन्होंने कहा, “नहीं, वो आया है”।
लोग उन्हें लाल बहादुर शास्त्रीजी के सामने ले गए और पूछा, “क्या यह आपका बेटा है?
तो माँ ने कहा “हाँ ये मेरा बेटा है ।”
लोगों ने मंत्रीजी को उन्हें दिखाया, “क्या वह आपकी माँ है?”
तब शास्त्री जी ने अपनी माँ को बुलाकर अपने पास बिठाया और कुछ देर बाद उन्हें घर भेज दिया ।
तो पत्रकारों ने पूछा “आपने उनके सामने भाषण क्यों नहीं दिया”।
तो उन्होंने कहा “मेरी माँ को नहीं पता कि मैं मंत्री हूँ । अगर उसे पता चलेगा तो वो लोगों की सिफारिश करने लगेंगी और मैं मना नहीं कर पाऊंगा… और उन्हें भी अहंकार आ जाएगा ।
जवाब सुनकर सभी हैरान रह गए ।”
कहाँ गए वो निस्वार्थ, विनम्र और ईमानदार लोग?
 
सिद्धान्त की दृढ़ता
बार लालबहादुर शास्त्री इलाहाबाद की नैनी जेल में थे । घर पर उनकी बेटी पुष्पा बीमार थी और गम्भीर हालत में थी । साथियों ने उन पर दबाव डाला कि ‘आप घर जाकर बेटी की देखभाल करें ।’ वे राजी भी हो गये । उनका पेरोल भी मंजूर हो गया परंतु उन्होंने उस पेरोल पर छूटने से मना कर दिया क्योंकि उसके अनुसार उन्हें यह लिखकर देना था कि वे जेल के बाहर आन्दोलन के समर्थन में कुछ न करेंगे । उधर बेटी जीवन और मौत की लहरों में गोते खाने लगी, इधर शास्त्री जी अपने स्वाभिमान पर दृढ़ थे । आखिर जिलाधीश इनकी नैतिक, चारित्रिक दृढ़ता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इन्हें बिना किसी शर्त के मुक्त कर दिया ।
शास्त्रीजी घर पहुँचे पर उसी दिन बेटी ने शरीर छोड़ दिया । शास्त्री जी अग्नि संस्कार करके लौटे । घर के भीतर किसी से मिलने भी नहीं गये, सामान उठाकर ताँगे में बैठ गये । लोगों ने बहुत कहाः ”अभी तो पेरोल बहुत बाकी है ।” शास्त्री जी ने उत्तर दियाः “मैं जिस कार्य के लिए पेरोल पर छूटा था, वह खत्म हो गया है । अतः सिद्धान्ततः अब मुझे जेल जाना चाहिए ।” और वे जेल चले गये ।
 
ऐसे थे शास्त्री जी
शास्त्रीजी जब रेलमंत्री थे, वे मुंबई जा रहे थे तो उनका टिकेट प्रथम श्रेणी के डिब्बे में करवाया गया था । जब वे ट्रेन में घुसे तो उन्होंने कहा “अन्दर काफी ठंडक है जबकि बहर तो गर्मी है ।” तब उनके पी.ए. कैलाश बाबु ने कहा कि “इस डब्बे में कूलर लगवाया गया है आपके लिए ।” तो शास्त्रीजी ने पैनी नजर से कैलाश बाबू को देखा और कहा “कूलर लगा दिया वो भी मुझे बिना पूछे ? औरों को क्या गरमी नहीं लगती होगी ? कायदे से तो मुझे भी तृतीय श्रेणी में यात्रा करनी चाहिए । पर जितना किया जा सकता है उतना तो किया करे ।” उन्होंने कहा ” आगे जहाँ भी गाड़ी रुके सबसे पहले ये कूलर निकलवाएं ।” मथुरा में फिर वह कूलर निकलवाया गया । ऐसे थे शास्त्री जी ।
 
प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्रीजी सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल बहुत कम करते थे । वे अपने बंगले से पैदल ही संसद जाया करते थे । बेटों को भी गाड़ी के इस्तेमाल की इजाजत नहीं थी । एक बार उनकी अनुपस्थिति में चुपके से बेटे ने किसी निमंत्रण में जाने के लिए उसका इस्तेमाल कर लिया जिसकी जानकारी होने पर शास्त्रीजी उसका खर्च अपने निजी खाते से वहन किया । 
 
जब वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे तो उन्होंने अपने निवास के लिए बँगला एलाट करने का आवेदन किया । सरकार उनको जल्दी बँगला देना चाहती थी लेकिन उन्होंने कहा कि मैं अपना नम्बर आने पर ही बँगला लूँगा । 
 
उनकी रिश्तेदार उनसे अपने लड़के के लिए जो अधिकारी की परीक्षा पास कर चुका था, अच्छी पोस्टिंग के लिए सिफारिश चाहते थे । लेकिन उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि योग्य होने पर और समय पर उसे पद अपने आप मिल जाएगा ।
 
लालबहादुर एक बार बालमित्रों के साथ मेला देखने जा रहे थे । उनके पास नाविक को देने के लिए पैसे नहीं थे । स्वाभिमान के धनी ‘लाल’ यह बात किसी को कैसे बताते ! वे गंगा जी की वेगवती धारा में कूद पड़े और तैरकर ही उस पार पहुँच गये ।
 
शास्त्रीजी बहुत कम साधनों में अपना जीवन जीते थे । वह अपनी पत्नी को फटे हुए कुर्ते दे दिया करते थे । उन्हीं पुराने कुर्तों से रुमाल बनाकर उनकी पत्नी उन्हें प्रयोग के लिए देती थीं ।
 
पिता के संस्मरण पर लिखी किताब में शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री ने बताया, ‘बाबूजी की टेबल पर हमेशा हरी घास रहती थी । एक बार उन्होंने बताया था कि सुंदर फूल लोगों को आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ दिन में मुरझाकर गिर जाते हैं । घास वह आधार है जो हमेशा रहती है । मैं लोगों के जीवन में घास की तरह ही एक आधार और खुशी की वजह बनकर रहना चाहता हूँ ।’
 
 
 
 

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षडरसयुक्त आहार का करें सेवन…

षडरसयुक्त आहार का करें सेवन...

 

हर किसी को कोई विशेष प्रकार का रस कम या अधिक प्रिय होता है । किसी को मीठा अधिक प्रिय होता है तो किसी को नमकीन । सगर्भावस्था में आहार की ये पसंदगी नये-नये रूप लेती रहती है । सगर्भा बहनों को कभी कुछ खट्टा तो कभी कुछ चटपटा खाने का मन होता है । कई बार इसके चलते सगर्भा बहनें अपने किसी पसंदीदा आहार का सेवन अधिक कर लेती हैं तो कोई रस बिलकुल खाने में नहीं आता । परिणाम से अनभिज्ञ ये बहनें अनजाने में अपने ही शिशु के स्वास्थ्य की शत्रु बन जाती हैं । इसलिए गर्भावस्था में आहार की पसंदगी करने से पूर्व कुछ शास्त्रोक्त नियमों को जान लेना बहुत जरुरी है ।

आयुर्वेदानुसार सगर्भावस्था में किसी भी प्रकार का आहार अधिक मात्रा में नहीं लेना चाहिए । षडरसयुक्त आहार लेना चाहिए परन्तु केवल किसी एकाध प्रियरस का अति सेवन दुष्परिणाम ला सकता है ।

  • सगर्भावस्था में मधुर पदार्थों का लगातार सेवन करने से बालक में मोटापन (Obesity), गूँगापन, प्रमेह (Diseases of urinary system), मधुमेह (Diabetes) जैसी व्याधियों का उद्भव होता है ।
  • खट्टे पदार्थों के अधिक सेवन से बालक नाक में से खून बहना, रक्तपित्त, त्वचारोग व आँखों के रोगों से पीड़ित होता है ।
  • लवणयुक्त पदार्थों के अधिक सेवन से बालक में अल्पायु में ही त्वचा में झुर्रियाँ पड़ना, बाल सफेद होना व गिरना आदि समस्यायें उत्पन्न होती है । नेत्रज्योति कम होती है । अधिक नमक खाने से बुढ़ापा जल्दी आता है ।
  • तीखे पदार्थों के अतिसेवन से बालक दुर्बल, अल्प अथवा क्षीण शुक्रधातुवाला (Oligospermic) तथा भविष्य में संतानोत्पत्ति में असमर्थ (Infertile) होता है ।
  • जो गर्भिणी कड़वे पदार्थ अधिक खाती है उसकी संतान बलहीन, वजन में कम, शोष रोग (Atrophy), सूखा रोग (Rickets) या क्षयरोग (Tuberculosis) से ग्रस्त हो सकती है ।
  • कसैले पदार्थ अति मात्रा में खाने से संतान का वर्ण श्याम अर्थात् काला हो जाता है । उसे आफरा व डकारें अधिक आने की समस्या होती है ।

सारांश यही है कि सगर्भावस्था में स्वादलोलुप न होकर आवश्यक संतुलित आहार लें ।

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श्रीगणेश चतुर्थी विशेष

श्रीगणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों को सत्ता देनेवाले चैतन्यस्वरूप में विश्रांति पाकर, ‘सोऽहम्’ का नाद जगाकर, ‘आनंदोऽहम्’ का अमृतपान करके संसार-चक्र से मुक्त होने का दिवस ।
अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके तुरीयावस्था में पहुँचने का संकेत करनेवाले गणपतिजी गणों के नायक है । गण से क्या तात्पर्य है ? इन्द्रियाँ गण है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व पाँच कर्मेन्द्रियाँ ये बहि:करण है और मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार ये चार अंत:करण हैं । इन सबका जो स्वामी है वही गणपति है, ज्ञानस्वरूप है । ज्ञानस्वरूप, इन्द्रियों के स्वामी उन गणपतिजी से हम प्रार्थना करें कि ‘आपकी शक्ति, आपकी ऋद्धि-सिद्धि हमें संसार में न भटकाये, अपितु तुरीयावस्था में पहुँचाये ऐसी आप कृपा करना, देव !’

गणेश चतुर्थी के दिन क्या करें ?

गणेश चतुर्थी के दिन गणेश उपासना का विशेष महत्त्व है । इस दिन गणेशजी की प्रसन्नता के लिए इस ‘गणेश गायत्री’ मंत्र का जप करना चाहिए :
महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् । 

श्रीगणेशजी का अन्य मंत्र, जो समस्त कामनापूर्ति करनेवाला एवं सर्व सिद्धिप्रद है :
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं गणेश्वराय ब्रह्मस्वरूपाय चारवे ।
सर्वसिद्धिप्रदेशाय विघ्नेशाय नमो नमः ।।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, गणपति खंड : 13.34)

गणेशजी बुद्धि के देवता हैं । विद्यार्थियों को प्रतिदिन अपना अध्ययन-कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान गणपति, माँ सरस्वती एवं सद्गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए । इससे बुद्धि शुद्ध और निर्मल होती है ।

विघ्न निवारण हेतु
गणेश चतुर्थी के दिन ‘ॐ गं गणपतये नमः ।’ का जप करने और गुड़मिश्रित जल से गणेशजी को स्नान कराने एवं दूर्वा व सिंदूर की आहुति देने से विघ्नों का निवारण होता है तथा मेधाशक्ति बढ़ती है ।

(गर्भवती बहनें हवन ना करें।)

अगर माँ बालक को बुद्धिमान, तेजस्वी देखना चाहती हो तो वह गणेश चौथ का उपवास करे, व्रत करे, जप करे ।

 

गणेश चतुर्थी के पीछे का पौराणिक प्रसंग

एक बार गणपतिजी अपने मौजिले स्वभाव से आ रहे थे । वह दिन था चौथ का । चंद्रमा ने उन्हें देखा । चंद्र को अपने रूप, लावण्य, सौंदर्य का अहंकार था । उसने गणपतिजी का नजाक उड़ाते हुये कहा : “क्या रूप बनाया है । लंबा पेट है, हाथी का सिर है …” आदि कह के व्यंग कसा तो गणपतिजी ने देखा कि दंड के बिना इसका अहं नहीं जायेगा ।
गणपतिजी बोले: “जा, तू किसीको मुँह दिखाने के लायक नहीं रहेगा ।” फिर तो चंद्रमा उगे नहीं । देवता चिंतित हुये कि पृथ्वी को सींचनेवाला पूरा विभाग गायब ! अब औषधियाँ पुष्ट कैसी होगी, जगत का व्यवहार कैसे चलेगा ?”
ब्रह्माजी ने कहा: “चंद्रमा की उच्छृंखलता के कारण गणपतिजी नाराज हो गये हैं ।”
गणपतिजी प्रसन्न हों इसलिये अर्चना-पूजा की गयी । गणपतिजी जब थोड़े सौम्य हुये तब चंद्रमा मुँह दिखाने के काबिल हुआ । चंद्रमा ने गणपतिजी भगवान की स्त्रोत्र-पाठ द्वारा स्तुति की । तब गणपतिजी ने कहा: “वर्ष के और दिन तो तुम मुँह दिखाने के काबिल रहोगे लेकिन भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चौथ के दिन तुमने मजाक किया था तो इस दिन अगर तुमको कोई देखेगा तो जैसे तुम मेरा मजाक उड़ाकर मेरे पर कलंक लगा रहे थे, ऐसे ही तुम्हारे दर्शन करनेवाले पर वर्ष भर में कोई भारी कलंक लगेगा ताकि लोगों को पता चले कि रूप और सौंदर्य का अहंकार मत करो । देवगणों का स्वामी, इन्द्रियों का स्वामी आत्मदेव है । तू मेरे आत्मा में रमण करनेवाले पुरुष के दोष देखकर मजाक उड़ाता है । तू अपने बाहर के सौंदर्य को देखता है तो बाहर का सौंदर्य जिस सच्चे सौंदर्य से आता है उस आत्म-परमात्म देव मुझको तो तू जानता नहीं है । नारायण-रूप में है और प्राणी-रूप में भी वही है । हे चंद्र ! तेरा भी असलीस्वरूप वही है, तू बाहर के सौंदर्य का अहंकार मत कर ।”
भगवान श्रीकृष्ण जैसे ने चौथ का चाँद देखा तो उनपर स्यमन्तक मणि चुराने का कलंक लगा था । इतना ही नहीं, बलराम ने भी कलंक लगा दिया था, हालाकि भगवान श्रीकृष्ण ने मणि चुरायी नहीं थी ।

यदि भूल से भी चौथ का चंद्रमा दिख जाय तो
यदि भूल से भी चौथ का चंद्रमा दिख जाय तो ‘श्रीमदभागवत’ के 10वें स्कंध, 56-57वें अध्याय में दी गयी ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का आदरपूर्वक श्रवण करना । भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी के चंद्रमा के दर्शन कर लेना, इससे चौथ को दर्शन हो भी गया तो उसका ज्यादा खतरा नहीं होगा ।
इस वर्ष भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी 18 एवं 19 सितम्बर दोनों दिन है । दोनों दिन चंद्रदर्शन निषिद्ध है । 18 सितम्बर को चंद्रास्त का समय रात्रि 8:40 तक है और एवं 19 सितम्बर को चंद्रास्त का समय रात्रि 9:18 तक है । इस समय तक चंद्र-दर्शन न हो, इसकी सावधानी रखें ।

गणेशजी का बाह्य विग्रह समाज के लिए अनोखी प्रेरणा

गणेशजी के कान बड़े सूप जैसे हैं । वे यह प्रेरणा देते हैं कि जो कुटुम्ब का बड़ा हो, समाज का बड़ा हो, उसमें बड़ी खबरदारी होनी चाहिए । सूपे में अन्न-धान में से कंकड़-पत्थर निकल जाते हैं । असार निकल जाता है, सार रह जाता है । ऐसे ही सुनो लेकिन सार-सार ले लो । जो सुनो वह सब सच्चा न मानो, सब झूठा न मानो, सार-सार लो । यह गणेशजी के बाह्य विग्रह से प्रेरणा मिलती है ।

गणेशजी की सूँड लम्बी है अर्थात् वे दूर की वस्तु की भी गंध लेते हैं । ऐसे ही कुटुम्ब का जो अगुआ होता है, उसको कौन, कहाँ, क्या कर रहा है या क्या होनेवाला है इसकी गंध आनी चाहिए ।

हाथी के शरीर की अपेक्षा उसकी आँखें बहुत छोटी हैं लेकिन हाथी सुई को भी उठा लेता है । ऐसे ही समाज का, कुटुम्ब का अगुआ सूक्ष्म दृष्टिवाला होना चाहिए । किसको अभी कहने से क्या होगा ? थोड़ी देर के बाद कहने से क्या होगा ? तोल-मोल के बोले, तोल-मोल के निर्णय करे ।

गणेशजी के दो दाँत हैं एक बड़ा और एक छोटा । बड़ा दाँत दृढ़ श्रद्धा का और छोटा दाँत विवेक का प्रतीक है । अगर मनुष्य के पास दृढ़ श्रद्धा हो और विवेक की थोड़ी कमी भी हो तब भी श्रद्धा के बल से वह तार जाता है ।

गणेशजी के हाथों में मोदक और दंड है अर्थात जो साधन-भजन करके उन्नत होते हैं उन्हें वह मधुर प्रसाद देते हैं और जो वक्रदृष्टि रखते हैं उन्हें वक्रदृष्टि दिखाकर दंड से उनका अनुशासन करके उन्हें आगे बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं ।

गणेशजी के पैर छोटे हैं जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि धीरा सो गंभीरा, उतावला सो बावला । कोई भी कार्य उतावलेपन से नहीं; बल्कि सोच-विचार करके करें ताकि असफल न हों ।

भगवान गणेशजी की सवारी क्या है ? चूहा ! इतने बड़े गणपति चूहे पर कैसे जाते होंगे ? यह प्रतीक है समझाने के लिए कि छोटे-से-छोटे आदमी को भी अपनी सेवा में रखो । बड़ा आदमी तो खबर आदि नहीं लायेगा लेकिन चूहा किसी के भी घर में घुस जायेगा । ऐसे छोटे से छोटे आदमी से भी कोई न कोई सेवा लेकर आप दूर तक की जानकारी रखो और अपना संदेश, अपना सिद्धान्त दूर तक पहुँचाओ । ऐसा नहीं कि चूहे पर गणपति बैठते हैं और घर घर जाते हैं । यह संकेत है आध्यात्मिक ज्ञान के जगत में प्रवेश पाने का ।

गणेश चतुर्थी का आध्यात्मिक संदेश

हे साधक ! तुरीयावस्था में जाग…

देव-असुरों, शैव-शाक्तों, सौर्य और वैष्णवों द्वारा पूजित, विद्या के आरंभ में, विवाह में, शुभ कार्यों में, जप-तप-ध्यानादि में सर्वप्रथम जिनकी पूजा होती है, जो गणों के अधिपति है, इन्द्रियों के स्वामी है, सवके कारण है उन गणपतिजी का पर्व है ‘गणेश चतुर्थी’।

जाग्रतावस्था आयी और गयी, स्वप्नावस्था आई और गयी, प्रगाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) आयी और गयी – इन तीनों अवस्थाओं को स्वप्न जानकर हे साधक ! तू चतुर्थी अर्थात तुरीयावस्था (ब्राम्ही स्थिति) में जाग ।

तुरीयावस्था तक पहुँचने के लिए तेरे रास्ते में अनेक विघ्न-बाधाएँ आयेगी । तू तब चतुर्थी के देव, विघ्नहर्ता गणपतिजी को सहायता हेतु पुकारना और उनके दण्ड का स्मरण करते हुए अपने आत्मबल से विघ्न-बाधाओं को दूर भगा देना ।

हे साधक ! तू लम्बोदर का चिंतन करना और उनकी तरह बड़ा उदर रखना अर्थात छोटी-छोटी बाते को तू अपने पेट में समां लेना, भूल जाना । बारंबार उनका चिंतन कर अपना समय नहीं बिघड़ना ।

तुझसे जो भूल हो गयी हो उसका निरिक्षण करना, उसे सुधार लेना । दूसरों की गलती याद करके उसका दिल मत खराब करना । तू अब ऐसा दिव्य चिंतन करना की भूल का चिंतन तुच्छ हो जाय । तू गणपतिजी का स्मरण से अपना जीवन संयमी बनाना । भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान गणपति, मीराबाई, शबरी आदि ने तीनों अवस्थाओं को पार कर अपनी चौथी अवस्था-निज स्वरूप में प्रवेश किया और आज के दिन वे तुम्हे ‘चतुर्थी ’की याद दिला रहे है कि ‘हे साधक ! तू अपनी चौथी अवस्था में जागने के लिए आया है । चौथ का चाँद की तरह कलंक लगाये ऐसे संसार के व्यवहार में तू नहीं भटकना । आज की संध्या के चन्द्र को तू निहारना नहीं ।

आज की चतुर्थी तुम्हें यह संदेश देती है कि संसार में थोड़ा प्रकाश तो दिखता है परंतु इसमें चन्द्रमा की नाई कलंक है । यदि तुम इस प्रकाश में बह गये, बाहर के व्यव्हार में बह गये तो तुम्हे कलंक लग जायेगा । धन-पद-प्रतिष्ठा के बल से तुम अपने को बड़ा बनाने जाओंगे तो तुम्हे कलंक लगेगा, परंतु यदि तुम चौथी अवस्था में पहुँच गये तो बड़ा पार हो जायेगा ।

वे चतुर्थी के देव संतों का हर कार्य करने में तत्पर रहते है । वेदव्यासजी महाराज लोकमांगल्य हेतु ध्यानस्थ ‘महाभारत’ की रचना कर रहे थे और गणपतिजी लगातार उनके बोले श्लोक लिख रहे थे । गणपतिजी की  कलम  कभी रुकी नहीं और सहयोग करने का कर्तुत्व-अकर्तुत्व में जरा-भी नहीं आया क्योंकि कर्तुत्व-अकर्तुत्व जीव में होता है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये अवस्थाएँ जीव की है और तुरीयावस्था गणपति-तत्व की है । भगवान गणपति अपने प्यारों को तुरीय में पहुँचाना चाहते हैं । इसलिए उन्होंने चतुर्थी तिथि पसंद की है ।

गणेश-विसर्जन का आत्मोन्नतिकारक संदेश

गणेश विसर्जन कार्यक्रम आपको अहंकार के विसर्जन, आकृति में सत्यता के विसर्जन, राग-द्वेष के विसर्जन का संदेश देता है । बीते हुए का शोक न करो । जो चला गया वह चला गया । जो चीज-वस्तु बदलती है उसका शोक न करो । आनेवाले का भय न करो । वर्तमान में अहंकार की, नासमझी की दलदल में न गिरो ।

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जन्माष्टमी व्रत से पायें दिव्य संतान

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बधाइयाँ !!!

परात्पर ब्रह्म, निर्गुण-निराकार, पूर्णकाम, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, परमेश्वर, देवेश्वर, विश्वेश्वर…. क्या-क्या कहें… वही निराकार ब्रह्म नन्हा-मुन्ना होकर मानवीय लीला करते हुए मानवीय आनंद, माधुर्य, चेतना को ब्रह्मरस से सम्पन्न करने के लिए अवतरित हुआ जिस दिन, वह है जन्माष्टमी का दिन ।

जन्माष्टमी का दिन एक उत्सव तो है ही, साथ ही महान व्रत और पावन दिन भी है । जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनंत गुना फल देता है । उसमें भी रात्रि जागरण करके जप-ध्यान करने का विशेष महत्त्व है । जिसे “क्लीं कृष्णाय नमः” मंत्र का थोड़ा जप करने को भी मिल जाय, उसके त्रिताप (आधि, व्याधि, उपाधि) नष्ट होने में देर नहीं लगती ।’ ब्रह्माजी सरस्वती को और भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को कहते हैं कि जो जन्माष्टमी का व्रत रखता है, उसे करोड़ों एकादशी व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है ।

‘भविष्य पुराण’ के अनुसार जन्माष्टमी का व्रत संसार में सुख-शांति और प्राणीवर्ग को रोग-शोक से रहित जीवन देनेवाला, अकाल मृत्यु को टालनेवाला तथा दुर्भाग्य और कलह को दूर भगानेवाला होता है ।

‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ के अनुसार धर्मराज सावित्री से कहते हैं: ‘भारतवर्ष में रहनेवाला जो प्राणी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वो १०० जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है ।”  

‘स्कंद पुराण’ में आता है कि जो जन्माष्टमी व्रत करते हैं या करवाते हैं, उनके समीप सदा लक्ष्मी स्थिर रहती है । व्रत करनेवाले के सारे कार्य सिद्ध होते हैं ।

जन्माष्टमी के दिन यह करें, यह न करें ...

दिव्य, सुंदर, स्वस्थ, संस्कारी एवं तेजस्वी संतान चाहनेवाले जन्माष्टमी के दिन…

यह करें

जन्माष्टमी के दिन पति-पत्नी यथाशक्ति निर्जला या फलाहार पर रहकर व्रत करें (सगर्भा बहनें निर्जला उपवास न करें) । रात्रि जागकर जप-ध्यान- कीर्तन-भजन करें । सत्संग श्रवण, मनन, चिंतन, निदिध्यासन करते-करते स्व में विश्रांति पाने का अभ्यास करें ।

  • जन्माष्टमी के व्रत से नि:संतान को मनचाही संतान की प्राप्ति होती है ।
  • जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में गर्भपात नहीं होता ।
  • जन्माष्टमी का व्रत माँ के गर्भ में शिशु के स्वास्थ्य की रक्षा करता है ।
  • इस व्रत से बालक का जन्म ठीक समय पर होता है ।
  • जन्माष्टमी के दिन “ओम नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का अर्थ सहित जप करना चाहिए । ‘ओम’ माने अखिल ब्रह्मांडों में व्याप रहे, ‘नमो’ माने नमन करते हैं, ‘भगवते’ माने भगवान कृष्ण, राम, वामन, नृसिंह आदि कई भगवान होने के बाद भी तुम सबमें वास करनेवाले ‘वासुदेव’ अभी भी वैसे के वैसे हो- इस प्रकार परम प्रेमास्पद प्रभु का स्मरण-चिंतन करते हुए उनके प्रेम में डूब जाना चाहिए और इस जन्माष्टमी का लाभ लेना चाहिए । इससे गर्भवती माता व गर्भस्थ शिशु के हृदय में भगवत्भाव का विकास होता है ।

यह न करें :

  • ‘जन्माष्टमी के दिन अगर कोई संसार-व्यवहार करता है तो विकलांग संतान होगी अथवा तो जानलेवा बीमारी पकड़ लेगी ।
  • जन्माष्टमी व्रत की महिमा जानकर भी जो जन्माष्टमी व्रत नहीं करते, वे जंगल में सर्प और व्याघ्र होते हैं ।

विशेष ध्यान दें :

नि:संतान एवं दिव्य संतान के चाहक दंपत्ति हो सके तो निर्जला उपवास करें । अगर निर्जला न कर सकें तो फलाहार पर उपवास करें ।

गर्भिणी मातायें बिना कुछ खाये उपवास न करें । वे दूध, फल, पानक अथवा राजगीरे के आटे की रोटी, सिंघाड़े का हलवा या खीर, लौकी, कद्दू आदि की सब्जी, छाछ, खजूर, मखाने इत्यादि का सेवन कर सकती है । मोरधन (सामा के चावल), साबूदाना, कुट्टू, आलू, शकरकंद नहीं खायें ।

इस वर्ष जन्माष्टमी 06 और 07 सितम्बर दोनों दिन मनाई जाएगी । 6 सितम्बर को जन्माष्टमी दोपहर को शुरू हो रही है । इस साल जन्माष्टमी पर रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि रात में पड़ रही है । अष्टमी तिथि 06 सितम्बर 2023 को शाम 15:37 बजे शुरू होगी और 07 सितम्बर को शाम 4:14 बजे समाप्त होगी, इसलिए भक्त दोनों दिन जन्माष्टमी मना सकते हैं । कहते हैं कि भगवान कृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ था, इस बार भी रोहिणी नक्षत्र पड़ रहा है । रोहिणी नक्षत्र 6 सितम्बर को जन्माष्टमी के दिन सुबह 09:20 बजे प्रारम्भ होगा और अगले दिन 7 सितम्बर को सुबह 10:25 पर समाप्त होगा । आश्रम में जागरण 7 सितम्बर की रात्रि को किया जा रहा है ।

 

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पुत्रदा एकादशी से पुत्र प्राप्ति

पुत्रदा एकादशी के व्रत से पुत्रप्राप्ति

युधिष्ठिर बोले : श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : राजन् ! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।

चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।

पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’

राजा बोले : आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये ।

मुनि बोले : राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।

राजा ने कहा : विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।

मुनि बोले : राजन् ! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ ।

इसलिए राजन् ! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है ।

दिव्य, ओजस्वी-तेजस्वी संतान के चाहक दम्पति यह उपवास पूरी श्रद्धा और विश्वास से करें...

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पाचनतंत्र को दुरुस्त रखने के लिए अपनाएं ये पद्धति

पाचनतंत्र को दुरुस्त रखने के लिए अपनाएं ये पद्धति

शास्त्र कहते हैं :

आजकल सभी जगह शादी-पार्टियों में खड़े होकर भोजन करने का रिवाज़ चल पड़ा है लेकिन हमारे शास्त्रों और संत-महापुरुषों ने जमीन पर कुछ बिछौना बिछाकर बैठकर भोजन करने का निर्देश दिया है । लघुव्यास संहिता में आता है कि ‘खड़े होकर भोजन नहीं करना चाहिए ।’ महाभारत (अनुशासन पर्व : १०४.६०) में कहा गया है कि ‘बैठकर ही भोजन करें, चलते-फिरते कदापि भोजन नहीं करना चाहिए ।’

खड़े होकर भोजन करने से हानियाँ

(१) यह आदत असुरों की है । इसीलिए इसे ‘राक्षसी भोजन पद्धति’ कहा जाता है ।

(२) इसमें पेट, पैर व आँतों पर तनाव पड़ता है जिससे गैस, कब्ज, मंदाग्नि, अपचन जैसे अनेक उदर विकार व घुटनों का दर्द, कमर दर्द आदि उत्पन्न होते हैं । कब्ज अधिकतर बीमारियों का मूल है ।

(३) इससे जठराग्नि मंद हो जाती है जिससे अन्न का सम्यक् पाचन न होकर अजीर्णजन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं । 

(४) इससे हृदय पर अतिरिक्त भार पड़ता है जिससे हृदय रोगों की संभावनाऍ बढ़ती हैं।

(५) पैरों में जूते-चप्पल रहने से पैर गरम रहते हैं । इससे शरीर की पूरी गर्मी जठराग्नि को प्रदीप्त करने में नहीं लग पाती ।

(६) बार-बार कतार में लगने से बचने के लिये थाली में अधिक भोजन भर लिया जाता है । फिर या तो उसे जबरदस्ती ठूँस-ठूँसकर खाया जाता है जो अनेक रोगों का कारण बन जाता है अथवा अन्न का अपमान करते हुए फेंक दिया जाता है ।

(७) जिस पात्र में भोजन रखा जाता है वह सदा पवित्र होना चाहिए लेकिन इस परंपरा में जूठे हाथों के लगने से अन्न के पात्र अपवित्र हो जाते है । इसीलिए खिलानेवाले के पुण्य नाश होते हैं और खानेवालों का मन भी खिन्न-उद्विग्न रहता है । 

(८) हो-हल्ला के वातावरण में खड़े होकर भोजन करने से बाद में थकान और उबान महसूस होती है । मन में भी वैसे ही शोर-शराबें के संस्कार भर जाते हैं ।

बैठकर (या पंगत में) भोजन करने से लाभ

(१) इसे ‘दैवी भोजन पद्धति’ कहा जाता है ।

(२) इसमें पेट, पैर व आँतों की उचित स्थिति होने से उन पर तनाव नहीं पड़ता ।

(३) इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, अन्न का पाचन सुलभ होता है ।

(४) हृदय पर भार नहीं पड़ता ।

(५) आयुर्वेद के अनुसार भोजन करते समय पैर ठंडे रहने चाहिए । इससे जठराग्नि प्रदीप्त होने में मदद मिलती है ।

इसीलिए हमारे देश में भोजन करने से पहले हाथ-पैर धोने की परंपरा है ।

(६) पंगत में एक परोसनेवाला होता है जिससे व्यक्ति अपनी जरूरत के अनुसार भोजन लेता है । उचित मात्रा में भोजन लेने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है व भोजन का भी अपमान नहीं होता ।

(७) भोजन परोसनेवाले अलग होते हैं जिससे भोजनपात्रों को जूठे हाथ नहीं लगते । भोजन तो पवित्र रहता ही है, साथ ही खाने-खिलानेवाले दोनों का मन आनंदित रहता है ।

(८) शांतिपूर्वक पंगत में भोजन करने से मन में शांति बनी रहती है, थकान उबान भी महसूस नहीं होती ।

भोजन खड़े-खड़े नहीं; पलाथी मारकर ही करें

डाइनिंग सेट पर अथवा कुर्सी पर बैठकर भोजन करते हैं तो पैर नीचे रहते हैं, जिससे प्राणशक्ति व पाचनतंत्र को तनाव में रहना पड़ता है । इसका जठर व यकृत (liver) पर बुरा प्रभाव पड़ता है । जिस समय प्राणशक्ति व पाचनतंत्र तनाव में रहते हैं उस समय किया हुआ भोजन उतना फायदा नहीं करता जितना पलथी मारकर आराम से भोजन करने से होता है । पलथी मार के बैठकर भोजन करने से भोजन पचाने में आराम रहता है, प्राणशक्ति व यकृत को भी आराम रहता है । अगर कुर्सी पर बैठकर भोजन करना ही पड़े तो कुर्सी पर पलथी मार के भोजन कर चाहिए ।

विज्ञान बताता है कि ‘खड़े रहने से या चलते समय हमारे शरीर का रक्त संचार स्वत: ही हाथों और पैरों की ओर मुड़ जाता है जिससे पाचनतंत्र तक पहुँचनेवाले रक्त की मात्रा भोजन पचाने के लिए पर्याप्त नहीं हो पाती । भोजन के सही तरीके से पाचन के लिए शांत और तनावरहित मन से भोजन करने के लिए बैठना भी बहुत जरूरी है ।’

दिसम्बर 2019 के ‘जर्नल ऑफ कंज्यूम रिसर्च’ में प्रकाशित एक शोध के एक शोध के अनुसार बैठने की अपेक्षा खड़े रहने से शरीर पर अधिक शारीरिक तनाव पड़ता है जो बदले में संवेदन प्रणाली, स्वाद, स्पर्श, गंध आदि की सूचना देनेवाली प्रणाली की संवेदनशीलता को कम करता है । इससे खड़े रहकर भोजन करने वाले को बैठकर भोजन करनेवाले की अपेक्षा स्वादिष्ट भोजन भी कम अनुकूल और कम स्वादिष्ट महसूस होता है । इसलिए वे पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर पाते ।

गर्भावस्था में आपके पाचनतंत्र का स्वस्थ रहना कितना जरुरी है, ये आप भी जानती ही हैं । अब विचार भी आपको ही करना है और निर्णय भी आप ही को लेना है । आखिर आपके और आपके शिशु के स्वास्थ्य का प्रश्न जो है !!

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गर्भनाल काटने का सही समय

गर्भनाल काटने का सही समय

ऋषि विज्ञान

ऋषियों-महापुरुषों के वचनों पर अध्ययन एवं अन्वेषण कर विज्ञान बहुत ही अचरज व्यक्त करता आया है, क्योंकि जो बात समझने के लिए विज्ञानियों को खूब परिश्रम, प्रदीर्घ समय एवं प्रचुर धन की आहुतियाँ देनी पड़ीं, वही तथ्य हमारे ऋषियों-ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों ने क्षण भर में अपने परम शुद्ध अंतःकरण एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा के बल से जानकर या परखकर पहले ही बता रखा है । यही बात नाल छेदन के संदर्भ में भी सत्य साबित हुई ।

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू कई वर्षों से अपने सत्संग प्रवचनों में कहते आ रहे हैं कि बच्चे के जन्म के बाद माँ की जेर (Placenta) से जुड़ी गर्भनाल (Umbilical Cord) को तुरंत नहीं काटना चाहिए अपितु 3-5 मिनट के बाद ही काटना चाहिए । 

वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का कहना है

         स्वीडिश शोधकर्ता ओला एंडरसन, लीना हेलस्टोर्म, डैन एंडरसन और मैग्नस डोमेनॉफ ने अपने शोध के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘जन्म के समय के तीन मिनट या उससे थोड़े अधिक समय के बाद नवजात शिशु की नाल काटना शिशु के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है । ऐसा करने से नवजात शिशु में आयरन (लौह तत्त्व) की कमी होने की सम्भावना काफी कम हो जाती है ।’

         जिनकी नाल तुरंत काटी जाती है, उन शिशुओं को लौह तत्त्व की कमी के कारण जो रक्ताल्पता का रोग होता है और उससे उनके विकास में रुकावट आती है, ये समस्याएँ 3 मिनट के बाद नाल काटने पर नहीं होतीं क्योंकि करीब 50-100 मि.ली. जितना रक्त 3 मिनट में नाल के द्वारा शिशु को मिलता है, जो उसे 1 वर्ष तक विकास में उपयोगी सिद्ध होता है । इस अध्ययन के पूर्व ऐसा मानते थे कि तुरंत नाल न कटवाने से संतान को पीलिया तथा फेफड़े व हृदय के विकार हो सकते हैं । यह मान्यता भी गलत सिद्ध हुई ।

        शोधकर्ताओं ने 334 नवजात शिशुओं को दो समूहों में बाँटा । उनमें से एक समूह के शिशुओं की नाल जन्म लेने के 10 सेकंड के भीतर काटी गयी, जबकि दूसरे समूह के शिशुओं की नाल ३ मिनट या उससे थोड़ा अधिक समय के पश्चात् काटी गयी । 4 माह बाद खून की जाँच करने पर जिन नवजात शिशुओं की नाल 3 मिनट या उससे अधिक समय के पश्चात् काटी गयी थी, उनमें दूसरे समूह के शिशुओं की तुलना में आयरन की मात्रा 45% अधिक थी । दूसरे समूह के अधिकांश शिशुओं में आयरन की कमी पायी गयी ।

        जो डॉक्टर संतों की सीख न मानकर शिशुओं से अन्याय करने की गलती करते रहे, उनके लिए उनके वैज्ञानिक गुरुओं की बात मानकर अपनी गलती सुधारने का यह स्वर्णिम अवसर है ।

First impression is the last impression.

शिशुओं के स्वास्थ्य-बल में बढ़ोतरी के लिए नाल-छेदन में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, यहाँ तक तो वैज्ञानिक काफी परिश्रम के बाद पहुँच पाये हैं । पूज्य बापूजी वर्षों से इस बात के लिए भी सावधान करते आये हैं कि ‘बच्चा जन्मे तो नर्स  को, डॉक्टर को कह दो कि तुरंत उसका नाभि-छेदन न करें । रक्त-प्रवाह घूमता है तब तक नाभि-छेदन करेंगे तो बालक के गहरे मन में डर घुस जायेगा । फिर कर्नल, जनरल होने पर भी एक चुहिया पैरों में आये तो डर जायेंगे । First impression is the last impression. जन्म के वक्त जो भय घुस जाता है है वह जीवनभर रहता है । जैसे बाल या नाखून काटते हैं तो वह मरा हुआ हिस्सा होने से पीड़ा नहीं होती, ऐसे ही प्रसूति के बाद 4-5 मिनट तक नाभि-छेदन न करें तो रक्त प्रवाह बंद हो जाता है और पीड़ा नहीं होती । बाद में भगवद्-सुमिरन करके उसका नाभि-छेदन होना चाहिए ।”

                                                                   अब वैज्ञानिकों को इस विषय की खोज में भी लग जाना चाहिए ।

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पुरुषोत्तम मास में क्या करें ?

अधिक मास: 18 जुलाई से 16 अगस्त 2023

अधिक मास

 

अधिक मास को ‘मल मास’ पाप-ताप नाशक या ‘पुरुषोत्तम मास’ भी कहते हैं । चातुर्मास में इस मास को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसीलिए इस मास में प्रातः स्नान, दान, तप, नियमधर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप, गुरुमंत्र जप का अधिक माहात्म्य तथा महत्त्व है । अधिक मास में शादी, दीक्षाग्रहण जैसे मंगल कार्य नहीं किये जाते ।
पांडवो ने वनवास के दिनों में तीन बार अधिक मास में यथाशक्ति स्नान, दान आदि व्रत किये, नियम धर्मों का पालन किया और परमात्मा पुरुषोत्तम की भक्ति की जिसके फलस्वरूप अंततः उन्हें विजय प्राप्त हुई ।
हैहय देश में दृढधन्वा राजा और उसकी सर्वगुण संपन्न रानी दोनों ने पूर्वजन्म में पुरुषोत्तम मास में बारिश में बैठकर उपवास किया था जिसके फलस्वरूप उन्हें अगले जन्म में राज सुख की प्राप्ति हुई, ऐसी कथा आती है ।
इस मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर को मलकर स्नान करना और आँवले के पेड़ के नीचे भोजन करना यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्नताप्रद है । यह व्रत करनेवाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते हैं ।

प्रसिद्ध पौराणिक प्रसंग

प्राचीन काल में इंद्रलोक की एक अप्सरा, स्मितविलासिनी एक बार पृथ्वी पर कुरुक्षेत्र में क्रीड़ा करने आयी थी । उसने वहाँ के सुगंधित फुल चुनकर सुंदर हार बनाया और ध्यानस्थ दुर्वासा ऋषि के गले में डाला । दुर्वासा ऋषि ने उसे शाप दिया कि तू पिशाचिनी होकर पृथ्वीलोक पर भटकती रहेगी । उस पर उसने क्षमायाचना की, तब दुर्वासा ऋषि ने उसे परिमार्जन बताया कि दूसरे किसी व्यक्ति द्वारा अधिक मास का पुण्य तुझे दान करने पर तुम्हारा उद्धार होगा और उसके बाद तुम पुनः इन्द्रलोक में जाओगी । वह अप्सरा भटकते-भटकते दक्षिण दिशा में कुमारी क्षेत्र में गयी । वहाँ पर एक तपस्विनी थी, उसने अधिक मास में स्नान, दान जप, उपवास आदि बहुत सारे व्रत किये थे । कृष्ण द्वादशी के दिन उस तपस्विनी को खाने के उद्देश्य से वह पिशाचिनी (अप्सरा) उसके नजदीक गयी, पर क्या आश्चर्य, उसके तप के तेज से वह तेजोमय हो गयी । उसने उस तपस्विनी के चरण पकड़कर आप बीती बतायी । तब उस तपस्विनी ने अपना अधिक मास का सारा पुण्यफल उसे अर्पण कर दिया । उसी क्षण उस पिशाचिनी रूप अप्सरा का उद्धार हो गया ।

इस प्रकार इस अधिक मास (पुरुषोत्तम मास ) में जप ध्यान करने से पुण्यमय आध्यात्मिक ओज-तेज की प्राप्ति होती है ।

अधिक मास कैसे हुआ इतना महिमावान ?

अधिक मास के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान हैं । करीब ३५५ दिन का चान्द्रवर्ष एवं ३६५ दिन का सौर वर्ष इनका मेल बिठाने हेतु ऋषियों ने हर तीन साल के बाद अधिक मास का निर्माण किया । लेकिन इस महीने को कोई इतना महत्त्व न देने के कारण उसे वर्ज्य, त्याज्य मानने लगे । तब नाराज होकर इस मास का अधिष्ठाता देव भगवान पुरुषोत्तम की शरण गया तथा उनको प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया कि यह पुण्य अर्जित करानेवाला तथा पापों का नाश करनेवाला पुरुषोत्तम के नाम से यह महीना माना जायेगा अर्थात् इस मास में जप तप आराधना उपासना करनेवालों के पापों के पहाड़ भी नाश हो जायेंगे ।

अधिक मास माहात्म्य

  • अधिक मास में दान-उपासना जप तप यज्ञ व्रत करने से अमिट पुण्य प्राप्त होता है ।
  • इस महीने में दीपदान करते हैं । दीपदान से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं । दुःख-शोक का नाश होता है । वंशदीप बढ़ता है । ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है ।
  • दीन-दुःखी, साधु-संतों तथा गरीबों को अन्नदान करने से, भगवान व भगवद्प्राप्त महापुरुषों की षोडशोपचार से पूजा करने से हृदय की शांति मिलती है । बेसहारा असहाय लोगों का आधार बनकर उनको उचित दिशा दिखाने व भोजन कराने से पुण्य राशि प्राप्त होती है ।
  • उपवास, मौन, नामस्मरण, भगवद्दर्शन, संत-सान्निध्य आदि का प्रयत्नपूर्वक सेवन करने से इस मास में अनगिनत लाभ होते हैं।
  • मन को संयम की लगाम लगाकर निर्वासनिक बनना, करकसर से जीना, इन्द्रियों को प्रयत्नपूर्वक सन्मार्ग पर चलाना, श्रद्धा में वृद्धि करना, संत-सद्गुरु को प्राप्त कर भवसागर से तरने का पुरुषार्थं करने के लिए इस पुरुषोत्तम मास का बड़ा महत्त्व है ।
  • पुरुषोत्तम मास अर्थात अधिक मास में गौमाता की पूजा का भी अपना अलग स्थान है । गौदुग्ध, गौघृत, गौ गोबर, पंचगवी आदि का विशेष महत्त्व है ।

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बुद्धिशक्ति व् स्मरणशक्ति बढ़ाने के लिए चतुर्मास में करें पुरुषसूक्त का पाठ ……

चतुर्मास में विशेष पठनीय – पुरुष सूक्त

    जो चतुर्मास में संध्या के समय भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का जप करता हैउसकी बुद्धि बढ़ती है ।
    यदि गर्भवती बहन अपने गर्भस्थ शिशु के लिए संकल्प करके नित्य पुरुष-सूक्त का पाठ करती है तो गर्भस्थ शिशु की बुद्धिशक्ति और स्मरणशक्ति विलक्षण होगी । जिनके घर-आँगन में दिव्य संतान का जन्म हो चुका है वे भी अपने बच्चों को पास बिठाकर पुरुष सूक्त का पाठ करें  
    अनेक शोधों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि यदि गर्भावस्था में माता संस्कृत के श्लोकों का अधिक से अधिक उच्चारण करती है तो गर्भस्थ शिशु की स्मरणशक्ति तेज होती है और जन्म के बाद शिशु जब बोलने लगता है तो उसके शब्दों के उच्चारण स्पष्ट होते हैं । इसलिए गर्भवती को चतुर्मास में पुरुष-सूक्त के पाठ नियम अवश्य लेना चाहिए । 
ૐ श्री गुरुभ्यो नमः।
हरिः ૐ
 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाઽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम् ।।1।।
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ।।1।।
पुरुषઽएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।
जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं । इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ।।2।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः ।
पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।3।।
विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है । इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ।।3।।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोઽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेઽअभि ।।4।।
चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है । इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।।4।।
ततो विराडजायत विराजोઽअधि पूरुषः ।
स जातोઽअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ।।5।।
उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ । उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए । वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को,  फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ।।5।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।6।।
उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) । वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ।।6।।
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतઽऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।7।।
उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ । उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ।।7।।
तस्मादश्वाઽअजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताઽअजावयः ।।8।।
उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए ।।8।।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवाઽअयजन्त साध्याઽऋषयश्च ये ।।9।।
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया ।।9।।
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाઽउच्येते।।10।।
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ।।10।।
ब्राह्मणोઽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोઽअजायत ।।11।।
विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए । क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं । वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ।।11।।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत ।।12।।
विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ।।12।।
नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत।
पद्भ्याँ भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन्।।13।।
विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ।।13।।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोઽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मઽइध्मः शरद्धविः ।।14।।
जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ।।14।।
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाઽअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।15।।
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ।।15।।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया । यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ।।16।।
ૐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!
(यजुर्वेदः 31.1.16)
 

सुनिए सम्पूर्ण पुरुष-सूक्त और साथ में आप स्वयं भी पाठ कर सकते हैं ।

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संस्कार साधना 6. सत्संग

सत्संग

सत्संग क्या है ?

सत्यस्वरूप जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उसको जानने की रुचि होना यह सत्संग है । सत्संग… हिंदी में ‘संग’ माने साथ, मिलन । पति-पत्नी संग जा रहे हैं, भाई-भाई संग जा रहे हैं… मिलाप को संग बोलते हैं परंतु संस्कृत में संग बोलते हैं आसक्ति को, प्रीति को । संसार में आसक्ति को नष्ट करनेवाला और सारस्वरूप परमात्मा में प्रीति करानेवाला सुमिरन, चिंतन, सत्कर्म, इसको ‘सत्संग’ बोलते हैं । भगवान की कथा सुनना तो सत्संग है लेकिन शबरी भीलन गुरु के द्वार पर झाड़ू लगा रही है वह भी सत्संग है और राम जी गुरुद्वार पर गाय चरा रहे हैं वह भी सत्संग है ।

सत्संग से क्या लाभ ?

सत्संग ऐसा परम औषध है जो बड़े-से-बड़े दुःखद प्रारब्ध को भी हँसते-हँसते सहन करने की शक्ति देता है और अच्छे से अच्छे अनुकूल प्रारब्ध को भी अनासक्त भाव से भोगने का सामर्थ्य देता है । उन्हीं का जीवन धन्य है जो ब्रह्मवेत्ता संतों का सत्संग सुनते हैं, उसे समझ पाते हैं और जीवन में उतार पाते हैं । जिनके जीवन में सत्संग नहीं है वे छोटी-छोटी बात में परेशान हो जाते हैं, घबरा जाते हैं किंतु जिनके जीवन में सत्संग है वे बड़ी-से-बड़ी विपदा में भी रास्ता निकाल लेते हैं और बलवान होते हैं, सम्पदा में फँसते नहीं, विपदा में दबते नहीं । ऐसे परिस्थिति विजयी आत्मारामी हो जाते हैं ।

दुनिया में सत्संग एक अद्वितीय रत्न है, कोहिनूर है, पारस मणि है । ये सब तो पत्थर हैं… जबकि सत्संग तो मुक्ति की जीती जागती ज्योति है । अगर आप नियमित रूप से सत्संग व शास्त्र सुनेंगे तो आपका मन फालतू के विचारों में नहीं रहेगा । मनोराज से बचोगे और आप जो सत्संग सुनेंगे उसी के विचारों में आपका मन लगा रहेगा । सत्संग के वचनों के बार-बार मनन से आपमें विवेक-वैराग्य स्वत: ही जागृत होगा । आपका मन हल्की कामनाओं और कुछ आकर्षणों से बचकर सत्संग-सुधा के पान में संलग्न रहेगा । ठीक ही कहा है सत्संग से वंचित होना महान पापों का फल है ।

सत्संग कैसे सुनें ?

किसी एकांत स्थान में एक ही आसन में स्थिर बैठकर एकाग्र मन से सत्संग सुनना चाहिए । सत्संग सुनने के लिए मात्र कान ही पर्याप्त नहीं हैं, आपका हृदय (मन) भी पूरी तरह से वहीं होना चाहिए । जीभ तालू में लगाकर रखें तो सुना हुआ सत्संग याद भी रहेगा । सत्संग ऐसे सुनें जैसे कोई अपनी निंदा सुनता है, एक भी शब्द छूटना नहीं चाहिए । हो सके तो सत्संग सुनते समय नोटबुक और पेन साथ रखना चाहिए । महत्वपूर्ण बिन्दुओं को लिख लेना चाहिए और चलते-फिरते उसका चिंतन-मनन करना चाहिए ।

तो क्या करें ?

यदि आप एक दिव्य गुणों से संपन्न संतान की चाहना रखते हैं तो दोनों पति-पत्नी को प्रतिदिन कम-से-कम 10 से 15 मि. सत्संग जरुर-जरुर सुनना चाहिए । श्रवण के बाद उसका चिंतन-मनन और निदिध्यासन के द्वारा उसे अपने जीवन में आत्मसात करना चाहिए ।

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संस्कार साधना 5. श्वासोश्वास की गिनती

श्वासोश्वास की साधना...

हर कोई चिंतित है...

इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है । प्राण तालबद्ध न होने के कारण मन तालबद्ध नहीं, इसलिए इन्द्रियों पर मन का शासन ठीक नहीं चलता । औषधियाँ लेते हैं, इंजेक्शन लगवाते हैं, शल्यक्रिया (ऑपरेशन) भी कराते हैं, आयुर्वेदिक व् होमियोपैथिक उपचार भी करते हैं, फिर भी शरीर का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता । थोड़े दिन ठीक रहा-न-रहा फिर बेठीक हो जाता है । आज के मानव की यही समस्या है । वास्तव में स्वास्थ्य का, सुख का, आनंद का, माधुर्य का और सारी समस्याओं के समाधान का स्रोत जो है, उसको मानव भूलता चला गया । इसलिए आज समाज का हर वर्ग चिंतित है, हर व्यक्ति चिंतित है ।

क्या किया जाये ?

गर्भावस्था में सही जानकारी के अभाव में ये चिंता और भी बढ़ जाती है । कभी प्रेगनेंसी के दौरान आनेवाले छोटे-बड़े complications को लेकर, तो कभी गर्भस्थ शिशु के विकास को लेकर, तो कभी अपनी डिलीवरी को लेकर ।

ऐसे में क्या किया जाये कि मन के साथ-साथ तन भी स्वस्थ रहे ? ऐसा क्या किया जाये कि आपके साथ-साथ आपके बच्चे का तन और मन दोनों स्वस्थ रह सकें ?

आपको करनी है एक सहज-सी, सरल-सी साधना, जिसे करने में कोई परिश्रम नहीं है, जो कभी भी, कहीं भी की जा सकती है, जो केवल गर्भवती बहनों को ही नहीं; बल्कि सभी को करनी चाहिए और life time करनी चाहिए जिसका नाम है श्वासोश्वास की साधना !

लाभ :

Pregnancy में यह साधना माँ और शिशु दोनों को दीर्घायु बनाती है । इसके नियमित अभ्यास से तनाव व बेचैनी दूर होते हैं और blood pressure नियंत्रित रहता है, Plus Rate नॉर्मल रहती है । ध्यान के समय आने-जाने वाले श्वास पर ध्यान देना, हमें न सिर्फ शारीरिक; बल्कि मानसिक विकारों से भी दूर रखता है । साथ ही जिस शांति और आनंद की अनुभूति होती है, उसके लिए तो शब्द भी कम पड़ जाते हैं ।

श्वासोश्वास की साधना कैसे करें ?

श्वासोश्वास की साधना का अर्थ है प्राणों को निहारना अर्थात् जो श्वास चल रहे हैं उन्हें देखना । साथ में भगवान्नाम मिला दें तो सोने पे सुहागा हो जायेगा ! जैसे, श्वास अंदर जाय तो ॐ, हरि, गुरु या जो भी भगवन्नाम प्यारा लगे वो, और बाहर आए तो गिनती, जैसे श्वास अंदर जाय तो हरि, बाहर आए तो 1, श्वास अंदर जाय तो शिव, बाहर आए तो 2 । अपनी और से प्रयत्न करके श्वास नहीं लेना है, बल्कि जो श्वास स्वाभाविक चल रहा हो, उसी को देखना है । इस प्रकार से 108 तक की गिनती बिना भूले रोज करें, कम से कम 51 तक तो करनी ही है । प्रतिदिन रात्रि को सोते समय यह साधना करने से आपकी निद्रा योगनिद्रा बन जायेगी ।

घंटोंभर पार्टी या क्लबों में जाने की अपेक्षा मात्र 8-10 मिनट का यह प्रयोग माँ और बच्चे दोनों के लिए बेहद लाभकारी है ।   करके देखिये, फिर बताईयेगा कि आपको इस साधना से क्या लाभ हुआ ।

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संस्कार साधना 4. ध्यान

ध्यान

 

संस्कार साधना के क्रम में आज हम चर्चा करेंगे ऐसी साधना के विषय में है जो आध्यात्मिक जगत का आधार तो है ही, साथ ही लौकिक जगत में इससे होनेवाले लाभ का वर्णन नहीं किया जा सकता और वह साधना है – ध्यान अर्थात् मेडिटेशन । गर्भाधान से पूर्व पति-पत्नी द्वारा नियमित रूप से किया जानेवाला ध्यान दोनों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ तो बनाता ही है, साथ-ही-साथ बीज को भी परिशुद्ध और सुदृढ़ करता है । गर्भावस्था में ध्यान करने से माता को तो अद्भुत लाभ होता ही है, उसके शिशु में भी विलक्षण लक्षण प्रकट होने लगते हैं । आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने-अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होंगे, उतने ही आप उस कार्य में सफल होंगे ।

शास्त्र कहते हैं –

नास्ति ध्यान समं तीर्थम् । नास्ति ध्यानसमं दानम् । नास्ति ध्यानसमं यज्ञम् । नास्ति ध्यानसमं तपम् । तस्मात् ध्यानं समाचरेत् ।

अर्थात् ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं । ध्यान के समान कोई दान नहीं । ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं । ध्यान के समान कोई तप नहीं । अतः हर रोज़ ध्यान करना चाहिए ।

ध्यान का अर्थ क्या ?

ध्यान है डूबना । ध्यान है आत्म-निरीक्षण करना… ‘हम क्या हैं, कैसे हैं’ यह देखना…। ध्यान अर्थात् न करना… कुछ भी न करना । सब काम करने से नहीं होते हैं । कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं । ध्यान ऐसा ही एक कार्य है । कम-से-कम सुनें, मन में कम-से-कम संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, इन्द्रियों का व्यापार कम-से-कम हो ।

विधि –

सुबह सूर्योदय से पहले उठकर, नित्यकर्म करके गरम कंबल अथवा टाट का आसन बिछाकर सुखासन में बैठ जाएँ । अपने सामने भगवान अथवा अपने गुरूदेव का चित्र रखें । धूप-दीप-अगरबत्ती जलायें । फिर दोनों हाथों को ज्ञानमुद्रा में घुटनों पर रखें । थोड़ी देर तक चित्र को देखते-देखते त्राटक करें । पहले खुली आँख आज्ञाचक्र में ध्यान करें । फिर आँखें बंद करके ध्यान करें । बाद में गहरा श्वास लेकर थोड़ी देर अंदर रोक रखें, फिर हरि ॐ….. दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़ें । श्वास को भीतर लेते समय मन में भावना करें- मैं सदगुण, भक्ति, निरोगता, माधुर्य, आनंद को अपने भीतर भर रहा हूँ/रही हूँ । और श्वास को बाहर छोड़ते समय ऐसी भावना करें- मैं दुःख, चिंता, रोग, भय को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा हूँ/सही हूँ । इस प्रकार कम-से-कम सात बार करें । ध्यान करने के बाद पाँच-सात मिनट शाँत भाव से बैठे रहें ।

लाभ-

ध्यान सर्वोच्च मेधा, प्रज्ञा, दिव्यता तथा प्रतिभारूपी अमूल्य सम्पत्ति को प्रकट करता है । गर्भावस्था में होनेवाले मानसिक उत्तेजना, उद्वेग और तनाव की बड़े-में-बड़ी दवा ध्यान है । ध्यान का अभ्यास करने से अलग से दवाइयों पर धन खर्च नहीं करना पड़ता । ध्यान करने से हाई बी.पी., लो बी.पी., अच्छी नींद का अभाव, थायराइड जैसे रोगों से दूरी बनी रहती है । चित्त में प्रसन्नता बनी रहती है । जो पति-पत्नी नियमित रूप से ध्यान करते हैं, उनमें भगवद्ध्यान से मन-मस्तिष्क में नवस्फूर्ति, नयी अनुभूतियाँ, नयी भावनाएँ, सही चिंतन प्रणाली, नयी कार्यप्रणाली का संचार होता है । परिणामस्वरूप गर्भस्थ शिशु में भी दैवी सम्पदा का विकास होता है । 

ध्यान के प्रकार

ध्यान चार प्रकार का होता है :

(१) पादस्थ ध्यान:

भगवान या सदगुरु- जिनमें तुम्हारी प्रीति हो, उनके चरणारविंद को देखते-देखते ध्यानस्थ हो जाना – इसको बोलते हैं ‘पादस्थ ध्यान’।

(२) पिंडस्थ ध्यान:

अपने शरीर में सात केंद्र या चक्र हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा एवं सहस्रार । आँखें बंद करके इनमें से किसी भी केन्द्र पर मन को एकाग्र करना ‘पिंडस्थ ध्यान’ कहलाता हैं ।

(३) रूपस्थ ध्यान:

बहती हुई नदी, सागर, चन्द्रमा, आकाश, प्रकृति को, किसी वस्तु को अथवा भगवान या सदगुरु के मुखमंडल को एकटक देखते- देखते मन शांत हो गया । इसे “रूपस्थ ध्यान” कहते हैं । हम पहले भगवान की मूर्ति का ध्यान करते थे । जब गुरुजी मिल गये तो सारे भगवान गुरुतत्त्व में ही समा गये । डीसा में हमारा साधना का कमरा कोई खोलकर देखे तो गुरुजी की मूर्ति ही होगी बस । ध्यानमूल गुरोमूर्ति:  ।

(४) रूपातीत ध्यान:

वासुदेव: सर्वम्‌… ‘वासुदेव ही सब कुछ हैं, सर्वत्र हैं’ – इस प्रकार का चिंतन-ध्यान ‘रूपातीत ध्यान’ कहलाता है  । फिर द्वेष नहीं रहता, भय नहीं रहता, क्रोध नहीं रहता  । “अनेक रूपों में एक मेरा वासुदेव है” – ऐसा चिंतन करके भावातीत, गुणातीत दशा में चुप हो जाना । ऐसा चुप होना सबके बस की बात नहीं है । इसलिए तनिक चुप हो जायें, फिर ॐ हरि ॐ… का दीर्घ उच्चारण करें  । ‘म’ बोलने के समय होंठ बंद रहें  । इस प्रकार के ध्यान से ऊँची दशा में पहुँच जाओगे ।

पादस्थ से पिंडस्थ ध्यान अंतरंग है पिंडस्थ से रूपस्थ ध्यान अंतरंग है और रूपस्थ से रूपातीत  । लेकिन जो जिसका अधिकारी है, उसके लिए वही बढ़िया है । ध्यान करनेवाले को अपनी रुचि और योग्यता का भी विचार करना चाहिए  ।इनमें से किसी भी प्रकार के ध्यान में लग जाओ तो अद्भुत शक्तियों का प्राकट्य होने लगेगा । एक अनपढ़ गँवार व्यक्ति भी अगर किसी एक प्रकार का ध्यान करने लगे तो बड़े-बड़े धनिकों के पास, बड़े- बड़े सत्ताधीशों के पास, बडे-बड़े विद्वानों के पास जो नहीं है वे सारी शक्तियाँ उसके पास आ जायेंगी ।

 विज्ञान को अब समझ में आयी ध्यान की महिमा

आज आधुनिक वैज्ञानिक संत-महापुरुषों की इस देन एवं इसमें छुपे रहस्यों के कुछ अंशों को जानकर चकित हो रहे हैं ।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक अध्ययन में पाया गया कि ध्यान के दौरान जब हम अपने हर एक श्वास पर ध्यान लगाते हैं तो इसके साथ ही हमारे मस्तिष्क के कॉर्टेक्स नाम हिस्से की मोटाई बढ़ने लगती है, जिससे सम्पूर्ण मस्तिष्क की तार्किक क्षमता में बढ़ोतरी होती है । अच्छी नींद के बाद सुबह की ताजी हवा में गहरे श्वास लेने का अभ्यास दिमागी क्षमता को बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका है । पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी दिनचर्या में प्रातः 3 से 5 का समय इस हेतु सर्वोत्तम बताया गया है । कई शोधों से पता चला है कि जो लोग नियमित तौर पर ध्यान करते हैं, उनमें ध्यान न करने वालों की अपेक्षा आत्मविश्वास का स्तर ज्यादा होता है । साथ ही उनमें ऊर्जा और संकल्पबल अधिक सक्रिय रहता है । येल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता का कहना है कि ‘ध्यान करने वाले छात्रों का आई.क्यू. लेवल (बौद्धिक क्षमता) औरों से अधिक देखा गया है ।’

इस प्रकार दिव्य संतान चाहनेवाले माता-पिता को गर्भधारण से पूर्व और गर्भावस्था के दौरान दोनों संध्याओं में ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।

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संस्कार साधना 3. भगवन्नाम जप

भगवन्नाम

गर्भस्थ शिशु को गर्भ में अपने अनेक पूर्व जन्मों का स्मरण रहता है । इसलिए हमारे शास्त्रों में गर्भस्थ शिशु को ऋषि की संज्ञा दी गई है | गर्भस्थ शिशु की सूक्ष्म चेतना उस परम चेतना के साथ एकाकार रहे, शिशु को अपने शाश्वत स्वरूप की स्मृति बनी रहे, इसके लिए गर्भवती माता को गर्भावस्था के दौरान अधिकाधिक साधना का अवलंबन लेना चाहिए । संस्कार साधना के इस क्रम में हम जिस साधना का अभ्यास करेंगे उसे भगवान ने अपने नवधा भक्ति के उपदेश में पाँचवां स्थान दिया है –

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥

अपने आनेवाले शिशु की चेतना के उच्चतम विकास के लिए माता-पिता दोनों ही को गर्भधारण से पूर्व और गर्भधारण के पश्चात् से सम्पूर्ण गर्भावस्था के दौरान एकांत में बैठकर तीनों संध्याओं के समय अधिक से अधिक अर्थसहित भगवन्नाम जप अथवा गुरुमंत्र का जप करना चाहिए । बच्चे के जन्म के बाद भी माता-पिता को चाहिए कि वो जप-ध्यान आदि के समय बच्चे को साथ लेकर बैठें ।

पूज्य बापूजी बताते हैं कि मेरी माँ मुझे पूजा में बिठाकर कहतीं “खूब जप करेगा, अच्छे से ध्यान करेगा तभी मक्खन-मिश्री मिलेगा और जब मैं ध्यान करने बैठता तो माँ चाँदी की कटोरी में मक्खन-मिश्री लेकर मेरे सामने धीरे-से खिसकाकर रख देती थीं । इस प्रकार माता महँगीबा ने पूज्य बापूजी में भगवदभक्ति के संस्कार भरे । 

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है,

यज्ञानाम् जपयज्ञो अस्मि । 
यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ ।

श्री रामचरितमानस में भी आता हैः कलियुग केवल नाम आधाराजपत नर उतरे सिंधु पारा । इस कलयुग में भगवान का नाम ही आधार है । जो लोग भगवान के नाम का जप करते हैं, वे इस संसार सागर से तर जाते हैं ।

जप अर्थात्…… ज = जन्म का नाश, प पापों का नाश

पापों का नाश करके जन्म-मरण करके चक्कर से छुड़ा दे, उसे जप कहते हैं । परमात्मा के साथ संबंध जोड़ने की एक कला का नाम है जप । इसीलिए कहा जाता हैः

अधिकम् जपं अधिकं फलम् ।

भगवान का नाम क्या नहीं कर सकता ? भगवान का मंगलकारी नाम दुःखियों का दुःख मिटा सकता है, रोगियों के रोग मिटा सकता है, पापियों के पाप हर लेता है, अभक्त को भक्त बना सकता है, मुर्दे में प्राणों का संचार कर सकता है । भगवन्नाम-जप से क्या फायदा होता है ? कितना फायदा होता है ? इसका पूरा बयान करनेवाला कोई पैदा ही नहीं हुआ और न होगा ।

शास्त्र में आता हैः

देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनाश्च देवताः । 

‘सारा जगत भगवान के अधीन है और भगवान मंत्र के अधीन हैं ।”

संत तुलसीदासजी ने कहा हैः

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अध दहहीं । ।

‘जो विवश होकर भी नाम-जप करते हैं उनके अनेक जन्मों के पापों का दहन हो जाता है ।’ कोई डंडा मारकर, विवश करके भी भगवन्नाम-जप कराये तो भी अनेक जन्मों के पापों का दहन होता है तो जो प्रीतिपूर्वक हरि का नाम जपते-जपते हरि का ध्यान करते हैं उनके सौभाग्य का क्या कहना !

जबहिं नाम हृदय धरयो, भयो पाप को नास ।

जैसे चिंनगी आग की, पड़ी पुराने घास ।।

माता कयाधू ने प्रहलाद के जन्म से पहले भगवान् में वैर रखनेवाले हिरण्यकश्यप से भी युक्तिपूर्वक 108 बार नारायण नाम जपवाया था । भगवन्नाम की बड़ी भारी महिमा है ।

नारदजी पिछले जन्म में विद्याहीन, जातिहीन, बलहीन दासीपुत्र थे । साधुसंग और भगवन्नाम-जप के प्रभाव से वे आगे चलकर देवर्षि नारद बन गये । साधुसंग और भगवन्नाम-जप के प्रभाव से ही कीड़े में से मैत्रेय ऋषि बन गये । परंतु भगवन्नाम की इतनी ही महिमा नहीं है । जीव से ब्रह्म बन जाय, इतनी भी नहीं; भगवन्नाम व मंत्रजाप की महिमा तो लाबयान है ।

जैसे, भारत में देश का सब कुछ आ जाता है ऐसे ही भगवान शब्द में, ॐ शब्द में सारे ब्रह्मांड सूत्रमणियों के समान ओतप्रोत हैं । जैसे, मोती सूत के धागे में पिरोये हुए हों ऐसे ही ॐ सहित अथवा बीजमंत्र सहित जो गुरुमंत्र है उसमें ‘सर्वव्यापिनी शक्ति’ होती है ।

इस शक्ति का पूरा फायदा उठाने के लिए तथा अपने बच्चे को भी गर्भकाल और बाल्यकाल से ही मंत्रशक्ति संपन्न बनाने के इच्छुक दम्पत्तियों को दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मंत्र-जप करना चाहिए । मंत्र में अडिग आस्था रखनी चाहिए । एकांतवास का अभ्यास करना चाहिए । व्यर्थ का विलास, व्यर्थ की चेष्टा और व्यर्थ का चटोरापन छोड़ देना चाहिए । व्यर्थ का जनसंपर्क कम कर देना चाहिए ।

बार-बार भगवन्नाम-जप करने से एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और भगवदीय अमृत प्रकट होने लगता है । जप से उत्पन्न भगवदीय आभा आपके पाँचों शरीरों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) को तो शुद्ध रखती ही है, साथ ही आपकी अंतरात्मा को भी तृप्त करती है । 

कोई मनुष्य दिशाशून्य हो गया हो, लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुंबियों ने मुख मोड़ लिया हो, किस्मत रूठ गयी हो, साथियों ने सताना शुरू कर दिया हो, पड़ोसियों ने पुचकार के बदले दुत्कारना शुरू कर दिया हो... चारों तरफ से व्यक्ति दिशाशून्य, सहयोगशून्य, धनशून्य, सत्ताशून्य हो गया हो फिर भी हताश न हो वरन् सुबह-शाम 3 घंटे ओंकार सहित भगवन्नाम का जप करे तो वर्ष के अंदर वह व्यक्ति भगवत्शक्ति से सबके द्वारा सम्मानित, सब दिशाओं में सफल और सब गुणों से सम्पन्न होने लगेगा । भगवान तुम्हारे आत्मा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुम्हें सहज में प्राप्त हो सकता है फिर क्यों दुःखी होना ?

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संस्कार साधना 2. प्रार्थना

प्रार्थना

घर आँगन में किलकारियों की गूंज किसे अच्छी नहीं लगती ? इस गूंज की चाह में बच्चे के जन्म के पहले से ही माता-पिता की हर धड़कन प्रार्थना के स्वरों के साथ चलती है और गर्भावस्था के दौरान यही प्रार्थना गर्भस्थ शिशु में भगवद्भक्ति, शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक स्वास्थ्य और उच्च नैतिक मूल्यों के संवर्धन का कार्य करती है । सच्चे हृदय की गयी प्रार्थना भगवान तक तुरंत पहुँचती है । हरि ओम गुंजन के बाद संस्कार साधना के अगले क्रम में हम बढ़ते हैं प्रार्थना की ओर । कैसी है प्रार्थना की महिमा ! एक पपीहा पेड़ पर बैठा था । वहाँ उसे बैठा देखकर एक शिकारी ने धनुष पर बाण चढ़ाया । आकाश से भी एक बाज उस पपीहे को ताक रहा था । इधर शिकारी ताक में था और उधर बाज । पपीहा क्या करता ? कोई ओर चारा न देखकर पपीहे ने प्रभु से प्रार्थना कीः “हे प्रभु ! तू सर्वसमर्थ है । इधर शिकारी है, उधर बाज है । अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! तू ही रक्षा कर….” पपीहा प्रार्थना में तल्लीन हो गया ।वृक्ष के पास बिल में से एक साँप निकला । उसने शिकारी को दंश मारा । शिकारी का निशाना हिल गया । हाथ में से बाण छूटा और आकाश में जो बाज मँडरा रहा था उसे जाकर लगा । शिकारी के बाण से बाज मर गया और साँप के काटने से शिकारी मर गया । पपीहा बच गया । वाह ! परमात्मा कैसा समर्थ है ! वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः…. है । असम्भव भी उसके लिए सम्भव है । सृष्टि में चाहे कितनी भी उथल-पुथल मच जाये लेकिन जब वह अदृश्य सत्ता किसी की रक्षा करना चाहती है तो वातावरण में कैसी भी व्यवस्था करके उसकी रक्षा कर देती है । कितना बल है प्रार्थना में ! कितना बल है उस अदृश्य सत्ता में !

गर्भ संस्कार में प्रार्थना का अद्भुत महत्व है । माता-पिता दोनों को संध्या-वंदन करते समय हरि ओम का गुंजन करने के बाद अपने सद्गुरुदेव और इष्टदेव की हृदयपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । गर्भाधान से पूर्व माता इस प्रकार प्रार्थना करे – “हे प्रभु ! हे परमात्मा ! आप सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक हैं । सम्पूर्ण जगत आपकी ही कृति है । हे सृजनकर्ता ! जिस प्रकार धरती पर अनेक माताओं के गर्भ से दिव्य संतानें अवतरित हुई, उसी प्रकार हे प्रभु ! मेरे गर्भ से आपका ही दिव्य अंश प्रकट हो और उस अलौकिक संतान की माता-पिता कहलाने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो, हमारी यह प्रार्थना आप स्वीकार करें।“

बिना प्रार्थना के किया गया गर्भाधान निम्न स्वभाववाली संतान को आमंत्रित करता है । एक शोध के अनुसार, प्रार्थना करनेवाली महिलाओं में गर्भधारण करने की संभावना, प्रार्थना न करनेवाली महिलाओं की अपेक्षा दुगुनी हो पाई गई थी ! इसी प्रार्थना का आश्रय जब गर्भवती माता लेती है तो गर्भस्थ शिशु की रक्षा का दायित्व भगवान स्वयं पर ले लेते हैं । जैसे – उत्तरा की प्रार्थना और समता से प्रभावित होकर अपनी समता का परीक्षा स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे मृत परीक्षित को जीवित कर दिया था । जिन माताओं को बार-बार गर्भ गिर जाता हो उन्हें उत्तरा की तरह भगवान से प्रार्थना करना चाहिए ।

महाराष्ट्र स्थित मनशक्ति रिसर्च सेंटर में की गई स्टडी के अनुसार गर्भावस्था में माँ द्वारा की गई प्रार्थना उसके साथ गर्भ में मौजूद शिशु की pulse rate को नॉर्मल रखती है । इससे माँ और गर्भ में पल रहे शिशु दोनों का ही स्वास्थ्य बेहतर रहता है । 

सगर्भा की प्रार्थना के फलस्वरूप संतान में असाधारण दैवी सद्गुणों का विकास होता है । आनेवाली संतान वीर, सद्गुणी, विद्वान, यशस्वी, श्रेष्ठ और दीर्घजीवी होती है ।प्रार्थना के फलस्वरूप जन्म लेनेवाली दिव्यात्मा परमात्मा द्वारा भेजा गया सुंदर उपहार है ।

संत विनोबा भावे माँ रुक्मिणी रात को जब दही जमाती तो भगवान की प्रार्थना करके जमातीं थीं । बालक विनोबा ने एक दिन पूछाः “माँ ! दही जमाने में परमेश्वर को बीच में घसीटने की क्या जरूरत है ? उनकी प्रार्थना न करें, उनका नाम न लें तो क्या दही नहीं जमेगा ? माँ ने कहाः “विन्या ! हम अपनी तरफ से भले ही पूरी तैयारी कर लें, पर दही तो ठीक से तभी जमेगा, जब भगवान की कृपा होगी।“ विनोबा जी कहते है- “जेल में मैं सब बातों का ध्यान रखकर दही जमाता था, फिर भी कभी-कभी खट्टा हो जाता था, तब मुझे माँ की यह बात याद आती थी ।“

कितनी ऊँची शिक्षा दी है भारत की इस माता ने अपने बालक को ! बचपन से ही वेदांत के संस्कारों का सिंचन किया कि दही भले जमता हुआ दिखता है परंतु वह जिसकी सत्ता से जमता है, उसका स्मरण कर हमें उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । हे भारत की माताओं ! आप भी गर्भाधान से लेकर गर्भावस्था के दौरान और शैशवकाल से ही अपने बच्चों में प्रार्थना द्वारा ऐसे दिव्य संस्कारों का सिंचन करोगी तो आगे चलकर उनके कर्मों में भक्तिरस आयेगा जो उन्हें निर्वासनिक नारायण के सुख में प्रतिष्ठित कर देगा ।

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संस्कार साधना 1. हरि ॐ गुंजन

हरि ॐ गुंजन

महत्त्व : मातृत्व का सुख बहुत ही सौम्य और मधुर होता है । गर्भावस्था में इस सुख की अनुभूतियाँ के साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व भी जुड़े होते हैं- जैसे गर्भ में आयी नन्हीं संतान में ज्ञान और संस्कारों के सिंचन का उत्तरदायित्व । गर्भावस्था वह स्वर्णिम समय है जिसमें सगर्भा माता अपनी साधना द्वारा अपने और अपने गर्भस्थ शिशु के भावी जीवन का मनचाहा चित्रांकन कर सकती है । जैसे बूँद-बूँद से सरिता और सरोवर बनते हैं, ऐसे ही छोटे-छोटे पुण्य महापुण्य बनते हैं । माता-पिता की पुण्यायी समय पाकर गर्भस्थ शिशु को इतना महान बना सकती है कि वह बन्धन और मुक्ति के पार अपने निजस्वरूप को निहारकर विश्वरूप हो सकता है ।
संस्कार साधना के इस क्रम में सबसे पहले हम चर्चा करेंगे हरि ॐ गुंजन पर । विधि बताने से पहले हम आपको इस हरि ॐ मंत्र की महिमा से अवगत करना चाहेंगे । ‘हरि ॐ’ दो शब्दों से मिलकर बना है ‘हरि+ॐ’ । हरि माना जो हमारे पाप-ताप, दुःख-दोषों को हर ले, हमारे मन की हल्की मान्यताओं को, बुद्धि के अविवेक को और क्षुद्र अहं को हर ले- वो है हरि ।
भगवान वेदव्यासजी कहते हैं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
पद्मपुराण में आया हैः
ये वदन्ति नरा नित्यं हरिरित्यक्षरद्वयम्।
तस्योच्चारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः।।
‘जो मनुष्य परमात्मा के इस दो अक्षरवाले नाम ‘हरि’ का नित्य उच्चारण करते हैं, उसके उच्चारणमात्र से वे मुक्त हो जाते हैं, इसमें शंका नहीं है ।’
ॐकार मूल अक्षर है । इसकी चेतना सारी सृष्टि में व्याप्त है । सब मंत्रों में ॐ राजा है । ॐकार अनहद नाद है । यह सहज में स्फुरित हो जाता है। ॐ आत्मिक बल देता है । ॐ के उच्चारण से जीवनशक्ति उर्ध्वगामी होती है । चित्त से हताशा-निराशा भी दूर होती है । यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने सभी मंत्रों के आगे ॐ जोड़ा है । ॐ (प्रणव) परमात्मा का वाचक है, उसकी स्वाभाविक ध्वनि है ।
ॐ = अ+उ+म+(ँ) अर्ध तन्मात्रा। ॐ का अ कार स्थूल जगत का आधार है । उ कार सूक्ष्म जगत का आधार है । म कार कारण जगत का आधार है । अर्ध तन्मात्रा (ँ) जो इन तीनों जगत से प्रभावित नहीं होता बल्कि तीनों जगत जिससे सत्ता-स्फूर्ति लेते हैं फिर भी जिसमें तिलभर भी फर्क नहीं पड़ता, उस परमात्मा का द्योतक है ।
वेदव्यास जी महाराज कहते हैं कि
मंत्राणां प्रणवः सेतुः। यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है ।
सिख धर्म में भी एको ओंकार सतिनामु…… कहकर उसका लाभ उठाया जाता है।

विधि : हररोज़ प्रतःकाल जल्दी उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृत हो जायें । स्वच्छ पवित्र स्थान में आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख होकर सुखासन में बैठ जायें । शान्त और प्रसन्न वृत्ति धारण करें । मन में दृढ भावना करें कि मैं प्रकृति-निर्मित इस शरीर के सब अभावों को पार करके, सब मलिनताओं-दुर्बलताओं से पिण्ड़ छुड़ाकर आत्मा की महिमा में जागकर ही रहूँगी । आँखें आधी खुली, आधी बंद । अब गहरा श्वास भरें और भावना करें कि श्वास के साथ में सूर्य का दिव्य ओज भीतर भर रही हूँ । फ़िर ‘हरि ॐ…’ का लम्बा उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते जायें । श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास ना लें । भीतर ही भीतर ‘हरि: ॐ…’ ‘हरि: ॐ…’ का मानसिक जप करें । फ़िर से श्वास भरकर पूर्वोक्त रीति से धीरे-धीरे छोड़ते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन करें । गुंजन करते हुए अपना सारा ध्यान उस ध्वनि पर एकाग्र करें ।
दस-पंद्रह मिनट इस प्रकार दीर्घ स्वर से ‘हरि ॐ…’ की ध्वनि करके शान्त हो जायें । सब प्रयास छोड़ दें । वृत्तियों को आकाश की ओर फ़ैलने दें । आकाश के अन्दर पृथ्वी है । पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं । उनमें से एक आपका शरीर आसन पर बैठा हुआ है । इस पूरे दृश्य को आप मानसिक आँख से, भावना से देखते रहो । आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पूरे ब्रह्माण्ड़ के दृष्टा हो, साक्षी हो । इस प्रकार आपका गर्भस्थ शिशु भी इन सबका दृष्टा है ।
ऐसी भावना करें कि मेरे अंदर आरोग्यता व आनंद का अनंत स्त्रोत प्रवाहित हो रहा है… मेरे अंतराल में दिव्यामृत का महासागर लहरा रहा है । समग्र सुख, आरोग्यता, शक्ति मेरे भीतर है । मेरे मन में अनन्त शक्ति और सामर्थ्य है । मैं स्वस्थ हूँ । पूर्ण प्रसन्न हूँ । इसी प्रकार मेरा शिशु भी निरोग और प्रफुल्लित है । मेरे अंदर-बाहर, मेरे शिशु के चारों ओर सर्वत्र परमात्मा का प्रकाश फ़ैला हुआ है ।
सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ आपकी शक्तियां भी बिखरती है । अतः वृत्तियों को बिखरने न दें ।

दोनों संध्याओं की उपासना के समय पति-पत्नी साथ बैठकर इस प्रकार हरि ॐ का उच्चारण अथवा गुंजन करें तो गर्भस्थ शिशु पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है ।

लाभ :
• ह्रीं शब्द बोलने से यकृत पर गहरा प्रभाव पड़ता है और हरि के साथ यदि ॐ मिला कर उच्चारण किया जाए तो हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों पर अच्छी असर पड़ती है ।
• हरि ऊँ का गुंजन करने से मूलाधार केन्द्र रुपांतरित होता है तो काम राम में, भय निर्भयता में और ईर्ष्या प्रेम में परिणत हो जाता है ।
• हरि ऊँ के गुंजन से मूलाधार केन्द्र में स्पंदन होता है एवं कई कीटाणु भाग खड़े होते हैं ।
• गर्भवती में निर्भयता व प्रेममय स्वभाव का निर्माण होना जरुरी है । साथ ही माँ का चित्त एकाग्र होना, हृदय निर्मल व शांत होना भी अति आवश्यक है क्योंकि माँ का हृदय बच्चे के हृदय से जुड़ा है । जैसा माँ का हृदय (आचार, विचार, व्यवहार ) होगा वैसा ही बच्चे का हृदय निर्मित होगा ।
• हरि ऊँ गुंजन से आपको मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी । बच्चे का विकास भी समुचित प्रकार से होगा ।
• ज्ञानमुद्रा सहित हरि ऊँ की ध्वनि करने से मन की भटकान शीघ्र बंद होने लगेगी । ज्ञानमुद्रा से आपके और आपके गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के ज्ञानतंतुओं को पुष्टि मिलेगी । आप स्वयं को सहज अनुभव करेंगे ।
• निःसंतान व्यक्ति को इस मंत्र के बल से संतान प्राप्त हो सकती है ।

सावधानी : गर्भावस्था में अकेले प्रणव का गुंजन नहीं करना चाहिए । प्रणव(ॐ ) के साथ हरि अथवा अन्य कोई मंत्र जोड़कर उच्चारण करें ।

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गर्भस्थ शिशु को सुसंस्कारी बनाने तथा उसके उचित पालन-पोषण की जानकारी देने हेतु पूज्य संत श्री आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा लोकहितार्थ दिव्य शिशु संस्कार अभियान प्रारंभ किया गया है ।